मानव धर्म सूत्र और मनुस्मृति का सम्बन्ध: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यहाँ  यह प्रश्न रह जाता हैं कि क्या मनु के उपदेश आरंभ से ही इन रूप में थे ? इस विषय में भिन्न मानव-धर्म सूत्र भिन्न कल्पनायें की गई हैं। कुछ लोगों का और मनुस्मृति मत है कि पहले एक ग्रन्थ था जिसका नाम का सम्बन्ध था मानव-धर्म-सूत्र। यह सूत्र रूप में था । पीछे से इसको श्लोकों का रूप दिया गया और इस रूप् के देने वाले भृगु ऋषि है। हमने उपर महाभारत शान्तिपर्व के कुछ रूलोक उद्घृत किये हैं जिनमें मनुस्मृति को एक लाख रूलोकों का बताया गया है। इसका उल्लेख करते हुए काणो महोदय (P.V.Kane) लिखते हैं कि शान्तिपर्व अध्याय 59,श्लोक 80-85 में मनु का नाम नहीं है। उसमें धर्म, अर्थ और काम पर ब्रहम्मा द्वारा एक लाख अध्याय का ग्रन्थ बनायं जाने का उल्लेख है जिनको विशालात्य, इन्द्र बाहुदन्तक, बृहस्पति और काव्य ने 10000,5000,3000,और 1000 अध्यायों का कर दिया था। नारदस्मृति की भूमिका में लिखा हैं कि मनु ने एक धर्मशास्त्र बनाया था जिसमें एक लाख श्लोक 1080 अध्याय, तथा 24 प्रकरण थे नारद ने इसको 12000 श्लोकों का करके मारकण्डेय को सिखाया। मारकण्डेय ने इनके 8000 कर दिये। सुमति भार्गव ने फिर काट छाॅट करके इनके 4000 श्लोक कर दिये । इसके पश्चात् नारदस्मृति पहला यह श्लोक देती हैंः-

तत्रायमाद्यः श्लोकः । आसीदिदं तमोभूतं न प्राज्ञायत किंचन। ततः स्वयंभूर्भगवान् प्रादुरासीच् चतुर्मुखः।।

काणे महोदय का विचार है कि यह सव कथन माननीय नहीं हैं। नारदस्मृति आदि पुस्तकों का माना बढाने के लिये यह सब लिख दिये गये हैं। इसमें कुछ आश्चर्य नही हैं। क्योंकि एक लाख श्लोकों की स्मृति का इस प्रकार 4000 श्लोकों तक आना  और फिर उससे भी घटकर 3000 के लगभग हो जाना सन्देह उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकता । हेमाद्रि, तथा संस्कारमयूख आदि गन्थों में भविष्य पुराणा का यह उद्धरण मिलता हैंः-

भार्गवीया नारदीया च बार्हस्पत्याडिग्रस्यपि।

स्वायंभुवस्य शास्त्रस्य चतस्त्रः संहिता मताः।।

अर्थात् मनुस्मृति की चार संहितायें प्रसिद्ध थीं। एक भृगु- संहिता, दूसरी नारद्संहिता, तीसरी बृहस्पतिसंहिता और चौथी आंगिरस-संहिता। पता नहीं कि यह कौनसी संहितायें हैं क्या यही भृगुसंहिता हमारी वर्तमान मनुस्मृति है जैसा कि प्रसिद्ध है? इसके विरूद्ध काणे महोदय ने चार सन्देहोत्पादक बातें कहीं हैंः-

(1) विश्वरूप् ने या याज्ञवल्क्य 2। 73,74,83,85 पर भाष्य करते हुए वर्तमान मनुस्मृति के 8। 68,70,71,105,106,340, श्लोक उद्धृत किये हैं, वे स्वयंभू-कृत बनाये गये है।

(2) परन्तु याज्ञवल्क्य 1। 187,252 के भाष्य में जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत हैं वे  आजलक मनु में पायें नहीं जाते।

(3) अपसर्क ने जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत किये हैं उनका मनुस्मृति में पता तक नहीं ।

(4) इन्हीं अपरार्क ने भृगु के नाम से यह श्लोक दिया है जिसमें मनु का नाम हैंः-

येषु पापेषु दिव्यानि प्रतिशुद्धानि यत्नतः।

करयेत्सज्जनैस्तानि नाभिशस्तं त्यजेन् मनुः।।

ठसमे पाया जाता है कि संभव है, कोई और भृगुसंहिता भी रही हो जिसमें से विश्वरूप् और अपरार्क ने अपने श्लोक लिये हों।

चहे इस मनुस्मृति को भृगुसंहिता कहा जाय या न, मनु स्मृति के प्राचिनत्व तथा गौरव में इससे कुछ भेद नहीं आता। हम माने लेते हैं कि यह भृगुसंहिता है। यद्यपि केवल मनुसंहिता कहना अधिक उपयुक्त हैं।

अब प्रश्न यह है, कि मानव-धर्म-सूत्र क्या चीज थे और कया उन्हीं का श्लोकरूप् वर्तमान मनुस्मृति है ? इसके लिये दो कल्पनाये की गई हैंः-

(1) पहले तो मान लिया गया है कि पहले ग्रन्थ सूत्र रूप् में हुए। फिर श्लोक रूप में।

(2) दूसरे मनुस्मृति जिस अनुष्ट्भ् छनद में है वह नया छन्द है।

हम तो इन दोनों युत्कियों में विशेष सार नहीं देखते । यह मान लेना कि सूत्र-युग से पहले श्लोक नहीं थे अत्यन्त कठिन है। योगेन्द्रचन्द्र घोष ने अपने Principles of Hindu Low Vol. I मे लिखा है:-

The old Dharm Shastras were composed in a form which was capable of being sung and were committed to memory……………………..in the form of Gathas, for we find such gathas mentioned in the Manu Sanhita and quoted in other Dharm Shastras.

अर्थात पुराना धर्मशात्र इस प्रकार बनाया गया था कि गाया जा सके और रटा जा सके।अर्थात् गाथा के रूप  में क्योंकि मनुसंहिता तथा अन्य धर्मशात्रों में इन गाथाओं का उल्लेख है।

हमको यह बात अधिक ठीक जॅंचती है। जिन विचारों को दर्शनकार तथा व्याकरणकारों ने सूत्रों में लिखा वह अवश्य ही सूत्र से पूर्व दूसरे रूप  में रहें होगे। सूत्र-युग वैदिक साहित्य का सबसे प्रथम युग नहीं है और न यह कहा जा सकता है कि सूत्र- युग एक निश्चित युग है जिसमें सिवाय सूत्र के कुछ नही लिखा गया या अन्य युगों में सूत्र नही लिख गये। आय्य जाति जैसी प्राचीन जाति के जीवन में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। साहित्य की अनेक शैलियाॅ मरती और पुनर्जीवित होती रही हैं। आधुनिक यूरोपियन विद्वान् पहले तो कुछ ऐतिहासिक कल्पनायें बना लेते हैं और उन्हीं कल्पनाओं के आधार पर वैदिक ग्रन्थों के पौर्वापय पर विचार करते हैं। इससे अनेक भ्रम उत्पन्न हों जाते है। जिन मानव-धर्मसूत्रों को मनुस्मृति का आधार माना जाता हैं । उनकी प्रति भी तो हमारे समक्ष नहीं है जिनसे मिलान करके हम किसी निश्चय पर पहुॅच सकें । वाशिष्ठ-धर्मसुत्रों में उसके कुछ उद्धरण मिलते हैं जो गद्य-पद्य दोनो में मिले जुले है। मानव-गृहय-सूत्र इस समय भी प्राप्त है। इसका एक हिन्दी अनुवाद पं0 भीमसेन शर्मा ने इटावा से निकाला था। उसमें और मनुस्मृति में तो कोई समानता है नहीं। इसलिये उससे तो कुछ सहायता मिल नहीं सकती।

रही अनुष्टुभ् छन्द की बात । यह भी एक अटकल है।  अनुष्टुभ् छन्द की  उत्पत्ति वाल्मीकि से मानी जाती है। कहा जाता है कि सब से पहले वाल्मीकि ने यह श्लोक बनाया था ।

मा निषाद प्रतिष्ठाः त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत् क्रौन्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

इसलिये उनको आदि कवि कहते है, परन्तु इसके लिये कोई अकाट्य प्रमाण नहीं है। अनुष्टुप् छन्द वेदों में अनेक स्थान पर आया है और यजुर्वेद अध्याय 40 का तीसरा मंत्र तो लौकिक अनुष्ट्भ् से कुछ भी भिन्न नहीं है। मैक्समूलर की कल्पना है कि लौकिक अनूष्टुभ् छन्द में बडे ग्रन्थ लिखने की प्रथा बहुत पीछे से चली। रामायण, महाभारत, मनुस्मृति तथा अन्य कई स्मृतियाॅ इसी छन्द में लिखी गई हैं। परन्तु इससे मनुस्मृति के युग का पता लगाना अटकल ही है। मैक्समूलर की कल्पना भी कल्पना-मात्र है। वह मान लेते है कि रामायण-महाभारत

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।

तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

श्लोके पष्ठं गुरू ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।

द्विचतुः पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।

तथा मनुस्मृति आदि सबएक युग के है कालिदास ने रघुवंश का आरम्भ अनुष्टुभ् से किया है। संभव है, आजकल कोई कवि अनुष्टुप् में कि मनुस्मृति रामायण, महाभारत, या रघुवंश से पीछे की चीज है। सम्भव है कि जो निषाद सम्बन्धी लोकोक्ति वाल्मीकि के विषय में प्रचलित है उसी के आधार पर मैक्समूलर ने यह कल्पना करली हो और अन्य संस्कृतज्ञों ने उसका अनुकरण किया हो।

अब हम ऐतिहासिक भक्तमेलों को विद्वान् अनुसन्धान- कर्ताओं के लिये छोडते हैं। यहाॅ हम केवल अपनी धारणा प्रकट करते है। वह यह है कि:-

(1) मनु ने उपदेश पहले किसी गाथा रूप  में थे।

(2) फिर मानव-धर्म-सूत्रों के रूप में आये।

(3) फिर वर्तमान मनुस्मृति के रूप  में परिवर्तन हो गये ।

(4) यह मनुस्मृति भी बहुत ही प्राचीन है।

(5) पीछे से इस मनुस्मृति में बहुत से क्षेपक बढा दिये गये।

भृगुसंहिता के कर्ता कौन थे : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह भृगुसंहिता भृगु की बनाई हैं।  या अन्य किसी की, इस विषय में भी विद्वानों में विवाद हैं। मनु भृगुसंहिता के कर्ता की स्वयं बनाई तो हो ही नहीं सकती। कौन थें ? इतना तो मनुस्मृति के पहले श्लोक से ही विदित हैं –

मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः।

प्रतिपूज्य यथा न्यायमिदं वचनमबु्रवन्।।

अथार्त् जब मनु महाराज एकान्त में बैठे हुए थे तो महर्षियों ने सत्कार-पूर्वक आकर उनसे उपदेश के लिये प्रार्थना की । यदि मनु स्वयं लिखने वाले होते तो इस प्रकार आरंभ न होता।

इस पर कहा जा सकता है कि अन्य स्मृतियों का भी तो आरंभ इसी प्रकार हुआ है। जैसे,

योगेश्वराज्ञवल्क्यं सपूज्य मुनयोऽब्रवन्।

वर्णाश्रमेतरणां नो बू्रहि धर्मानशेषतः।।

हुताग्निहोत्रमासीनमत्रि वेद विदां वरम्।

सर्वशास्त्रविधिज्ञं तमृषिभिश्च नमस्कृतम्।।

नमस्कृत्य च ते सर्व इदं वचनमब्रु वन्।

हितार्थं सर्वलोकानां भगवन् कथयस्व नः।

विष्णुमेकाग्रमासीनं श्रुतिस्मृतिविशारदम्।

पप्रच्छुर्मुनयः सर्वे कलापग्रामवासिनः।।

इष्ट्ठा क्रतुशतं राजा समाप्त वर दक्षिणम्।

भगवतं गुरूं श्रेष्ठं प्र्यपृच्छद् बृहस्पतिम्।।

हमारा विचार हैं कि याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों के नाम से जो स्मतियाॅ पीछे बनाई गईं वह मनुस्मृति का अनुकरण मात्र थीं। भारतीय साहित्य में एक ऐसा युग आ चुका हैं जब लोग अपनी बनाई हुई चीजों कों पूर्व आचार्यों और ऋषियों के नाम से प्रचलित कर देते थें जिससे सर्वसाधारण में उनका मान हो  सकें। भारतवर्ष में जब बौद्ध, आदि अवैद्कि मतों का प्रचार हुआ और जब वेदों का पुनरूद्धार करने के लिये पौराणिक धर्म ने जोर पकडा तो ऐसी प्रवृति बहुत बढ गई। याज्ञवल्क्य स्मृति के बनाने वाले याज्ञवल्क्य कौन है यह कहना कठिन है। आरंभिक श्लोक से तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि यह वही याज्ञवल्क्य है जिनका उल्लेख शतपथ ब्राहम्णादि ग्रन्थों में पाया जाता है। मनुस्मृति के अनुकरणार्थ ही उसका आरंभ उसी प्रकार के श्लोक से कर दिया गया। यही दशा अन्य स्मृतियों की है जो बडे बडे नामों से सम्बन्धित कर दी गई है। परन्तु मनुस्मृति के विषय में यह माना जा सकता है कि मनुमहाराज के उपदेशों को ही भृगु या अन्य किसी विद्वान् ने छन्दोबद्ध कर दिया हो । प्राचीन काल में उपदेष्टा मौखिक उपदेश दिया करते थे और पीछे से उनके अनुयायी सर्वसाधारण के लाभार्थ उन भावों को छन्दों का रूप दे देते थे। यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) लिखता नहीं था। उसके उपदेश उसके शिष्यों ने लेखबद्ध किये। महात्मा बुद्ध के जो उपदेश धम्मपद में मिलते है वह बुद्ध के शब्द नहीं है। न बुद्ध श्लोक बनाकर उपदेश देते थे । यह तो बौद्ध शिष्यों ने पीछे से बना दिये। यदि यह सत्य है कि भगवद्गीता श्रीकृष्ण के उपदेश है तो उसके विषय में भी यही धारणा ठीक होगी कि व्यास अथवा किसी अन्य महाभारत के लेखक ने उन उपदेशों कों श्लोक-बद्ध कर दिया।

प्रचलित मनुस्मृति का कर्ता : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अब मनु के विषय में इतना कहकर मनुस्मृति पर आना चाहिए । प्रश्न यह है कि जो मनु इतना प्रसिद्ध है क्या प्रचलित मनुस्मृति भी उसी की बनाई है भी उसी की बनाई है यदि नही तो मनु के विषय मे इतना राग अलापने का क्या अर्थ हमारा ऐसा मत है कि वर्तमान मनुस्मृति में मनु के विचार है मनु के शब्द नही । और मानते भी सब ऐसा ही है । जिसको लोग मनुस्मृति कहते उसका नाम है भृगुसंहिता । कहते है कि भृगु और उनके शिष्यो ने इसको श्लोक बद्ध किया मनुस्मृति में भी लिखा है:-

एतद वोअयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः ।

एतद्धि मताअधिजरे सर्वषोअखिन मुनि ।।,

ततस्तथा स तनेक्तो महर्षिमनुना भृगुः।।

तानब्रवीहषीन सर्वान प्रीतात्मा श्रयतामिति

(मनु0 1।59 60)

इन श्लोको के आगे पीछे के जो श्लोक है उनका मिलान से यह निश्चय करना कठिन है कि यह संहिता भृगु की ही बनाई हुई है । परन्तु एक बात निश्चित है अर्थात मनुस्मुति आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको  आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको भृगु सहिता कहते है यह भी कोई नवीन पुस्तक नही है  ।

पातजलि ने अपने महाभाष्य मे एाणिनि के

एक: पूर्वपरया (अष्टाघ्यायी 6।1।84)

सूत्र पर भाष्य करते हुए एक श्लोक दिया है:-

ऊध्र्व प्राणा व्युत्का्रमन्तियून: स्थविर आयति।

प्रत्युत्धनाभिवादाभ्यां पुनस्नान प्रतिपधते ।।

यह श्लोक ज्यों का त्यो मनुस्मृति के दूसरे अघ्याय (2।120) में मिलता है । यघपि महाभाष्य मे मनु का नाम नही है परन्तु प्रतीत तो ऐसा ही होता है कि यह मनुस्मृति का ही उद्धरण है ।

किरातार्जुनीय 1।9 मे मानवो शब्द मनुस्मृति प्रतिपादित धर्म क लिए ही आया । बहलर महोदय ने अपनी पुस्तक Laws of Manu को भूमिका में लिखा है कि

Land grants foud in commencement of the vallabhi inscriptions of Dhruvaena I Guhasena and Dkarasena ii the oldest of them is dated Samvat 207 i.e not later than 526 A.D There it is said in tha description of Dronaasinhs the first Maharaja of Vallabhi and the Im mediate predecessor of Dharuvasena I That Like Dharmaraj (Yudhisthra )

He observed as his law the rules and ordinances taught by manu and othe (sages)

(page cxiv)

अर्थात बल्लमी लेख प्रस्तरों में जो ध्रवसेन प्रथम गहूसेन तथा द्वितीय धारसेन से सम्बन्ध रखते है और जिनमे सब से प्राचीन 207 सम्वत या 526 ई0 के पश्चात का नही है । बल्लभीवंश के प्रथम महाराज दो्रणसिंह के विषय में जो ध्रवसेन प्रथम से पूर्व राजगदी पर बैठा था लिखा है कि वह धर्मराज (युधिष्ठिर) के समान मनु आदि के उपदेशो पर चलता था (मन्वादि प्रणीत विधि विधान कर्मा )

जितनी स्मृतियाॅ आजकल मिलती है उनमे मनुस्मृति सब से प्राचीन है । विश्वरूप ने जो याज्ञवल्क्य मनुस्मृति की प्राचीनता स्मृति पर टीका लिखी है उसमे दो सौ के लगभग उन्ही श्लोको का उद्धत किया है जो इस समय मनुस्मृति में मिलते है । श्री शंकराचार्य ने अपने वेदान्त माष्य में मनु स्मृति च सूत्र की व्याख्या मे वे लिखते है:-

 

मनुव्यासप्रभृतयः शिष्टा

अर्थात मनु व्यास आदि शिष्ट पुरूषों के कथन स्मृति के अन्तर्गत आते है । कुमारिल की तंत्रवातिक तो मनु के आधार पर ही है । कुमारिल ने मनुस्मृति को न केवल सब स्मृतियो से ही किन्तु गोतम सूत्रो से भी अधिक विश्वसनीय और माननीय स्वीकार किया है । कुल्लूकभटट ने मन्वर्थमुक्तावली में मनुस्मृति के पहले अघ्याय के पहले श्लोक की व्याख्या करते हुए बृहस्पति के यह श्लोक दिये है:-

वेदार्थो पनिबद्धत्वात प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम ।

मन्वर्थ विपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते ।।

तावच्छास्त्राणि शाभन्ते तर्कव्याकरणानि च ।

धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा मनुर्यावत्र दृश्यते ।।

अर्थात मनुस्मृति का प्राघान्य इसलिये है कि वह वेदोक्त धर्म का प्रतिपादन करती है। जो स्मृति मनु के विपरीत है वह माननीय नही हो सकती । तर्क व्याकरणा आदि शास्त्रो की शोभा तभी तक है जब तक धर्म अर्थ और मोक्ष मे उपदेष्टा मनु पर दृष्टि नही जाती

अपरार्क ने याज्ञवल्क्य स्मृति के श्लोक 2।21 की व्याख्या करते हुए भी पहले श्लोक का उद्धरण किया है । अश्वघोष की वका्रसृची में मानवधर्म से कई श्लोक लिए गये है जो वर्तमान मनुस्मृति के ही है । कुछ ऐसे भी है जो इसमे नही मिलते ।

बाल्मीकीय रामायण किष्किन्धा काण्ड 18।30 32 में मनुस्मृति के दो निम्न श्लोको का उल्लेख है जो आठवे अध्याय मे है:-

राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः ।

निमलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकतिनो यथा ।।,

सासनाद्वा विमोचक्षाद वा स्तेनः स्नेयादविमुच्यते

अशासित्वा तु त राजा स्तेतस्याप्रोति किल्विषम।

पी0 वी0 काने ने अपनी पुस्तक History of Dharma-shastra  मे लिखा है कि मनुस्मृति का भारतवर्ष के बाहर प्रभाव भारत के बाहर भी पाया जाता है।

वे लिखते है:-

the infuence of the Manusmriti spread evan beyond the confines of india. In a Bergaigun Inscriptions Sanscrites de campaet du Cambodge (p.423) we have an inscriptions in which occur verses one of which is identical with Manu (11 136) and the other is a summary of manu (111. 77-80) The Bur

Mese are gouerned in modern times by the dhamma that; withch are based on Manu. Vide Dr. Ferchhammee’s Essay on Sources and Development of Burmese Law (1884.-goon). Dr. E. C. G. jonker (Leyden 1885) wrote a dissertation on an old Javanese law- book compared with Indian sources of low like the Manusmriti (which is still used as a lawbook in the island of Bali).

अर्थात् ब्रहम्देश और बाली द्वीप के धर्मशास्त्र मनुस्मृति से बहुत कुछ साहस्य रखते हैं। एक प्रस्तर लेख में दी श्लोक दिये हैं जिसमें से एक तो ज्या कात्यों मनुस्मृति का हैं, दूसरा मनु के  एक श्लोक का सार मात्र हैं। वे श्लोक ये हैः-

आचार्यवद् गृहस्थोपि माननीयो बहुश्रुतः ।

अभ्यागतगुणानां च पराविद्येति मानवम्ं ।।

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पंचमी।

एतानि मान्य स्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्।।

ब्रहम्देश तथा भारत के निकटस्थ टापुओं में भारत की सभ्यता प्रचलित थी अतः इनकी पुस्तकों में मनुस्मृति का साहश्य मिलना आश्यर्चयजनक नहीं हैं। परन्तु इतना अवश्य सिद्ध होता हैं कि मनुस्मृति उस समय भी थी जब इन टापुओं का भारतवर्ष से घनिष्ट सम्बन्ध था

 

हदीस : सत्कर्म और दुष्कर्म

सत्कर्म और दुष्कर्म

सत्कर्म क्या है ? और दुष्कर्म क्या ? विभिन्न धर्मपंथों, विभिन्न दर्शनधाराओं तथा विभिन्न गुरूओं ने इन प्रश्नों पर मनन किया है। इस्लाम ने भी इनके विशिष्ट उत्तर प्रस्तुत किये हैं। वह बतलाता है कि सत्कर्मों को स्वतन्त्र रूप में नहीं देखना चाहिए, उनके साथ सही मजहब का चुनाव भी जरूरी है। सही मुस्लिम के अनुवादक अब्दुल हमीद सिद्दीकी इस्लामी दृष्टि को यूं रखते हैं-”अज्ञान की दशा में (इस्लाम के दायरे से बाहर रहने पर) किये गये अच्छे काम इस तथ्य के सूचक हैं कि व्यक्ति सदाचार की ओर उन्मुख है। किन्तु सच्चे अर्थों में सदाचारी तथा धर्मात्मा होने के लिए अल्लाह की इच्छा की सही-सही समझ अतयावश्यक है। ऐसी समझ इस्लाम में मूर्त है और सिर्फ पैगम्बर के माध्यम से ही विश्वस्त रूप में जानी जा सकती है। इस तरह, इस्लाम पर ईमान लाये बिना हम अपने स्वामी और प्रभु की सेवा इसकी इच्छानुसार नहीं कर सकते……….. सत्कर्म अपने-आप में अच्छे हो सकते हैं, पर इस्लाम कबूत करने पर ही ये सत्कर्म अल्लाताला की नजर में महत्वपूर्ण और सार्थक हो पाते हैं।“ (टी0 218)।

 

मुहम्मद की नजर में, गलत मजहब अनैतिक कर्मों से भी अधिक बदतर है। जब उनसे पूछा गया-”अल्लाह की नजर में कौन सा पाप विकटतम है ?“ तो उन्होंने उत्तर दिया-”यह कि तुम अल्लाह की जात में किसी और को शरीक करो।“ अपने बच्चे का कत्ल और पड़ौसी की बीबी से व्यभिचार मुहम्मद के अनुसार दूसरे और तीसरे नंबर के पाप हैं (156)।

 

दरअसल सिर्फ गलत मजहब ही किसी मुसलमान को जन्नत के बाहर रख सकता है। अन्यथा कोई भी अनैतिक दुष्कृत्य जन्नत में उनके प्रवेश में बाधक नहीं बनता-व्यभिचार और चोरी तक नहीं। मुहम्मद हमें बतलाते हैं-”जिब्रैल मेरे पास आये और संवाद किया कि वस्तुतः तुम्हारी उम्मा (संप्रदाय, कौम, समुदाय) में जो लोग अल्लाह को किसी और के साथ जोड़े बिना जिन्दगी पूरी कर गये, वे जन्नत में दाखिल होंगे।“ इस स्पष्ट करने के लिए इस हदीस का वर्णन करने वाला अबू जर्र मुहम्मद से पूछता है कि क्या यह उस शख्स के वास्ते भी सच है जिसने व्यभिचार व चोरी की हो। मुहम्मद उत्तर देते हैं-”हाँ, उसके वास्ते भी, जिसने व्यभिचार व चोरी की हो“ (171)। अनुवादक इस मुद्दे को आगे स्पष्ट करते हैं-”व्यभिचार और चोरी, दोनों इस्लाम में संगीन जुर्म करार दिए गए हैं, किन्तु ये जुर्म मुजरिम को अनन्त नरक की सजा नहीं देते।“ किन्तु बहुदेववाद अथवा किसी और देवता को ”अल्लाह के साथ जोड़ने की कोशिश एक अक्षम्य अपराध है, और अपराधकत्र्ता को अनन्त नरकवास करना पड़ेगा“ (टी0 168 एवं 170)।

 

जिस परिमाण में बहुदेववाद विकटतम अपराध है, उसी में ममेश्वरवाद सर्वोत्तम सत्कर्म है। जब मुहम्मद से ”सर्वोत्तम कर्मों“ के बारे में सवाल होता है तो वे जवाब देते हैं-”अल्लाह पर विश्वास ही सर्वोत्तम कर्म है।“ उनसे पूछा जाता है-”उसके बाद बाद ?“ वे बतलाते हैं-”जिहाद (148)। मुस्लिम पंथमीमांसा में निश्चय ही ”अल्लाह पर विश्वास“ का मतलब है ”अल्लाह और उसके रसूल पर विश्वास“ जब एक बार कोई अल्लाह और उसके रसूल पर विश्वास कर लेता है, तब उसके अतीत के सब अपराध धुल जाते हैं और भविष्य का भय नहीं रह जाता है। यह आश्वासन मुहम्मद ने उन बहुदेववादियों को दिया ”जिन्होंने बड़ी संख्या में हत्याएँ की थीं और जो व्यापक व्यभिचार में लिप्त रहे थे“ किन्तु जो मुहम्मद के साथ आने को तैयार थे। एक अन्य व्यक्ति से भी अपने अतीत के पापों के प्रति अपराध-भावना का अनुभव कर रहा था, मुहम्मद ने कहा-”क्या तुम्हें यह असलियत मालूम नहीं है कि इस्लाम पहले के सब बुरे कर्मों को धो-पोंछ डालता है ?“ (220)।

लेखक : रामस्वरूप

आचार्य धर्मवीर कृतज्ञता-समेलन

आचार्य धर्मवीर कृतज्ञता-समेलन

-प्रभाकर

ऋषि मेलाआर्यों का महाकुमभ, विद्वानों का समेलन, ऊर्जा का भण्डार, सैद्धान्तिक चर्चा का मंच- और भी अनेक नामों से आर्यजनों के हृदय में जो आशा का केन्द्र बना हुआ है, इस ऋषि मेले को इन उपाधियों से विभूषित कराने वाले महामनीषी को इसी मंच से एक दिन श्रद्धाञ्जलि देनी होगी, ये कल्पना से परे था।

ये इतिहास का नियम है या शायद समाज की सहज प्रवृत्ति कि अमूल्य वस्तु अप्राप्त होने पर ही बहुमूल्य बनती है। व्यक्ति की महानता, उसकी उपयोगिता उसके न होने पर ही अनुभव में आती है। एक ऐसे ही महामानव, संन्यासी, दार्शनिक, ऋषितुल्य व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये आयोजित कृतज्ञता सममेलन का चित्रण ही इस लेख का विषय है।

आचार्य धर्मवीर जी को मैं केवल एक विद्वान् कहूं तो ये ना मुझे स्वीकार्य है और ना ही पाठकों को। वे शास्त्रों के जादूगर थे। वेद की ऋचाओं का व्याखयान करते समय वेद-मन्त्रों के राजमार्ग पर चलते-चलते शास्त्र, उपनिषद्, व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आयुर्वेद, कालिदास, पंचतन्त्र, गीता, मनुस्मृति और हास्य-व्यंग्य के गलियारों से होते हुये कब पुनः उसी राजमार्ग पर ले आते-पता ही नहीं चलता। उठने से लेकर सोने तक, हँसने से लेकर रोने तक उनकी पूरी दिनचर्या ही वेद-शास्त्रों से ओत-प्र्रोत थी। वेद की ऋचायें और दर्शन-व्याकरण के सूत्र ही उनके खिलौने थे। उन्हीं से खेलना, उन्हीं से मनोरंजन करना उनका स्वभाव था।

सिद्धान्त उनके मस्तिष्क में कितने स्पष्ट थे, इसके लिये एक ताजा संस्मरण उपयोगी होगा। इसी वर्ष के ऋषि मेले का आमन्त्रण देने के लिये मैं भी आचार्य जी के साथ था। एक घर पर गये तो गृहस्वामी ने मीमांसा दर्शन की शंका उपस्थित कर दी। शंका ये थी कि ‘‘मीमांसा दर्शन में पशुबलि की चर्चा है, तो क्या हमारे शास्त्र बलि प्रथा का विधान करते हैं?’’ आचार्य धर्मवीर जी ने सहजता से कहा कि ‘‘मैंने दर्शनों को गुरमुख से नहीं पढ़ा और ना ही मैं कोई बड़ा विद्वान् हूँ।’’ बार-बार पूछने पर बड़ी सहज भाषा में सटीक उत्तर देते हुए बोले कि ‘‘मीमांसा दर्शन कर्म-काण्ड का नहीं, बल्कि वाक्य-शास्त्र है और व्याक्यार्थों को समझने के लिये जो कार्य कर्मकाण्ड में प्रचलित थे, वे उदाहरण के रूप में दिये गये। इसलिये मीमांसा में बलिप्रथा का विधान नहीं है।’’ ये घटना उनकी विद्वत्ता और सरलता दोनों का उदाहरण है।

ऐसे अतुलनीय शास्त्रवारिधि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने देश के कोने-कोने से विद्वान् व आर्यजन एकत्रित हुये। इस सममेलन का आयोजन ऋषि मेले के दूसरे दिन अर्थात् 5 नवमबर की शाम को रखा गया। मंच और पंडाल दोनों ही भरे हुये थे। सत्र का संयोजन डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार जी कर रहे थे। वक्ता हो या श्रोता सब के हृदय वेदना से भरे हुए थे। जो मञ्च कभी आचार्य धर्मवीर जी से सुशोभित होता था, जिस मञ्च की समपन्नता ही आचार्य प्रवर पर निर्भर थी, आज ये मञ्च उस आचार्य को श्रद्धाञ्जलि देने के लिये मजबूर था। ईश्वर की व्यवस्था और प्रकृति के नियम के सामने मनुष्य का सामर्थ्य कितना छोटा है-ये आज सभी अनुभव कर रहे थे।

सममेलन के प्रारमभ में कुछ पुरस्कार व समान विद्वानों और कार्यकर्त्ताओं को दिये गये। उसके बाद परोपकारिणी सभा के संरक्षक व आचार्य धर्मवीर जी के पितातुल्य श्री गजानन्द आर्य जी की लिखित संवेदना उनके पुत्र श्री महेन्द्र आर्य जी ने पढ़कर सुनाई। अस्वस्थता के कारण वे स्वयं तो उपस्थित नहीं हो पाये, किन्तु उनके हृदय का कष्ट उनके पत्र से झलक रहा था। इसके बाद सभा के समाननीय कोषाध्यक्ष श्री सुभाष नवाल जी ने अपने हृदय के भाव प्रकट किये। श्री सुभाष नवाल जी की पीड़ा को समझने के लिये आचार्य धर्मवीर जी के लिये किया गया उनका समबोधन ही पर्याप्त होगा-

‘‘आचार्य धर्मवीर जी! परोपकारिणी सभा के प्राण! मेरे मानस पिता! मेरे दयानन्द! किन शबदों में उनका उल्लेख करुँ, कुछ समझ नहीं आता।’’ ये मात्र शबद नहीं हैं किसी असहनीय आघात के पश्चात् अनायास ही निकली एक चीख है, जो सहज ही धर्मवीर जी की दिव्यता को प्रकट करती है। और ये वेदना हर उस कार्यकर्त्ता के मन में है, जिसने उस आचार्य के पितृतुल्य निर्देशन में पुत्र की भांति कार्य किया है।

‘उनका जाना अपूरणीय क्षति है’- यह वाक्य किन्हीं स्थानों पर भावुकतापूर्ण या औपचारिक हो सकता है, पर आचार्य धर्मवीर जी के लिये शत-प्रतिशत सत्य है। विद्वान् की पूर्ति विद्वान से, वक्ता की वक्ता से, लेखक की लेखक से, और प्रचारक की पूर्ति प्रचारक से हो सकती है, अधिकारी का स्थान भी अधिकारी से भरा जा सकता है, पर एक पिता का स्थान………? परोपकारिणी सभा और ऋषि उद्यान आज जिन ऊँचाइयों पर है, उसके पीछे विद्वान् के साथ-साथ धर्मवीर जी की पिता के रूप में बहुत बड़ी भूमिका है। इसके लिये सुभाष जी द्वारा कही गई एक और पंक्ति मैं यहाँ लिखना चाहूँगा-‘‘उनका असमय चले जाना ऐसा लगता है, जैसे कोई उंगली पकड़कर चलना सिखाये और रास्ते में छोड़कर चला जाये।’’

उसके बाद सभा के संयुक्त मन्त्री व आचार्य जी के साथ परिवार की तरह जुड़े रहे डॉ. दिनेशचन्द्र जी ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। यूं तो जो भी उनसे मिला, उनके परिवार का हिस्सा बन गया, पर डॉ. दिनेशचन्द्र जी से उनका समबन्ध अतिघनिष्ट था। शास्त्र की भाषा में कहा जाये तो ‘‘वसुधैव कुटुबकम्’’ की सार्थकता आचार्य धर्मवीर जी में स्पष्ट देखने को मिली। श्रीमती ज्योत्स्ना जी से जो भी मिलने आया, उसके मुख से ये भाव स्वतः ही व्यक्त हो जाता था कि आचार्य धर्मवीर जी आपसे अधिक हमारे परिवार के सदस्य थे। जिसने भी उनको निकट से देखा है, वो जानते हैं कि आचार्य जी ने अपने परिवार पर कम और आर्यसमाज व ऋषि के कार्य पर अधिक ध्यान दिया, या यूं कहूँ कि पूरा जीवन ऋषि दयानन्द के लिये ही जिया।

आई.आई.आई.टी. हैदराबाद के प्रोफेसर श्री शत्रुञ्जय रावत जी ने अपना संस्मरण सुनाया। ‘‘जिन दिनों आचार्य जी की आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर थी, उन दिनों मेरे पिता जी ने उन्हें संस्कार के बहाने बुलाकर आर्थिक सहायता करनी चाही। संस्कार के बाद पिता जी ने जो दक्षिणा दी, उसका पता मुझे तब चला जब मेरे पास परोपकारी पत्रिका आने लगी। उन्होंने अपनी दक्षिणा से मुझे परोपकारी का आजीवन सदस्य बना दिया। मेरे पिता जी द्वारा दी गई दक्षिणा मुझे आशीर्वाद के रूप में आज तक मिल रही है।’’

परोपकारिणी सभा के इतिहास में ऋषि दयानन्द को पहली बार ऐसा प्रतिनिधि मिला, जिसने दयानन्द के अधिकार को अक्षुण्ण रखा। सभा को अपना घर माना, सभा के कार्य को अपना कार्य मानकर किया, साा पर हुये आक्षेप को अपनी गरिमा का प्रश्न बना लिया। सभा के लाभ में प्रसन्नता, हानि में दुःख, मानो परोपकारिणी सभा और आचार्य धर्मवीर जी एक-दूसरे का पर्यायवाची थे। सभा का नाम सुनते ही आचार्य धर्मवीर जी की छवि मन में सहज ही उभर आती थी।

हैदराबाद से प्रो. बाबुराव हेत्रे जी भी अपने कुछ संस्मरण सुनाने को उद्यत हुये, परन्तु रुंधा हुआ गला और आंखों से अनवरत बहती अश्रुधारा ने ही वो सब कह दिया जो वाणी से कहा जाना असभव था। हेत्रे जी अपनी बात अधूरी ही छोड़कर भीगी आंखों से वापस बैठ गये। उसके पश्चात् परोपकारिणी सभा के मन्त्री श्री ओममुनि जी के सुपुत्र श्री श्रुतिशील जी ने उपस्थित आर्यजनों से ये अपील की कि आचार्य धर्मवीर जी ने जो प्रकल्प प्रारमभ किये, उनके सुचारु संचालन में लगभग 12 लाख रु. का मासिक व्यय होता है, एतदर्थ परोपकारिणी सभा द्वारा बनाई जा रही ‘‘आचार्य धर्मवीर स्थिर निधि’’ में अपना अधिकाधिक योगदान दें।

आचार्या सूर्या देवी चतुर्वेदा, श्री उग्रसेन राठौर, डॉ. रघुवीर जी वेदालंकार, डॉ. रामचन्द्र जी, डॉ. नयन कुमार आर्य आदि ने भी अपने आचार्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी ने रोषपूर्ण शबदों में कहा कि ‘‘आचार्य धर्मवीर जी जैसा दार्शनिक हमने इतनी आसानी से कैसे खो दिया? हमें अपने विद्वानों की सुरक्षा करनी चाहिये।’’ आचार्य जी के अनन्य सहयोगी एवं इतिहास के मर्मज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य जी के पितृकुल व मातृकुल की राष्ट्रबलिदानी परपरा पर प्रकाश डाला। स्वामी सपूर्णानन्द जी की पीड़ा थी कि एक-एक करके हमारे बीच से आर्य विद्वान् जा रहे हैं, पर हम इसे गभीरता से नहीं समझ पा रहे। आने वाले समय में हम डॉ. धर्मवीर जी से अधिक ना सही पर उनके बराबर विद्वत्ता वाला कोई व्यक्तित्व पैदा कर सकें तो ये हमारी सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी। परोपकारिणी सभा के कार्यकारी प्रधान और गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने आचार्य जी से अपने विद्यालयीय मैत्री समबन्धों की चर्चा करते हुये उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला।

सममेलन के अन्त में आचार्य धर्मवीर जी के जीवन पर एक छोटा-सा वृत्तचित्र (डॉक्यूमेन्ट्री) दिखाया गया। उसमें आचार्य जी द्वारा परोपकारिणी सभा के लिये किये गये कार्यों को क्रमवार तरीके से प्रस्तुत किया गया। जिस समय आचार्य जी परोपकारिणी सभा के समपर्क में आये, तब सभा की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। कार्यालय के औपचारिक कार्यों का वहन भी जैसे-तैसे होता था। फिर आचार्य जी ऋषि उद्यान में आने लगे। ऋषि उद्यान में उस समय भवन के नाम पर सरस्वती भवन और कुछ कोठरियाँ थीं। ऋषि मेले का आयोजन केवल एक औपचारिक कार्य था। पर आज इस आयोजन में तीन हजार के लगभग पंजीकरण होते हैं। आचार्य जी आकर आश्रम की झाड़ियाँ साफ करते। आश्रम में साधुओं के रहने की व्यवस्था की। आर्यसमाज के प्रचारकों और विद्वानों के रहने व खाने-पीने की व्यवस्था भी की। धीरे-धीरे ऋषि उद्यान का परिचय बढ़ने लगा।

प्रातःकाल नित्य उपनिषद् के प्रवचन व यज्ञ का प्रारभ किया। पौरोहित्य व प्रचार आदि के लिये जहाँ भी जाते, वहाँ सभा की ही बात करते। परोपकारी पत्रिका के सदस्य उन दिनों उंगलियों पर गिने जा सकते थे। फिर आचार्य जी के सपादकत्व में परोपकारी ने जिन ऊँचाइयों को छुआ, वह सर्वविदित है। आश्रम का वर्तमान स्वरूप उस आचार्य के अथक परिश्रम का प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऋषि उद्यान का एक-एक पौधा उस माली ने अपने पसीने से सींचा है। परोपकारिणी सभा द्वारा संचालित गुरुकुल की स्थापना उसी कर्मयोगी के बृहत् चिन्तन का ही परिणाम है।

उस महान् दूरदर्शी, महान् मानवशिल्पी ने केवल पांच-सात लोगों से शिविरों का आरा किया। प्रशिक्षक का कार्यभार वे अकेले ही समभालते थे। आज वही शिविर वर्ष में दो बार आयोजित होता है, और प्रतिभागियों की संया लगभग 250 होती है। ये समृद्धि, ये भव्यता, ये विशालता यूँ ही नहीं आई। इस निर्माण के लिये आर्यसमाज को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है, एक पूरा जीवन इस महायज्ञ में आहूत हुआ है।

लिखने को तो इतना लिखा जा सकता है कि लिखते-लिखते स्याही और कागज दोनों ही कम पड़ जायें, पर इस विशाल व्यक्तित्व के पीछे भी एक नींव छिपी है। इस नींव को भुलाकर ये विवरण अधूरा ही रहेगा।

उस नींव का नाम है- श्रीमती ज्योत्स्ना। सपादक शिरोमणि श्री भारतेन्द्रनाथ जी की ज्येष्ठ पुत्री। बचपन से ही जो वैदिक साहित्य की पुस्तकों में पली-बढ़ी हों। ‘‘वेद मन्दिर’’ ही जिनका घर था। वेद की पुस्तकें ही उनके लिये खिलौने थीं और उन्हें बंडल बनाकर डाकघर तक पहुँचाना ही उनका खेल। छोटी-सी आयु में ही उन्होंने पुस्तकों का संशोधन करना प्रारमभ कर दिया। समपादन की कला उन्हें विरासत में मिली, विद्वानों की संगति और उच्च बौद्धिक सामर्थ्य उनके लिये सहज प्राप्य था। वह स्वाभाविक विदुषी आचार्य धर्मवीर जी की जीवन संगिनी के रूप में जीवन भर उनकी सारथीवत् रहीं। घर की आन्तरिक व्यवस्था से लेकर बेटियों की उच्च शिक्षा-व्यवस्था तक, और यहाँ तक कि आर्थिक तंगी के दिनों में अपनी शैक्षणिक योग्यता का परिचय देते हुये घर को आर्थिक दृष्टि से भी सभाला। आचार्य जी इतना बृहत् कार्य कर पाये, उसका सबसे बड़ा कारण था- श्रीमती ज्योत्स्ना जी का हर दृष्टि से सक्षम होना। आज भी आचार्य जी के प्रचार कार्यक्रमों की व्यवस्था व उनके रेल आरक्षण जैसे कार्य भी श्रीमती ज्योत्स्ना जी ही करती थीं।  उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें परोपकारिणी सभा का सदस्य चुना गया।

सभा की प्रथम महिला सदस्यपरोपकारिणी सभा के इतिहास में पहली बार किसी महिला को सदस्य के रूप में चुना गया। इसका कारण उनका धर्मवीर जी की धर्मपत्नी होना नहीं है, अपितु उनकी बौद्धिक, सैद्धान्तिक व प्राशासनिक योग्यता है। ऋषि दयानन्द ने बौद्धिक दृष्टि से स्त्री व पुरुष को समान ही माना है। बराबर अधिकार दिलाने की वकालत भी प्रथमतः ऋषि दयानन्द ने ही की। श्रीमती ज्योत्स्ना जी ने अपनी योग्यता के बल पर ऋषि के कार्य में अपना योगदान दिया है। सभा और उसके कार्यों व उद्देश्यों से ज्योत्स्ना जी का आत्मिक जुड़ाव लबे समय से रहा है। आचार्य धर्मवीर जी के बाद सभा एक पिता की जो कमी अनुभव कर ही थी, वो कमी बहुत कुछ अंशों में श्रीमती ज्योत्स्ना जी ने एक माता के रूप में पूरी की है।

ये छिपी हुई नींव आचार्य श्री का सबसे बड़ा बल था। इस कृतज्ञता सममेलन के विवरण का समापन करते हुए ये अनुभव कर रहा हूँ कि हम सब आर्य-जन, ये आर्य समाज, ये राष्ट्र आचार्य प्रवर का कृतज्ञ तो है ही, साथ ही इस व्यक्तित्व को निखारने में श्रीमती ज्योत्स्ना जी का भी कृतज्ञ है, ऋणी है।

HADEES : Purification (TahArah)

Purification (TahArah)

The next book is the �Book of Purification.� It deals with such matters as ablution, defecation, and abstersion.  It relates not to inner purity but to certain acts of cleanliness, physical and ritualistic, that must be performed before reciting the statutory daily prayers.  The main topics discussed in Muslim fiqh (canon law) under this heading are: (1) wuzU, minor ablution of the limbs of the body, prescribed before each of the five daily prayers and omitted only if the worshipper is sure that he has not been polluted in any way since the last ablution; (2) ghusl, the major, total ablution of the whole body after the following acts which make a person junub, or impure: coitus (jimA), nocturnal pollution (ihtilAm), menses (hayz), and childbirth (nifAs); (3) tayammum, the minor purification with dust in the place of water; (4) fitra, literally �nature,� but interpreted as customs of the previous prophets, including acts like the use of the toothpick (miswAk), cleansing the nose and mouth with water (istinshAq), and abstersion (istinjA) with water or dry earth or a piece of stone after evacuation and urination; (5) tathIr, the purification of objects which have become ritualistically unclean.

Some broad injunctions on the subject of purification are given in the QurAn (e.g., verses 4:43 and 5:6), but they acquire fullness from the practice of the Prophet.

author:  ram swaroop

हदीस : केवल अल्लाह काफी नहीं

केवल अल्लाह को मान लेना ही काफी नहीं। साथ ही मुहम्मद को अल्लाह का रसूल मानना भी जरूरी है। रबिया कबीले का एक प्रतिनिधि-मण्डल मुहम्मद के पास आता है। मुहम्मद उस मण्डल से कहते हैं-”मैं आदेश देता हूँ कि तुम लोग केवल अल्लाह पर आस्था जमाओ।“ फिर मुहम्मद उन लोगों से पूछते हैं-”क्या तुम जानते हो कि अल्लाह पर आस्था रखने का सही अर्थ क्या है ?“ और मुहम्मद अपने-आप ही प्रश्न का उत्तर देते हैं-”इसका अर्थ है इस सत्य की गवाही देना कि अल्लाह के सिवाय कोई अन्य आराध्य नहीं और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।“ नमाज, जकात, रमजान इत्यादि के साथ वे यह भी बतलाते हैं कि ”तुम लोग लूट के माल का पंचमांश अदा करो“ (23)। लूट के माल के विषय में हम यथा प्रसंग और भी बहुत कुछ मुहम्मद के मुख से सुनेंगे।

 

  1. सही की सारी हदीसों का संख्याक्रम है। अनुवादक की टिप्पणियों का भी। उदाहरण देते समय कोष्टक में उनका उल्लेख है।

 

इसी प्रकार की बातें, मुआज को यमन का शासक बनाकर भेजते हुए, मुहम्मद कहते हैं-”अव्वल उन्हें गवाही देने के लिए कहो कि अल्लाह के सिवाय कोई अन्य आराध्य नहीं है और मैं (मुहम्मद) अल्लाह का रसूल हूँ। यदि वे इसे मंजूर कर लेते हैं तो उनसे कहो कि अल्लाह ने उनके लिए ज़कात की अदायगी का एक जरूरी फर्ज़ तय किया है“ (27)।

 

मुहम्मद के मिशन का एक और भी स्पष्टतर विवरण इन पंक्तियों में मिलता है-”मुझे लोगों के खिलाफ तब तक लड़ते रहने का आदेश मिला है, जब तक वे यह गवाही न दें कि अल्लाह के सिवाय कोई अन्य आराध्य नहीं है और मुहम्मद अल्लाह का रसूल है और जब तक वे नमाज न अपनाएं तथा जकात न अदा करें यदि वे यह सब करते हैं, तो उनके जान और माल की हिफाजल की मेरी ओर से गारंटी है“ (33)।

 

मुहम्मद ”अल्लाह“ शब्द का प्रयोग प्रचुरता से करते हैं। पर कई बार अल्लाह भी पीछे पड़ जाता है। अपने ऊपर आस्था रखने वालों से मुहम्मद कहते हैं-”तुममे से कोई तब तक मुसलमान नहीं है, जब तक कि मैं उसे अपने बच्चे, अपने पिता और सारी मानव-जाति से अधिक प्यारा नहीं हूँ“ (71)।

 

अल्लाह और उनके रसूल-सच कहें तो मुहम्मद और उनके -नमाज, जकात, रमजान और हज, इन पांचों को कई बार इस्लाम के पांच स्तम्भ कहा जाता है। किन्तु हदीस में ऐसी कुछ अन्य आस्थाओं और अनुशासनों का जिक्र भी जगह-जगह मिलता है, जो इन पांचों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं। इनमें से कुछ खास-खास ये हैं-जन्नत, जहन्नुम, कयामत का दिन, जिहाद (बहुदेववादियों के खिलाफ लड़ी जाने के कारण पवित्र मानी जाने वाली जंग), जजिया (बहुदेववादियों से वसूला जाने वाला व्यक्ति-कर), गनीमा (युद्ध में लूटा गया माल) और खम्स (पवित्र पंचमांश)। मुहम्मद-प्रणीत मज़हब के ये मुख्य अंग हैं। अल्लाह जब जहन्नुम में मिलने वाली सजाओं की धमकियां देता है और जन्नत में मिलने वाली नेमतों के वायदे करता है, तब वह साकार हो उठता है। इसी तरह, इस्लाम के इतिहास में, जिहाद और युद्ध में लूटे गये माल ने हज और जकात से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रस्तुत अध्ययन में इन समस्त अवधारणाओं की यथाक्रम यथास्थान समीक्षा होगी।

लेखक : रामस्वरूप

’ विषय में शिवलिंग वस्तुतः यज्ञ वेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है। स्वयं ऋग्वेद में तेईस देवियों के नाम मिलते हैं। अतः शिव और देवी को अवैदिक कहना झूँठ और बेईमानी है। जिज्ञासा यह है कि शिव, शिवलिंग और देवी शबद के यहाँ कहने का क्या तात्पर्य है एवं ऋग्वेद में देवी शबद का प्रयोग किस तात्पर्य या प्रयोजन को सिद्ध करता है। यह पौराणिक मान्यताओं के देवी शबद का प्रयोजन तो नहीं है। कष्ट के लिये क्षमा।

जिज्ञासा –

  1. इसी माह की पत्रिका के पेज 22 पर ‘‘आर्य अनार्य की बात’’ विषय में शिवलिंग वस्तुतः यज्ञ वेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है। स्वयं ऋग्वेद में तेईस देवियों के नाम मिलते हैं। अतः शिव और देवी को अवैदिक कहना झूँठ और बेईमानी है।

जिज्ञासा यह है कि शिव, शिवलिंग और देवी शबद के यहाँ कहने का क्या तात्पर्य है एवं ऋग्वेद में देवी शबद का प्रयोग किस तात्पर्य या प्रयोजन को सिद्ध करता है। यह पौराणिक मान्यताओं के देवी शबद का प्रयोजन तो नहीं है। कष्ट के लिये क्षमा।

– मुकुट बिहारी आर्य, 13/772 मालवीय नगर, जयपुर (राज.)

समाधान-

(ख) शिव और देवी के अर्थ महर्षि दयानन्द ने किये हैं। शिव का अर्थ जगत्पिता परमात्मा परक करते हुए लिखते हैं- ‘‘शिवु कल्याणे- इस धातु से शिव शबद सिद्ध होता है।……..जो कल्याणस्वरूप और कल्याण का करने हारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम शिव है।’’

-स.प्र.1।

देवी का अर्थ भी ईश्वर परक करते हुए लिखते हैं-‘दिवु’ अर्थात् जिसके क्रीड़ा आदि अर्थ हैं, उससे देवी शबद सिद्ध होता है…….सबका प्रकाशक, सबको आनन्द देने वाला।

– पञ्चमहायज्ञविधि

शिव और देवी इन दोनों शबदों के अर्थ ईश्वर-परक हैं, प्रकरणानुरूप किन्हीं और के वाचक भी हो सकते हैं। वेद में जो ये शबद आये हैं, इनका अर्थ सती और पार्वती के पति, गणेश तथा कार्तिकेय के पिता, भस्मधारी, नरमुण्डमालाधारी, वृषारोही, सर्पकण्ठ, नटवर, नृत्यप्रिय, नन्दा वेश्यागामी, अनुसूया धर्मनाशक, हस्तेलिंगधृक् महादेव नामक पौराणिक व्यक्ति और चारभुजा आदि से युक्त देवी कदापि नहीं है।

शिव और देवी-इनका अर्थ जो ऊपर लिखा, इस अर्थ के अनुसार तो ये वैदिक ही कहायेंगे, किन्तु इसके विपरीत किसी व्यक्ति वा स्त्री विशेष अर्थ में तो अवैदिक ही कहे जायेंगे। और ये कहकर कि शिवलिंग यज्ञवेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है, शिवलिंग को सिद्ध करना अपनी कोरी कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं अर्थात् ये मिथ्या कल्पनामात्र है। यदि ऐसा है तो इस विषय में कोई आर्ष-प्रमाण प्रस्तुत करने की कृपा करें। आजकल कुछ विद्वान् इन पौराणिक गपोड़ों को अपनी कल्पना के आधार पर सही सिद्ध करने में लगे हैं। कोई गणेश को सही सिद्ध कर रहा है तो कोई विष्णु के चार हाथों की व्याखया कर उसको उचित सिद्ध करने में लगा है। ऐसा करने से पौराणिक मान्यताओं को बढ़ावा ही मिलना है न कि पाखण्ड न्यून होने को।

श्रीमान् मनसाराम जी वैदिक तोप की पुस्तक ‘‘पौराणिक पोल प्रकाश’’ में  इस कथा के विषय में विस्तार से लिखा है। इस कथा को जानकर कोई कैसे कह सकता है कि शिवलिंग अग्नि-शिखा का द्योतक है। यह तो शिव-पार्वती की अश्लील क्रियाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसलिए आर्यजन व्यर्थ की कल्पनाओं पर विश्वास न कर यथार्थ को स्वीकार कर अपने जीवन को उत्तम बनावें।

 

HADEES : JESUS

JESUS

Muhammad had a belief of a sort in Jesus.  In fact, this belief, along with his belief in the apostleship of Moses and Abraham, is often cited as a proof of Muhammad�s liberal and catholic outlook.  But if we look at the matter closely, we find it was more a motivated belief, meant partly to prove his own apostolic pedigree, and partly to win converts from among the Jews and the Christians.  In any case, his opinion of Jesus does not amount to much.  He turned Jesus into a mujAhid (crusader) of his entourage.  When Jesus returns in the Second Coming, no more than a pale copy of Muhammad, he will be waging war against the Christians as well as others: �The son of Mary will soon descend among you as a just judge.  He will break crosses, kill swine, and abolish Jizya,� Muhammad proclaims (287).  How?  The translator explains: �Cross is a symbol of Christianity.  Jesus will break this symbol after the advent of Muhammad.  Islam is the dIn(religion) of Allah and no other religion is acceptable to him.  Similarly, the flesh of the swine is a favorite dish of the Christians.  Jesus will sweep out of existence this dirty and loathsome animal.  The whole of the human race would accept Islam and there would be no zimmIs left, and thus Jizya would be automatically abolished� (notes 289-290).  Jesus is regarded as a just Judge, but this only means that he will judge according to the sharI�ah of Muhammad.  For, as the translator explains, �the SharI�ah of all the earlier prophets stands abrogated with the advent of Muhammad�s Apostleship.  Jesus will, therefore, judge according to the law of Islam� (note 288).

author:  ram swarup

China bans dozens of Muslim baby names – From Islam to Quran to Medina

China bans dozens of Muslim baby names – From Islam to Quran to Medina, here is the list

In a big development, China banned a dozens of Muslim baby names in Xinjiang

 

China bans dozens of Muslim baby names - From Islam to Quran to Medina, here is the list
Representational image

Beijing: In a big development, China banned a dozens of Muslim baby names in Xinjiang.

China has banned dozens of Islamic names for babies belonging to the restive Muslim-majority Xinjiang province.

This move would prevent children from getting access to education and government benefits, a leading rights group – Human Rights Watch (HRW) said.

“Xinjiang authorities have recently banned dozens of names with religious connotations common to Muslims around the world on the basis that they could exaggerate religious fervour,” the Human Rights Watch (HRW) said.

List of Islamic names banned by China

Islam, Quran, Mecca, Jihad, Imam, Saddam, Hajj, and Medina are among dozens of baby names banned under ruling Chinese Communist Party’s “Naming Rules For Ethnic Minorities,” an official was quoted as saying by Radio Free Asia.

Children with banned names will not be able to obtain a “hukou,” or household registration, essential for accessing public school and other social services, it said.

The new measures are part of China’s fight against terrorism in this troubled region, home to 10 million Muslim Uyghur ethnic minority.

This is the latest in a slew of new regulations restricting religious freedom in the name of countering “religious extremism,” the HRW said.

Conflicts between the Uyghur and the Han, the majority ethnic group in China who also control the government, are common in Xinjiang.

FULL LIST

A full list of names has not yet been published and it is unclear exactly what qualifies as a religious name, it said.

On April 1, Xinjiang authorities imposed new rules prohibiting the wearing of “abnormal” beards or veils in public places, and imposing punishments for refusing to watch state TV or radio programmes.

These policies are blatant violations of domestic and international protections on the rights to freedom of belief and expression, the HRW said.

Punishments also appear to be increasing for officials in Xinjiang who are deemed to be too lenient.

In January, the authorities imposed a “serious warning” on an official for complaining to his wife through a messaging app about government policies.

source:http://zeenews.india.com/world/china-bans-dozens-of-muslim-baby-names-from-islam-to-quran-to-medina-here-is-the-list-1999389.html