‘ईश्वर की पूजा उपासना में भेदभाव एवं हिंसा अनुचित’

ओ३म्

ईश्वर की पूजा उपासना में भेदभाव एवं हिंसा अनुचित

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

देहरादून से लगभग 70 किमी. की दूरी पर चकराता नाम का एक सुन्दर व प्रसिद्ध पर्वतीय स्थान है। इसके अन्तर्गत जौनसार बाबर क्षेत्र के एक स्थान पुनाह पोखरी स्थित शिलगुर मन्दिर में हमारे पुराने मित्र राज्यसभा सांसद श्री तरुण विजय के नेतृत्व में दलितों ने मन्दिर में सामूहिक रूप से प्रवेश करने हेतु  कल 21 मई, 2016 को निकटवर्ती ग्रामवासियों ने अपने नेता श्री दौलत कुंवर सहित एक यात्रा निकाली और मन्दिर पहुंच कर पौराणिक रीति से पूरी श्रद्धा से पूजा अर्चना की। उसके बाद मन्दिर से वापिसी में वहां तथाकथित उच्च वर्ण के लोगों की भीड़ ने सांसद महोदय, दलित नेता श्री दौलत कुंवर सहित उनके साथियों पर पत्थरों की वर्षा कर जानलेवा हमला किया जिससे सांसद महोदय व उनके अनेक साथी गम्भीर रूप से घायल हो गये। यह हिंसा पूर्णतः अप्रत्याशित व अनावश्यक होने के साथ अनुचित व धर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध हुई। इस घटना में प्रशासन की ओर से भी कुछ कमियों का उल्लेख देहरादून के आज के समाचार पत्रों में हुआ है। यह भी कहा गया है कि यह क्षेत्र उत्तराखण्ड राज्य के गृहमंत्री जी का है। सांसद जी की कार भी गहरी खाई में ढकेल दी गई और सम्पत्ति में तोड़फोड़ की गई। उनको अस्पताल पहुंचाने और सेना अस्पताल में चिकित्सा में भी अनेक बाधायें आईं जो कि गहरी चिन्ता का विषय है। बताते हैं कि सैनिक अस्पताल में दो घंटे से अधिक समय तक चिकित्सा देने में आनाकानी की गई।

 

हिंसा की यह घटना हिन्दू धर्म के इतिहास व सत्य वैदिक सिद्धान्तों के पूर्णतः विरुद्ध है। ऐसा लगता है कि हिंसा करने वालां लोगों को किन्ही ज्ञात व अज्ञात असामाजिक तत्वों ने भड़काया हो अन्यथा संगठित हिंसा का होना संदिग्ध व असम्भव होता है। हम अपने मन्दिरों के पुजारियों को भी इस विषय में किंकर्तव्यविमूढ़ वा विवेक शून्य पाते हैं। उन्हें इसका कड़ा विरोध ही नहीं करना चाहिये अपितु उनका यह उत्तरदायित्व होता है कि वह समाज में दलित-सवर्ण द्वारा पूजा को लेकर जन-जन की समानता का प्रचार करें। हिंसा की इस घटना से हिन्दू समाज कमजोर होने के साथ उनमें परस्पर विद्वेष उत्पन्न हुआ है जो पूरी तरह से सबके लिए अहितकर व हानिकारक है। इसके दूरगामी प्रतिकूल परिणाम होंगे। यह ऐसा ही है जैसा कि एक घर में भाई भाई आपस में लड़ रहे हों और एक दूसरे को मार रहे हों। हिंसा करने वाले सोचते होंगे की उन्होंने धर्म की सेवा की है परन्तु हमारे 45 वर्षों के अध्ययन के अनुसार यह घोर अधार्मिक कार्य हुआ है। मन्दिर एक सार्वजनिक स्थान होता है जहां लोग बड़ी ही पवित्र भावनायें लेकर मन को एकाग्र कर ईश्वर व उसकी किसी देवता नामी शक्ति की स्तुति कर उससे प्रार्थनायें करने आते हैं। हमारी दृष्टि से हमारे दलित भाईयों को भारत के किसी भी मन्दिर में जाकर पूजा करने का उतना ही अधिकार है जितना कि एक पुजारी व गैर दलित सवर्ण कहलाने वाले लोगों को है। वेदों में तो स्वयं ईश्वर ने अपने निराकार सत्य-चित्त-आनन्द स्वरूप की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का विधान किया है। ईश्वर की किसी मन्दिर व अन्य स्थान में स्तुति-प्रार्थना-उपासना में यदि कोई व्यक्ति भले ही वह पुजारी ही क्यों न हो, बाधा उत्पन्न करता है तो यह धर्म नहीं अपितु घोर अधर्म का काम है। ऐसा इसलिए कि संसार की समस्त मानव जाति ईश्वर की सन्तानें हैं। जिस प्रकार एक बच्चा अपने माता-पिता से बिना किसी रोक-टोक मिल सकता  है, उसी प्रकार एक भक्त व मानव, भले ही वह किसी भी धर्म-जाति-सम्प्रदाय का क्यों न हो, वह ईश्वर के उपासना घर, मन्दिर व किसी भी सार्वजनिक धार्मिक स्थान पर जाकर कर सकता है। आर्यसमाज इसका साक्षात स्वरूप उपस्थित करता है। किसी भक्त को ईश्वर वा अपने इष्ट देवता की भक्ति व उपासना के कार्य से रोकना ईश्वर का व सत्य सनातन वैदिक धर्म का विरोध करना है जो धर्म कदापि नहीं अपितु अधर्म है। ऐसा ही कार्य देहरादून के चकरौता स्थान पर 20 मई की सायं को घटित काली घटना में हुआ है। यह घटना जनता के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध तो है ही साथ हि इसमें अनेक लोगों का पक्षपात व अन्याय सम्मिलित है जिसकी जड़ में अज्ञान व स्वार्थ ही सम्भावित हैं। सुरक्षा व्यवस्था में कमी भी इस घटना को न रोक पाने में कारण रही है।

 

इस घटना का एक कारण हिन्दू समाज में प्रचलित जन्मना जातिवाद की व्यवस्था है। कुछ लोग जन्म के आधार पर अपने को बड़ा मानते हैं और दूसरों को मुख्यतः दलितों को छोटा। इसमें हमारे र्धार्मक नेता भी काफी हद तक उत्तरदायी हैं। हमने अपने जीवन काल में किसी धार्मिक पौराणिक नेता को जन्मना जातिवाद की आलोचना व खण्डन करते हुए नही सुना। महर्षि दयानन्द के वैदिक साहित्य, वेद, मनुस्मृति, गीता आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि जन्मना जातिवाद व समाज के विभिन्न वर्ग में ऊंच नीच की भावना प्राचीनतम वैदिक धर्म के सिद्धान्त व मान्यताओं के विरुद्ध है। हमें महर्षि दयानन्द का काशी में अकेले लगभग 30 दिग्गज पौराणिक पण्डितों से 16 नवमब्र, 1869 को वेदों से मूर्तिपूजा को सिद्ध करने के लिए आहूत शास्त्रार्थ की स्मृति भी मानस पटल पर उपस्थित हो रही है। न तब और न अब तक कोई मूर्तिपूजक विद्वान वेदों से मूर्तिपूजा के पक्ष में एक भी प्रमाण व मन्त्र के साथ सर्वमान्य युक्ति व तर्क ही उपस्थित कर सका है। महर्षि दयानन्द ने तो यहां तक कहा है, जो कि सत्य ही है, कि देश की गुलामी, निर्धनता, पराभव, दीनता, अज्ञानता व अन्धविश्वासों सहित अतीत व वर्तमान के देशवासियों के सभी प्रकार के कष्टों व दुःखों का कारण मुख्यतः मूर्तिपूजा, फलित ज्येतिष और मृतक श्राद्ध सहित बाल विवाह, बेमेल विवाह, अधिक खर्चीले विवाह, यथार्थ ईश्वर की उपासना का अभाव व सामाजिक सगठन की कमी आदि ही हैं। यदि स्त्री व दलितों सहित समाज के सभी वर्गों को हमारे पण्डितों ने वेदाध्ययन कराया होता तो न तो हम असंगठित होते और न गुलामी व अन्य मुसीबतें व आफते इस हिन्दू जाति पर आतीं। इतना पराभव होने व पतन के कागार पर पहुंच कर भी हम आज भी हिन्दू समाज को संगठित व मजबूत करने के स्थान पर उसे कमजोर ही किए जा रहें हैं जिसका परिणाम भविष्य में बुरा ही होना है। भविष्य की अन्धकारपूर्ण स्थिति के निराकरण एवं वर्तमान की सर्वोत्तम सामाजिक उन्नति के लिए हमें गुण, कर्म एवं स्वभाव पर आधारित एक मत, एक विचार, एक ईश्वर व एक धर्म पुस्तक वेद के नाम पर संगठिन नहीं हाना है। ऐसा न होने के कारण हम व सारा आर्यसमाज व्यथित है।

 

अब हमें ऐसा लगता है कि हिन्दू समाज व इसके धार्मिक नेता शायद सच्चे मन से इस सामाजिक भेदभाव की समस्या को हल करना ही नही चाहते। ऐसी स्थिति में एक ही उपाय है कि हमारे देश के सभी दलित भाई आर्यसमाज के अन्तर्गत संगठित हों। अपने अपने क्षेत्र में आर्यसमाज के सहयोग से आर्यसमाज मन्दिर बनायें। वहां श्री राम, श्री कृष्ण, श्री हनुमान, स्वामी दयानन्द आदि की तरह ईश्वर की वैदिक विधि से सामूहिक व एकल स्तुति प्रार्थना उपासना करें, सामूहिक व पारिवारिक यज्ञ करें, साप्ताहिक व दैनिक सत्संग करें, बच्चों को गुरुकुलों में प्रविष्ट कर उन्हें वेदों व शास्त्रों का पण्डित बनायें जिससे हमारे सभी दलित भाई हिन्दू समाज में अग्रणीय स्थान प्राप्त कर अन्यों के लिए भी आदर्श बन सकें। यह सम्भव है और इसी में पूरी मानव जाति का हित और कल्याण है। यदि ऐसा होता है तो फिर किसी को मन्दिर में प्रवेश की आवश्यकता ही नहीं होगी। न किसी तीर्थ पर जाना होगा और न कोई हमें और हमारे इन भाईयों को प्रताड़ित ही कर सकेगा। विद्या प्राप्त कर हमारे सभी भाई न केवल वैदिक विद्वान व पण्डित ही बनेंगे अपितु बड़े बड़े शासकीय पद भी प्राप्त करेंगे जैसे कि चोटीपुरा, मुरादाबाद के गुरुकुल की एक कन्या आईएएस बनी है। हमारे गुरुकंल पौंधा के अनेक बच्चे नैट परीक्षा पास कर पीएचडी कर रहे हैं व कुछ महाविद्यालयों में प्रोसेफर बन कर सफल पारिवारिक व सामाजिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

 

हमें आश्चर्य होता है कि लोग कानून से बेखौफ होकर अपराध व अनुचित कार्यों में लिप्त रहते हैं और यह स्थिति कम होने के बजाए बढ़ रही है। समाज के प्रायः सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार व्याप्त है। शिक्षा में नैतिक मूल्यों की कमी व सबके लिए अनिवार्य, समान व निःशुल्क शिक्षा न होने के कारण भी ऐसा हो रहा है। इसका समाधान केवल महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा है। हम आशा करते हैं कि देश व समाज के विशेषज्ञ लोग अपराधों के उन्मूलन पर यदि सच्ची भावना से विचार करेंगे तो उन्हें इसका समाधान वेद व ऋषि दयानन्द की विचारधारा में ही प्राप्त होगा। चकराता में घटी उपर्युक्त घटना चिन्ताजनक व दुःखद है। हमारे मन्दिर के पण्डित व पुजारियों को वेद आदि शास्त्रों का आलोचन व आलोडन कर सत्य को स्वीकार करना चाहिये। इस लेख को लिखने की प्रेरणा हमें देहरादून के यशस्वी आर्यनेता श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने की है। उनका धन्यवाद है। उन्होंने बताया कि देहरादून की आर्यसमाजों ने इस घटना पर दुःख क्षोभ व्यक्त किया है। आवश्यकता पड़ने पर निकट भविष्य में आर्यसमाज दलितों के अधिकारों के लिए आन्दोलन करेगा। उन्होंने राज्य सरकार से सभी दोषियों को कड़ा दण्ड देने की मांग की है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

डॉ0 धर्मवीर आचार्य का योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में योगदान

डॉ0 धर्मवीर आचार्य का योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में योगदान

राजवीर सिंह

महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त, वैदिक विद्वान्, गमभीर अनुसन्धाता, ओजस्वी वक्ता, उपदेशक, लेखक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती की स्थानापन्न परोपकारिणी सभा (अजमेर) के यशस्वी प्रधान तथा मन्त्री पदों के निर्वहन कर्त्ता पं0 धर्मवीर का जन्म महाराष्ट्र प्रदेश के उद्गीर क्षेत्र में आर्य परिवार से समबद्ध पिता श्री भीमसेन आर्य और माता श्रीमती ‘श्री’ के गृह में दिनाङ्क 20 अगस्त 1946 ईसवी को हुआ। आपने प्रारमभिक शिक्षा अपने जन्म क्षेत्र में प्राप्त की। तत्पश्चात् आर्यसमाज के तपोनिष्ठ एवं कर्मठ संन्यासी स्वामी ओमानन्द सरस्वती (पूर्वनाम आचार्य भगवान देव) के श्रीचरणों में अध्ययनार्थ गुरुकुल महाविद्यालय झज्जर में ईसवी सन् 1956 में प्रविष्ट हुए। आप एक मेधावी कुशाग्र बुद्धि छात्र होने के कारण अध्ययन में अग्रणी रहे। आपने गुरुकुल झज्जर, गुरुकुल काँगड़ी (हरिद्वार) आदि से आचार्य, एम.ए. तथा आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की। आपने पंजाब विश्वविद्यालय की दयानन्द शोधपीठ से ‘ऋषि दयानन्द के जीवनपरक महाकाव्यों का समीक्षात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध करते हुए पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आपने ईसवी सन् 1974 में दयानन्द कॉलेज अजमेर के संस्कृत विभाग में प्राध्यापक और अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। आप प्रभावशाली वक्ता, प्रचारक, चिन्तक, दार्शनिक तथा तार्किक हैं। आपकी सहधर्मिणी श्रीमती ज्योत्स्ना आर्या तथा आपकी पुत्रियाँ आपके सामाजिक कार्यों में पूर्णरूप से सहयोगी हैं और आपका पूरा परिवार पारस्परिक व्यवहार में संस्कृत भाषा का प्रयोग करता है।

आपने वैदिक धर्म, अध्यात्म आदि के प्रचारार्थ भारत वर्ष के प्रायः सभी प्रान्तों में यात्रा की है और विदेशों में हॉलैण्ड, सिंगापुर, नेपाल आदि स्थानों पर वैदिक धर्म का प्रचार किया है। प्रचार के साथ-साथ आप जिज्ञासु छात्रों को वैदिक साहित्य का अध्यापन भी पूरी निष्ठा से कराते रहते हैं। आप महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित परोपकारिणी सभा से ईसवी सन् 1984 में जुड़े और प्रधान तथा मन्त्री आदि पदों का निर्वहन करके सभा के उद्देश्यों तथा कार्यों को आपने एक सच्चे ऋषिभक्त के रूप में पूरा किया है। आपने परोपकारिणी सभा के अधीन अनेक प्रकल्प और योजनाएँ संचालित की हैं, जिनमें गुरुकुल स्थापना, साधना आश्रम की स्थापना, गोशाला की स्थापना आदि प्रमुख हैं।

आपने लेखन के माध्यम से महनीय कार्य किया है। आप परोपकारिणी सभा के मुखपत्र ‘परोपकारी’ पाक्षिक के अनेक वर्षों से अवैतनिक समपादक हैं। परोपकारी पत्रिका आर्यसमाज की विशिष्ट एवं मानक पत्रिका है। इसके गमभीर तथा समसामयिक समपादकीय आपकी अद्भुत प्रतिभा के प्रमाण हैं। आपकी लेखनी से समाज को ऊर्जा मिलती है।

आपके समपादकत्व में परोपकारी में ‘योगविद्या विषयक’ अनेक लेख प्रकाशित होते रहते हैं। आपने ‘सत्यार्थप्रकाश क्या है’ नामक पुस्तक के साथ-साथ अन्य लेखन भी किया है। आपके मार्गदर्शन में ऋषि उद्यान में साधना आश्रम का संचालन हो रहा है, जिसमें साधकगण साधनारत हैं। वर्ष में कई बार यहाँ योग शिविरों का आयोजन होता है, जिनमें आर्यसमाज के उच्चकोटि के योगविशेषज्ञ/योगगुरु/योगप्रशिक्षक जिज्ञासु साधकों को योग का क्रियात्मक प्रशिक्षण देते हैं और आप स्वयं भी योगविषय पर व्याखयान देने के साथ-साथ ‘योगदर्शन’ का अध्यापन करते हैं। आपकी प्रेरणा से आर्ययुवकों तथा युवतियों ने योगसाधना के मार्ग का अनुकरण किया है।

आप द्वारा वैदिक तथा दार्शनिक विषयों पर दूरदर्शन पर भी व्याखयान प्रस्तुत किये जाते हैं, जिनमें योग अध्यात्म भी एक अंग है। आपके व्यक्तिगत जीवन में योगाभयास के रूप में आसन, प्राणायाम और ध्यान अनिवार्य रूप से समाहित है। आपने विद्यार्थी काल में स्वामी ओमानन्द सरस्वती से प्राणायाम आदि का ज्ञान प्राप्त किया था। यहाँ ध्यातव्य है कि स्वामी ओमानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज के महान् योगी स्वामी आत्मानन्द सरस्वती (पं0 मुक्तिराम उपाध्याय) से योग साधना का ज्ञान प्राप्त किया था और योगदर्शन के प्रकाण्ड शास्त्रीय विद्वान् तथा साधक स्वामी आर्यमुनि से योगदर्शन का विशेष अध्ययन किया है। डॉ0 धर्मवीर आचार्य को ऐसे महान् योगसाधक (स्वामी ओमानन्द सरस्वती) से प्राणायाम आदि का विशेष ज्ञान मिला है।

डॉ0 धर्मवीर जी को अपने जीवन में अनेक योगसाधकों का सानिध्य मिला, जिनमें स्वामी सत्यपति परिव्राजक (रोजड़), स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती (हरिद्वार), स्वामी आत्मानन्द सरस्वती, स्वामी ब्रह्ममुनि आदि प्रमुख हैं। इनके साथ ही आपको पौराणिक संन्यासी महात्मा आनन्द चैतन्य (बिजनौर) की योगसाधना को भी निकट से देखने व जानने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ है।

डॉ0 धर्मवीर ने परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित अनेक ग्रन्थों का समपादन, निरीक्षण और प्रबन्धन किया, अतः इस प्रक्रिया में जितना भी योगविषयक साहित्य प्रकाशित हुआ है, उसमें आपका अनुभवी योगदान रहा है। इसके साथ ही स्वामी दयानन्द का समस्त साहित्य परोपकारिणी सभा के द्वारा प्रकाशित हुआ है। उसमें आपकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर योगविषयक बिन्दुओं की व्याखया प्रस्तुत की गई है, जिसे आपको अनेक बार पढ़ने और समपादित करने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त ऋषिमेले के अवसर पर अजमेर में आयोजित वेदगोष्ठियों में विद्वानों द्वारा प्रस्तुत शोधनिबन्धों को आपके समपादकत्व में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया है।

आर्यसमाज के प्रसिद्ध योगसाधक तथा लेखक स्वामी विश्वङ्ग द्वारा लिखित योगविषयक पुस्तकों में प्रकाशकीय का लेखन आप द्वारा किया गया है, जिनका प्रकाशन वैदिक पुस्तकालय दयानन्द आश्रम केसरगंज अजमेर द्वारा हुआ है।

उपरोक्त विवरण के आधार पर प्रमाणित है कि डॉ0 धर्मवीर आचार्य व्यक्तिगत जीवन में तथा लेखन और प्रचार के माध्यम से योगविद्या के विस्तार में संलग्न हैं और आप द्वारा सपादित परोपकारी पत्रिका तथा आपके नेतृत्व में संचालित दयानन्द साधक आश्रम और परोपकारी प्रकाशन विभाग आदि भी योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में विशेषरूप से सक्रिय हैं।

– शोधछात्र, संस्कृत, पालि एवं प्राकृत विभाग, म.द.वि.वि. रोहतक, हरियाणा

रोगी हिन्दू समाज के ये डाक्टरः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

रोगी हिन्दू समाज के ये डाक्टरः

एक बार महाराष्ट्र सभा के आदेश पर मैं धूले गाँव गया। प्रातः समय समाचार पत्र विक्रेता एक युवक से आर्य समाज मन्दिर का अता-पता पूछा। उसने कहा, ‘‘वह कौनसे भगवान् का मन्दिर है?’’ मैंने उसे कहा-‘‘तू अपने नगर के भगवानों की सूची दिखा। मैं देखकर बताऊँगा कि आर्यों का भगवान् उसमें है या नहीं?’’ यह हिन्दू समाज के रोगग्रस्त होने का एक प्रमाण है। जब रोगी स्वयं को रोगी ही न माने या रोग को रोग ही न समझे तो ठीक नहीं हो सकते। हिन्दू समाज की रक्षा का भार आज झोला छाप डाक्टरों के ऊपर है। वे बड़बोले तो हैं, परन्तु रोगी के रोग को जानते हुए भी उसका उपचार करना नहीं चाहते। घृणित जाति बन्धन तोड़ने का आन्दोलन  इन लोगों ने कभी छेड़ा? हिन्दू कृषक सैकड़ों व सहस्रों आत्महत्यायें क्यों कर रहे हैं? कभी सोचा इन्होंने कि हिन्दू समाज में ही इतनी आत्महत्यायें क्यों हो रही हैं? बलात्कार की घटनाओं की शिकार भी हिन्दू देवियाँ! अपराधी भी हिन्दू! पढ़-सुनकर रोना आता है। कभी एक नेता जी ने कहा था कि रेप इण्डिया में होते हैं, भारत में नहीं। इसका क्या अर्थ? कहाँ रेप की घटनायें नहीं हुई? योग -योग का शोर मचाने वालें के कुंभ स्नान को देखा क्या? प्रवचन, व्यायान, ज्ञान, ध्यान, योग, भक्ति भजन क्या था? बस डुबकी लगाने की होड़। म.प्र. में एक मन्दिर में मदिरा का प्रसाद दिया जाता है। शिवजी की बूटी की महिमा एक योगी बाबा बता रहे थे। बिहार में अगला मुय मन्त्री किस जाति का होगा? लव जिहाद का शोर मचाने वालों ने कभी जाति पाँति को चुनौती माना? गुजरात में कुरान का नाम लेकर गोमाँस के दोष के विज्ञापन लगाये गये। कथन तो ठीक था, परन्तु वचन कुरान का नहीं था। आर्य समाज के विद्वानों से सुन तो लिया, प्रमाण का अता-पता न किया। मुसलमान चिल्लाये। कर्मफल को, गीता को मानने वाले संकट मोचन मन्दिरों, ज्योतिषियों से दुःख निवारण करवाते, स्नान से पाप क्षमा करवाते? कहाँ गई गीता? हिन्दू समाज के झोला छाप डाक्टर रोगों पर चुप्पी साधे बैठे हैं। घर वापिसी का क्या बना? कोई पं. देव प्रकाश, पं. शान्ति स्वरूप, पं. मेघातिथि, सत्यदेव, वीरेन्द्र घर वापिस लाये क्या? आर्य समाज के नाम से ही बिदकने वाले ये डाक्टर समाज को क्या बचायेंगे? प्रमाण, सामग्री मुझसे माँगते हैं और मेरे आर्य समाज का नाम तक लेना नहीं चाहते।

हैदराबाद पुस्तक मेले में इस्लामिक बुकस्थल पर धर्म चर्चा मैं

हैदराबाद पुस्तक मेले में इस्लामिक बुकस्थल पर धर्म चर्चा

मैं (रणवीर) और राहुल जी (अकोला) पुस्तक मेले में संदर्शनार्थ गये थे। हम प्रवेश पत्र लेकर जैसे ही अन्दर गये, वहाँ पर एक अच्छा-सा मंच लगाया हुआ था, उस मंच पर प्रतिदिन नये-नये पुस्तकों का उद्घाटन होता रहता था और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते रहते थे। उस मंच के चारों तरफ भव्य सुन्दर पुस्तक बिक्री की दुकानें लगी हुई थीं। हम एक-एक बिक्री विभाग देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। एक पुस्तक बिक्री विभाग पर हमारे सहिष्णु मित्रों द्वारा खुल्लम-खुल्ला धर्म प्रचार हो रहा था, उस बिक्री विभाग में भेड़ जैसे मूर्ख, बुद्धू हिन्दुओं को भेड़ की खाल में भेड़िये दीन की ओर आकर्षित कर रहे थे। वहाँ पर जाकर हमने भी धर्म चर्चा में भाग लिया। एक मौलवी एक धर्म निरपेक्ष (सेक्यूलर) हिन्दू बाप-बेटी को कुरान हाथ में थमा कर कुरान में विज्ञान है, कुरान में विज्ञान है, कुरान में भाईचारा है, कुरान में सृष्टि विद्या है, कुरान ईश्वरीय ज्ञान है….. ऐसी-ऐसी बातें बता रहे थे। तो हमने झट से प्रश्न किया- आपके कहे अनुसार कुरान मनुष्य मात्र के लिए है, भाईचारा है, तो कुरान में काफिरों के लिए भाईचारा क्यों नहीं? उन्होंने इसका कोई उत्तर नहीं दिया, फिर हमने दूसरा प्रश्न किया- हजरत मोहमद कहाँ तक पढ़े-लिखे थे? तो उन्होंने कहा- कुछ भी पढ़े-लिखे नहीं थे, हमने कहाँ- जो स्वयं पढ़े-लिखे नहीं, वो दुनिया को क्या पढ़ा सकता है? बीच में बुजुर्ग हिन्दू कूद पड़े और कहने लगे- यह समभव है कि एक अनपढ़ भी पढ़ा सकता है। तो हमने कहा- आप तो पढ़े-लिखे लग रहे हैं श्रीमान् जी! क्या आपने अपनी पुत्री को किसी बिना पढ़े के पास पढ़ने के लिए भेजा था क्या? तो वे निरुत्तर हो गये। हमने उदाहरण के रूप में समझाया- वनवासी जो नग्न होके घूमते रहते हैं, बिना पढ़ाये हुए, वो शिक्षित हो रहे हैं क्या? आप तो पैगमबर बनने की बात कर रहे हैं। फिर हमने तीसरा प्रश्न किया कि आप तो पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानते ही नहीं। तो मौलवी ने प्रश्न किया- आप यह मानते हैं कि जो इस जन्म में अच्छे कर्म करते हैं, उनको परमात्मा अगला जन्म प्रमोशन के तौर पर और अच्छा जन्म देता है? तो हमने कहा- हाँ स्वाभाविक है। फिर मौलवी ने प्रश्न किया- उनका अगला जन्म झोपड़पट्टी में क्यों होता है? तो हमने जवाब दिया- उनके कर्मों के अनुसार। मौलवी ने प्रश्न किया- पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को सिद्ध करो। तो हमने कहा- आप हमारे सामने सात-आठ मौलवी खड़े हैं, आप सारे के सारे एक जैसे क्यों नहीं है? कोई काला, कोई मोटा, कोई पतला, कोई टेड़ा…..? इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हर एक का शरीर एक जैसा नहीं है और मन, बुद्धि, इन्द्रियों की शक्ति सामर्थ्य भी अलग-अलग है। तो इससे यदि आपको मालूम पड़ता है कि यह भेदभाव अल्लाताला ने जानबूझ कर अपनी मर्जी से किया है, तो अल्लाताला अन्यायकारी सिद्ध होगा, लेकिन यह पूर्वजन्म के अपने-अपने कर्मानुसार हमें मिले हैं। एक मौलवी ने प्रश्न किया- जो पिछले जन्म में अच्छे कर्म किये हैं, उनको ज्वर आदि की पीड़ा बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए। तो हमने उत्तर दिया- जनाब, ज्वर की बात छोड़िये, यदि जीवात्मा ने पिछले जन्म में कुछ बुरे कर्म किये होंगे तो परमात्मा उनके शुभ कर्मानुसार उनको अच्छा शरीर देकर फिर उनके बुरे कर्म फलस्वरूप उनके शरीर के अंगों को छीन लेते हैं, जैसे दुर्घटना में हाथ या पाँव कट जाना आदि। और एक उदाहरण- बच्चे बहुत मासूम होते हैं, वे तो मन से भी पाप नहीं करते हैं, तो उनका भी अपने पिछले जन्मों के कर्मानुसार किसी दुर्घटना में हाथ या पाँव आदि टूटना आदि होता रहता है, और तो और मासूम बच्चों की बात छोड़िये, जब एक माँ गर्भवती होती है तो आप उस गर्भवती माँ से पूछिये कि क्या अपने पेट के अन्दर अपने बच्चे का हाथ, पाँव, मुख, हृदय आदि इन्द्रियाँ वह स्वयं तैयार कर रही हैं क्या? तो आप जवाब पाओगे कि नहीं, दुनिया कि कोई भी माँ अपने पेट के अन्दर के बच्चे के शरीर का निर्माण स्वयं नहीं कर सकती, वह परमात्मा का कार्य है। यदि उस माँ को वह कार्य सौंप दिया होता तो कोई भी अपंग बच्चा पैदा नहीं होता। इससे साबित हो रहा है कि उन बच्चों ने माँ के गर्भ में कोई कर्म ही नहीं किये, फिर भी उनके पिछले जन्मों के अशुभ कर्मों के दण्ड के तौर पर वे बच्चे अपंग पैदा हो रहे हैं और माँ के गर्भ में बच्चे के दिल के अन्दर छेद कौन कर रहा है? स्वयं माँ तो नहीं कर सकती है न? उस बच्चे ने अभी जन्म भी नहीं लिया, कोई कर्म भी नहीं किया, नौ महीने भी पूरे नहीं हुए, फिर भी उसके दिल में छेद क्यों हो गया है? ये उनका पूर्व जन्मों का अशुभ कर्मों का फल है, वह परमात्मा दे रहा है, वह न्यायकारी है। इस विषय पर वे चुप हो गये। दूसरे मौलवी ने हम दोनों से कहाँ- भैया, आप यहाँ से चले जाइए। वे सोच रहे थे कि भीड़ ज्यादा इकट्ठा हो रही है, बात नहीं जम रही है। तो और एक मौलवी ने हम से प्रश्न किया- आप मूर्ति में भगवान को मानते हैं क्या? आप अवतार आदि को भी मानते हैं और आप वराह अवतार को भी मानते हैं कि नहीं? तो हम ने कहाँ- मूर्ति जड़ है, प्रकृति है, परमात्मा नहीं, हम अवतार आदि को भी नहीं मानते, परमात्मा जीवात्मा नहीं हो सकता, जीवात्मा परमात्मा नहीं हो सकता, तो वे चुप हो गये। हमने मौलवियों से प्रश्न किया- कुरान में भाईचारा है, शान्ति का सन्देश है, तो क्यों अल्लाताला ने गाय को काट के खाने को कहा है, सूअर को नहीं? तो उन्होंने हमसे कहा- आपके सामने एक तरफ अमृत है, एक तरफ जहर है, तो आप किसे स्वीकार करेंगे? हमने कहा- अमृत को, तो उन्होंने कहा- सूअर जहर है, इसीलिए कुरान में उसको खाने के लिए मना किया गया है और सूअर किसी दूसरे काम के लिए बनाया गया है, तो हमने कहा- गाय के गोबर से खेत पुष्ट होते हैं, उस अन्न को खाने से हम मनुष्य पुष्ट होते हैं, गौ मूत्र से कैंसर आदि रोग ठीक हो रहे हैं, दवाइयों में उपयोग होता है, दूध से घी बनता है, उसे खाने से बुद्धि पवित्र होती है, यदि अल्लाताला न्यायकारी है, गाय और सूअर दोनों को खाने के लिए कहता या दोनों को नहीं खाने के लिए कहता। एक के साथ न्याय, एक के साथ अन्याय? इससे सिद्ध हो रहा है कि यह कुरान अल्लाताला का नहीं, किसी अल्पज्ञ के द्वारा लिखी हुई पुस्तक है। सूअर को किसने बनाया? अल्लाताला ने या किसी और ने? पूछने से वे निरुत्तर हो गये। हमने मौलवियों से प्रश्न किया- आपका अल्लाताला सातवें आसमान पर कहाँ है? आसमान कितने होते हैं? अल्लाताला का सिंहासन कहाँ है? उनके आठ चेले बकरे के जैसे मुँह वाले सिंहासन को उठाने वाले कहाँ हैं? तो हमारे प्रश्नों की झड़ी सुनकर वे कहने लगे- भैया, आप दोनों यहाँ से चले जाइये। तो हमने कहा- आपके अल्लाताला का सिंहासन यहाँ लाओ, हम बैठना चाहते हैं। दो-तीन मौलवी हमारे पास आकर हमारी कमर पकड़ कर बोले- भैया, कृपया आप यहाँ से चले जाइये। एक ओर मौलवी ने कहा- तुहारे वेदों में पैगमबर मोहमद का नाम सामवेद के अध्याय के एक श्लोक में आता है। हम पूज्य जिज्ञासु जी द्वारा लिखित ‘कुरान सत्यार्थ प्रकाश के आलोक में’ पढ़ चुके थे, झट से बोले- कुरान में हर सूरत से पहले ऋषि दयानन्द जी का नाम आता है, तो वे मौलवी आग-बबूला होते हुए कुरान हमारे हाथ में थमा कर ‘दिखाओ’ कहने लगे, तो हमने कहाँ- अभी दिखाते हैं, यह कहकर हमने रहमान-उल-रहीम का तो सीधा-सा अर्थ दयालु दयानन्द या दयावान दयानन्द है, यह कहा। हमसे यह उत्तर सुनकर उनके पैरों तले धरती खिसक गई। फिर हमने कहा- चारों  वेदों में मन्त्र होते हैं, श्लोक नहीं, सामवेद में अध्याय नहीं होते हैं, पूर्वार्चिक उत्तरार्चिक होते हैं। फिर हमने एक ओर प्रश्न किया- कुरान में लिखा हुआ है कि चाँद के दो टुकड़े हुए हैं, तो मौलवी ने कहा- जाओ जाके देखो, दिखेगा….। वहाँ जितने भी लोग खड़े थे, वे हँसने लगे और हम भी खूब हँसे एवं हँसते हुए बोले- आप महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का सत्यार्थ प्रकाश पढ़िये, हम आर्यसमाजी हैं और कुल्लियाते आर्य मुसाफिर पढ़िये, अमर शहीद पं. लेखराम जी की है। उसमें तो पं. लेखराम जी ने कुरान की धज्जियाँ उड़ा रखी हैं। कहते हुए हम खूब हँसते रहे। दो-तीन मौलवी हमारे कमर पर हाथ रखकर- जाओ भाई, यहाँ से जाओ, कहने लगे तो हमने उनसे यह अन्तिम वाक्य कहते हुए विदा ली- आपसे धर्मचर्चा करके हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है, इस तरह की धर्मचर्चा हर गली में, हर मौहल्ले में, हर मस्जिद में होनी चाहिए। ये शबद कहते हुए, न चाहते हुए भी वहाँ से हमें घर लौटना पड़ा। अस्तु। धन्यवाद।

– रणवीर

शैतानी किसने कर दी? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

शैतानी किसने कर दी?

एक बार कादियाँ (पंजाब) में अल्लाह मियाँ पहुँचा था। कादियाँ के नबी मिर्जा गुलाम अहमद के मरने पर अल्लाह शोक मनाने (पंजाब में मकानी बोलते हैं) आया था। यह नबी ने आप लिखा है। तब कादियाँ वालों को अल्लाह के आने का पता तक न चला। मैं कॉलेज का विद्यार्थी था। आर्य सभासदों के चन्दे मैं ही लाकर कोषाध्यक्ष को दिया करता था। जब ला. दाताराम का चन्दा लेने जाता था, तब उनके बहुत वृद्ध पिताजी ला. मलावामल की बैठकर बातें सुनने लग जाता था। आप मिर्जा के संगी साथी थे। आपने कभी अल्लाह के कादियाँ में आने की बात की पुष्टि नहीं की थी। आपने तब उसे  देखा ही नहीं था तो पुष्टि क्या करते?

टी.वी. देखते-देखते जब हज की दुर्घटना का दुखद दृश्य देखा तो अल्लाह के कादियाँ आने की घटना याद आ गई। इतने भोले-भाले हज यात्री स्त्रियाँ और वृद्ध मारे गये। दृश्य देाा नहीं गया। जैसे भारत में हिन्दू मन्दिरों व तीर्थों में भगदड़ मचने से आबाल वृद्ध मारे कुचले जाते हैं, वही कुछ वहाँ हुआ। परपरा से एक स्थान विशेष पर हाजी शैतान को पत्थर मारकर हज के कर्मकाण्ड को पूरा करते हैं। अंधविश्वास हिन्दू मुसलमान सब में फैले हुए हैं।

मक्का को मुसलमान ‘बैत अल्लाह’ (अल्लाह का घर) मानते हैं। अल्लाह के पास फरिश्तों की भारी सेना है-यह कुरान बताता है। न जाने फिर शैतान अल्लाह के घर में कैसे घुस जाता है? भगदड़ मचने का कारण क्या था? शैतानी वहाँ शैतान ने तो की नहीं। कहा जाता है कि किसी हाजी ने ही शैतानी की। अब वहाँ की सरकार यह जाँच करेगी कि शैतानी की किसने? शैतान को तो किसी ने वहाँ कभी देखा ही नहीं। जिसे अल्लाह इतने लबे समय से नहीं पकड़ पाया, उसका इन कंकरों से क्या बिगड़ेगा? हमारी हितकारी सीख बहुत कुछ तो मुसलमानों ने मान ली है, परन्तु जन-जन तक नहीं पहुँचाई। हम क्या कर सकते हैं?

शैतान विषयक हमारा न सही, सर सैयद की सीख ही सुन लेते तो इतने अभागे हाजी न मरते। सर सैयद ने लिखा है, ‘‘एक मौलाना ने सपने में शैतान को देख लिया। झट से कसकर एक हाथ से उसकी दाढ़ी पकड़कर खींची। दूसरे हाथ से शैतान के गाल पर पूरी शक्ति से थप्पड़ मारा। शैतान का गाल लाल-लाल हो गया। इतने में मौलाना की नींद टूट गई। देखा तो उसके हाथ में उसी की दाढ़ी थी और वह लाल-लाल गाल जिस पर थप्पड़ मारा गया था, वह भी मियाँ जी का अपना ही गाल था। सो पता चल गया कि शैतान कहीं बाहर नहीं है। आपके भीतर के आपके दुरित, दुर्गुण ही हैं।’’ आशा है इतनी बड़ी दुर्घटना से सब शिक्षा लेंगे।

हटावट का उदाहरण माँगा गया हैः- इतिहास में मिलावाट की तो बहुत चर्चा होती है। मैंने इतिहास प्रदूषण

हदीसों को बस हदीस ही समझेंः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

हदीसों को बस हदीस ही समझेंः

दो-तीन पाठकों ने ऋषि दयानन्द जी व आर्य समाज की हिन्दी को देन पर छपे एक ेलेख के बारे में कई प्रश्न पूछे हैं। मैं हदीसें गढ़ने वालों की कल्पनाशक्ति का तो प्रशंसक हूँ, परन्तु उनके फतवों पर कुछ नहीं कह सकता। गप्प तो गप्प ही होती है।1. स्वामी श्रद्धानन्द जी ने रात-रात में ‘सद्धर्म प्रचारक’ उर्दू साप्ताहिक को हिन्दी में कर दिया। यह सुनने-सुनाने में तो अच्छा लगता है, वैसे यह एक मनगढन्त कहानी है। सद्धर्म प्रचारक के अन्तिम महीनों के अंक इस गप्प की पोल खोलते हैं। आर्य समाचार मेरठ एक उर्दू मासिक था। इसके मुखपृष्ठ पर इसका नाम तो हिन्दी में भी छपता था। इसको हिन्दी का पत्र बताने वाले खोजी लेखक इसका एक अंक दिखायें। आर्य दर्पण मासिक भी द्विभाषी पत्र था। हिन्दी व उर्दू दो भाषाओं में होता था। उसे हिन्दी मासिक लिखना आंशिक सच है। मैंने इसके त्रिभाषी अंक भी देखे हैं। आर्य समाज के सदस्यों ने हिन्दी में लाखों पुस्तकें लिख दीं। इस पर तो टिप्पणी करना भी उचित नहीं। मिर्जा कादियानी भी ऐसे ही सैंकड़ों, सहस्रों की नहीं, लाखों की घोषणायें किया करता था। भगवान आर्य समाज को ऐसी रिसर्च व ऐसे खोजियों से बचावे । इससे अधिक इन प्रश्नों का उत्तर क्या दिया जावे?

ओ3म् जय जगदीश हरे… यह भजन पौराणिक जगत् में आरती के नाम से प्रचलित है। इसके रचनाकार महर्षि के घोरविरोधी पं. श्रद्धाराम फिलौरी हैं, किन्तु आर्य समाज की पुस्तकों में भी यह विद्यमान है। क्या भजन के रूप में इसे आर्य परिवारों में भी बोला जा सकता है? कृपया, समाधान करें।

आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआदरणीय सपादक जी,

सादर नमस्ते।

ओ3म् जय जगदीश हरे… यह भजन पौराणिक जगत् में आरती के नाम से प्रचलित है। इसके रचनाकार महर्षि के घोरविरोधी पं. श्रद्धाराम फिलौरी हैं, किन्तु आर्य समाज की पुस्तकों में भी यह विद्यमान है। क्या भजन के रूप में इसे आर्य परिवारों में भी बोला जा सकता है? कृपया, समाधान करें।

– विश्वेन्द्रार्य, आगरा

समाधान – (क) महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में वेद की मान्यता के प्रचार को सर्वोपरि रखा। जो भी महर्षि को वेद विरुद्ध दिखता था, उसका प्रतिकार अवश्य करते थे। कभी महर्षि ने अपने जीवन में वेद विरुद्ध मत के साथ समझौता नहीं किया। जब कभी उनको लगता कि कुछ उनसे गलत हुआ है तो तत्काल अपनी गलती स्वीकार कर तथा उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते थे।

जिस समय जयपुर में महर्षि पधारे तो उस समय वैष्णवों का मत अधिक प्रचलित था, उस मत को दबाने के लिए महर्षि दयानन्द ने शैव मत का प्रचार किया और इतना प्रचार किया कि वहाँ के मनुष्यों के गले में रुद्राक्ष तो आये ही आये, ऊँट-घोड़े-हाथी तक को भी रुद्राक्ष पहनाए जाने लगे थे। कालान्तर में महर्षि से किसी ने इस विषय में पूछा तो ऋषिवर ने बड़ी विनम्रता से कहा कि वह हमारी भूल थी, हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था। महर्षि दयानन्द तो इस समाज की भूलों को दूर करने में लगे रहे और हम हैं कि इस महर्षि के  भूल रहित आर्य समाज में भूल डालते जा रहे हैं। आर्य समाज के वे तथा कथित उदारवादी सिद्धान्तों से समझौता करने में आगे बढ़-चढ़ कर भाग लेते दिखाई देते हैं। यज्ञ में गणेश पूजा हो रही है कोई बात नहीं, होने देते हैं। किसी की श्रद्धा है तो हम क्यों किसी की श्रद्धा को ठेस पहुँचावे? ये सोच उदारवादियों की है और तिलक लगाना, हाथ पर धागा बाँधना, यज्ञ के बाद प्रसाद के बहाने धन हरण करना आदि। इनके साथ पूर्णाहुति से पहले इस मन्त्र का पाठ किया जाता है-

पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

इसका भाव तो बहुत अच्छा है कि- वह भी पूर्ण है, यह भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण निकलता है। पूर्ण में से समपूर्ण निकाल लें तब भी पूरा रहे, पूरे में पूरा जोड़ दें तब भी पूरा रहे। यह विलक्षण बात परमेश्वर को पूर्ण दिखाने के लिए कहीं गई है, किन्तु यज्ञ की पूर्ण आहुति के समय इसको बोलना, पुरोहितों की स्वच्छन्दता है। वहाँ तो महर्षि दयानन्द ने ‘‘सर्वं वै पूर्णं स्वाहा’’ इस वाक्य से तीन बार पूर्ण आहुति का विधान किया है।

इसी प्रकार पूर्णाहुति के बाद बचे हुए घी को शतधार रूप बनाकर डालने के लिए भी मन्त्र खोज लिया है-

वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्।

देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः।।

– य. 1.3

इस मन्त्र में ‘‘शतधारम्’’ और ‘‘सहस्रधारम्’’ शबदों को देखकर यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञ कुण्ड के ऊपर छेदों वाली छलनी बाँध देते हैं और उसमें घी डालकर शत सहस्र धार बनाते हैं, जो कि इस प्रकार का विधान यज्ञ कर्म में कर्मकाण्ड से जुड़ें ग्रन्थों में नहीं लिखा हुआ है। यहाँ इस मन्त्र में आये ‘शतधारम्’ और ‘सहस्रधारम्’ का अर्थ धारा न होकर दूसरा ही है। इन दोनों का महर्षि दयानन्द अर्थ करते हैं- (धारम्) असंखयात संसार का धारण करने वाला (परमेश्वर)। (सहस्रधारम्) अनेक प्रकार के ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला (ईश्वर)। इन दोनों शबदों का अर्थ महर्षि ने इस ब्रह्माण्ड व समस्त चराचर जगत् को धारण करने वाला परमात्मा किया है और ये यज्ञ में घी की धारा लगाने वाले सौ धारा, हजार धारा को लेकर करते हैं जो कि उचित नहीं है।

उपरोक्त यज्ञ में महर्षि की बात को छोड़ स्वेच्छा से किये कर्मों के साथ यह ‘आरती ’ भी ऐसा ही कर्म है। इस ‘आरती’  गाने का निषेध हम इसलिए नहीं कर रहे कि यह ‘आरती’ महर्षि दयानन्द के विरोधी श्रद्धाराम फिलौरी ने लिखी है, निषेध तो इसलिए कर रहे हैं कि इसमें अयुक्त बातें लिखी हुई हैं।

‘जो ध्यावे फल पावे’- इस वाक्य को यदि वैदिक दृष्टि से देखेंगे तो युक्त नहीं हो पायेगा, क्योंकि वैदिक सिद्धान्त में ध्यान मात्र से फल नहीं मिलता, फल के लिए पुरुषार्थ (कर्म) करना पड़ता है। हाँ, यदि ध्यान सत्य परमेश्वर का विधिवत् किया गया है तो मन के शान्ति रूपी फल अवश्य मिलेगा, किन्तु यहाँ तो मूर्ति के सामने आरती गाई जा रही है, उसका फल क्या होगा, आप स्वयं निर्णय करें। आरती में आता है- ‘‘मैं मूरख खल कामी।’’ अब इस वाक्य को बोलने वाले क्या सब कोई मुर्ख, खल और कामी हैं? यहाँ तो इसको बड़े-बड़े सन्त गाते हैं। या तो संत इस बात पर ध्यान नहीं देते अथवा अपने को खल, कामी मानते होंगे। और भी ‘‘ठाकुर तुम मेरे’’ में ठाकुर शबद विष्णु के लिए प्रयोग में आता है, इसका एक अर्थ प्रतिमा भी है। विष्णु जो पौराणिक परमपरा में ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से एक हैं। अब यदि ऐसा है तो यज्ञ के बाद वैदिक मान्यता वाले को यह आरती नहीं गानी चाहिए।

यज्ञ के बाद संस्कारों में महर्षि दयानन्द ने वामदेव गान करने को कहा है। यदि हम ऐसा करते हैं तो अति उत्तम है और यदि नहीं कर पा रहे तो उसके स्थान पर वैदिक सिद्धान्त युक्त यज्ञ प्रार्थना आदि भजन गा लेते हैं तो भी ठीक ही है। ‘यज्ञ प्रार्थना’ जैसे उत्तम गीत को छोड़ या उसके साथ-साथ यह अवैदिक आरती गाना युक्त नहीं है, इसलिए आर्य लोग इसको यज्ञ के बाद न अपनावें और न ही अपनी दैनिक नित्य कर्म आदि पुस्तकों में छापें।

पं. श्रद्धाराम फिलौरी जो कि इस आरती के लेखक हैं, के विषय में आर्य जगत् के इतिहास के मर्मज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने ‘इतिहास की साक्षी’ पुस्तक में विस्तार से बताया है। इनके पत्रों को भी उस पुस्तक में दिया हुआ है, जिससे कि पाठकों को इनकी स्वाभाविक मनोवृत्ति का पता लगे।

वेद उपनिषदों के विषय में इनकी क्या मान्यता रही है, उसे हम यहाँ लिखते हैं- ‘‘संवत् 1932 में मुझे चारों वेदों को पढ़ने और विचारने का संयोग मिला तो यह बात निश्चित हुई कि ऋग्वेदादि चारों वेद भी यथार्थ सत्य विद्या का उपदेश नहीं करते, किन्तु अपरा विद्या को ही लोगों के मन में भरते हैं। हाँ, वेद के उपनिषद् भाग में कुछ-कुछ सत्यविद्या अर्थात् पराविद्या अवश्य चमकती है, परन्तु ऐसी नहीं कि जिसको सब स्पष्ट समझ लेवें। चारों वेद और उपनिषद् का लिखने वाला सत्यविद्या को जानता तो अवश्य था, परन्तु उसने सत्य विद्या को वेद में न लिखना व छिपा के लिखना इस हेतु से योग्य समझा दिखाई देता है कि उस समय के लोगों के लिए वही उपदेश लिखना श्रेष्ठ था।’’ (पुस्तक ‘इतिहास की साक्षी’ से उद्धृत)। इसमें स्पष्ट रूप से फिलौरी जी का वेद के प्रति मन्तव्य आ गया। उनकी मान्यता रही कि वेद सत्य उपदेश नहीं करता। जिसका वेद पर विश्वास नहीं, उसका ईश्वर पर कैसे हो सकता है और वह सिद्धान्त को कैसे ठीक-ठीक प्रतिपादित कर सकता है, जैसा कि उनकी आरती से ज्ञात हो रहा है। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर रोड, अजमेर।   

दिल्ली के वे दीवाने धर्मवीरः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

दिल्ली के वे दीवाने धर्मवीरः

कुछ पाठकों की प्रेरणा से छोटे-छोटे दो-तीन प्रेरक प्रसंग दिल्ली के इतिहास से देता हूँ। याद रखिये, सिलाई स्कूल, बारात घर, होयोपैथी डिस्पैन्सरी-यह आर्य समाज का इतिहास नहीं। यह कार्य तो रोटरी क्लब भी करते हैं। स्वामी चिदानन्द जी पर दिल्ली में शुद्धि के लिए अभियोग चला। वे जेल गये। यातनायें सहीं। मौत की धमकियाँ मिलती रहीं। कभी दिल्ली में किसी ने उनकी चर्चा की?

दिल्ली में दो स्वामी धर्मानन्द हुए हैं। मेरा उपहास उड़ाया गया कि कौन था धर्मानन्द स्वामी? अरे भाई दिल्ली वालों! आप नहीं जानते तो लड़ते क्यों हो? पं. ओ3म् प्रकाश जी वर्मा, डॉ. वेदपाल जी, श्री विरजानन्द से पूछ लो कि करोल बाग समाज वाले कर्मवीर संन्यासी धर्मानन्द कौन थे। दिल्ली के पहले मुयमंत्री चौ. ब्रह्मप्रकाश ने दिग्विजय जी वाला काम कर दिया। बुढ़ापे में शादी रचा ली। सब लीडर बधाइयाँ दे रहे थे। हमारे स्वामी धर्मानन्द जी पुराने स्वतन्त्रता सेनानी थे। यह उनके घर जाकर लताड़ लगा आये कि यह क्या सूझा?

दिल्ली के पहले आर्य पुस्तक विक्रेता का नाम दिल्ली में कौन जानता है? वह थे श्री दुर्गाप्रसाद जी। पं. लेखराम ला. बनवारीलाल करनाल वालों के संग एक ग्रन्थ की खोज करने निकले। प्रातः से रात तक सारी दिल्ली की दुकानें छान मारीं। आर्य जाति की रक्षा के लिए एक पुस्तक में उसका प्रमाण देना था। अँधेरा होते-होते उन्हें वह ग्रन्थ मिल गया। कुछ और ग्रन्थ भी क्रय कर लिये। पुस्तक विक्रेता थे श्री दुर्गाप्रसाद जी आर्य। वह ताड़ गये कि यह ग्रन्थ तो कोई गवेषक स्कालर ही लेता है। यह ग्राहक कौन है?

पं. लेखराम जी भी दुकानदार को कभी मिले नहीं थे। पन्द्रह रुपये माँग तो लिए फिर पूछा, ‘‘अरे भाई आप हो कौन?’’ साथी ला. बनवारी लाल बोले, ‘‘आप नहीं जानते? यह हैं जातिरक्षक आर्य पथिक पं. लेखराम जी।’’ अब दुर्गाप्रसादजी ने कहा, ‘‘इनसे मैं इनका मूल्य नहीं लूँगा।’’ पं. लेखराम अड़ गये कि ‘‘मैं यह राशि दूँगा और अवश्य दूँगा।’’ मित्रों! तब रुपया हाथी के पैर जितना बड़ा होता था। पण्डित जी की मासिक दक्षिणा मात्र 30-35 रुपये थे। धर्मवीर पं. लेखराम तो धन्य थे ही, कर्मवीर दुर्गाप्रसाद के धर्मानुराग कााी तो कोई मूल्याङ्कन करे।

वीरो! अपना देश बचाओ

वीरो! अपना देश बचाओ

-पं. नन्दलाल निर्भय भजनोपदेशक पत्रकार

आर्यवर्त्त के वीर सपूतो, मिलजुल करके कदम बढ़ाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

ऋषियों-मुनियों के भारत में, पापाचार गया बढ़ भारी।

डाकू , गुण्डे, चोर सुखी हैं, मस्ती में हैं मांसाहारी।।

शासक दल बन गया शराबी, आज दुःखी हैं वेदाचारी।

रक्षक हैं भारत में भक्षक, जागो! भारत के बलधारी।।

मानवता का पाठ पढ़ाओ, पावन वैदिक धर्म निभाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

काट-काट बिरवे गुलाब के, यहाँ नागफन सींचा जाता।

डाल-डाल पर बैठे उल्लू, देख-देख माली हर्षाता।।

खाओ-पीओ, मौज उड़ाओ, युवा वर्ग है निश-दिन गाता।

अपमानित हैं यहाँ देवियाँ, सिसक रही है भारत माता।।

राम, भरत के वीर सपूतो! दुःखी जनों के कष्ट मिटाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

उग्रवाद, आतंकवाद ने, देश हमारा घेर लिया है।

नेता हैं कुर्सी केाूखे, पाप जिन्होंने बढ़ा दिया है।।

देश-धर्म का ध्यान नहीं है, जिनका पत्थर बना हिया है।

वैदिक पथ तज दिया खलों ने, भारत को बर्बाद किया है।।

स्वामी दयानन्द बन जाओ, जग में नाम अमर कर जाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

गो ब्राह्मण की सेवा करना, ऋषियों ने है धर्म बताया।

गो माता है खान गुणों की, वेद शास्त्रों में दर्शाया।।

लेकिन उनकी शिक्षाओं को, दभी लोगों ने बिसराया।

नकल विदेशों की कर-करके, अपना जीवन नरक बनाया।।

गो हत्या को बन्द कराओ, वीरो! कृष्ण स्वयं बन जाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

याद रखो! जो देश-धर्म की, श्रद्धा से करते हैं सेवा।

वही भाग्यशाली पाते हैं, कीर्ति सुयश की पावन मेवा।।

डूब रही है नाव धर्म की, पार लगाओ बनकर खेवा।

अगर न जागे नहीं मिलेगा, नाम तुमहारा जग में लेवा।।

‘‘नन्दलाल’’ है भला इसी में, जितना हो शुभ कर्म कमाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

– ग्राम व पो. वहीन जनपद पलवल (हरियाणा)  चलभाष – 9813845774

ऋषि की ऊँचाईः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि की  ऊँचाईः

हमें पहले ही पता था कि इतिहास प्रदूषण का उत्तर तो किसी से बन नहीं पड़ेगा। एक-एक बात का उसमें प्रमाण दिया गया है। विरोधी विरोध के लिए मेरे साहित्य में से इतिहास की कोई चूक खोज कर उछालेंगे। मैं तो वैसे ही भूल-चूक सुझाने पर उसके सुधार करने का साहस रखता हूँ। इसमें विवाद व झगड़े का प्रश्न ही क्या है। पता चला कि कुछ भाई ऋषि की ॥द्गद्बद्दद्धह्ल ऊँचाई का प्रश्न उठायेंगे। फिर पता नहीं, पीछे क्यों हट गये। मैंने निश्चय ही ऋषि को एक लबा व्यक्ति लिखा है। ग्रन्थ में यत्र-तत्र इसके प्रमाण भी दिये हैं। आक्षेप करने वाले ऋषि की खड़ाऊँ के आधार पर उनका कद बहुत बड़ा नहीं मानते। प्रश्न जब पहुँच ही गया है, तो एक प्रमाण यहाँ दे देता हूँ।

लाहौर में एक पादरी फोरमैन थे। वह लाहौर में बहुत ऊँचे व्यक्ति माने जाते थे। एक दिन डॉ. रहीम खाँ जी की कोठी से ऋषि जी समाज में व्यायान देने जा रहे थे। उनका ध्यान सामने से आ रहे पादरी फोरमेन पर नहीं गया। पादरी ने ऋषि का अभिवादन किया तो साथ वालों ने उन्हें कहा कि सामने देखो, पादरी जी आपका अभिवादन करते आ रहे हैं। जब पादरी जी पास आये तो मेहता राधाकिशन (ऋषि के जीवनी लेखक) ने देखा कि पादरी जी ऋषि के कंधों तक थे। अब विरोधी का जी चाहे तो मुझे कोस लें। मैं इतिहास को, तथ्यों को और सच्चाई को बदलने वाला कौन? मैं हटावट, मिलावट, बनावट करके मनगढ़न्त हदीसें नहीं गढ़ सकता। ऋषि जी ने स्वयं एक बार अपनी ऊँचाई की चर्चा की थी। वह प्रमाण हमारे विद्वानों की पकड़ में नहीं आया। ऋषि-जीवन की चर्चा करने वालों को वह भी बता दूँगा। प्रमाण बहुत हैं। चिन्ता मत करें।