कुरान समीक्षा : रोजा रखना जरूरी है

रोजा रखना जरूरी है

दिन में न खाना और रात में खना इस रिवाज को स्वास्थ्य विज्ञान के आधार पर सही साबित करें।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या अय्युहल्लजी-न आमनू कुति-ब…….।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू २३ आयत १८३)

ईमान वालों। जिस तरह तुमसे पहले किताब वालों पर रोजा रखना फर्ज (कत्र्तव्य) था। तुम पर भी फर्ज किया गया, ताकि तुम पापों से बचो।

समीक्षा

रोजा रखने की आज्ञा तौरेत, जबूर और इन्जील नाम की किसी भी पुरानी किताब में नहीं दी गई, यदि कोई मुसलमान मौलवी दिखा सके तो इनाम मिलेगा। इसके अलावा रोजो में दिन भर न खाना और रात में खाना स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि से भी गलत है। भोजन सूर्य के प्रकाश में या दिन छिपने से पूर्व कर लेना चिकित्सा की दृष्टि से भी उचित रहता है। कुरान का रोजा रखने का तरीका अवैज्ञानिक है। अरबी खुदा का यह आदेश पुरानी पुस्तकों के भी विपरीत है (जिन पर कुरान आधारित है) तथा हानिकारक भी है।

कासगंज समाज का ऋणी हूँ :– राजेन्द्र जिज्ञासु

कासगंज समाज का ऋणी हूँ :-
आर्यसमाज के एक ऐतिहासिक व श्रेष्ठ पत्र ‘आर्य समाचार’ उर्दू मासिक मेरठ का कोई एक अंक शोध की चिन्ता में घुलने वाले किसी व्यक्ति ने कभी देखा नहीं। इसके बिना कोई भी आर्यसमाज के साहित्य व इतिहास से क्या न्याय करेगा? श्रीराम शर्मा से टक्कर लेते समय मैं घूम-घूम कर इसका सबसे महत्त्वपूर्ण अंक कहीं से खोज लाया। कुछ और भी अंक कहीं से मिल गये। तबसे स्वतः प्रेरणा से इसकी फाईलों की खोज में दूरस्थ नगरों, ग्रामों व कस्बों में गया। कुछ-कुछ सफलता मिलती गई। श्री यशपाल जी, श्री सत्येन्द्र सिंह जी व बुढाना द्वार, आर्य समाज मेरठ के समाज के मन्त्री जी की कृपा व सूझ से कई अंक पाकर मैं तृप्त हो गया। इनका भरपूर लाभ आर्यसमाज को मिल रहा है। अब कासगंज के ऐतिहासिक समाज ने श्री यशवन्तजी, अनिल आर्य जी, श्री लक्ष्मण जी और राहुलजी के पं. लेखराम वैदिक मिशन से सहयोग कर आर्य समाचार की एक बहुत महत्त्वपूर्ण फाईल सौंपकर चलभाष पर मुझ से बातचीत भी की है। वहाँ के आर्यों ने कहा है, हम आपके ऋणी हैं। आपने हमारे बड़ों की ज्ञान राशि की सुरक्षा करके इसे चिरजीवी बना दिया। इससे हम धन्य-धन्य हो गये। आर्य समाचार एक मासिक ही नहीं था। यह वीरवर लेखराम का वीर योद्धा था। पं. घासीराम जी की कोटि का आर्य नेता व विचारक इसका सपादक रहा। इसमें महर्षि के अन्तिम एक मास की घटनाओं की प्रामाणिक सामग्री पं. लेखराम जी द्वारा सबको प्राप्त हुई। वह अंक तो फिर प्रभु कृपा से मुझे ही मिला। उसी के दो महत्त्वपूर्ण पृष्ठों को स्कै निंग करवाकर परोपकारिणी सभा को सौंपे हैं।
पं. रामचन्द्र जी देहलवी तथा पं. नरेन्द्र जी के जन्मदिवस पर इन अंकों पर एक विशेष कार्य आरभ हो जायेगा। इसके प्रकाशन की व्यवस्था यही मेधावी युवक करेंगे।

ये पिंजरे की नारी

islam men nari

“इस्लाम में नारी” यह शब्द सुनते ही चेहरे पर चिंता की लकीर खींच जाती है और नरक के विचार आने लगते है, “पिंजरे में कैद पंछी” और “इस्लाम में नारी” लगता है ये दोनों वाक्य एक दूजे के पर्याय है

महिला आयोग हो या मानवाधिकार आयोग या so called समाजसुधारक आमिर खान हो इन्हें कभी भी इस्लाम की कुरीतियों पर मुहं खोलना याद नहीं आता है परन्तु देखा जाए तो विश्व में यदि कोई मत सम्प्रदाय है जिस पर इन लोगों को वास्तव में मुहं खोलना चाहिए तो वो है “इस्लाम”

खैर इस विषय पर जितना लिखते जायेंगे उतना कम लगेगा क्यूंकि इस्लाम में नारी केवल और केवल भोग विलास का साधन है

जिस प्रकार हम सनातनी कर्म की प्रधानता को मानते है इस्लाम को मानने वाले काम-वासना को प्रधान मानते है तभी तो बच्चे का खतना करते है ताकि उसकी सेक्स क्षमता को बढाया जा सके (ये इस्लाम को मानने वालो का तर्क है) वैसे अपने इस तर्क को छुपाने के लिए कई बार नमाज के समय शरीर के पाक साफ़ होने का वास्ता देकर उचित बताते है हां यह बात अलग है की मुहम्मद के समय तो अरब निवासी जुम्मे के जुम्मे नहाते थे

चलिए जैसे हमने इस लेख की प्रधानता नारी को दी है तो आइये इस्लाम में नारी की स्थिति और इस्लाम के विद्वानों की नारी के प्रति क्या सोच है कुरान क्या कहती है इसका विश्लेषण कर लिया जाये

अभी आपको याद होगा हाजी अली में महिलाओं के जाने पर रोक थी पर अदालत ने इस रोक को हटा दिया है और महिलाओं के हाजी अली में प्रवेश को प्रारम्भ कर दिया है

यह प्रभाव है हमारे सनातन धर्म का उसी के प्रभाव और सनातन धर्म में नारी के स्थान से प्रभावित होकर ही आज महिलाओं को हाजी अली में जाने अधिकार प्राप्त हुआ है वरना जैसे अरब देशों में महिलाओं की शरीयत से दयनीय स्थिति ही वैसी भारत में भी इस्लामिक महिलाओं की स्थिति बन चुकी है

महिलाओं का मस्जिदों में जाने पर प्रतिबन्ध कुरान का लगाया है यह तर्क इस्लामिक विद्वान देते आये है

“इस्लामिक कानून में पसंदीदा शक्ल यही है की वह (नारी) घर में रहे जैसा की आयत “अपने घरों में टिककर रहो” (कुरान ३३:३३)

“हाँ कुछ पाबंदियों के साथ मस्जिदों में आने की इजाजत जरुर दी गई है, लेकिन इसको पसंद नहीं किया गया !”
“उसको महरम (ऐसा रिश्तेदार जिससे विवाह हराम हो) के बिना सफ़र करने की भी इजाजत नहीं दी गई”
इसी तरह एक हदीस में फरमाया है की

“औरतों के लिए वह नमाज श्रेष्ठ है जो घर के एकांत हालत में पढ़ी जाए”
“नबी ने हिदायत फरमाई की छिपकर अकेले कोने में नमाज पढ़ा करो”

जहाँ एक तरह सम्पूर्ण विश्व इस बात पर जोर दे रहा है जो सनातन धर्म की देन है की महिला और पुरुष को समान दर्जा दिया जाए
वहीँ इस्लाम में नारी को आज तक केवल भोग का साधन मात्र रखा हुआ है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हाजी अली की घटना है जहाँ किसी इस्लामिक संस्था ने नहीं बल्कि अदालत को मस्जिद में जाने का अधिकार दिलाने के लिए आगे आना पड़ा

ये एक घटना नहीं है ऐसी कई घटना है जिससे ये प्रमाणित हो जाता है की इस्लाम आज तक उस द्कियानुकिश सोच से आगे नहीं बढ़ पाया कभी कभी ये मजाक भी सही लगता है और सही भी है की सम्पूर्ण विश्व (इस्लाम को छोड़कर) आज चाँद पर पहुँच गया है पर इस्लाम अभी तक बुर्के में ही अटका हुआ है

इस्लाम के पैरोकार इस्लाम में महिला की स्थिति सनातन धर्म से बेहतर बताने के कई झूठे दावे करते है परन्तु उनके दावों की पोल उनके इमामों के फतवे ही खोल देते है तो कोई और क्या कहे

कुरान में एक आयत है जहाँ औरतों को पीटने तक की इजाजत दी गई है उसे प्रमाणित यह व्रतांत करता है

“हदीस की किताब इब्ने माजा में है की एक बार हजरत उमर ने शिकायत की कि औरते बहुत सरकश हो गई है, उनको काबू में करने के लिए मारने की इजाजत होनी चाहिए और आपने इजाजत दे दी ! और लोग ना जाने कब से भरे बैठे थे, जिस दिन इजाजत मिली, उसी दिन सतर औरते अपने घरों में पिटी गई”

यहाँ तर्क देने को कुछ बचता नहीं है इस्लामिक विद्वानों के पास क्यूंकि यह तो कुरान ही सिखाती है और मोहम्मद साहब ने इसे और पुख्ता कर दिया

अब यदि किसी को विचार करना है तो इस्लाम को मान रही महिलाओं, औरतों, बहु, बेटियों को करना है की वे कब तक इस जहन्नुम में रहेगी और कब अपनी आवाज को इन अत्याचारों के विरुद्ध बुलंद करेगी या क़यामत तक का इन्तजार करते रहेगी

और सतर्क होना है तो गैर इस्लामिक महिलाओं को की इस मत से जुड़े लड़कों के जाल में फसकर अपने परिजनों को जीते जी चिता में मत जलाना

इसके साथ ही में अपने शब्दों को विराम देता हूँ और वही निवेदन पुनः करता हूँ की बेहतर भविष्य और आमजन में जानकारी पहुंचाने हेतु www.aryamantavya.in के सभी लेखों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाए

धन्यवाद

हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो

ओउम
हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो
डा. अशोक आर्य
भोजन मानव की ही नहीं प्रत्येक प्राणी की एक एसी आवश्यकता है , जिसके बिना जीवन ही sambhav नहीं | इस लिए प्रत्येक प्राणी का प्रयास होता है कि उसे उतम भोजन प्राप्त हो | एसा भोजन वह उपभोग में लावे कि जिससे उस की न केवल क्षुधा की ही पूर्ति हो अपितु उसका स्वास्थ्य भी उतम हो तथा शरीर में बल भी आवे | अत्यंत स्वादिष्ट ही नहीं अत्यंत पौष्टिक भोजन करने की अभिलाषा प्रत्येक प्राणी अपने में संजोये रहता है | इस समबन्ध में वेद ने भी हमें बड़े सुन्दर शब्दों में प्रेरणा दी है | यजुर्वेद के अध्याय ११ के मन्त्र संख्या ८३ में इस प्रकार परमपिता परमात्मा ने हमें उपदेश किया है : –
ओउम अन्नपते$न्नस्य नो देह्यमीवस्य shushmin: |
प्रप्रं दातारं तारिष उर्ज्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे || यजुर्वेद ११.८३ ||
इस मन्त्र में चार बातों की ओर विशेष ध्यान आकृष्ट किया गया है | यह चार बातें इस प्रकार हैं : –
(१) अन्न अर्थात समस्त भोग्य पदार्थों का स्वामी परमपिता परमात्मा है –
हम जो अन्न का उपभोग करते हैं , उस अन्न का अधिपति , उस अन्न का स्वामी, उस अन्न का maalik हमारा वह परम पिता, सब से बड़ा पिता, जो हम सब का जन्मदाता तथा हम सब का पालक है , उस परमपिता की अपार कृपा से ही हमें यह अन्न मिलता है | इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इसे परमपिता की अपार कृपा मानते हुए स्वीकार करें तथा इसे ख़राब न होने दें , इसमें न्यूनता न आने दें तथा अपनी थाली में उतना ही लें, जिताना हम ने खाना हो, जूठन कभी मत छोडें | यह प्रभु का प्रसाद होता है , इसे जूठन के स्वरूप छोड़ना महापाप होता है | प्रभु की दी हुयी वस्तु का तिरस्कार होता है तथा जो अन्न संसार के दूसरे प्राणी के ग्रहण के योग्य होता है, उसे जूठन स्वरूप छोड़ देना भी एक महाव्याधि ही तो है |
(२) वही अन्न सेवन में लावें जो svasth रखते हुए बल प्रदान करे : –
संसार का प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह सदा svasth रहे | उसे जीवन में कभी कोई रोग न आवे | वह सदा निरोग रहे | svasth जीवन में ही मानव प्रसन्न रह सकता है | प्रसन्नता मानव जीवन की प्रथम आवश्यकता होती है | प्रसन्न व प्रफुल्लित व्यक्ति ही न केवल जीवन व्यापार को अच्छे से कर सकता है अपितु उसे ठीक से संपन्न कर धन एश्वर्य को भी प्राप्त कर सकता है | संसार में कौन सा प्राणी एसा मिलेगा, जो धन की अभिलाषा न रखता हो ? अर्थात सब प्राणी मनुष्य धन प्राप्ति की इच्छा , कामना करते हैं | इस के लिए उनका खान पान , आहार विहार एसा होना आवश्यक है, जिस से उसे अच्छा स्वास्थ्य मिल सके तथा वह तीव्र गति से प्रभु प्रार्थना के साथ ही साथ अधिकतम धन अर्जन कर सके |
मानव की यह भी अभिलाषा रहती है कि परमपिता परमात्मा की महती अनुकम्पा उस पर बनी रहे ताकि वह आजीवन svasth रहने के साथ ही साथ बलवान भी रहे | svasth तो है किन्तु शरीर इतना सशक्त नहीं है कि वह अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए खुले रूप से यत्न कर सके तो एसे स्वस्थ्य शरीर का भी कोई विशेष लाभ नहीं होता | इसलिए मन्त्र में यह कहा गया है कि svasth शरीर के साथ ही साथ हमारा यह शरीर बलिष्ठ भी हो, ताकि हम अपनी आवश्यकताओं को स्वयं ही पूर्ण करने में सक्षम हों | svasth शरीर में ही जीवन की खुशियाँ छुपी रहती हैं , svasth शरीर ही सब प्रकार की प्रसन्नताओं को दिलाने वाला होता है | जब शरीर svasth नहीं , बलिष्ठ नहीं तो मन बुझा बुझा सा रहता है | बुझे मन से जीवन का कोई भी कार्य अच्छे से संपन्न नहीं होता | जब कार्य ही अच्छे से नहीं हो रहा तो हम धन अर्जन कैसे कर सकते हैं ? अत: अधिकतम धन की प्राप्ति के लिए, एशवर्य की प्राप्ति के लिए, सुखों की प्राप्ति के लिए हम परमपिता से उतमस्वास्थ्य की प्रार्थना करते हुए एसा भोजन करते है कि जिससे हम न केवल svasth ही रहे अपितु बलवान भी बनें |
(३) जिस साधन से हम अन्न प्राप्त करते है , उसका kratgya हों : –
मानव स्वार्थी होता है | वह साम,दाम, दंड, भेद से धन एशवर्य तो प्राप्त करने का यत्न करता है किन्तु यह सब प्राप्त करने के पश्चात उस प्रभु का धन्यवाद करना भूल जाता है , उस प्रभु का शुक्रिया करने में प्रमाद कर जाता है , जिसकी महती कृपा से यह सब सुख , साधन, धन,एश्वर्य प्राप्त किया होता है | इस लिए मन्त्र कहता है कि हम सब सुखों को पाने की न केवल इच्छा ही करें अपितु यह सब पाने के पश्चात, यह सब कुछ उपलब्ध कराने वाले उस परमपिता परमात्मा को हम भूलें मत अपितु उस दाता को स्मरण रखें , उसका धन्यवाद करें | वह हम सब का दाता है | जीवन में अनेक बार हम ने उस से कुछ न कुछ माँगते ही रहना है | यदि हम उसका धन्यवाद ही न करेंगे तो भविष्य में हम उससे कुछ ओर मांगना चाहेगे तो कैसे मांगेंगे ? अत: उस दाता का धन्यवाद करना कभी न भूलें |
(4) प्रभु से प्रार्थना करें कि हमारे परिजनों व पशुओं को भी बलकारक भोजन मिले : –
मानव अपने स्वार्थ के कारण स्वयं तो उतामोतम भोग्य प्राप्त करना चाहता है किन्तु दूसरों के सुखों की ओर ध्यान ही नहीं देता | यह तो इतना स्वार्थी है कि मन में यहाँ तक सोचता है कि मेरी तृप्ति ही नहीं होनी चाहिए अपितु मेरे पास अतिरिक्त धन भी इतना होना चाहिए कि मेरे कोष के उपर से छलकता हुआ दिखाई दे , इस के लिए चाहे दूसरे के सुखों का अंत ही kyon न करना pade , यहाँ तक कि दूसरों का बढ ही kyon न करना pade | जब हम अपनी संपत्ति को badhane के लिए दूसरों के नाश तक की kamana करेंगे , प्रभु के बनाए अन्य praniyon के जीवन को भी नष्ट करने पर भय नहीं खायेंगे तो वह प्रभु निश्चित रूप से ही हमसे rusht होकर हमें दण्डित करेगा | इससे हमारी सुख सुविधा में baadha आवेगी | इस लिए मन्त्र कहता है की हे प्राणी ! प्रभु की अपार कृपा से tujhe यह atyadhik धन sampati mili है , इसे tu जितना अपने लिए उपयोगी , अपने लिए आवश्यक समझता है , अपने उपभोग के लिए रख तथा शेष धन से न केवल अपनेपरिजनों को बाँट कर उनकी तृप्ति कर अपितु एसे praniyon ko , पशु pakshiyon को भी बाँट दे जिन को abhi भोजन नहीं मिला | इस प्रकार in शब्दों में मन्त्र मानव को दान करने की , दूसरों का सहयोग करने की , sah astitv की भी प्रेरणा देता है | जब मनुष्य दान करेगा , दूसरों की आवश्यकताओं की पूर्ति में लगेगा तो उसे sammaan मिलेगा, yash मिलेगा, kirti milegi | यह सब उस प्रभु की महती कृपा का ही फल है |
अत: मन्त्र हमें यह उपदेश दे रहा है कि हम उस अन्न को ग्रहण करें जो हमें svasth रखे तथा बलवान बनावे, जिस समाज के sahyog से यह अन्न प्राप्त करो उस समाज का धन्यवाद अवश्य करें तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही साथ अन्य praniyon की सहायता इस अन्न से करें | इस सब के साथ ही साथ यह भी मत भूलें कि यह जी कुछ भी मिला है , वह उस परमात्मा की महती कृपा का ही परिणाम है तथा वह परमात्मा ही इस सब का स्वामी है | इस लिए सदा उस प्रभु को याद रखें |
हमारा जीवन जिस अन्न के कारण बना हुआ है , उस अन्न की सुरक्षा का भी हम सदा ध्यान रखें | आज कल हमारे परिवारों में जिस प्रकार अन्न का तिरस्कार हो रहा है, नाश हो रहा है , वह पहले कभी न होता था | अन्न भंडार में अन्न को जीव नष्ट कर रहे हैं, साफ़ करते समय बहुत सा अन्न कूड़े में डाल देते हैं , पैरों में फैंक देते है | भोजन बनाते समय बहुत सा अन्न नष्ट कर देते हैं तथा खाते समय भी हम एक भाग जूठन के रूप में ही फैंक देते हैं | इतने अन्न से , जो हमने नष्ट कर दिया , अन्य कितने लोग तृप्त हो जाते | इसलिए मन्त्र अन्न की सुरक्षा व बचत के उपाय करने के लिए भी प्रेरित करता है |
उपनिषदों में भी अन्न निंदा को रोकने के लिए इस प्रकार उपदेश किया है :-
अन्नं न निन्द्यात तद वरतम |
अन्न का तिरस्कार न करने का, निंदा न करने का अथवा नष्ट न करने का प्रत्येक मनुष्य को व्रत लेना चाहिए , प्रतिज्ञा करना चाहिए |
पारस्कर सूत्र में भी इस प्रकार कहा गया ही :-
अन्नं साम्राज्यनामअधिपति: | पारस्कर ग्र्ह्यसुत्र १.५.१० |
जिस राजा के राज्य में प्रजा अन्न के अभाव से दुखी नहीं होती , वह राज्य ही स्थिर होता है | अन्न के अभाव में भूखे लोग दुखी हो कर ,शोषण करने वाले बड़े बड़े राज्यों को भो नष्ट करने का कारण बनते हैं | जब व्यक्ति भूखा होता है तो वह किसी भी ढंग से अपने उदर की तृप्ति के साधन धुन्धता है | इस के लिए चोरी , डाका, क़त्ल आदि उसके मार्ग में बाधा नहीं होता | इस प्रकार राज्य में वह अराजकता पैदा कर देता है तथा उस राज्य के नष्ट का कारण बनता है | इस लिए राजा का भी करे यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने राज्य को स्थिर बनाए रखने के लिए प्रजा की प्रसन्नता का तथा उसकी तृप्ति का भी भर पूर प्रयास करो |
upanishad तो यहाँ तक कहता है कि अन्न को ही ब्रह्म samajho | अन्न का यथावश्यक प्रयोग करो , उसका दुरुपयोग कभी मत करो | जो भोजनार्थ अन्न तुम्हारी थाली में परोसा गया है , यदि वह दोषपूर्ण नहीं है तो उसे बिना किसी त्रुटी निकाले प्रसन्नता पूर्वक उपभोग करें | अन्न को ब्रह्म कहने का तथा उसकी उपासना करने का यह ही अभिप्राय है | भाहूत से लोग एसे भी hote हैं जो अन्न में dosh निकलते रहते हैं | इस में मिर्च कम है या अधिक है, यह स्वादिष्ट नहीं है आदि अनेक प्रकार से उसका तिरस्कार करते रहते हैं तथा मन मारकर भोजन करते हैं , एसे व्यक्ति को अन्न का पूर्ण लाभ नहीं मिलता, मात्र पेट भरने का कार्य वह अन्न कर पाता है | ठीक से पौषण नहीं कर पाता | अत: अन्न का तिरस्कार मत करो तथा जो मिला है, उसे प्रसन्नता से ग्रहण करो तो वह ठीक से पौषण करेगा |
मन्त्र हमें यह ही उपदेश करता है कि हम svaasthyprad व पौष्टिक भोजन करें | जिस samaj के sahyog से मिला है, उनका धन्यवाद करें, बाँट कर खावें , जो मिला है, उसे प्रभु का उपहार मानकर प्रसन्नता पूर्वक खावें ,उसमें न्युन्तातायें न निकालें तो यह अन्न हमारे लिए शक्तिवर्धक व स्वास्थ्य को बढ़ानेवाला होगा |

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा: औरतों पर खुदाई जुल्म

औरतों पर खुदाई जुल्म

जो खुदा अपनी ही प्रजा (स्त्रियों) पर जुल्म ढाने, उनसे व्यभिचार करने, बलात्कार करने का हुक्म दे तो क्या वह जालिम व दुष्ट नहीं है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या अय्युहल्लजी-न आमनू कुति-ब………।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू २२ आयत १७८)

ऐ ईमान वालों! जो लोग मारे जावें, उनमें तुमको (जान के) बदले जान का हुक्म दिया जाता है। आजाद के बदले आजाद और गुलाम के बदले गुलाम, औरत के बदले औरत।

समीक्षा

इसमें हमारा ऐतराज इस अंश पर है कि ‘‘औरत के बदलने औरत’’ पर जुल्म किया जावे। यदि कोई बदमाश किसी की ओरत पर जुल्म कर डाले तो उस बदमाश को दण्ड देना मुनासिब होगा किन्तु उसकी निर्दोष औरत पर जुल्म ढाना यह तो सरासर बेइन्साफी की बात होगी। ऐसी गलत आज्ञा देना अरबी खुदा को जालिम साबित करता है, न्यायी नहीं।

वल्मुह्सनातु मिनन्निसा-इ इल्ल मा………।।

(कुरान मजीद पारा ५ सूरा निसा रूकू ४ आयत २४)

ऐसी औरतें जिनका खाविन्द जिन्दा है उनको लेना भी हराम है मगर जो कैद होकर तुम्हारे हाथ लगी हों उनके लिये तुमको खुदा का हुक्म है….. फिर जिन औरतों से तुमने मजा उठाया हो तो उनसे जो ठहराया उनके हवाले करो। ठहराये पीछे आपस में राजी होकर जो और ठहरालो तो तुम पर इस में कुछ उज्र नहीं। अल्लाह जानकर हिकमत वाला है।

समीक्षा

निर्दोष औरतों को लूट में पकड़ लाना और उनसे व्यभिचार करने की खुली छूट कुरानी खुदा ने दे दी है, क्या यह अरबी खुदा का स्त्री जाति पर घोर अत्याचार नहीं है? क्या वह व्यभिचार का प्रचारक नहीं था। फीस तय करके औरतों से व्यभिचार करने तथा फीस जो ठहरा ली हो उसे देने की आज्ञा देना क्या खुदाई हुक्म हो सकता है? अरबी खुदा और कुरान जो औरतों पर जुल्म करने का प्रचारक है क्या समझदार लोगों को मान्य हो सकता है?

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन : राजेंद्र जिज्ञासु जी

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन :- इस बार केवल एक ही प्रेरक प्रसंग दिया जाता है। नरवाना के पुराने समर्पित आर्य समाजी और मेरे विद्यार्थी श्री धर्मपाल तीन-चार वर्ष पहले मुझे गाड़ी पर चढ़ाने स्टेशन पर आये तो वहाँ कहा कि सन् 1960 में कलायत कस्बा में आर्यसमाज के उत्सव में श्री स्वामी भीष्म जी कार्यक्रम में कूदकर गड़बड़ करने वाले साधु से आपने जो टक्कर ली वह प्रसंग पूरा सुनाओ। मैंने कहा, आपको भीष्म जी की उस घटना की जानकारी कहाँ से मिली? उसने कहा, मैं भी तब वहाँ गया था।
संक्षेप से वह घटना ऐसे घटी। कलायत में आर्यसमाज तो था नहीं। आस-पास के ग्रामों से भारी संख्या में लोग आये। स्वामी भीष्म जी को मन्त्र मुग्ध होकर ग्रामीण श्रोता सुनते थे। वक्ता केवल एक ही था युवा राजेन्द्र जिज्ञासु। स्वामी जी के भजनों व दहाड़ को श्रोता सुन रहे थे। एकदम एक गौरवर्ण युवा लंगडा साधु जिसके वस्त्र रेशमी थे वेदी के पास आया। अपने हाथ में माईक लेकर अनाप-शनाप बोलने लगा। ऋषि के बारे में भद्दे वचन कहे। न जाने स्वामी भीष्म जी ने उसे क्यों कुछ नहीं कहा। उनकी शान्ति देखकर सब दंग थे। दयालु तो थे ही। एक झटका देते तो सूखा सड़ा साधु वहीं गिर जाता।

मुझसे रहा न गया। मैं पीछे से भीड़ चीरकर वेदी पर पहुँचा। उस बाबा से माईक छीना। मुझसे अपने लोक कवि संन्यासी भीष्म स्वामी जी का निरादर न सहा गया। उसकी भद्दी बातों व ऋषि-निन्दा का समुचित उत्तर दिया। वह नीचे उतरा। स्वामी भीष्म जी ने उसे एक भी शब्द न कहा। उस दिन उनकी सहनशीलता बस देखे ही बनती थी। श्रोता उनकी मीठी तीन सुनने लगे। वह मीठी तान आज भी कानों में गूञ्ज रही हैं :-

तज करके घरबार को, माता-पिता के प्यार को,
करने परोपकार को, वे भस्म रमा कर चल दिये……

वे बाबा अपने अंधविश्वासी, चेले को लेकर अपने डेरे को चल दिया। मैं भी उसे खरी-खरी सुनाता साथ हो लिया। जोश में यह भी चिन्ता थी कि यह मुझ पर वार-प्रहार करवा सकता था। धर्मपाल जी मेरे पीछे-पीछे वहाँ तक पहुँचे, यह उन्हीं से पता चला। मृतकों में जीवन संचार करने वाले भीष्म जी के दया भाव को तो मैं जानता था, उनकी सहन शक्ति का चमत्कार तो हमने उस दिन कलायत में ही देखा। धर्मपाल जी ने उसकी याद ताजा कर दी।

हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन

ओउम

हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन

डा. अशोक आर्य
इस सृष्टि में सूर्य और चंद्रमा दो एसी शक्तियां हैं, जो कभी किसी से भयभीत नहीं
होतीं | सदैव निर्भय हो कर अपने कर्तव्य की पूर्ति में लगी रहती हैं | यह सूर्य और चन्द्र निर्बाध रूप से निरंतर.अपने कर्तव्य पथ पर गतिशील रहते हुए समग्र संसार को प्रकाशित करते हैं | इतना ही नहीं ब्राह्मन व क्षत्रिय ने भी कभी किसी के आगे पराजित होना स्वीकार नहीं किया | विजय प्राप्त करने के लिए वह सदा संघर्षशील रहे हैं | जिस प्रकार यह सब कभी पराजित नहीं होते उस प्रकार ही हे प्राणी ! तूं भी निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ कभी स्वप्न में भी पराजय का वर्ण मत कर | इस तथ्य को अथर्ववेद के मन्त्र संख्या २.१५.३,४ में इस प्रकार कहा है : –
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च , न विभीतो न रिष्यत: |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.३ ||
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च , न विभीतो न रिच्यत |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.४ ||

यह मन्त्र मानव मात्र को निर्भय रहने की प्रेरणा देता है | मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तूं सदा असकता है पने जीवन में निर्भय हो कर रह | किसी भी परिस्थिति में कभी भयभीत न हो | मन्त्र एतदर्थ udaharn देते हुए कहता है कि जिस प्रकार कभी किसी से न डरने के कारण ही सूर्य और चन्द्र कभी नष्ट नहीं होते , जिस प्रकार ब्रह्म शक्ति तथा क्षात्र शक्ति भी कभी किसी से न डरने के कारण ही कभी नष्ट नहीं होती | जब यह निर्भय होने से कभी नष्ट नहीं होते तो तूं भी निर्भय रहते हुए नष्ट होने से बच |
हम डरते हैं डर क्या है ? भयभीत होते हैं , भय क्या है ? जब हम मानसिक रूप से किसी समय शंकित हो कर कार्य करते हैं इसे ही भय कहते हैं | स्पष्ट है कि मनोशक्ति का ह्रास ही भय है | किसी प्रकार की निर्बलता , किसी प्रकार की शंका ही भय का कारण होती है , जो हमें कर्तव्य पथ से च्युत कर भयभीत कर देती है | इससे मनोबल का पतन हो जाता है तथा भयभीत मानव पराजय की और अग्रसर होता है | मनोबल क्यों गिरता है — इस के गिरने का कारण होता है पाप , इसके गिरने का कारण होता है अनाचार , इस के गिरने का कारण होता है मानसिक दुर्बलता | जो प्राणी मानसिक रूप से दुर्बला है , वह ही लोभ में फंस कर अनाचार करता है , पाप करता है , अपराध करता है , अपनी ही दृष्टि में गिर जाता है , संसार मैं सम्मानित कैसे होगा ? कभी नहीं हो सकता |
मेरे अपने जीवन में एक अवसर आया | मेरे पाँव में चोट लगी थी | इस अवस्था में भी मै अपने निवास के ऊँचे दरवाजे पर प्रतिदिन अपना स्कूटर लेकर चढ़ जाता था | चढ़ने का मार्ग अच्छा नहीं था | एक दिन स्कूटर चढाते समय मन में आया कि आज में न चढ़ पाउँगा, गिर जाउंगा | अत: शंकित मन ऊपर जाने का साहस न कर पाया तथा मार्ग से ही लौट आया | पुन: प्रयास किया किन्तु भयभीत मन ने फिर न बढ़ने दिया , तीसरी बार प्रयास कर आगे बढ़ा तो गिर गया | इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि जब भी कोई कार्य भ्रमित अवस्था में किया जाता है तो सफलता नहीं मिलती | इसलिए प्रत्येक कार्य निर्भय मन से करना चाहिए सफलता निश्चय ही मिलेगी | प्रत्येक सफलता का आधार निर्भय ही होता है |
हम जानते हैं की मनोबल गिरने का कारण दुर्विचार अथवा पापाचरण ही होते हैं | जब हमारे ह्रदय में पापयुक्त विचार पैदा होते हैं , तब ही तो हम भयभीत होते हैं | जब हम किसी का बुरा करते हैं तब ही तो हमें भय सताने लगता है कि कहीं उसे पता चल गया तो हमारा क्या होगा ? इससे स्पष्ट होता है कि छल पाप तथा दोष पूर्ण व्यवहार से मनोबल गिरता है , जिससे भय की उत्पति होती है तथा यह भय ही है जो हमारी पराजय का कारण बनता है | जब हम निष्कलंक हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार का भय नहीं सता सकता | जब हम निष्पाप हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार से भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं रहती | जब हम निर्दोष व्यक्ति पर अत्याचार नहीं करते तो हम किस से भयभीत हों ? जब हम किसी का बुरा चाहते ही नहीं तो हम इस बात से भयभीत क्यों हों की कहीं कोई हमारा बुरा न कर दे , अहित न कर दे | यह सब तो वह व्यक्ति सोच सकता है , जिसने कभी किसी का अच्छा किया ही नहीं , सदा दूसरों के धन पर , दूसारों की सम्पति पर अधिकार करता रहता है | भला व्यक्ति न तो एसा सोच सकता हो तथा न ही भयभीत हो सकता है |
इसलिए ही मन्त्र में सूर्य तथा चंद्रमा का udaharn दिया है | यह दोनों सर्वदा निर्दोष हैं | इस कारण सूर्य व चंद्रमा को कभी कोई भय नहीं होता | वह यथाव्स्त अपने दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हैं , उन्हें कभी कोई बाधा नहीं आती | इस से यह तथ्य सामने आता है कि निर्दोषता ही निर्भयता का मार्ग है , निर्भयता की चाबी है , कुंजी है | अत: यदि हम चाहते हैं कि हम जीवन पर्यंत निर्भय रहे तो यह आवश्यक है कि हम अपने पापों व अपने दुर्गुणों का त्याग करें | पापों , दुर्गुणों को त्यागने पर ही हमें यह संसार तथा यहाँ के लोग मित्र के समान दिखाई देंगे | जब हमारे मन ही मालिन्य से दूषित होंगे तो भय का वातावरण हमें हमारे मित्रों को भी शत्रु बना देता है , क्योंकि हमें शंका बनी रहती है कि कहीं वह हमारी हानि न कर दें | इस लिए हमें निर्भय बनने के लिए पाप का मार्ग त्यागना होगा, छल का मार्ग त्यागना होगा तथा सत्य पथ को अपनाना होगा | यही सत्य है , यही निर्भय होने का मूल मन्त्र है , जिस की और मन्त्र हमें ले जाने का प्रयास कर रहा है |
वेद कहता है कि मित्र व शत्रु , परिचित व अपरिचित , ज्ञात व अज्ञात , प्रत्यक्ष व परोक्ष , सब से हम निर्भय रहे | इतना ही नहीं सब दिशाओं से भी निर्भय रहे | जब सब और से हम निर्भय होंगे तो सारा संसार हमारे लिए मित्र के सामान होगा | अत: संसार को मित्र बनाने के लिए आवश्यक है कि हम सब प्रकार के पापों का आचरण त्यागें तथा सब को मित्र भाव से देखें तो संसार भी हमें मित्र समझने लगेगा | जब संसार के सब लोग हमारे मित्र होंगे तो हमें भय किससे होगा , अर्थात हम निर्भय हो जावेंगे | इस निमित वेदादेश का पालन आवश्यक है |
डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : खुदा सर्वज्ञ अर्थात हर हाजिर नाजिर नहीं है

खुदा सर्वज्ञ अर्थात हर हाजिर नाजिर नहीं है

जो खुदा आगे की बातें या मनुष्यों के दिलों की कमजोरी को न जान सके क्या वह खुदा सर्वज्ञा हो सकता है? कुरान में खुदा को सर्वज्ञ कई स्थानों पर लिखा है कुरान का वह दावा इस प्रमाण से गलत साबित हो गया।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

का-ल इन्नहू यकूलु इन्नहा ब………..।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू ८ आयत ७१)

(खुदा ने कहा) गरज उन्होंने गाय हलाल की और उनसे उम्मेद न थी कि करेंगे।

समीक्षा

इसमें कुरानी अरबी खुदा कहता है कि मुझे उम्मीद न थी कि वे लोग गाय हलाल करेंगे। इससे स्पष्ट है कि खुदा ने अपनी सर्वज्ञता का स्वयं खण्डन करके स्वयं को अल्पज्ञ घोषित कर दिया है। दो एक प्रमाण और भी देखें-

या अय्युहन्नबिय्यु हर्रिजजिल्-………………।।

(कुरान मजीद पारा ९ सूरा अन्फाल रूकू ८ आयत ६५)

ऐ पैगाम्बर! मुसलमानों को लड़ने पर उत्तेजित करो कि अगर तुम में से जमे रहने वाले बीस भी होंगे तो दो सौ पर ज्यादा ताकतवर बैठेंगे अगर तुमसे से सौ होंगे तो हजार काफिरों पर ज्यादा ताकतवर बैठेंगे। ।

अल्आ-न खफ्फफल्ललाहु अन्कुम………..।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा अन्फाल रूकू ८ आयत ६६)

अब खुदा ने तुम पर से अपने हुक्म का (बोझ) हल्का कर दिया और उसने देखा कि तुममें कमजोरी है तो अगर तुम में से जमे रहने वाले सौ होंगे तो दो सौ पर ज्यादा ताकतवर रहेंगे और अगर तुम में से हजार होंगे खुदा के हुक्म से वह दो हजार पर ज्यादा ताकतवर बैठेंगे। अल्लाह उन लोगों का साथी है जो जमे रहते हैं।

समीक्षा

इन आयतों में खुदा को स्पष्ट रूप से अल्पज्ञ बताया गया है। वह मुसलमानों की ताकत का भी सही अन्दाजा नहीं लगा पाया और धोखे में पहले गलत हुक्म दे बैठा। बाद में अपनी गलती को जब समझ पाया तो पहले हुक्म में तरमीम अर्थात् संशोधन किया गया। समझदार लोग ऐसे अल्पज्ञ अरबी खुदा को अपना पूज्य व रक्षक केसे मान सकते हैं?

देखिये कुरान में अन्यत्र भी लिखा है-

व कजालि-क ज- अल्नाकुम्……….।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू १७ आयत १४३)

और ऐ पैगम्बर! जिस किब्ले पर तुम थे हमने उसको इसी मतलब से ठहराया था ताकि हमको मालूम हो जावे कि कौन-कौन पैगम्बर के आधीन रहेगा और कौन उल्टा फिरेगा।

समीक्षा

अरबी खुदा ने इसमें साफ-साफ कहा है कि वह यह नहीं जान पाया था कि कौन-कौन व्यक्ति पैगम्बर के आधीन रहेगा और कौन खिलाफ रहेगा? यह बात खुदा जांच करने के बाद ही जान पाया था । क्या ऐसा खुदा दरअसल वास्तविक खुदा माना जा सकता है?

ईश्वर सुकृत कैसेः- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री सुधाकर आर्य कोशाबी गाजियाबाद की दोनों नन्हीं-नन्हीं पुत्रियाँ बहुत कुशाग्र बुद्धि हैं। कभी-कभी ऐसे प्रश्न पूछ लेती हैं कि उनके दादा डॉ. अशोक आर्य सोच में पड़ जाते हैं कि इतनी छोटी-सी आयु की बालिकाओं को कैसे समझाऊँ। बच्चे के स्तर पर उत्तर देना प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। एक आर्य बालक ने अपने स्वाध्यायशील पिता से पूछ लिया, वायु क्यों और कैसे चलती है? पिता के लिये समस्या खड़ी हो गई कि इसे क्या उत्तर दूँ?

डॉ. अशोक जी की चार वर्षीय पौत्री ने घर के बड़ों से पूछा, हम सबके घर में काले बाल हैं, दादा जी के काले क्यों नहीं हैं? उनकी दूसरी पोत्री से सन्ध्या के पश्चात् प्रश्न उठाया, मैं आप सबको देाती हूँ, परन्तु भगवान् दिखाई क्यों नहीं देता। मुझे उन्हें सन्तुष्ट करने को कहा गया। मैंने छोटी बालिका से कहा, तुम पहले से बड़ी हो गई हो। हम सबमें व्यापक ईश्वर हमारे शरीरों का परिवर्तन व वृद्धि करता रहता है। जवानी ढलती है, तो शरीर शिथिल हो जाता है। काले बाल श्वेत हो जाते हैं। वह प्रभु सुकृत सुन्दर और विचित्र कला वाला कलाकार या कारीगर है।

कहीं यह प्रसंग सुना रहा था तो किसी को सुकृत शब्द तो बहुत भाया, परन्तु इसे और स्पष्ट करने को कहा। साथ ही एक नया प्रश्न जोड़ दिया सूअर जैसे गन्दे प्राणी तथा सर्प जैसी योनि को बनाने वाले को वेद ‘सुकृत’ कहता है। हम उसे सुकृत कैसे मान लें?
उसे उत्तर दिया, देखो! हमारे बच्चों की आयु बढ़ती है तो पहले वाले मूल्यवान् वस्त्र कोट, स्वैटर आदि काम नहीं आते। वे ठीक होने पर भी बच्चों के काम नहीं आते। हमें बहुत व्यय करके नये मूल्यवान् वस्त्र सिलवाने पड़ते हैं, परन्तु मानव चोला वही का वही काम करता है। छोटा, कोट तो बड़ा नहीं बन सकता, परन्तु प्राु हमारे पैरों, टाँगों, भुजाओं, हाथों व मुख आदि सब अंगों को बिना कतरणी चलाये बढ़ाता जाता है। क्या कोई मानवीय कारीगर ऐसा कर सकता है? उस प्रश्न कर्त्ता तथा सब श्रोताओं का मेरे द्वारा दिया गया उत्तर बहुत जँचा। वे मुग्ध हो गये। अब उन्हें समझ में आ गया कि वेद ने ईश्वर को सुकृत क्यों कहा है।
रही बात सूअर आदि योनियों को क्यों बनाया? सो उन्हें बताया कि जिसने सूअर जैसा आपको गन्दा दिखने वाला जन्तु पैदा किया है। मोर व तोते जैसे सुन्दर प्राणी पक्षी भी उसी ने बनाये हैं। सुन्दर दर्शनीय नगरों में जहाँ स्कूल, कॉलेज, हस्पताल बनाये जाते हैं, वहीं कारागार व फांसी का फँदा भी होता है। ये भी जीवों के कल्याणार्थ आवश्यक हैं।

तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है

ओउमˎ
तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है
डा. अशोक आर्य
यह एक ध्रुव सत्य है कि इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति लम्बी आयु प्राप्त करने का अभिलाषी है | इस अभिलाषा के अनुरूप लम्बी आयु तो चाहता है किन्तु इस लम्बी आयु को पाने के लिए उसे कठिन पुरुषार्थ करना होता है | वास्तव में मानव बड़ी बड़ी अभिलाषाएं तो रखता है किन्तु तदनुरूप पुरुषार्थ नहीं करता | फिर इन विशाल अभिलाषाओं का क्या प्रयोजन ? कैसे पूर्ण हों ये अभिलाषाएं ? आज का मानव सब प्रकार से निरोग व हृष्ट पुष्ट रहते हुए ज्ञान का स्वामी बनने के लिए इच्छाओं का सागर तो ढोता है किन्तु इस सागर में से एक बूंद भी पाने के लिए , उस का उपभोग करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , जब कि सब प्रकार की उपलब्धियां पुरुषार्थ से ही पायी जा सकती हैं | पुरुषार्थ ही इस जीवन का आधार है | इस लिए वेदादि महान ग्रन्थ पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देते हैं | ज्ञान व आयु बढाने के लिए तपोमय जीवन बनाने की प्रेरणा अथर्ववेद के मन्त्र ७.६१.२ मैं इस प्रकार दी गयी है | :-
अग्ने तपस्तप्यामहे , उप तप्यामहे ताप: |
श्रु तानी श्रन्वंतो वयं, आयुष्मंत: सुमेधस: || अथर्व. ७.६१.२ ||
यदि इस मन्त्र का संक्षेप में भाव जानने का प्रयास करते हैं तो हम पाते हैं कि मन्त्र हमें उपदेश दे रहा है कि हे मनुष्य तूं मानसिक व शारीरिक तप कर | इस प्रकार तप द्वारा वेदादि का ज्ञान प्राप्त करते हुए मेधावी व दीर्घ आयु को प्राप्त कर |
भाव से स्पष्ट है कि यह मन्त्र दो प्रकार के तापों का उल्लेख कर रहा है | इन दो प्रकार के तापों का नामकरण इस प्रकार कर सकते हैं : –
१. तप
२. उपतप
मन्त्र कहता है कि इन दो प्रकार के तपों के निरंतर अभ्यास से बुद्धि शुद्ध होती है , निर्मल होती है ,तेजस्वी होती है तथा इस प्रकार के तप से मानव ज्ञान का स्वामी बन जाता है व दीर्घायु को प्राप्त होता है |
यह जो दो प्रकार के तपों का वर्णन इस मन्त्र में आया है इन में से तप को हम मानस तप तथा उपतप को शारीरिक तप का नाम दे सकते हैं | मानस तप उस तप को कहते हैं , जिस के द्वारा शरीर व मन शुद्ध होता है | इस के लिए शरीर को विशेष कष्ट नहीं करना होता | इसे पाने के लिए अधिक परिश्रम अधिक पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं होती | दूसरी प्रकार के तप का नाम उपतप के रूप
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में जो दिया है इस प्रकार के तप को पाने के लिए आसन व प्राणायाम करना होता है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि आसन व प्राणायाम को उपतप के नाम से जाना गया है | आसन व प्राणायाम के लिए मनुष्य को प्रयास करना होता है , मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है | इस प्रकार शरीर को कुछ कष्ट दे कर इस की शुद्धिकरण का प्रयास आसन व प्राणायाम द्वारा किया जाता है तो इसे उपतप के नाम से जाना गया है | गीता में उपदेश देते हुए श्लोक संख्या १७.१४ तथा श्लोक संख्या १७.१६ के माध्यम से योगी राज श्री कृष्ण जी इस प्रकार उपदेश करते हैं : –
देव्द्विजगुरुप्राग्यपूजनं शौचमार्जवम |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || गीता १७.१४ ||

मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: |
भावसंशुद्धिरित्येतत तपो मानसमुच्यते || गीता १७.१६ ||
श्रीमद्भागवद्गीता के उपर्वर्णित श्लोको के अनुसार मानस तप का अति सुन्दर वर्णन किया है | श्लोक हमें उपदेश कर रहा है कि मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मनोनिग्रह, भावशुद्धि तथा जितेन्द्रियता आदि को मानस तप जानों | ब्रह्मचर्य, अहिंसा, शरीर की शुद्धि , सरलता आदि शारीरिक तप हैं | इस प्रकार गीता भी वेदोपदेश का ही अनुसरण कर रही है | इतना ही नहीं योगदर्शन भी इसी चर्चा को ही आगे बढ़ा रहा है | योग दर्शन के अनुसार : –
अहिन्सासत्यास्तेय – ब्रह्म्चर्याप्रिग्रहा यमा: || योग. २.३० ||
शौचासंतोश -ताप – स्वाध्यामेश्वर्प्रनिधानानी नियमा: || योग २.३२.||
इस प्रकार योग दर्शन ने यम को मुख्य ताप तथा नियम को गौण या उपताप बताया है | इस के अनुसार यम पांच प्रकार के होते हैं : –
(१.) अहिंसा
(२.) सत्य
(३.) अस्तेय (चोरी न करना
( ४.) ब्रह्मचर्य का पालन
( ५). विषयों से विकृति अर्थात अपरिग्रह
योग – दर्शन कहता है कि सुखों के अभिलाषी को इन पांच यम पर चलना आवश्यक है | इस के बिना वह सुखी नहीं रह सकता | इस के साथ ही योग – दर्शन नियम पालन को भी इस मार्ग का आवश्यक अंग मानता है | इस के अनुसार नियम भी पांच ही होते हैं : _
(१) स्वच्छता , जिसे शौच कहा है
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(२) संतोष
(३) तप
(४) स्वाध्याय
(५) ईश्वर चिंतन जिसे ईश्वर प्रणिधान का नाम दिया गया है
योग दर्शन ने जहाँ पांच तप माने हैं ,वहां तप को नियम का भी भाग माना है तथा पांच नियमों में एक स्थान तप को भी दिया गया है | इस से ही स्पष्ट है की तप अर्थात पुरुषार्थ का महत्व इस में सर्वाधिक है | फिर पुरुषार्थ के बिना तो कोई भी यम अथवा नियम का पालन नहीं किया जा सकता |
अंत में हम कह सकते हैं कि अग्निरूप परमात्मा के आदेश से जब हम मानसिक व शारीरिक तप करते हैं तथा वेदादि सत्य ग्रंथों का स्वाध्याय कर ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हमें अतीव प्रसन्नता मिलती है, अतीव आनंद मिलता है | आनंदित व्यक्ति की सब मनोका – मनाएं पूर्ण होती हैं | जिसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं , उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता | प्रसन्न व्यक्ति को कभी कोई कष्ट या रोग नहीं होता, वह सदा निरोग रहता है | जो नोरोगी है उसकी आयु में कभी ह्रास नहीं होता , उसकी आयु दीर्घ होती है | अत: वेदादेश को मानते हुए वेद मन्त्र में बताये उपाय करने चाहियें , जिससे हम सुदीर्घ आयु पा सकें |
डा. अशोक आर्य