समता के सेनानी:छत्रपति शाहू, डॉ0 अम्बेडकर और यशवंतराव चौहान

समता के सेनानी:

छत्रपति शाहू, डॉ0 अम्बेडकर और यशवंतराव चौहान

महाराष्ट्र के ज्येष्ठ इतिहास संशोधक व इतिहासकार डॉ0 जयसिंहराव पवार के अनुसार (राजर्षि शाहू) महाराज ने सामाजिक क्रान्ति की मशाल डॉ0 अम्बेडकर जी के हाथों में सौंपी थी। महार समाज का एक युवक अमेरिका से एम0ए0, पी-एच0डी0 की शिक्षा पाकर आया है, यह जानकर वे अपूर्व आनन्द से भाव-विभोर हो मुम्बई परल स्थित बस्ती में उनसे मिलने गये और उन पर अपना हर्ष-स्नेह उड़ेलते हुए बोले, ”अब मेरी चिन्ता दूर हो गई है। दलितों को उनका नेता मिल गया है।“

तत्पश्चात् कुछ समय बाद ही डॉ0 अम्बेडकरजी को कोल्हापुर पधारने का निमन्त्रण देकर और और उनके कोल्हापुर आने पर अपने रथ में बिठाकर शाहू महाराज उन्हें अपने ’सोनवली‘ कैम्प पर ले आये और अपनी पंक्ति में बिठलाकर उनके साथ उन्होंने सहभोजन किया। तदनन्तर उन्होंने अपने राजघराने की ओर से सम्मान और गौरव की रेशमी पगड़ी प्रदान कर उनका अभिनन्दन किया। इस अवसर पर डॉ0 अम्बेडकर ने कहा था-”छत्रपति शाहूजी ने सम्मान की जो रेशमी पगड़ी मेरे सिर पर धारण करवाई है, उसका मैं आदर रखूँगा।“ वस्तुतः डॉ0 अम्बेडकरजी ने दलित-पतितों के उद्धार का कार्य केवल समस्त महाराष्ट्र में ही नहीं, अपितु अखिल भारतवर्ष में प्रसारित कर शाहू महाराज की रेशमी पगड़ी का सम्मान रखा। (राजर्षि शाहू छत्रपतिः एक मागोवा (सिंहावलोकन) पृष्ठ-2-3)।

स्थूल रूप से देखा जाए तो ’महार वर्ग‘ गाँव का ’वतनदार‘ था, परन्तु उसे इसके नाम पर पूरे गाँव की सेवा, नौकरी और बन्धुआ मजदूरी करनी पड़ती थी। महार समाज को पीढ़ी-दर-पीढ़ी से गुलामी की जंजीरों में जकड़नेवाले ’महार वतन‘ को समाप्त करने का निश्चय कर शाहू महाराज ने 18 सितम्बर 1998 को एक विशेष राजाज्ञा निकाली, जिससे उक्त समाज अन्यों की तरह ’स्वतन्त्र प्रजाजन‘ बन गया, और उसकी गुलामगिरी के दुर्दिन समाप्त हो गये। शाहू महाराज द्वारा ‘महार वतन‘ को रदद् करने का सर्वाधिक आनन्द डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर को हुआ था। महारों ने इस गुलामगिरी का स्वयं त्याग करना चाहिए या सरकार ने इस ’महार-वतन‘ की गुलामी को कानून से नष्ट करना चाहिए, यह एक डॉ0 अम्बेडकर की जबरदस्त माँग थी, जिसे 1928 से 1957 तक मुम्बई की अनेक सरकारें पूरी नहीं कर पाईं, उसे 1918 में ही राजर्षि शाहू ने स्वयं स्फूर्ति से पूरा कर दिया था। मुम्बई राज्य में सन्-1958 में अपने-आपको शाहू महाराज और आर्यसमाजी शिक्षा संस्था का छात्र कहनेवाले (राजाराम कॉलेज कोल्हापुर के भूतपूर्व विद्यार्थी) मुख्यमन्त्री यशवंतराव बलवंतराव चौहान के कार्यकाल में महारों की उक्त गुलामगिरी नष्ट हुई (तत्रैवः-पृष्ठ 22-23)।

शुद्धि का योग्य समय:किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए:डॉ अम्बेडकर

देश विभाजन और हैदराबाद मुक्ति संग्राम के विकट काल में डॉ0

अम्बेडकरजी उत्सुकता से आर्यसमाजी नेताओं की प्रतीक्षा में थे ।

शुद्धि का योग्य समय:

किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए

जातिभेद व विषमता की उपेक्षा करके शुद्धि अभियान के पाखण्डी पक्ष पर आक्षेप होते हुए भी अन्य परिस्थितियों में इच्छानुसार शुद्धि अथवा धर्मांतर करने के विषय में बाबासाहब को आपत्ति होने का कोई कारण नहीं था, प्राचीन काल में हिन्दू धर्म यह मिशनरी धर्म था, इन शब्दों में उन्होंने उसकी प्रशंसा ही की थी (5-423)। स्वयं उन्होंने धर्मान्तर का निर्णय घोषित किया था, तब शुद्धि अथवा धर्मांतर के प्रति वे सरसरी तौर पर नफरत की दृष्टि से नहीं देखते, अपितु उसकी गुणवत्ता के आधार पर उसका विचार करते हैं, जब शुद्धि की, अर्थात् धर्मांतरित व्यक्तियों को अपने मूल धर्म में लाने की आवश्यकता प्रतीत हुई, तब उन्होंने उसका समर्थन ही किया था। देश-विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान के अस्पृश्यों को जबर्दस्ती मुस्लिम बनाया जा रहा था। वैसी ही दुर्दशा निजाम के हैदराबाद रियासत में शुरु हो गई थी। दिनांक-18 नवम्बर 1947 को परिपत्र निकालकर बाबासाहब ने इन सबको भारत में या हिन्दू प्रान्त में आने का आह्वान किया था, इन सबकी शुद्धि कर फिर से हिन्दू धर्म में मिलाने की व्यवस्था करने की व पूर्ववत् उनके साथ आचरण करने का आश्वासन भी उन्होंने उन्हें दिया था (9-349)।

सन् 1947 में जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के, हिन्दुओं की मार से बचने के लिए मुसलमान चोटी रखने लगे, माथे पर तिलक लगाने लगे, तो इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री सोहनलाल शास्त्री से बाबासाहब ने कहा था-”किसी एक आर्यसमाजी नेता को मेरे पास ले आइए। मैं उन्हें समझाकर बतलाऊँगा कि, अब ऐसा समय आ गया है कि उन्हें (मुसलमानों को) हिन्दुओं में शामिल कर लेना चाहिए, वे बेचारे बच जाएँगे और हिन्दुओं की संख्या भी बढ़ेगी“ (41-172)।

’जाति विनाशक हिन्दू संगठन‘ को महत्त्व न देकर शुद्धि करनेवाले लोगों पर डॉ0 बाबासाहब टूटकर पड़ते हैं, दिनांक-15 मार्च 1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में ऐसे लोगों को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं-”संगठन व शुद्धि, अर्थात् संभाव्य लफंगेगिरी है“ (244)।“ स्पष्ट विरोध करनेवाले पुराण-मतवादी सह्म हैं, परन्तु शुद्धि संगठनवाले ढोंगी इनसे अधिक भयंकर हैं“ ऐसा वे उन पर आक्षेप करते हैं। ये ही (ढोंगी लोग) सम्प्रति संगठन में घुस गये हैं। स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी के पवित्र आन्दोलन को इन ढोंगियों ने विकृत कर दिया है-उन्हें लात मारकर बाहर निकालने के सिवाय इस शुद्धि आन्दोलन में वास्तविक जोर नहीं आ पाएगा (244)। 4, नवम्बर, 1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में ’आर्यसमाज व हिन्दू महासभेची गट्टी‘ (मित्रता) नामक बाबासाहब की टिप्पणी इस सन्दर्भ में पठनीय है। ”आर्यसमाज हिन्दू समाज को एकवर्णी करने के अपने मूल कार्य को भूलकर हिन्दू महासभा की तरह ही शुद्धि अभियान के पीछे लगा है।“ इस प्रकार की जो उसमें उन्होंने आलोचना की है, वह अत्यन्त मुखर और स्पष्ट है (112)। एकवर्णी हिन्दू समाज से उनका तात्पर्य हिन्दू संगठन से है। यह उनका समीकरण-सामंजस्य प्रत्येक पाठक को हरेक स्थान पर दिखलाई देगा।

सन्दर्भः- लेखक-श्री शेषराव मोरे: डॉ0 आम्बेडकरांचे सामाजिक धोरण-एक अभ्यास। प्रकाशक-राजहंस प्रकाशन 1025, सदाशिव पेठ, पुणे-411030, मराठी ग्रन्थ, प्रथमावृत्ति, जून-1998, मूल्य-350।

डॉ अम्बेडकर जी द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी का अभिनन्दन

जो हिन्दू सुधारक अस्पृश्यता निवारण के लिए प्रयत्न कर रहे थे। उनके विषय में बाबासाहब अम्बेडकर (सन् 1920-27) गौरवोद्गार अभिव्यक्त करते हुए नजर आते हैं तथा वे और अधिक कार्य करें, इस दृष्टि से आह्वान करते हुए भी दिखलाई देते हैं। इस सम्बन्ध में आर्यसमाज व उनके नेता स्वामी श्रद्धानन्द का नाम सबसे पहले लिया जाना आवश्यक है।

”स्वामीजी दलितों के सर्वोंत्तम हितकत्र्ता व हितचिन्तक थे“ ये उद्गार डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ?‘ नामक ग्रन्थ में अभिव्यक्त किये हैं (पृ0 29-30)। कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने जो कार्य किया उसकी उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक प्रशंसा की है। कांग्रेस ने अस्पृश्योद्धार के लिए 1922 में एक समिति स्थापित की थी। उस समिति में स्वामीजी का समावेश था। अस्पृश्योद्धार के लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने एक बहुत बड़ी योजना प्रस्तुत की थी और उसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी निधि की भी माँग की थी, परन्तु उनकी माँग अस्वीकृत कर दी गई। अन्त में उन्होंने समिति से त्यागपत्र दे दिया (पृ0 29)। उक्त ग्रन्थ में स्वामीजी के विषय में वे एक और स्थान पर कहते हैं, ’स्वामी श्रद्धानन्द ये एक एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण व दलितोद्धार के कार्यक्रम में रुचि ली थी, उन्हें काम करने की बहुत इच्छा थी, पर उन्हें त्यागपत्र देने के लिए विवश होना पड़ा‘ (पृ0 223)।

दिनांक-4.11.1928 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय लेख में बाबासाहब लिखते हैं-”आर्यसमाज यह समाज (ब्राह्मण नहीं, अपितु) ब्राह्मण्यत्व मुक्त हिन्दू धर्म का एक सुधारित-संशोधित संस्करण है। आर्यसमाज हिन्दू समाज के (जन्मना) चातुर्वण्र्य को तोड़कर उसे एकवर्णी करने के लिए जन्मा आन्दोलन है, उसका साहस विलक्षण है“ (90-112)। स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या दि0-23.12.1926 को हुई और उसके बाद आर्यसमाज के स्वरूप में परिवर्तन होने की आलोचना बाबासाहब ने की है, उपरोक्त सम्पादकीय में वे आगे लिखते हैं-”आर्यसमाज हिन्दू समाज को एक वर्णी करने के अपने मूल कार्य को भूलकर हिन्दू महासभा की तरह शुद्धि अभियान के पीछे लगा है, अब इन दोनों की इतनी घनिष्ठ मित्रता हो गई है कि हिन्दू महासभा का ध्येय आर्यसमाज का ध्येय बन गया है (पृ0 112)। दिनांक-7.10.1927 को अमरावती में सम्पन्न ’आर्य धर्म परिषद‘ में चातुर्वण्र्य का प्रस्ताव पारित होने की जानकारी बाबासाहब देते हैं, फिर भी उन्हें आर्यसमाज से आशा होने के कारण वे उसे उपदेश करते हुए लिखते हैं कि-”आर्यसमाज ने हिन्दू महासभा की बातों में आने की अपेक्षा हिन्दू महासभा को अपने विचारों के अनुरूप बनाना चाहिए, इसी से आर्यसमाज के उद्देश्य की पूत होगी (पृ0 112)।“

दिनांक 22.4.1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ में आर्यसमाज के शुद्धि कार्य की आलोचना करते हुए बाबासाहब कहते हैं-”शुद्धि करके विधर्म में गये लोगों को फिर से स्वीकार करने का एक हाथ से प्रयत्न करना और दूसरे हाथ से स्वधर्म में रहनेवालों के साथ चिढ़ाने जैसा आचरण करना, होश में रहनेवाले मनुष्यों का लक्षण नहीं है। स्वामी श्रद्धानन्दजी के यशस्वी कार्य का यह स्मारक नहीं, अपितु उस महापुरुष द्वारा आरम्भ किये हुए कार्य का विकृत रूप है“ (पृ0 15)। दिनांक-15 मार्च 1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय में भी उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्दजी का गौरव तथा आर्यसमाज की आलोचना की है। वे कहते हैं-’स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी के पवित्र आन्दोलन का इन ढोंगी लोगों ने गुड़-गोबर बना दिया है (244)।‘

 

दिनांक 21.12.1928 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में स्वामीजी का गौरव प्रस्तुत करनेवाला श्री पी0 आर0 लेलेजी का एक विशाल लेख प्रकाशित हुआ है। उसके अन्त में यह कहा गया है कि-”उन्हें (स्वामीजी को) श्रद्धांजलि देने का अधिकार अपना अर्थात् प्रमुख रूप् से बहिष्कृत व्यक्तियों (दलितों) का ही है। यदि अपनी उन्नति नहीं हुई, तो स्वामीजी को, उनके सच्चे हितैषी की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी“ (205)। ’महात्मा स्वामी श्रद्धानन्द को‘, ’हिन्दुओं के उद्धार को‘ तो अन्यों को ’ब्राह्मणों के उद्धार की‘, ’अहर्निश चिंता लगी हुई हैं‘-प्रायः यह बाबासाहब कहते रहते थे (पृ0 31)। इसी उपकृत व कृतज्ञ भावना से महाड़ में मार्च-1927 में सम्पन्न ’कुलाया जिला बहिष्कृत परिषद्‘ में स्वामीजी को श्रद्धांजलि देने का प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया था-”श्रद्धानन्दजी के अमानुष हत्या के प्रति इस सभा को अत्यन्त दुःख हो रहा है और उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यक्रम के अनुसार हिन्दू जाति को अस्पृश्यता निर्मूलन का कार्य करना चाहिए“ (9)। (डॉ0 आंबेडकरांचे सामाजिक धोरणः एक अभ्यास-लेखक-शेषराव मोरे, पृष्ठ 75-76 प्रथमावृत्ति (मराठी ग्रन्थ) जून, सन् 1998)।

कांग्रेस द्वारा अस्पृश्यता निवारण का कार्य न करने के कारण कांग्रेस समिति से त्यागपत्र देनेवाले स्वामी श्रद्धानन्द का जो गौरव उन्होंने किया है, वह आपने देखा ही है, परन्तु 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ? ग्रन्थ में बाबासाहब ने गान्धीजी की आलोचना करते हुए लिखा है-”स्वामी श्रद्धानन्दजी का पक्ष लेने की अपेक्षा गाँधीजी ने श्रद्धानन्दजी के विरोधी प्रतिगामी लोगों का पक्ष लिया है। (29-226)“ इतना ही नहीं तो कांग्रेस का अस्पृश्यता निवारण का प्रस्ताव अर्थात् ’अस्पृश्यों से सम्बद्ध कपटनाट्य था‘ (22) ’विशुद्ध राजनीति थी‘ (26)। ऐसा डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के उपरोक्त ग्रन्थ में कहा है-तत्रैव-85।

दिनांक 3, जून 1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय में बाबासाहब ने हिन्दू महासभा की स्थापना कब और कैसे हुई इस तथ्य की जानकारी दी है। ’कांग्रेस के पुराने सभासदों की जैसी सामाजिक परिषद, वैसी ही नये सभासदों की हिन्दू महासभा‘ ऐसा वे प्रतिपादित करते हैं (10.43)। आरम्भ में हिन्दू समाज के पुनर्गठन का कार्य सफलता के साथ सम्पन्न होगा। ऐसा सभी को प्रतीत होता था, पर समाज सुधार का कोई भी उपक्रम इस संस्था के हाथ से सम्पन्न नहीं हुआ-उसकी कार्यक्षमता शब्दों तक ही सीमित रही-यह आरोप हमारा नहीं, अपितु स्वामी श्रद्धानन्दजी ने किया है। बाबासाहब के अनुसार-इसी कारण से श्रद्धानन्दजी ने महासभा से त्यागपत्र दिया था। (43)-तत्रैव-180।

डॉ. अम्बेडकरजी की लाला लाजपतराय जी को श्रद्धांजली

यह तथ्य अंकित करते हुए हमें बहुत ही दुःख हो रहा है कि देशभक्त लाला लाजपतराय का विगत मास की 17 तारीख को अचानक हृदय क्रिया बन्द हो जाने से देहान्त हो गया। साइमन कमीशन के लाहौर आने पर उसे वापिस जाने के लिए कहनेवालों का जुलूस स्टेशन पर था, उसके अग्रिम भाग पर लाला जी उपस्थित थे। भीड़ को पीछे हटाने का प्रयत्न करते समय एक पुलिस अधिकारी ने लालाजी की छाती पर लाठी का वार किया। डॉक्टरों का यह मत है कि लाठी का वार ही लालाजी की हृदय क्रिया बन्द पड़ने का कारण सिद्ध हुआ। यदि यह सही है तो ऐसे उन्मत्त और राक्षसी वृत्ति के पुलिस अधिकारी की जितनी भी निन्दा की जाए, वह कम ही होगी।

खैर, वह कुछ भी हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि लालाजी की मौत के कारण देश का एक कर्मठ कार्य कुशल नेता नामशेष हो गया। भारतवर्ष में राजनीतिक नेताओं की कभी भी कमी नहीं रही, पर लालाजी जैसे प्रामाणिक वृत्ति के स्वार्थ त्यागी तथा कृतसंकल्प कार्य के लिए तन-मन-धन अर्पित करनेवाले नेता अत्यन्त ही कम थे। नेतागिरी के लिए ललचाए और उसके लिए अपनी सदसद् विवके बुद्धि शैतान या आसुरी प्रवृत्तियों को बेचनेवाले बहुत अधिक थे। इन नेताओं की कथनी-करनी की विसंगति लोगों के ध्यान में आती, तो ये उसे ’मेंटल रिजर्वेशन‘ की बात कहकर उससे छुटकारा पा लेते थे, पर लालाजी के जीवनक्रम में इस प्रकार की स्थिति नजर नहीं आती। श्री नरसिंह चिन्तामणि केलकर जैसे दोहरे व्यक्तित्ववाले तथा श्री आयंगर छाप जैसे नेताओं की अभद्रता से लालाजी कोसों दूर थे। उनकी कार्यक्षमता अप्रतिम और महान् थी। लालाजी के चरित्र की विशेषता इस बात में है कि वे अधिक बड़बड़ और गड़बड़ न करते हुए बहुत ही सोच-विचारपूर्वक धैर्य से स्वीकार किये हुए कार्य को सम्पन्न करते थे।

लालाजी का जन्म सन् 1865 में पंजाब प्रान्त के एक निर्धन वैश्य कुल में हुआ। उनके पिता आर्यसमाजी थे। इसलिए उन्हें प्रारम्भ से ही उदारमतवाद की घुट्टी पिलायी गई थी। आज आर्यसमाज को सनातन धर्म ने निगल लिया है, पर उस समय आर्यसमाज और सनातन धर्म का हमेशा का वैर या जानी दुश्मनी थी, क्योंकि इस युग में आर्यसमाज मुसलमानों के आक्रमणों की अपेक्षा हिन्दू समाज के अन्तर्गत जातिभेदादि दोषों की ओर ही ज्यादा ध्यान देता था। इसलिए वह रूढ़िबद्ध पौराणिक लोगों को स्वाभाविक रूप से ही अप्रिय था।

पुराणमतवाद और आर्यसमाज के इस समर में लालाजी ने आर्यसमाज का पक्ष लिया था और उस समाज के सिद्धान्तों को सुदृढ़ और व्यावहारिक रूप देने के लिए उन्होंने कुछ मित्रों के सहयोग से सन् 1886 में ’दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज (डी0 ए0 वी0)‘ की स्थापना की थी। उनके सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ इसी घटना के साथ शुरु हुआ था। इस संस्था को शक्तिशाली बनाने के लिए उन्होंने अनथक मेहनत की थी और पुष्कल मात्रा में स्वार्थ त्याग भी किया था। आज पंजाब में इस संस्था की गणना एक प्रमुख शिक्षण संस्था के रूप में की जाती है।

इसके बाद वे राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेने लगे, पर उन्होंने अन्य राजनीतिक आन्दोलनों के नेताओं की तरह राजनीतिक और सामाजिक कार्यों के इतेरतराश्रित आपसी सम्बन्धों का विच्छेद कर अपने अपंगत्व का प्रदर्शन कभी भी नहीं किया। दोनों भी दृष्टियों से वे क्रान्तिकारी थे। यह बात ध्यान में रखने लायक है कि राजनीतिक आन्दोलन में कदम रखने के कारण सरकार ने जब उन्हें अण्डमान की जेल में भेजा, तब बहुत से पुराणमतवादी लोगों को हर्ष हुआ था। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार और पौराणिक इन दोनों के विरोध को सहन करते हुए लालाजी ने अपना सार्वजनिक कार्यक्रम संचालित किया था। पंजाब के कुछ स्पृश्यवर्गीय नेताओं द्वारा चलाये गये अस्पृश्यों के स्पृश्यीकरण (दलितोद्धार) के आन्दोलन में वे अन्तःकरण पूर्वक सहभागी होते थे। स्पृश्यवर्गीय लोगों द्वारा संचालित ’अस्पृश्योद्धार‘ के आन्दोलन से यदि हमें पूर्णतया सन्तोष न भी प्रतीत होता हो, फिर भी हमें इस बात में सन्देह नहीं कि लालाजी की सहानुभूति प्रामाणिकता से ओत-˗प्रोत थी। हमारी दृष्टि से वह परिपूर्ण न भी हों, फिर भी अविश्वसनीय तो बिलकुल भी नहीं थी।

लालाजी उत्तम लेखक भी थे। सामाजिक और राजनीतिक विषयों से सम्बद्ध उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। ’दी पीपल‘ नामक अंग्रेजी पत्र भी वे निकालते थे। दयानन्द एंग्लोवैदिक कॉलेज के अतिरिक्त उनके द्वारा स्थापित दूसरी संस्था का नाम ’सर्वेंटस् ऑफ इण्डिया‘ है। ’सोसाइटी‘ की तरह इस संस्था की नियमावली बनाने के बावजूद इन दोनों में अंतरंग दृष्टि से महत्वपूर्ण अन्तर है। मुम्बई की ’सोसाइटी‘ ’नरम दल‘ के कब्जे में होने के कारण उनके समस्त कार्यक्रम शांत एवं मंदगति से चालू हैं। राजनीतिक विषय में भी मंदगति और सामाजिक विषय में भी मंथर गति। एक कदम आगे बढ़ाने से पहले उस पर दस घण्टे तक विचार-विमर्श। कुछ इसी प्रकार का इस संस्था का कार्यक्रम है। इस संस्था के कतिपय सभासद व्यक्तिगत रूप से ’गरम‘, ’अग्रगामी‘ और ’प्रगतिशील‘ होंगे, पर सामूहिक रूप से उन्हें नरम दल की चैखट में ही घुटन महसूस करते हुए रहना अनिवार्य है। उसके विपरीत लाहौर की सोसाइटी को लालाजी जैसा तड़पदार-तेजस्वी नेतृत्त्व मिलने के कारण उसे सर्वांगीण प्रगतिपरक स्वरूप प्राप्त हुआ है। यह सोसाइटी सामाजिक और राजनीतिक विषय में एक जैसे प्रगतिशील कार्यकत्र्ता निर्माण करने का कार्य उत्साह और साहस के साथ कर रही है। इस संस्था के विकास के लिए उन्होंने काफी कष्ट सहन किये हैं। इस प्रकार लाला लाजपतरायजी का चरित्र विविधांगी है। सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक आदि समस्त क्षेत्रों में वे अपना अनमोल योगदान दे गये हैं और उनके कालवश हो जाने के उपरांत भी उनके बहुमुखी रचनात्मक कार्य उनके सचेतन स्मारक के रूप में चिरस्थायी एवं अमर रहेंगे।

सन्दर्भ: (1) डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर चरित्र, खण्ड-2, पृष्ठ-197 लेखक-चांगदेव भवानाव खैरमोडे-द्वितीय आवृत्ति-14 अक्टूबर 1991, मूल्य-90.00, प्रकाशक-सुगावा प्रकाशन-पुणे-महाराष्ट्र।

(2) बहिष्कृत भारत (मराठी साप्ताहिक): सम्पादक: डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, दिनांक: 7 दिसम्बर 1928।

(3) अनुवाद-कुशलदेव शास्त्री।

गुण श्रेष्ठ है या जाति श्रेष्ठ?

(डॉ अम्बेडकर जी द्वारा डी. ए. वी. कॉलेज-लाहौर के संचालकों का अभिनन्दन)

”एक बार की बात है, नागपुर कॉलेज में पढ़ रहा एक ’महार‘ विद्यार्थी प्रधानाचार्य के पास गया तथा अपने घर की ओर लौट जाने की अनुमति माँगते हुए उसने उनसे कहा कि-’ब्राह्मण से हमारा झगड़ा हो गया है और मैं एकाध ब्राह्मण की हत्या कर सका तो यह समझूँगा कि मेरा जन्म सार्थक हो गया है।‘ यह इस बात का प्रमाण है कि पददलित, पीड़ित, व्यथित, युवा दलित सुशिक्षित हो तो उसके मन में क्या-क्या और कैसे-कैसे भाव उत्पन्न हो जाते हैं, यह उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट और सिद्ध है।

लाहौर स्थित एक चमार जाति के लड़के का भी इसी प्रकार का अपमान हुआ और इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं कि उसके भी मन में उक्त ’महार‘ छात्र की तरह ही विचार उत्पन्न हुए हों। पर यह आनन्द की बात है कि उसकी क्रोधाग्नि पर शीघ्र ही साम-दण्ड के जल का सिंचन हो जाने से वह शांत हो गया। यह चमार-विद्यार्थी विगत जून महीने में मॅट्रिक्युलेशन की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ व अग्रिम अध्ययन के लिए लाहौर स्थित दयानन्द कॉलेज में उसने अपना नाम प्रविष्ट कराया। किसी कारणवश प्रस्तुत कॉलेज से संलग्न छात्रावास में रहना उसके लिए अनिवार्य हो गया। पर ˗प्रस्तुत छात्रावास के (सभी) सौ पाचकों ने शिकायत सी करते हुए कहा कि-’चमार लड़के को न तो हम खाना परोसेंगे और न ही उसके झूठे बर्तन उठाएँगे।‘ कॉलेज के प्रधानाचार्यजी ने इन तिलमिलाए, बदहवास हुए ’ब्राह्मण्यग्रस्त‘ रसोइयों को यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि-’यह कॉलेज आर्यसमाज का है तथा आर्यसमाज जातिभेद जन्य ऊँच-नीच युक्त भेदभाव को बिलकुल भी नहीं मानता है।‘ इत्यादि तथ्यों द्वारा बहुत ही समझाने की कोशिश की, पर विविध ˗प्रकार के उपाय करने के बावजूद भी रसोइयों को प्रधानाचार्य की बात समझ में नहीं आ रही थी। वे सब हड़ताल पर उतर आये और उन्होंने यह धमकी दे डाली कि-’चमार लड़के को निकालो, अन्यथा हम सब अपना काम छोड़कर चले जाएँगे।‘ इस प्रकार संघर्ष पर उतारू हुए रसोइयों की समस्या प्राचार्यजी ने छात्रावासीय समिति के सामने प्रस्तुत की और समिति ने रसोइयों को ही सेवा कार्य से मुक्त करने का निर्णन ले लिया। इस निर्णय के कारण हम दयानन्द कॉलेज लाहौर के तत्त्वनिष्ठ, सिद्धान्त प्रिय संचालकों का अभिनन्दन करना अत्यावश्यक समझते हैं।

हिन्दू धर्म की जो लघु व्यवसाय करनेवाली कुछ शूद्र जातियाँ हैं, उनके अपने आन्तरिक, ’ब्राह्मण्यत्त्व‘ का इतना घमण्ड है कि दलित जाति के व्यक्तियों का पैसा लेकर भी उनका काम करने से वे बिलकुल इंकार कर देती हैं। धोबी कहता है-मैं कपड़े नहीं धोऊंगा, नाई कहता है-मैं हजामत नहीं करूंगा, नगाड़ेवाला कहता है-मैं बाजे नहीं बजाऊंगा। इस सबके पीछे पैसे न मिलने का कारण नहीं है, अपितु यह मिथ्या धारणा है कि दलितों की सेवा करने से हमारी प्रतिष्ठा भंग हो जाएगी।

इन लोगों को किसी न किसी ने, कभी न कभी तो यह सीख देनी ही चाहिए थी कि-’सम्मान केवल गुणों पर आश्रित है, जाति पर नहीं।‘ अच्छा हुआ कि यह शिक्षा दयानन्द कॉलेज लाहौर के व्यवस्थापकों ने दी। कुल के मिथ्याभिमान का आश्रय लेकन गुणवान् को तिरस्कृत करने की कामना रखने वाले गुणहीनों के दिलो-दिमाग को इस प्रकार ठिकाने लगाना तो अत्यन्त ही योग्य है।

हमें यहाँ इतना ही बुरा प्रतीत होता है कि ये बेचारी, नासमझ, नादान, बावली, पागल जातियाँ ’ब्राह्मण्य‘ की उपासक होने की वजह से थोथी, पाखण्डों, साम्प्रदायिक धारणाओं के कारण अपने जीवन की सार्थकता को खो रहीं हैं। जीवन के वास्तविक तात्पर्य से वंचित हो रही हैं। पथभ्रष्ट होकर अपने सही जीवनानन्द को गवाँ रही हैं, पर इन निराधार हुए रसोइयों की किसी को भी किसी प्रकार चिन्ता करने का कोई कारण हमारी दृष्टि में शेष नहीं है। कहते हैं कि स्वार्थ की परवाह न करते हुए (तथाकथित) धर्म की रक्षा करने के कारण उन रसोइयों की पीठ थपथपानेवाले ’भाला‘ पत्र के सम्पादक (श्री भास्कर बलवंत भोपटकर) उनका आजन्म पालन-पोषण करने वाले हैं।“

सन्दर्भ:- (1) पाक्षिक पत्र ’बहिष्कृत भारत‘, दिनांक 15 जुलाई, 1927, वर्ष प्रथम, अंक-81। (2) डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकर आणि अस्पृश्चांची चलवल अभ्यासाची साधने। खंडदोन। डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकरांचे ’बहिष्कृत भारत‘ (1927-1929) आणि ’मूकनायक‘ (1920)। सम्पादक-वसंत मून। प्रकाशक-एज्युकेशन डिपार्टमेंट, गवर्नमेंट ऑफ महाराष्ट्र। संस्करण-1990। पृष्ठ 62/17, 68/6। अनुवाद-कुशलदेव शास्त्री।

वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का दृष्टिकोण

वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का दृष्टिकोण

प्रश्न: क्या जिसके माता ब्राह्मणी, पिता ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मण होता है ? और जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हों, उनका सन्तान कभी ब्राह्मण हो सकता है ?

उत्तर: हाँ बहुत से हो गये, होते हैं और होंगे भी। जैसे छान्दोग्य उपनिषद् में जाबाल ऋषि अज्ञातकुल, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल से ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है और वैसा ही आगे भी होगा।

प्रश्न: हमारी उलटी और तुम्हारी सूधी समझ है, इसमें क्या प्रमाण है ?

उत्तर: यही प्रमाण है कि जो तुम पाँच-सात पीढ़ियों के वर्तमान को सनातन व्यवहार मानते हो और हम वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त की परम्परा मानते हैं। देखो, जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट तथा कहीं दोनों श्रेष्ठ वा दुष्ट देखने में आते हैं। इसलिए तुम लोग भ्रम में पड़े हो।

…….जो कोई रज-वीर्य के योग से (जन्मना) वर्ण-व्यवस्था मानें और गुण कर्मों के योग से न मानें तो उससे पूछना चाहिए कि-जो कोई अपने वर्ण को छोड़ अन्त्यज अथवा क्रिश्चियन-मुसलमान हो गया हो, उसको भी ब्राह्मण क्यों नहीं मानते ? यहाँ यही कहोगे कि उसने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये, इसलिए वह ब्राह्मण नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है, जो ब्राह्मणादि उत्तम कर्म करते हैं, वे ही ब्राह्मणादि और जो नीच भी उत्तम वर्ण के गुण कर्म स्वभाववाला होवे, तो उसको भी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ होके नीच काम करे तो उसको नीच वर्ण में गिनना अवश्य चाहिए।

– सत्यार्थप्रकाश: चतुर्थ समुल्लास

पं. रघुनाथप्रसाद पाठक और डॉ. अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

आर्यसमाज की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था-’सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा‘ के मुखपत्र ’सार्वदेशिक‘ का उसके जन्म काल (1927) से ही सम्पादन कर रहे, पं0 रघुनाथ प्रसाद पाठक (1901-1985) ने श्री डॉ0 अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन पर अपनी सम्पादकीय टिप्पणी अंकित करते हुए उन्हें अपने निश्चय पर पुर्नविचार करने का सुझाव दिया था। श्री पाठकजी की टिप्पणी का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है-

’गत अक्टूबर (1956) में श्रीयुत डॉ0 अम्बेडकर ने दो लाख दलितों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। इस समाचार में हिन्दू जगत् में सनसनी फैल जाना स्वाभाविक था। और सनसनी फैली भी। डॉ0 अम्बेडकर पढ़े-लिखे, समझदार और देश के एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। यदि वे अकेले बौद्धमत से प्रभावित होकर उसमें दीक्षित होते, तो समाज को कोई विशेष चिन्ता न होती, परन्तु उनके साथ वे अधिकांश व्यक्ति दीक्षित हुए हैं, जिन्हें बौद्धमत का थोड़ा भी परिज्ञान नहीं है, इसलिए उनके धर्म परिवर्तन में हृदय की प्रेरणा न होने से वह स्वेच्छया धर्म परिवर्तन नहीं कहा जा सकता।‘

हमें भय है कि कहीं यह धर्म परिवर्तन राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रयुक्त न हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो बौद्ध धर्म बने हुए ये लोग बौद्ध मत के अपयश का कारण बन जाएँगे। एक भय और भी है और वह यह कि उन नव बौद्धों के साथ अब भी मुख्यतया ग्रामों में अस्पृश्यों जैसा ही व्यवहार होगा। उनकी स्थिति में सुधार होना तो एक ओर उल्टे बौद्ध मत को जात-पाँत की एक नई बीमारी लग जाएगी।

अस्पृश्यता के निवारण का उपाय यह है कि सवर्णों के हृदयों में से प्रशिक्षण तथा समय की गति की पहचान के द्वारा अस्पृश्यता की भावना निकल जाए, और अस्पृश्यों के हृदयों में अपने को हेय समझने की मनोवृत्ति नष्ट हो जाए, इसलिए धर्म और विवके से काम लेने की आवश्यकता है। यह कार्य धीरे-धीरे हो रहा है और दोनों की ही मनोवृत्तियों में उत्तम परिवर्तन हो रहा है। आर्यसमाज इस कार्य में मार्ग-दर्शन कर रहा है। कांग्रेस ने अस्पृश्यता को कानूनी अपराध ठहरा दिया है।

इस प्रकार के सामूहिक परिवर्तन से न तो हिन्दुओं की मनोवृत्ति बदल सकती है और न अस्पृश्यों की स्थिति ठीक हो सकती है, अतः इनसे लाभ की अपेक्षा हानि की अधिक आशंका है, अस्पृश्य कहे जाने वाले भाइयों को अपने हित-अहित के प्रति सावधान रहना चाहिए, और अपने को भेड़-बकरी न बनने देना चाहिए। राजनीतिज्ञों की चाल का मुहरा बन जाने से उन्हें पहले ही लाभ की अपेक्षा सामूहिक हानि अधिक हुई है, और यदि वे सावधान न रहें तो और भी भयंकर हानि हो सकती है।

अन्त में हम यह प्रार्थना और आशा कर रहे हैं कि डॉ0 अम्बेडकर अपने निश्चय पर पुनर्विचार करेंगे। वे हिन्दुओं के हृदय परिवर्तन का ही काम हाथ में ले लें, तो बड़ी सफलता प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि उनके व्यक्तित्व और विद्वता के प्रति सवर्ण हिन्दुओं में आदर है। (सार्वदेशिक: मासिक, दिसम्बर 1956: पृष्ठ 511-512)

पं शिवपूजन सिंह और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

महाराष्ट्र प्रान्तीय विदर्भ अंचल के वाशिम जनपद में स्थित कारंजा (लाड़) के ठाकुर रामसिंह जी आर्य के सौजन्य से आर्यसमाज कारंजा का प्राचीन ग्रन्थालय देखने का सौभाग्य 10 जून 2001 को प्राप्त हुआ। ग्रन्थालय में आर्यसमाज की अनेक दुर्लभ प्रतियाँ सँजोकर रखी हुई थीं। इन्हीं अंकों में जुलाई-अगस्त 1951 के सार्वदेशिक मासिक के अंक भी शामिल थे, जिसमें कानपुर के वैदिक गवेषक श्री शिवपूजनसिंह का डॉ0 अम्बेडकरजी के वेदादिविषयक विचारों की समीक्षा में लिखा हुआ ’भ्रान्ति निवारण‘ नामक लेख भी था। यह लेख 54 उद्धरणों से समृद्ध, बौद्धिक और विचारात्मक था, अतः उसे यात्रा में तत्काल न पढ़कर यथावकाश पढ़ने का विचार कर सुरक्षित रख दिया।

हमारी ’आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर‘ विषयक पुस्तिका इससे पूर्व प्रकाशित हो चुकी थी। अब 2008 में जब इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करने की चर्चा चली तो मुझे श्री शिवपूजन सिंह कुशवाह के उपरोक्त लेख का स्मरण हो आया। कागजों के अम्बार में ’खोई हुई वस्तु की खोज‘ में लगा तो अनथक प्रयास से चर्चित लेख हाथ लग पाया और दिनांक 26 अप्रैल 2008 को उसे प्रथम बार पढ़ने के उपरान्त मन गद्गद् हो गया।

 

अन्तर्मन को प्रसन्न करनेवाला इस लेख का वह स्थल था जहाँ लेखक ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि विद्वद्वर्य पं0 धर्मदेवजी विद्यावाचस्पति सिद्धान्तालंकार सम्पादक सार्वदेशिक से डॉ0 अम्बेडकर महोदय ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ के अग्रिम अंग्रेजी संस्करण से उस भाग को हटवा देंगे, जो उन्हें आक्षेपार्ह प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादक पं0 सोहनलालजी शास्त्री महोदय को भी डॉ0 अम्बेडकर महोदय ने कहा था कि ’हिन्दी संस्करण से भी वह आक्षेपार्ह अंश निकाल दिया जाए।‘

यहाँ अंग्रेजी-हिन्दी संस्करण से जिस भाग या अंश को हटा देने की बात चल रही है, उसे हमने ’आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर‘ के प्रथम संस्करण की पादटिप्पणियों में 12वें क्रमांक पर उद्धृत किया था। इस अंश की ओर हमारा विशेष ध्यान मनुस्मृति के भाष्यकार प्रा0 डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी (हरियाणा) तथा डॉ0 ब्रह्ममुनिजी वानप्रस्थ (महाराष्ट्र) ने भी दिलाया था। ‘शूद्रों की खोज’ ग्रन्थ की प्रस्तावना में प्रकाशित वह अंश इस प्रकार है-

”यह पुस्तक आर्यसमाज मत के विरुद्ध है। यह विरोध दो आवश्यक बातों में है। 1. आर्यसमाजियों का यह विश्वास है कि आर्यों में चार वर्ण आदि से कायम हैं। लेकिन प्राचीन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि पहले भारतीय आर्यों में सिर्फ तीन ही वर्ण थे। 2. आर्यसमाजियों का विश्वास है कि वेद अनादि और ईश्वरकृत हैं, परन्तु इस पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि वेदों का पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए पीछे से जोड़ा है। ये दोनों बातें आर्यसमाजी सिद्धान्त के विरुद्ध हैं। मुझे आर्यसमाजियों का इसलिए विरोध करने में हिचक नहीं है, क्योंकि उन्होंने हिन्दू समाज में भ्रान्ति का प्रचार किया है। उनका यह प्रचार कि वेद अनादि, अनन्त और अभ्रान्त हैं, अतः वेदों के आधार पर जो सामाजिक संस्थाएँ, वर्णव्यवस्था आदि बनी हैं, वे भी अनादि, अनन्त और अभ्रान्त हैं, ऐसे विश्वास को फैलाना समाज का सबसे बड़ा अनहित है। जब तक यह सिद्धान्त कायम है, हिन्दू समाज कभी सुधार की ओर नहीं जा सकता।“

पं0 शिवपूजनसिंह के अनुसार डॉ0 अम्बेडकरजी के ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ से उपरोक्त अंश को निकालने के निर्देशों का प्रकाशकों ने उल्लंघन कर दिया जो अत्यंत निन्दनीय बात है।

 

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि अपनी बात से टस से मस न होनेवाले, अपने लेख से अल्पविराम को भी कम न करने वाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे सुहृद व्यक्ति क्या अपनी बात को कभी पीछे ले सकते हैं ? हम उन्हें यही कहना चाहते हैं कि- डॉ0 अम्बेडकरजी प्रकाण्ड विद्वान् थे और अपने से प्रतिकूल सिद्धान्त से सहमत होने पर वे उसे स्वीकार कर लेते थे। जान-बूझकर खारे जल का पानी पीना उन्हें पसन्द नहीं था। स्वामी वेदानन्द तीर्थ लिखित ’राष्ट्र-रक्षा के वैदिक साधन‘ की प्रस्तावना में डॉ0 अम्बेडकरजी ने यह स्वीकार किया है कि-’मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह पुस्तक भारत का धर्मग्रन्थ बन जाएगी, किन्तु यह मैं अवश्य कहता हूँ कि यह पुस्तक पुरातन आर्यों के धर्मग्रन्थों से संकलित उद्धरणों का केवल अद्भुत संग्रह ही नहीं है, प्रत्युत यह चमत्कारिक रीति से उस विचारधारा तथा आचार शक्ति को प्रकट करती है, जो पुरातन आर्यों को अनुप्राणित करती थीं। पुस्तक प्रधानतया यह प्रतिपादित करती है कि पुरातन आर्यों में उस निराशावाद (दुःखवाद) का लवलेश भी नहीं था, जो वर्तमान हिन्दुओं में प्रबलरूप से छाया हुआ है। इस समय हमारे ज्ञान में यह कोई अल्प (नगण्य) वृद्धि नहीं है कि मायावाद (संसार को माया मानना) नवीन कल्पना है। इस दृष्टि से मैं इस पुस्तक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।‘

डॉ0 अम्बेडकरजी और पं0 धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार में आपस में जो सैद्धान्तिक चर्चा हुई उसे पाठक ’बौद्धमत और वैदिकधर्म का तुलनात्मक अनुशीलन‘ ग्रन्थ में विस्तार से पढ़ सकते हैं। यहाँ मैं केवल उस बात को प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो मुझे महाराष्ट्र के वयोवृद्ध उपदेशक पं0 उत्तममुनिजी वानप्रस्थी ने कही थी। वह यह कि-’एक बार पं0 धर्मदेवजी ने हमसे कहा था कि-’माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने हमारा कथन सम्पन्न होने के उपरान्त यह कहा कि-’एक माँ अपने बच्चे को जैसे समझाती है, उस वात्सल्यभाव से आपने मुझे वैदिकधर्म समझाने का प्रयास किया है, पर मैं क्या करूँ, इन हिन्दुओं की मानसिकता मुझे बदलती हुई प्रतीत नहीं होती। उनका स्वभाव कठमुल्लाओं की तरह प्रतिगामी हो गया है।‘ प्रा0 डॉ0 महेन्द्रदास ठाकुर के अनुसार डॉ0 अम्बेडकर स्वयं आर्यसमाज में दलितों के साथ प्रवेश करने का मन बना चुके थे, लेकिन हिन्दु महासभा तथा आर्यसमाज की निकटता को देख वे बुद्ध दीक्षा की ओर मुड़े। (लेख-वह तूफान साथ लिए चलता था ”वैदिक गर्जना“-पं0 नरेन्द्र स्मृति विशेषांक मार्च-अप्रैल 2008, पृष्ठ 53)। स्मरण रहे सैद्धान्तिक स्तर पर डॉ0 अम्बेडकर वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते थे, फिर भी उन्होंने यह स्वीकार किया था कि-’महात्मागाँधी की जन्मना वर्णव्यवस्था की तुलना में स्वामी दयानन्द सरस्वती की कर्मणा वर्णव्यवस्था बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी है।‘

माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी पं0 धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार के प्रति अत्यन्त ही सम्मानभाव रखते थे। इस तथ्य का पता इस बात से चलता है कि उन्होंने अपने विधि मन्त्री के काल में भारत सरकार के विधि मन्त्रालय की ओर से ’हिन्दू कोड बिल तथा उसका उद्देश्य‘ नामक 204 पृष्ठों का एक ग्रन्थ प्रकाशित किया था, जिसमें पं0 धर्मदेवजी द्वारा लिखित दस लेखों की एक लेखमाला पृष्ठ 56 से 113 तक उद्धृत करते हुए डॉ0 अम्बेडकरजी ने लिखा था-’वेदों के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं0 धर्मदेव विद्यावाचस्पति उन थोड़े से व्यक्तियों में हैं, जिनके जीवन का अधिकांश समय वेदों एवं आर्यों के अन्यान्य प्राचीन धर्मग्रन्थों के अनुशीलन और अनुसन्धान में बीता है। पिछले दिनों उनकी एक लेखमाला दिल्ली के सुप्रसिद्ध हिन्दी दैनिक ’वीर अर्जुन‘ में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने प्राचीन स्मृतियों, वेदों तथा शास्त्रों के प्रमाण एवं उद्धरण देकर हिन्दू बिल के विविध विधानों का सारगर्भित विवेचन किया है। विचारशील पाठकों के लिए ’वीर अर्जुन‘ की स्वीकृति से यह लेखमाला यहाँ पुनः प्रकाशित की जा रही है। (पृष्ठ 56)

इस प्रदीर्घ प्रस्तावना के साथ प्रस्तुत है, श्री शिवपूजनसिंह लिखित ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख का सार-संक्षेप, जिसमें डॉ0 अम्बेडकरजी के वेदादि-विषयक विचारों की समालोचना की गई है। पूर्वपक्ष के रूप में डॉ0 अम्बेडकरजी का वेदादि-विषयक आक्षेप पक्ष पहले और वैदिक विद्वानों के चिन्तन पर आधारित श्री शिवपूजनसिंह का समाधान पक्ष बाद में साररूप में विवेकशील पाठकों के हितार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है।

पं0 शिवपूजनसिंह कुशवाहा गवेषणापूर्ण तथा उद्धरण प्रधान शैली के सुप्रसिद्ध लेखक के रूप में ˗ प्रख्यात थे। आपने अम्बेडकर लिखित ’अछूत कौन और कैसे‘ तथा ’शूद्रों की खोज‘ नामक ग्रन्थों में माननीय डॉ0 महोदय ने वैदिक विचारधारा पर जो आक्षेप किए हैं, उसका ’भ्रान्ति निवारण‘ शीर्षक से ’सार्वदेशिक‘ मासिक (जुलाई-अगस्त 1951) के अंकों में समीक्षा की है। ’अछूत कौन और कैसे‘ ग्रन्थ के आठ मुद्दों और ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ के तीन मुद्दों को आपने समालोचना का विषय बनाया है। स्वाध्यायशील श्री शिवपूजनसिंह ने अपनी एक पुस्तक भी ’अथर्ववेद की प्राचीनता‘ भी पं0 धर्मदेवजी विद्यावाचस्पति के द्वारा डॉ0 अम्बेडकरजी की सेवा में भेजी थी। इस ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख के अन्त में लेखक ने लिखा है-’आशा है आप मेरे प्रमाणों पर पूर्णरूप से विचारकर तदनुकूल अपने ग्रन्थ में संशोधन करेंगे।‘ इस निवेदन के साथ उन्होंने अपने समीक्षात्मक लेख को पूर्णविराम दिया है।

 

’अछूत कौन और कैसे‘ ग्रन्थ में माननीय डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत पूर्वपक्ष या आक्षेपों का श्री शिवपूजनसिंह ने ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख में उत्तर पक्ष या समाधान पक्ष के रूप में जो निराकरण किया है, वह विवेकशील पाठकों के विचारार्थ संवादरूप में प्रस्तुत है-

डॉ0 अम्बेडकर-आर्य लोग निर्विवादरूप से दो हिस्सों और दो संस्कृतियों में विभक्त थे, जिनमें से एक ऋग्वेदीय आर्य तथा दूसरे यजुर्वेदीय आर्य थे, जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी। ऋग्वेदीय आर्य यज्ञों में विश्वास करते थे, अथर्ववेदीय जादू-टोने में।

पं0 शिवपूजनसिंह-दो प्रकार के आर्यों की कल्पना केवल आपके और आप-जैसे कुछ मस्तिष्कों की उपज है। यह केवल कपोल-कल्पना या कल्पना विलास है। इसके पीछे कोई ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। कोई ऐतिहासिक विद्वान् भी इसका समर्थन नहीं करता। अथर्ववेद में किसी प्रकार का जादू-टोना नहीं है।

डॉ0 अम्बेडकर-ऋग्वेद में आर्यदेवता इन्द्र का सामना उसके शत्रु अहि-वृत्र (साँप-देवता) से होता है, जो कालान्तर में नागदेवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पं0 शिवपूजनसिंह-वैदिक और लौकिक संस्कृत में आकाश-पाताल का अन्तर है। यहाँ इन्द्र का अर्थ सूर्य और वृत्र का अर्थ मेघ है। यह संघर्ष आर्यदेवता और नागदेवता का न होकर सूर्य और मेघ के बीच में होनेवाला संघर्ष है। वैदिक शब्दों के विषय में नैरुक्तों का ही मत मान्य होता है। वैदिक निरुक्त प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण आपको भ्रम हुआ है।

डॉ0 अम्बेडकर-महामहोपाध्याय डॉ0 काणे का मत है कि-गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसनेयी संहिता में गोमांस भक्षण की व्यवस्था दी गई है।

पं0 शिवपूजनसिंह-श्री काणेजी ने वाजसनेयी संहिता का कोई प्रमाण और सन्दर्भ नहीं दिया है और न ही आपने यजुर्वेद पढ़ने का कष्ट उठाया है। आप जब यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तब आपको स्पष्ट गोवध निषेध के प्रमाण मिलेंगे।

डॉ0 अम्बेडकर-ऋग्वेद से ही यह स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गोहत्या करते थे और गोमांस खाते थे।

पं0 शिवपूजनसिंह-कुछ प्राच्य और पाश्चात्य विद्वान् आर्यों पर गोमांस भक्षण का दोषारोपण करते हैं, किन्तु बहुत से प्राच्य विद्वानों ने इस मत का खण्डन किया है। वेद में गोमांस भक्षण का विरोध करने वाले 22 विद्वानों के स-सन्दर्भ मेरे पास प्रमाण हैं। ऋग्वेद से गोहत्या और गोमांस भक्षण का आप जो विधान कह रहे हैं, वह वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के अन्तर से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे हैं। जैसे वेद में ’उक्ष‘ बलवर्धक औषधि का नाम है, जबकि लौकिक संस्कृत में भले ही उसका अर्थ ’बैल‘ क्यों न हो।

डॉ0 अम्बेडकर-बिना मांस के मधुपर्क नहीं हो सकता। मधुपर्क में मांस और विशेषरूप से गोमांस का एक आवश्यक अंश होता है।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपका यह विधान वेदों पर नहीं, अपितु गृह्मसूत्रों पर आधारित है। गृह्मसूत्रों के वचन वेदविरुद्ध होने से माननीय नहीं हैं। वेद को स्वतः प्रमाण मानने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार ‘दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है। उसका परिमाण 12 तोले दही में चार तोले शहद या चार तोले घी का मिलाना है।‘

डॉ0 अम्बेडकर-अतिथि के लिए गोहत्या की बात इतनी सामान्य हो गई थी कि अतिथि का ही नाम ’गोघ्न‘, अर्थात् गौ की हत्या करने वाला पड़ गया था।

पं0 शिवपूजनसिंह-’गोघ्न‘ का अर्थ गौ की हत्या करनेवाला नहीं है। यह शब्द ’गौ‘ और ’हन्‘ के योग से बना है। गौ के अनेक अर्थ हैं-यथा-वाणी, जल, सुखविशेष, नेत्र आदि। धातुपाठ में महर्षि पाणिनि ’हन्‘ का अर्थ ’गति‘ और ’हिंसा‘ बतलाते हैं। गति के अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति। प्रायः सभी सभ्य देशों में जब कभी किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए गृहपति घर से बाहर आते हुए कुछ गति करता है, चलता है, उससे मधुर वाणी में बोलता है, फिर जल से उसका सत्कार करता है और यथासम्भव उसके सुख के लिए अन्यान्य सामग्रियों को प्रस्तुत करता है और यह जानने के लिए कि प्रिय अतिथि इन सत्कारों से प्रसन्न होता है वा नहीं, गृहपति की आँखें भी उसी ओर टकटकी लगाए रहती हैं। ’गोघ्न‘ का अर्थ हुआ- ’गौः प्राप्यते दीयते यस्मै स गोघ्नः‘ त्र जिसके लिए गौदान की जाती है, वह अतिथि ’गोघ्न‘ कहलाता है।

डॉ0 अम्बेडकर-हिन्दू चाहे ब्राह्मण हों या अब्राह्मण, न केवल मांसाहारी थे, किन्तु गोमांसाहारी थे।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपका कथन भ्रमपूर्ण है, वेद में गोमांस भक्षण की बात तो जाने दीजिए मांस भक्षण का भी विधान नहीं है।

डॉ0 अम्बेडकर-मनु ने भी गोहत्या के विरोध में कोई कानून नहीं बनाया, उसने तो विशेष अवसरों पर ’गो-मांसाहार‘ अनिवार्य ठहराया है।

पं0 शिवपूजनसिंह-मनुस्मृति में कहीं भी मांस-भक्षण का वर्णन नहीं है, जो है वह प्रक्षिप्त है। आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिया। मनुजी ने कहाँ पर गो-मांस अनिवार्य ठहराया है। मनु (5/51) के अनुसार तो हत्या की अनुमति देनेवाला, अंगों को काटनेवाला, मारने वाला, क्रय और विक्रय करनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला इस सबको घातक कहा गया है।

’अछूत कौन और कैसे‘ के अतिरिक्त माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी का दूसरा ग्रन्थ है-’शूद्रों की खोज‘। इसमें भी उन्होंने वैदिक विचारधारा पर कुछ आक्षेप किए हैं। यहाँ भी पूर्ववत् संवाद शैली में डॉ0 अम्बेडकरजी का आक्षेप पक्ष और शिवपूजनसिंह का समाधान पक्ष प्रस्तुत है-

डॉ0 अम्बेडकर-पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रक्षिप्त किया है। कोल बुक का कथन है कि पुरुष सूक्त छन्द तथा शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न हैं। अन्य भी अनेक विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद का बना हुआ है।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपने जो पुरुष सूक्त पर आक्षेप किया है, वह आपकी वेद अनभिज्ञता को प्रकट करता है। आधिभौतिक दृष्टि से चारों वर्णों के पुरुषों का समुदाय-’संगठित समुदाय‘-’एक-पुरुष‘ रूप है। इस समुदाय पुरुष या राष्ट्र-पुरुष के यथार्थ परिचय के लिए पुरुष सूक्त के मुख्य मन्त्र ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्….‘ (यजुर्वेद 31/11) पर विचार करना चाहिए।

उक्त मन्त्र में कहा है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र पैर। केवल मुख, केवल भुजाएँ, केवल जंघाएँ या केवल पैर पुरुष नहीं, अपितु मुख, भुजाएँ, जंघाएँ और पैर, ’इनका समुदाय‘ पुरुष अवश्य है। वह समुदाय भी यदि असंगठित और कर्मरहित अवस्था में है तो उसे हम पुरुष नहीं कहेंगे। उस समुदाय को पुरुष तभी कहेंगे जबकि वह समुदाय एक विशेष प्रकार के क्रम में हो और एक विशेष प्रकार से संगठित हो।

राष्ट्र में मुख के स्थानापन्न ब्राह्मण हैं, भुजाओं के स्थानापन्न क्षत्रिय, जंघाओं के स्थानापन्न वैश्य और पैरों के स्थानापन्न शूद्र हैं। राष्ट्र में ये चारों वर्ण, जब शरीर के मुख आदि अवयवों की तरह सुव्यवस्थित हो जाते हैं, तभी इनकी पुरुष संज्ञा होती है। अव्यवस्थित या छिन्न-भिन्न अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को वैदिक परिभाषा में पुरुष शब्द से नहीं पुकार सकते। आधिभौतिक दृष्टि से ’यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान, क्षात्र, व्यापार-व्यवसाय, परिश्रम-मजदूरी इनका निदर्शक जनसमुदाय ही ’एक पुरुष‘ रूप है।

चर्चित मन्त्र का महर्षि दयानन्द इस प्रकार अर्थ करते हैं-”इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण तथा सत्यभाषण और सत्योपदेश आदि श्रेष्ठ कर्मों से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है। इन मुख्य गुण और कर्मों के सहित होने से वह मनुष्यों में उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है। इस पुरुष के उपदेश से खेती, व्यापार और सब देशों की भाषाओं को जानना तथा पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिद्ध होता है, जैसे पग सबसे नीचे का अंग है, वैसे मूर्खता आदि निम्न गुणों से शूद्र वर्ण सिद्ध होता है।“

आपका लिखना कि पुरुष सूक्त बहुत समय बाद ऋग्वेद में जोड़ दिया गया, सर्वथा भ्रमपूर्ण है। चारों वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं, पुरुष सूक्त बाद का नहीं है। मैंने अपनी पुस्तक ”ऋग्वेद के दशम मण्डल पर पाश्चात्य विद्वानों का कुठाराघात“ में सम्पूर्ण पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों के इस मत का खण्डन किया है कि ऋग्वेद का दशम मण्डल, जिसमें पुरुष सूक्त भी विद्यमान है, बाद का बना हुआ है।

डॉ0 अम्बेडकर-शूद्र क्षत्रियों के वंशज होने से क्षत्रिय है। ऋग्वेद में सुदास, शिन्यु, तुरवाशा, तृप्सु, भरत आदि आदि शूद्रों के नाम आये हैं।

पं0 शिवपूजनसिंह-वेदों के सभी शब्द यौगिक हैं, रूढ़ि नहीं। आपने ऋग्वेद से जिन नामों को प्रदर्शित किया है। वे ऐतिहासिक नाम नहीं हैं। वेद में इतिहास नहीं है, क्योंकि वेद सृष्टि के आदि में दिया ज्ञान है।

डॉ0 अम्बेडकर-छत्रपति शिवाजी शूद्र तथा राजपूत हूणों की सन्तान हैं। (शूद्रों की खोज, दसवाँ अध्याय, पृष्ठ 77 से 96)

पं0 शिवपूजनसिंह-शिवाजी शूद्र नहीं, वरन् क्षत्रिय थे, इसके लिए अनेकों प्रमाण इतिहासों में भरे पड़े हैं। राजस्थान के प्रख्यात इतिहासज्ञ, महामहोपाध्याय डॉ0 गौरीशंकर हीराचन्द ओझा डी0 लिट् लिखते हैं-’मराठा जाति दक्षिणी हिन्दुस्तान की रहनेवाली है। उसके प्रसिद्ध राजा छत्रपति शिवाजी के वंश का मूल-पुरुष मेवाड़ के सीसोदिया राजवंश से ही था।‘ कविराज श्यामलदासजी लिखते हैं-‘शिवाजी महाराणा अजयसिंह के वंश में थे।‘ यही सिद्धान्त डॉ0 बालकृष्ण जी एम0ए0डी0 लिट्, एफ0आर0एस0एस0 का भी है।

इसी प्रकार राजपूत हूणों की सन्तान नहीं, किन्तु शुद्ध क्षत्रिय हैं। श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य एम0 ए0, श्री ई0बी0 कावेल, श्री शेरिंग, श्री व्हीलर, श्री हंटर, श्री क्रूक, पं0 नगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य एम0एम0डी0एल0 आदि विद्वान् राजपूतों को शूद्र क्षत्रिय मानते थे। प्रिवी कौंसिल ने भी निर्णय किया है, अर्थात् जो क्षत्रिय भारत में रहते हैं और राजपूत एक ही श्रेणी के हैं।

            6 दिसम्बर 1956 को माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी का देहावसान हुआ। शिवपूजनसिंह का यह चर्चित ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख ’सार्वदेशिक‘ मासिक में उनके देहावसान से लगभग पाँच साल तीन महीने पूर्व प्रकाशित हुआ था। ’सार्वदेशिक‘ से डॉ0 अम्बेडकरजी सुपरिचित थे तथा चर्चित अंक भी उनकी सेवा में यथासमय भिजवा दिया गया था। भारत रत्न डॉ0 अम्बेडकरजी के ’अछूत कौन और कैसे‘ और ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखित ’ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका‘ एवं रिसर्च स्कासॉलर शिवपूजनसिंह कुशवाह का ’भ्रान्ति निवारण‘ नामक 16 पृष्ठीय आलेख मूलरूप में ही पढ़कर आशा है विचारशील पाठक सत्यासत्य का निर्णय लेंगे। मूलतः ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख संवाद शैली में नहीं है, अपितु शंका-समाधान शैली में है। हमने स्वाध्यायशील पाठकों की सुविधा और सरलता हेतु संवाद शैली में रूपान्तरित किया है।

पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी का परामर्श: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

सार्वदेशिक आर्य महासम्मेलन का सातवाँ अधिवेशन 27 अक्टूबर से 10 नवम्बर 1951 तक ऋषि निर्वाण के अवसर पर मेरठ नगर में आयोजित किया गया था। उसका स्वरूप क्या हो इस विषय पर पं0 ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु (1892-1964) ने वेदवाणी मासिक, वर्ष 4, अंक-1 में विस्तृत लेख लिखा था। जिसमें श्री जिज्ञासुजी ने डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल पर अपनी राय आर्यसमाज को प्रस्तुत करने का आग्रह करते हुए लिखा था, ”हिन्दू कोड बिल पर आर्यसमाज ने कोई स्पष्ट घोषणा नहीं की, अब तो यह विचारार्थ उपस्थित भी हो रहा है। मेरे विचार में इस विषय में अवश्य ही निश्चित घोषणा करनी चाहिए। आर्यसमाज को इस कोड बिल की एक-एक धारा को लेकर एक-एक पर अपनी धारणा घोषित करनी चाहिए थी, अब भी करनी चाहिए। जितना अंश ग्राह्म हो, उस पर ग्राह्मता की मोहर लगावें। यदि उसमें कुछ परिवर्तन वा परिवर्धन की आवश्यकता हो, तो भी एक बार इस विषय में निश्चित रूप निर्धारित कर उसकी घोषणा करनी उचित है, घसड़-पसड़ ठीक नहीं“—”हिन्दू कोड बिल पर अपना विचार निःसंकोच स्पष्ट देवें।“ हिन्दू कोड बिल अपने मूल रूप में यथासमय पारित नहीं हो पाया। 1956 में वह बिल संशोधित रूप में आया और दो हिस्सों में बंटकर ”हिन्दू मैरिज एक्ट (हिन्दू विवाह अधिनियम) और हिन्दू सक्सेशन एक्ट (उत्तराधिकार अधिनियम)“ के नाम से पास हो गया।

पं लक्ष्मीदत्त दीक्षित और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में आर्यजगत् के एक शिरोमणि विद्वान् पं0 लक्ष्मीदत्तजी दीक्षित (स्वामी विद्यानन्दजी सरस्वती-1915-2003) डॉ0 अम्बेडकरजी के सम्पर्क में आये थे। उनकी माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से चार बार मुलाकात हुई थी। श्री लक्ष्मीदत्तजी उस समय दिल्ली के दरियागंज क्षेत्र में रहते थे, तो डॉ0 अम्बेडकरजी की कोठी तिलक मार्ग पर थी। जब पं0 दीक्षितजी की डॉ0 अम्बेडकरजी से सर्वप्रथम भेंट हुई, तब माननीय डॉ0 महोदय ने स्पष्ट किया, ’मेरा इस बात पर कोई आग्रह नहीं है कि हिन्दू समाज की एक आचार संहिता हो।‘

द्वितीय भेंट में माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 दीक्षितजी से कहा-’सनातनधर्मियों के विरोध की मुझे चिन्ता नहीं, क्योंकि वे तो सदा से हर अच्छी बात का विरोध करते आये हैं और छह महीने से अधिक उनका विरोध चलता नहीं। आर्यसमाज से बात करने के लिए मैं हर समय तैयार हूँ, क्योंकि सब बातों में उससे सहमत न होते हुए भी इतना तो मानता ही हूँ कि उसकी बात बुद्धिपूर्वक होती है।

तीसरी बात जब पं0 लक्ष्मीदत्तजी डॉ0 अम्बेडकरजी से मिलने गए तो वे उन्हें एक बड़े कमरे में ले गये। जहाँ दूर-दूर तक मेजों पर बड़ी-बड़ी पुस्तकें फैली हुई थीं और अनेक विद्वान, जिनमें एक दो सन्यासी भी थे, उनका अध्ययन कर रहे थे। माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने बतलाया कि जो लोग हिन्दू कोड बिल को हिन्दू धर्म का विरोधी कहते हैं, उनके सामने मैं इसकी एक-एक धारा के लिए हिन्दू शास्त्रों से दस-दस प्रमाण प्रस्तुत करूँगा, श्री दीक्षितजी के अनुसार ’डॉ0 अम्बेडकर के लिए ऐसा करना कुछ कठिन नहीं था।

पं0 लक्ष्मीदत्तजी ने हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में देशभर के उच्च कोटि के 500 हिन्दू विद्वानों और धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक नेताओं को एक परिपत्र भेजा था, जो कि जवाबी पोस्टकार्ड के रूप में था, जिसमें उन्होंने लिखा था-हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में तीन प्रकार के मत हैं-1. उसके एक-एक अक्षर का विरोध किया जाए। 2. उसके एक-एक अक्षर का समर्थन किया जाए। 3. उस पर विचार करके उसमें जो अच्छी बातें हैं, उनका समर्थन और जो अनुचित हो, उनका विरोध किया जाए। साथ में संलग्न जवाबी कार्ड में तीनों मत उद्धृत कर विद्वानों से कहा गया कि जिससे सहमत हैं, उसे छोड़कर शेष दोनों को काट दें और अपने हस्ताक्षर करके लौटा दें।

पाँच सौ में से लगभग तीन सौ व्यक्तियों ने उत्तर भेजे। उनमें से केवल एक केन्द्रीय मन्त्री श्री नरहर विष्णु गाडगिल ने बिल के एक-एक अक्षर का समर्थन किये जाने के पक्ष में अपना मत दिया, तो तत्कालीन हिन्दू महासभा के नेता श्री नारायण भास्कर खरे ने इसके एक-एक अक्षर का विरोध किये जाने के पक्ष में अपनी सम्मति दी। शेष सब ने विचारोपरान्त उचित बातों का समर्थन करने तथा अनुचित का विरोध करने के पक्ष में अपना मत दिया। पं0 लक्ष्मीदत्तजी ने उक्त समस्त विवरण डॉ0 अम्बेडकरजी को भेज दिया।

 

सम्भवतः दिसम्बर 1949 में हिन्दू कोड बिल लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। उस दिन लोकसभा की दर्शक दीर्घा खचाखच भरी हुई थी। श्री दीक्षितजी को उस दिन लोकसभा के उपाध्यक्ष श्री अनन्त शयनम् आयंगर के प्रियजनों के लिए सुरक्षित कक्ष में स्थान मिल गया था। डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 लक्ष्मीदत्त द्वारा संकलित उक्त विवरण ’हिन्दुस्तान टाइम्स‘ को यथास्थान प्रकाशनार्थ दे दिया। जिस दिन हिन्दू कोड बिल लोकसभा में प्रस्तुत हुआ। ठीक उसी दिन वह विवरण ’हिन्दुस्तान टाइम्स‘ में प्रकाशित हुआ। समाचार पत्र का तीसरा पृष्ठ पं0 लक्ष्मीदत्तजी के वक्तव्य से भरा पड़ा था। इस प्रकार विद्वानों के मत संकलन और उसके प्रकाशन-प्रसारण के सिलसिले में श्री लक्ष्मीदत्तजी की डॉ0 अम्बेडकरजी से चैथी मुलाकात हुई थी।