वैदिक त्रैतवाद (वेद मन्त्र भावार्थ)

वेद मन्त्र भावार्थ

-लालचन्द आर्य

आप परोपकारी के सभी अंकों में अनेक स्थानों पर महर्षि दयानन्द जी के वेद मन्त्रों के भावार्थ प्रकाशित करते हो, जिनसे पाठकों को ऋषि की विशेष मान्यताओं का बार-बार बोध होता रहता है। यह वेद प्रचार की एक उत्तम क्रिया है। मैं महर्षि दयानन्द के पाँच वेद मन्त्रों के भावार्थ परोपकारी में प्रकाशन के लिये भेज रहा हूँ, जिनके अध्ययन से वैदिक त्रैतवाद अर्थात् जीव, प्रकृति और परमात्मा के विषय में मेरी सभी शंकाओं का समाधान हो गया है। इन मन्त्रों के भावार्थ में ऋषि की विशेष मान्यतायें हैं-

  1. भावार्थ- जो मनुष्य विद्या और अविद्या को उनके स्वरूप से जानकर, इनके जड़-चेतन साधक हैं, ऐसा निश्चय कर सब शरीरादि जड़पदार्थ और चेतन आत्मा को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये साथ ही प्रयोग करते हैं, वे लौकिक दुःख को छोड़कर परमार्थ के सुख को प्राप्त होते हैं जो जड़, प्रकृति आदि कारण वा शरीरादि कार्य न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति और जीव कर्म, उपासना और ज्ञान के करने को कैसे समर्थ हों? इससे न केवल जड़ और न केवल चेतन से अथवा न केवल कर्म से तथा न केवल ज्ञान से कोई धर्मादि पदार्थों की सिद्धि करने में समर्थ होता है। – महर्षि दयानन्द, यजुर्वेद, भावार्थ 40-14
  2. भावार्थ- इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे अग्नि के कारण सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के भी हैं, वैसे सब उत्पन्न हुए पदार्थों के तीन स्वरूप हैं। हे विद्वन्! जैसे तुमहारा विद्या जन्म उत्तम है, वैसा मेरा भी हो। -महर्षि दयानन्द, ऋग्वेद, भावार्थ- मं. 1 सू. 163 म. 4
  3. भावार्थ-हे मनुष्यो! इस शरीर में दो चेतन नित्य हुए- जीवात्मा और परमात्मा वर्तमान है, उन दोनों में एक अल्प, अल्पज्ञ और अल्प देशस्य है। वह शरीर को धारण करके प्रकट होता, बुद्धि को प्राप्त होता और परिणाम को प्राप्त होता तथा हीन दशा को प्राप्त होता, पाप और पुण्य के फल का भोग करता है। द्वितीय परमेश्वर ध्रुव निश्चल, सर्वज्ञ, कर्म फल के समबन्ध से रहित है, तुम लोग निश्चय करो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 4 भावार्थ
  4. भावार्थ- हे मनुष्यो! इस शरीर में सच्चिदानन्द-स्वरूप अपने से प्रकाशित ब्रह्म-द्वितीय, तृतीय-मन, चौथी- इन्द्रियाँ, पाँचवें- प्राण, छठा- शरीर वर्तमान है। ऐसा होने पर समपूर्ण व्यवहार सिद्ध होता है, जिनके मध्य में सबका आधार ईश्वर, देह, अन्तरण, प्राण और इन्द्रियों का धारण करने वाला और जीवादिकों का अधिष्ठान शरीर है, यह जानो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 5 भावार्थ
  5. भावार्थ- जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं, उनका उस समय ईश्वर ही आधार है। जो जन्म हो गया- वह पहला और जो मृत्यु वा मोक्ष हो के होगा- वह दूसरा, जो है वह तीसरा और जो विद्या वा आचार्य से होता है- वह चौथा जन्म है। यह चार जन्म मिलके एक जन्म, जो मोक्ष के पश्चात् होता है, वह दूसरा जन्म है। इन दोनों जन्मों के धारण करने के लिये सब जीव प्रवृत्त हो रहे हैं, यह व्यवस्था ईश्वर के अधीन है। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 31, म. 7
  6. भावार्थ- हे परमेश्वर और जीव! तुम दोनों में बल, विज्ञान तथा कर्मों की प्रेरणा एक साथ होते हैं। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 16, म. 4

– म.नं. 1223/34, शीतलनगर, बागवालीगली, झज्जररोड, रोहतक, हरि.-124001

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-29
मम पुत्राः शत्रुहणाऽथो मे दुहिता विराट्
तीसरा मन्त्र परिवार के सदस्यों के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल रहा है। इसकी प्रथम पंक्ति में अपने पुत्र और पुत्रियों की क्या योग्यता है? परिवार में उनका क्या स्थान है?- यह इन शबदों से प्रकाशित होता है। मेरे पुत्र शत्रुओं को नष्ट करने में समर्थ हैं तथा पुत्रियों का व्यक्तित्व विशाल है। उनका प्रभाव क्षेत्र विस्तृत है। आज परिवार में सन्तान तो होती है, परन्तु सभी को अपनी सन्तानों पर गर्व करने का अवसर नहीं मिलता। विशेषकर आज की परिस्थिति में हमारा संकट है- हम उत्साह से सन्तान का पालन-पोषण तो करते हैं, पर सन्तान के बड़े होने पर हमें उतनी ही निराशा हाथ लगती है।
मनुष्य के साथ यह स्वाभाविक नहीं है कि वह सन्तान से प्रेम करता है तो सन्तान भी उससे प्रेम करे। बचपन में बालक माता पर निर्भर रहता है, माँ उस पर समर्पित रहती है। यह परिस्थिति समय के साथ बदलने लगती है। बालक जब परिवार और समाज के दूसरे लोगों के समपर्क में आता है, तब उसके उनसे समबन्ध बनने लगते हैं, तब तक वह घर से बँधा रहता है। बालक घर से दूर होता जाता है तो उसका बन्धन शिथिल होता जाता है, परन्तु माता-पिता का मोह उसे बाँधे रखने के लिये व्याकुल रहता है। धीरे-धीरे यह स्थिति माता-पिता के लिये कष्टप्रद होने लगती है। विशेषकर जब माता-पिता अपनी सन्तानों का विवाह कर देते हैं, तब स्थिति विकट हो जाती है। पुराने समबन्ध अपने अधिकार छोड़ने के लिए तत्पर नहीं होते, वहाँ नये अधिकार उसे जकड़ने लगते हैं। परिवार में संघर्ष की स्थिति बन जाती है।
सन्तान के लिये मोह तो पशुओं में भी होता है, परन्तु जब तक सन्तान उन पर निर्भर रहती है, तभी तक उनका अपनी सन्तान से मोह होता है, उसके बाद वे अपरिचित हो जाते हैं। यह उनकी प्राकृतिक स्थिति है, बाकि तो वे मनुष्य के अधीन होते हैं, जैसा वे चाहें, उन्हें रखे। मनुष्य का मोह यथावत् जीवन भर बना रहता है। इसका उपाय उसे बुद्धि से करना पड़ता है। जब तक कर्त्तव्य का भाव रहेगा, तब तक मनुष्य निर्भय रहेगा, परन्तु मोह का भाव रहेगा, तो हर समय भयभीत रहेगा। माता-पिता अपना अधिकार न मानकर कर्त्तव्य समझें तो उनको कभी सन्तान से दुःख नहीं होगा, न अपने किये पर पश्चात्ताप होगा, न सन्तान के किये की पीड़ा होगी।
सन्तान को यदि माता कर्त्तव्यनिष्ठ बनाने का प्रयास करे तो उनको भी सन्तान की ओर से दुःखी होने के अवसर नहीं आयेगा। इस मन्त्र में एक माता अपने कर्त्तव्य पालन की घोषणा कर रही है। मेरा पुत्र शत्रुओं का नाश करने में समर्थ है, वे शत्रु चाहें आन्तरिक हों अथवा बाह्य। माँ ने अपने बालक को इतना समर्थ बनाया है कि वह अपने आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार के शत्रुओं को अपने वश में करने में समर्थ है। शत्रुओं को अपने वश में करने की विद्या केवल बाहरी साधनों पर निर्भर नहीं रहती। बाहरी नियम और व्यवस्था से बाहर के शत्रुओं से लड़ा जा सकता है, परन्तु पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों से लड़ाई आन्तरिक साधनों द्वारा ही लड़नी पड़ती है। हम अपने बच्चों को खिला-पिला कर, महँगे कपड़े पहना कर, ऊँचे मूल्य के विद्यालयों में पढ़ाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, परन्तु आन्तरिक संघर्ष करने का सामर्थ्य अपने बच्चों में उत्पन्न नहीं कर पाते। यह संघर्ष आत्मिक गुणों के विकास के बिना समभव नहीं है। आज के युग में माता-पिता, समाज, सरकार किसी के पास भी आत्मा के विकास का विचार नहीं है। अधिकांश को तो इसकी कल्पना ही नहीं है, शेष के पास ऐसा करने का अवसर नहीं है। मनुष्य के अन्दर वह थोड़ा है, जो स्वाभाविक है, अधिकांश तो वह अर्जित है। कुछ वह अपने पुराने जीवन के संस्कारों से लेकर आता है, कुछ माता-पिता से प्राप्त करता है, शेष समाज से उसे मिलता है, अतः हम यदि अपनी सन्तान को अपने शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ बनाना चाहते हैं, तो हमें वैसी शिक्षा और वैसे ही संस्कार देने पड़ेंगे। मनुष्य सिखाने से सीखता है, मनुष्य देखकर सीखता है। परिवार में, समाज में वह अपने लोगों को जैसा करता हुआ पाता है, वैसा स्वयं सीख लेता है, बताने पर भी उसका विचार वैसा बनता है, अतः यह तो सब प्रयास करने से ही समभव है। यह प्रयास प्रथम माता-पिता को करना होता है फिर समाज और शिक्षक की भूमिका आती है।
आज हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा और संस्कार देने में असमर्थ पाते हैं, अतः यह घोषणा नहीं कर पाते हैं कि हमारी सन्तान अपने शत्रुओं को वश में करने में समर्थ है। वेद की माँ कहती है- मैंने माता के रूप में अपने पुत्रों को शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ बनाया है, इसलिये तो शास्त्र कहता है कि एक मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिये माता-पिता, आचार्य का योगदान होता है, अतः कहा गया है –
मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद ।
स्वामी दयानन्द प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता यस्य।
अर्थात् धार्मिक और विदुषी माता ही, ऐसे माता-पिता और आचार्य ही मनुष्य को योग्य बना सकते हैं।

(ख) अंजली में जल लेकर जल प्रसेचन हेतु पहले मन्त्र से यज्ञ वेदी की पूर्व दिशा में, दूसरे मन्त्र से पश्चिम दिशा में तथा तीसरे मन्त्र से उत्तर दिशा में जल सींचते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा जल सिंचन से शेष रह जाती है। दक्षिण दिशा में जल तभी सींचा जाता है, जब अगले मन्त्र ‘ओ3म् देव सवितः…. नः स्वदतु।’ को बोलकर वेदी के चारों ओर जल प्रसेचन किया जाता है। जिज्ञासा यह है कि प्रथम बार में दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी जाती है?

(ख) अंजली में जल लेकर जल प्रसेचन हेतु पहले मन्त्र से यज्ञ वेदी की पूर्व दिशा में, दूसरे मन्त्र से पश्चिम दिशा में तथा तीसरे मन्त्र से उत्तर दिशा में जल सींचते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा जल सिंचन से शेष रह जाती है। दक्षिण दिशा में जल तभी सींचा जाता है, जब अगले मन्त्र ‘ओ3म् देव सवितः…. नः स्वदतु।’ को बोलकर वेदी के चारों ओर जल प्रसेचन किया जाता है।

जिज्ञासा यह है कि प्रथम बार में दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी जाती है?

उपरोक्त के अतिरिक्त यह भी जिज्ञासा है कि दैनिक कर्म विधि समबन्धित पुस्तकों के कतिपय लेखकों ने जल प्रसेचन की प्रक्रिया निमनानुसार समपन्न करने हेतु निर्देशित किया हैः-

पूर्व में दक्षिण से उत्तर की ओर,

पश्चिम में दक्षिण से उत्तर की ओर तथा

उत्तर में पश्चिम से पूर्व की ओर

जल प्रसेचन करना चाहिये- ऐसा विधान क्यों किया गया है?

– आर.पी. शर्मा, मन्त्री, आर्यसमाजनईमण्डी, दयानन्दमार्ग, मुजफरनगर, उ.प्र.

समाधान-(ख) पूर्व में भी बताया कि यज्ञ कर्म क्रिया पूर्व और उत्तर की ओर होती है, अर्थात् पश्चिम से पूर्व और दक्षिण से उत्तर। यह प्रक्रिया ब्राह्मण ग्रन्थ में कही है-

‘‘प्राञ्च्युदञ्चि वा कर्माण्यनुतिष्ठेरन्।।’ ’जल प्रसेचन में भी इसी नियम का पालन किया है। पहले पूर्व की दिशा में दक्षिण से उत्तर जल प्रसेचन, फिर पश्चिम दिशा में दक्षिण से उत्तर, पश्चात् उत्तर दिशा में पश्चिम से पूर्व की ओर सिंचन, अन्त में उत्तर और पूर्व के कोने से प्रारमभ कर दक्षिण दिशा में सेचन करते हुए उसी स्थान पर पूर्ण करना जहाँ से चारों ओर जल सेचन प्रारमभ किया था। ऐसा करने पर ही शास्त्र के अनुसार सेचन होगा, अन्यथा क्रिया शास्त्रानुसार न होगी। आपने जो पूछा ऐसा विधान क्यों कर रखा है, तो इसका तो यह उत्तर हो गया।

अब आपकी इस बात पर विचार करें कि दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी? एक दृष्टि से देखें तो दक्षिण दिशा को भी छोड़ा नहीं है, सेचन तो वहाँ भी हुआ है। फिर भी जिस दृष्टि से छोड़ना दिख रहा है, उसको देखते हैं। यहाँ तीन दिशाओं के लिए एक-एक मन्त्र है, किन्तु चौथी दिशा के लिए पृथक् मन्त्र न हो कर चारों दिशाओं के लिए सामान्य मन्त्र दिया है। यहाँ देखने की बात यह है कि अपने यहाँ तीन बार को बहुलता का प्रतीक माना है, तीन बार पूर्ण आहुतियाँ, तीन बार आचमन, तीन समिधाएँ आदि-आदि। यहाँ भी तीन मन्त्रों को बहुलता का प्रतीक मानेंगे तो यह विचार नहीं बनेगा कि चौथी दिशा क्यों छोड़ दी और चौथी दिशा में जल सेचन तो हुआ ही है।

पाठकों को दृष्टि में रखते हुए यह भी यहाँ लिखते हैं कि जल सेचन का उद्देश्य क्या है? ‘‘यजुर्वेद 23.62 के अनुसार यज्ञ इस भुवन की नाभि, बीच है, केन्द्र है। इसके चारों ओर जल छिड़कने का अर्थ हमारी यह घोषणा है कि जैसे जल पवित्र है, शान्तिप्रद है, सुखदायक है, भेषज है, इषुरूप और जग के लिए जीवनदाता है, वैसे ही यह अग्निहोत्र भी जगत् के लिए पवित्र कारक, शान्तिदायक, सुखदायक, औषधरूप, रोगनिवारक, वर्षा के द्वारा प्रजा की दुर्भिक्ष से रक्षा करने वाला और औषधि, वनस्पति एवं समूचे प्राणिजगत् का जीवनदाता है। इस प्रकार जल के साम्य से यज्ञ की सर्वोत्कृष्टता को घोषित करना ही जल सिंचन का उद्देश्य है। जैसे जल अपनी विविध शक्तियों से जगत् का रक्षक है, वैसे ही यज्ञ भी अपनी विविध शक्तियों से जगत् का  रक्षक है….।’’  स्वामी मुनिश्वरानन्द जी और भी-

  1. ‘‘……जीव जन्तु यज्ञाग्नि के पास न पहुँचने पावें।
  2. 2. दूसरा कारण यह है कि यज्ञ की आहुतियाँ लगाने पर कुछ ऐसी गैसें भी पैदा होती हैं, जिनका समीपस्थ जल में शान्त होना आवश्यक है।
  3. 3. तीसरा कारण यह है कि हमने अग्न्याधान के मन्त्र से यज्ञ को भूः भूवः स्वः का रूप दिया, अर्थात् तीनों लोकों का स्वरूप माना है। ब्रह्माण्ड में प्रकाश लोक अर्थात् द्युलोक और पृथिवी लोक के बीच में जल का मार्ग है, अतः यज्ञ कुण्ड में जलती हुई अग्नि को प्रकाश लोक मानो और जहाँ पृथिवी पर यजमान बैठा है, उसे पृथिवी लोक मानो, तब उन दोनों के मध्य जल का मार्ग दिखाना आवश्यक है।
  4. 4. पृथिवी के बीच भी भौम अग्नि रहती है और पृथिवी के चारों ओर पानी भरा है, अतः पृथिवी रूप यज्ञ कुण्ड के गर्भ में भौम अग्नि के रूप में यज्ञाग्नि है और पृथिवी रूप यज्ञकुण्ड के चारों ओर जल दिखाना है।’’ – आचार्य विश्वश्रवा

इन सब में जो युक्ति युक्त और ठीक संगति लगती हो, उसको ग्रहण कर लें और जो उचित न लग रही हो, उसको विचार कर ठीक कर लें या छोड़ दें। अस्तु ।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर

 

(क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है। जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआदरणीय आचार्य जी, नमस्ते। निवेदन है कि आपके स्तर से परोपकारी पत्रिका के माध्यम से जिज्ञासा समाधान के अन्तर्गत समाज के विभिन्न जागरूक सदस्यों की जटिल जिज्ञासाओं का सटीक एवं सन्तुष्टि कारक समाधान किया जाता है, जिसके लिये हम आपके आभारी है। कृपया, पत्रिका के माध्यम से हमारी निमनांकित जिज्ञासाओं का युक्ति युक्त समाधान देने की कृपा करें-

(क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है।

जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?

– आर.पी. शर्मा, मन्त्री, आर्यसमाजनईमण्डी, दयानन्दमार्ग, मुजफरनगर, उ.प्र.

समाधान– (क) यज्ञ कर्म कर्मकाण्ड का विषय है। यज्ञ कर्म में अनेक क्रियाएँ ऐसी हैं, जिनका सीधा-सीधा प्रयोजन हमें ज्ञात नहीं हो पाता। इस विषय में महर्षि दयानन्द का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, सूत्रात्मक रूप से संक्षेप में ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलता है, उसको हम कितना समझ पाते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।

आपके प्रश्न भी इसी विषय को लेकर हैं। हमने यहाँ जो विद्वानों ने संगति लगाने का प्रयास किया है, उसको लिखते हैं। पहला जो प्रश्न आपका है, उसके विषय में महर्षि दयानन्द ने दिशानिर्देश नहीं किया है, वहाँ तो यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग, दक्षिण भाग का निर्देश है। यजमान के बैठने के दो स्थान कहे हैं, यजमान या तो पश्चिम में पूर्वाभिमुख बैठे अथवा दक्षिण में बैठ  उत्तराभिमुख रहे। पहली स्थिति में तो यदि सूर्य आधार वाली दिशा लेंगे तो उत्तर-दक्षिण ठीक बनता है, किन्तु यदि दूसरी स्थिति दक्षिण में बैठ उत्तराभिमुख है, तो उत्तर-दक्षिण न होकर पश्चिम-पूर्व बनेगा। इन दिशाओं का निरूपण तो हमने कर लिया है, पर महर्षि ने तो यज्ञ कुण्ड का उत्तर-दक्षिण भाग कहा है।

महर्षि दयानन्द ने जो यजमान के बैठने का विधान किया है, शास्त्र के आधार पर किया है। यज्ञ कर्म में जो अभिधारण क्रिया की जाती है, वह पश्चिम से पूर्व मुख वा उत्तराभिमुख होने पर ही हो पाती है। आपने जो पूछा कि इन दो आहुतियों को मध्य भाग में क्यों नहीं दे देते, तो इसका सामान्य-सा उत्तर तो यह है कि इसका निर्देश मध्य में न करके उत्तर-दक्षिण भाग में किया है, इसलिए मध्य भाग में नहीं देते।

अब जो कुछ अन्य विद्वानों ने इस विषय में कहा, वह लिखते हैं- ‘‘प्रकाश देने वाली प्रधानतया चार वस्तुएँ संसार में हैं- अग्नि, सोम, प्रजापति और इन्द्र। अग्नि तत्त्व उत्तर में और सोम दक्षिण में है, अतः उत्तरायण में सूर्य अधिक प्रचण्ड और दक्षिणायन में अल्प तापवाला होता है। प्रजापति अर्थात् सुर्य और इन्द्र, अर्थात् विद्युत् के लिए कोई दिशा निर्दिष्ट नहीं की जा सकती, अतः यज्ञ कुण्ड के मध्य में आहुति दी जाती है।’

प्रजापति= पालन-पोषण करने वाला गृहस्थ बाहर से सामान लाकर घर के मध्य में डालता है। इन्द्र= राजा राष्ट्र का केन्द्र है, अतः ये दोनों आहुतियाँ मध्य में डाली जाती है। ’’ आचार्य विश्वश्रवा (यज्ञपद्धति मीमांसा)

‘‘यज्ञरूप यह जगत् ‘अग्निषोमात्मकं जगत्’ शतपथ ब्राह्मण के इस वचन के अनुसार अग्निषोमात्मक है, अर्थात् शुष्क और आर्द्र, इन दो भागों में बँटा हुआ है। हमारा यह यज्ञ इस विश्व ब्रह्माण्ड रूपयज्ञ की अनुकृति मात्र है। यह भी अग्नि तथा सोमात्मक है। इसमें भी आधा सूखा और आधा गीला है। समिधाएँ सामग्री सूखी हैं तो घृत तथा पायस आदि गीले हैं। सूखा सब आग्नेय है और गीला सब सोमात्मक है। इस प्रकार ये दोनों आहुतियाँ विश्व ब्रह्माण्ड में चल रहे ईश्वरीय यज्ञ और हमारे यज्ञ में अभिरूपता-एक रूपता समपादन के लिए दी जाती है।

…….नेत्र समबन्धी बात को यों कहा है कि ‘अग्निषोमायां यज्ञश्चक्षुमान्’ अर्थात् अग्नि और सोम से यज्ञ चक्षुमान् है । इसी प्रकार अग्निषोमयोरहं देवयज्यया चक्षुमान्  भूयासम्।। – तै.स. 1.6.2.3

अर्थात्- अग्नि और सोम इन दोनों के यजन से मैं चक्षुमान् हो जाऊँ। इस भाग में इन आहुतियों द्वारा यजमान् अग्नि और सोम के समान चक्षुष्मान् होने की कामना से ये दो आज्यभागाहुतियाँ देता है।

इस प्रकार (1) विश्व ब्रह्माण्ड में चल रहे यज्ञ के साथ अपने इस यज्ञ की अभिरूपता के लिए (2) मनुष्यों की आँखों की भाँति यज्ञ के दोनों नेत्रों के रूप में तथा (3) अग्नि और सोम के तुल्य तेज और सौमयतायुक्त नेत्रों की प्राप्ति की कामना से ये दो आज्यभागाहुतियाँ दी जाती हैं।

रही बात उत्तर और दक्षिण दिशा की। इसके लिए पहली बात आप यह ध्यान में रखें कि देव यज्ञ में प्रत्येक क्रिया प्रदक्षिणक्रम से की जाती है तथा यज्ञानुष्ठान के लिए यजमान् पुर्वाभिमुख बैठता है। इस अवस्था में प्रदक्षिणक्रम से यज्ञानुष्ठान करते समय यज्ञ की चक्षुस्थानीय पहली आहुति उत्तर में ही देनी होगी और दूसरी दक्षिण में। इन आहुतियों का उत्तर और दक्षिण दिशा से समबन्ध नहीं है, अपितु ये अग्नि और सोम की दो आहुतियाँ यज्ञ (कुण्ड) के वाम (उत्तर) और दक्षिण नेत्र के रूप में दी जाती हैं, क्योंकि नासिका सामने होती है और दोनों आँख-नाक उत्तर और दक्षिण दिशा में होते हैं। यज्ञ की नेत्रस्थानीय होने से ये दोनों आहुतियाँ कुण्ड के मध्य भाग से उत्तर और दक्षिण दिशा में दी जाती हैं। इन आहुतियों के उत्तर और दक्षिण दिशा में देने का यही एक मात्र कारण है।’’ – स्वामी मुनिश्वरानन्दजी (शंका-समाधान)

इस प्रसंग में जैसा स्वामी दयानन्द का कथन है कि यज्ञकुण्ड के उत्तर-दक्षिण भाग में आहुति दें, वैसा ही स्वामी मुनिश्वरानन्दजी ने माना और हमारा भी यही मानना है।

वेद प्रचारार्थ मेरी केरल यात्रा

 वेद प्रचारार्थ मेरी केरल यात्रा

– आचार्य सत्येन्द्रार्य

मनुष्य एक ऐसा चिन्तनशील प्राणी है, जिसे अपने हिताहित के समबन्ध में विचार करने की वैचारिक स्वतन्त्रता स्वस्फूर्त है। इस वैचारिक स्वतन्त्रता के प्रवाह को कोई भी शासक या कानून भले ही कुछ समय के लिए बाह्यरूप से दबा दे या अवरुद्ध कर दे, यह हो सकता है और ऐसा हुआ है कि बाहरी दृष्टि से स्वतन्त्र विचार करने वालों पर रोक लगाई गई, पुनरपि आन्तरिक चिन्तन-मनन की इस नैसर्गिक स्वतन्त्रता को बाहरी बाधाएँ छीन नहीं सकती। इसी प्रकार यात्रा भी मनुष्य के स्वतन्त्र चिन्तन का ही एक अनिवार्य उपक्रम है। मानव जीवन अपने-आप में एक यात्रा ही है, जिसमें कर्त्तव्य पालन करते हुए हमें कई पड़ावों को पार करना पड़ता है। अपनी ऐसी एक यात्रा का प्रारमभ मैंने अजमेर ऋषि उद्यान से किया और लक्ष्य था केरल के हरे-भरे प्रदेश। आचार्य वामदेवजी, जो ऋषि उद्यान के योग्य स्नातकों में से एक हैं, उनमें वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में अहर्निश लग्न देखकर लगा कि मुझे भी विश्व कल्याण के इस महायज्ञ में कुछ आहुतियाँ समर्पित करनी चाहिए। आमन्त्रण था वामदेवजी का जो मुझे कुछ मास पूर्व ही मिल गया था, वह आमन्त्रण भी विशेषरूप से इस बात को ध्यान में रखकर दिया गया था कि केरल में महर्षि दयानन्द जी की विचार धारा का बीज वपन हो और ऋषि मिशन का काम गति पकड़े।

18 दिसबर 2015 को प्रातःकाल अजमेर से आरमभ होने से लेकर यह यात्रा शोरनूर जो केरल के अन्तर्गत है, तक लगभग दो दिन में पूरी हुई। यात्रा लमबी किन्तु उबाऊ न थी, क्योंकि अपने अगल-बगल की सीटों पर बैठे लोगों से स्नेहपूर्वक वार्ता करने से आनन्द का अनुभव हो रहा था। यात्रा करते-करते 20 तारीख की रात्रि को लगभग डेढ़ बजे शोरनूर पहुँचे और वहाँ से वामदेवजी के साथ कारलमन्ना, जहाँ कार्यक्रम रखा गया था, वहीं मेरे ठहरने आदि की व्यवस्था भी की गई थी- लगभग एक घण्टे में पहुँच गया था। 20 दिनांक की प्रातःकाल उपनयन संस्कार का कार्यक्रम रखा गया था, जो पूर्व निर्धारित था। उपनयन संस्कार कराने वालों के मन में संस्कार के प्रति अत्यन्त श्रद्धा व निष्ठा को दृढ़ता से बिठा दिया गया, इसके कारण ही वे सभी लोग जो संस्कार कराने के इच्छुक थे, उन्होंने एक दिन केवल दूध पर ही निकाल दिया था। इसी से उनकी संस्कार के प्रति श्रद्धा व दृढ़ निष्ठा का पता लगता है। यज्ञोपवीत संस्कार के समय जो लोग दर्शक के रूप में वहाँ उपस्थित थे, वे भी बड़ी प्रसन्नता से इस संस्कार का आनन्द ले रहे थे। विधि पूर्वक यह कार्यक्रम सपन्न हुआ।

23 दिसमबर 2015 से शिविर का प्रारमभ और गुरुदत्त भवन तथा उपदेशक विद्यालय का उद्घाटन- उपरोक्त कार्यक्रम के लिए 23 दिसमबर का दिन चुना गया। आर्य जगत् में यह बात सब आर्यजनों को विदित है कि 23 दिसमबर 1926 को श्रद्धेय श्री स्वामी श्रद्धानन्दजी की एक धर्मान्ध मुस्लिम द्वारा, जिसका नाम अबदुल रशीद था, गोलियाँ चला कर उस अवस्था में जब वे रुग्ण शय्या पर पड़े थे, हत्या कर दी गई थी। देश धर्म पर अपना सब कुछ वार देने वाले स्वामी श्रद्धानन्द के इस अभूत पूर्व बलिदान को आर्यजन विस्मृत न कर दें, इसलिए उपरोक्त कार्यक्रम के आरमभ व उद्घाटन का 23 दिसमबर दिन निश्चित किया गया था। लगभग 10 बजे ध्वजारोहण ‘वन्दे मातरम् और जयति ओम्ध्वज…’ के गीतों से बड़े उल्लास पूर्ण वातावरण में किया गया। ध्वजारोहण के समय वहाँ अनेक गणमान्य लोगों की उपस्थिति से कार्यक्रम भव्य रूप में मनाया गया। उपदेशक विद्यालय के साथ-साथ त्रिदिवसीय शिविर की भी उद्घोषणा कर दी गई थी, कुछ ही देर बार शिविर की कक्षाएँ भी प्रारमभ कर दी गईं।

शिविर समापन समारोह के अवसर पर श्री एम.के. राजनजी जो बहुत ही उत्साही और लग्नशील व्यक्तियों में से एक हैं, ने विद्यालय का उद्देश्य और उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई प्रकार की योजनाएँ रखीं, उन योजनाओं में गौशाला और यज्ञशाला निर्माण भी है। इनके निर्माण की ओर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया। इसका सभी ने समर्थन किया। अनेक लोग इस संस्था से जुड़ गए हैं, जुड़ रहे हैं, समभावना है कि शीघ्र ही यह विद्यालय आर्य समाज के प्रचार-प्रसार का एक अच्छा-खासा केन्द्र बनेगा। केरल की देवभूमि में आर्य समाज का बीज तो बो दिया है, अब इस बीज की सुरक्षा हम सभी आर्यों को करनी चाहिए। इसे किसी मनुष्य का कार्य न मान कर वेद भगवान का कार्य है, ऐसा ध्यान में रखकर उसे वृक्ष का रूप प्रदान करना हम सब आर्यों का नैतिक कर्त्तव्य है।

इस प्रकार केरल की यह धर्म प्रचार यात्रा अजमेर से आरमभ होकर अजमेर आकर समाप्त हुई।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर।

परोपकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान कार्य में एक और कीर्तिमान

परोपकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान कार्य में एक और कीर्तिमान

-सत्येन्द्र सिंह आर्य

परोपकारी पाक्षिक के वर्ष 2015 के जून द्वितीय अंक में मैंने एक लेख में परोकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान विषयक कार्य की चर्चा की थी। अनुसन्धान का कार्य सभा द्वारा निरन्तर किया जा रहा है, उसमें समय लगता है, परन्तु देर-सबेर सफलताएँ मिलती रहती हैं।

सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी जी ने ईसाई मत की भी समीक्षा तेरहवें समुल्लास में की है। इस्लाम मतावलमबियों की भाँति ईसाई विद्वान् भी कभी-कभी कहते रहते हैं कि स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में बाइबिल के जिन-जिन स्थलों की समीक्षा की है, वह बातें बाइबिल में ज्यों की त्यों नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रभाव से बाइबिल में भी धीरे-धीरे विभिन्न संस्करणों में बहुत परिवर्तन हुए हैं और वर्तमान संस्करणों में शबद वैसे नहीं हैं, जैसे स्वामी जी ने आयत, पर्व और क्रमांक लिखकर पता दर्शाते हुए लिखे हैं। मेरे मित्र प्रा. कुशलदेव जी बाईबिल के उस पुराने संस्करण की खोज में जीवन भर लगे रहे, परन्तु 19 वीं शताबदी का संस्करण उन्हें नहीं मिल सका। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने कुरान का पुराना भाष्य खोज कर परोपकारिणी सभा को सौंपकर आर्य जगत् को निश्चिन्त कर दिया, परन्तु बाइबिल का पुराना संस्करण उन्हें भी नहीं मिला। उस पुराने संस्करण की एक प्रति पूज्य श्री अमरस्वामी जी (पूर्व नाम ठा. अमर सिंह आर्य पथिक) के पास थी। उनके निधन के पश्चात् प्रो. रतन सिंह जी ने जिज्ञासु जी को अपने यहाँ बुलाया था और बाइबिल की वह प्रति वे जिज्ञासु जी को सौंपना चाहते थे, परन्तु जब जिज्ञासु जी उन्हें मिलने गए तो जिस व्यक्ति के पास उस पुस्तकालय की चाबी थी, वह उस दिन वहाँ नहीं था। जिज्ञासु जी अबोहर वापस आ गए। बात आई-गई हो गयी। प्रो. रतन सिंह जी दिवंगत हो गए। वह कार्य अपूर्ण ही रहा।

बाईबिल की उस पुराने संस्करण की प्रति प्राप्त करने का प्रयत्न मैंने भी किया, परन्तु मुझे भी बाईबिल का लन्दन से वर्ष 1948 में Bible Society of Great Britain द्वारा प्रकाशित संस्करण मिल सका था। वर्तमान समय में वह प्रति प्रियवर श्री राजवीर आर्य जी के पुस्तकालय में है।

पुराने प्रामाणिक ग्रन्थों के महत्त्व को जो लोग समझते हैं, प्रिय राजवीर जी उन्हीं ऋषि भक्तों में से एक हैं। बाइबिल के पुराने संस्करण की वे भी खोज में थे और निरन्तर प्रयासरत रहे। आर्य जगत के लिए यह प्रसन्नता की बात है कि 19 वीं शताबदी के अन्तिम चतुर्थांश (क्वार्टर) में इलाहाबाद से मुद्रित बाइबिल के उस संस्करण की प्रति श्रीराजवीर जी को प्राप्त हो गयी है, जिसकी भाषा शबदशः उन सन्दर्भों से पूर्णतः मिलती है, जो महर्षि जी ने सत्यार्थ प्रकाश में उद्धृत किए हैं। यह अमूल्य प्रति भी अब परोपकारिणी सभा की समपत्ति होगी। विरोधियों द्वारा किये जा रहे वार-प्रहार का उत्तर देने के लिए ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता पड़ती है। इस दृष्टि से यह एक कीर्तिमान है।

कुछ वर्षों पूर्व आर्य समाज की शिरोमणि सभा के एक स्वयंभू प्रधान सिख नेताओं की सभा में जाकर यह आश्वासन दे आये थे कि सत्यार्थ प्रकाश में उस स्थल पर भाषा में परिवर्तन कर दिया जाएगा, जिस पर उनका कहना है कि गुरु ग्रन्थ साहब में वैसा नहीं लिखा है- यथा- ‘‘वेद पढ़े ब्रह्मा मुए सारे वेद कहानी’’, परन्तु वास्तव में इस प्रकार का भाव वहाँ है। इस प्रकरण का उत्तर पूज्य स्वामी स्वतंत्रानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थ वैदिक धर्म और सिख गुरु में पहले ही दिया हुआ है। गुरु ग्रन्थ साहब में ऐसे कई प्रकरण हिन्दू धर्म के समबन्ध में हैं, जो हिन्दुओं के ग्रन्थों में है ही नहीं, परन्तु सिख नेता और विद्वान् उन स्थानों पर गुरु ग्रन्थ साहब में भाषा-परिवर्तन के लिए सहमत नहीं होंगे। अनुसन्धान का यह कार्य उस समय परोपकारिणी सभा ने ही किया था। वेद, आर्य समाज एवं ऋषि दयानन्द पर वार-प्रहार का उत्तर देने में परोपकारिणी सभा सदैव अग्रणी रही है।

प्रियवर राहुल जी जो पुरानी सामग्री महर्षि के समबन्ध में खोज-खोज कर सभा को दे रहे हैं, उस पर प्रा. जिज्ञासु जी कार्य कर रहे हैं। उस शोध-कार्य का सुफल भी आर्य जनों को देखने को मिलेगा।   – जागृति विहार, मेरठ

हत्यारा मनुष्य था फ़रिश्ता नहीं :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

हत्यारा मनुष्य था फ़रिश्ता नहीं :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

१. मिर्ज़ा तथा मिर्जाई  पण्डित जी के हत्यारे को खुदा का भेजा फ़रिश्ता बताते व लिखते  चले आ रहे हैं .
कितना भी झूठ गढ़ते  जाओ , सच्चाई सौ पर्दे फाड़ कर बाहर  आ जाती है . मिर्जा  ने स्वयं  स्वीकार किया है . वह उसे एक शख्स ( मनुष्य ) लिखता है . उसने पण्डित लेखराम के पेट में तीखी छुरी मारी . छुरी मार कर वह मनुष्य लुप्त हो गया  पकड़ा नहीं गया

२. वह हत्यारा मनुष्य बहुत समय पण्डित लेखराम के साथ रहा . यहाँ बार बार उसे मनुष्य लिखा गया है . फ़रिश्ता नहीं . झूठ की पोल अपने आप खुल गयी
– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २३९ प्रथम संस्करण

हत्यारा मनुष्य ही था :- मिर्जा पुनः लिखता है ” मैं उस मकान की ओर चला जा रहा हूँ . मेने एक व्यक्ति को आते हुए देखा जो कि एक सिख सरीखा प्रतीत होता था ” कुछ ऐसा दिखाई देता था जिस प्रकार मेने लेखराम के समय एक मनुष्य को स्वप्न में देखता था .
– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – ४४०  प्रथम संस्करण

यहाँ  फ़रिश्ते को सिख, अकालिया, सरीखा आदि तथा डरावना बताकर सीखो को तिरस्कृत किया साथ ही वह भी बता दिया की कादियानी अल्लाह के फ़रिश्ते शांति दूत नहीं क्रूर डरावने व हत्यारे  होते हैं . झूठ की फिर पोल खुल गयी .

अल्लाह का फ़ारसी पद्य पढ़िए :-

मिर्जा ने अपने एक लम्बी फ़ारसी कविता में पण्डित जी को हत्या की धमकी दते हुए अल्लाह मियां रचित निम्न पद्य दिया है :-

अला अय दुश्मने नादानों बेराह

बतरस अज तेगे बुर्राने मुहम्मद

– दृष्टव्य – हकीकत उल वही  पृष्ठ – २८८   तृतीय  संस्करण

अर्थात अय मुर्ख भटके हुए शत्रु तू मुहम्मद की तेज काटने वाले तलवार से डर

प्रबुद्ध, सत्यान्वेषी और निष्पक्ष पाठक ध्यान दें की अल्लाह ने तलवार से काटने की धमकी दी थी परन्तु मिर्जा ने स्वयं स्वीकार किया है की पण्डित लेखराम जी की हत्या तीखी छुरी से की गयी . मिर्ज़ा झूठा नहीं सच्चा होगा परन्तु मिर्ज़ा का कादियानी अलाल्ह जनाब मिर्ज़ा की साक्षी से झूठा सिद्ध हो गया . इसमें हमारा क्या दोष

न छुरी , न तलवार प्रत्युत नेजा ( भाला )

मिर्ज़ा लिखता है ” एक बार मेने इसी लेखराम के बारे में देखा कि एक नेजा ( भाला ) हा ई . उसका फल बड़ा चमकता है और लेखराम का सर पड़ा हुआ है उसे नेजे से पिरो दिया है और खा है की फिर यह कादियां में न आवेगा . उन दिनों लेखराम कादियां में था और उसकी हत्या से एक मॉस पहले की घटना है

 

– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २८७   प्रथम संस्करण

 

यह इलहाम एक शुद्ध झूठ सिद्ध हुआ . पण्डित लेखराम जी का सर कभी भाले पर पिरोया गया हो इसकी पुष्टि आज तक किसी ने नहीं की .मिर्ज़ा ने स्वयं पण्डित जी के देह त्याग के समय का उनका चित्र छापा है मिर्जा के उपरोक्त कथन की पोल वह चित्र तथा मिर्जाई लेखकों के सैकड़ों लेख खोल रहे हैं

अपने बलिदान से पूर्व पण्डित जी ने कादियां पर तीसरी बार चढाई की मिर्ज़ा को  पण्डित जी का सामना करने की हिम्मत न हो सकी . मिर्जा को सपने में भी पण्डित लेखराम का भय सततता था उनकी मन स्तिथि का ज्वलंत प्रमाण उनका यह इलहामी कथन है :

झूठ ही झूठ :- मिर्जा का यह कथन भी तो एक शुध्ध झूठ है की पण्डित जी अपनी हत्या से एक मॉस पूर्व कादियां पधारे थे . यह घटना जनवरी की मास  की है जब पण्डित जी भागोवाल आये थे . स्वामी श्रद्धानन्द  जी ने तथा  इस विनीत ने अपने ग्रंथो में भागोवाल की घटना दी है . न जाने झूठ बोलने में मिर्जा को क्या स्वाद आता है .

तत्कालीन पत्रों में भी यही प्रमाणित होता है की पूज्य पण्डित जी १७-१८ जनवरी को भागोवाल पधारे सो कादियां `१९-२० जनवरी को आये होंगे . उनका बलिदान ६ मार्च को हुआ . विचारशील पाठक आप निर्णय कर लें की यह डेढ़ मास  पहले की घटना है अथवा एक मास पहले की . अल्पज्ञ जेव तो विस्मृति का शिकार हो सकता है . क्या सर्वज्ञ अल्लाह को भी विस्मृति रोग सताता है ?

अल्लाह का डाकिया कादियानी  नबी :-

मिर्जा ने मौलवियों का, पादरियों का , सिखों का , हिन्दुओं का सबका अपमान किया . सबके लिए अपशब्दों का प्रयोग किया तभी तो “खालसा ” अखबार के सम्पादक सरदार राजेन्द्र सिंह जी ने मिर्जा की पुस्तक को ” गलियों की लुगात ” ( अपशब्दों का शब्दकोष ) लिखा है . दुःख तो इस बात का है की मिर्ज़ा बात बार पर अल्लाह का निरादर व अवमूल्यन करने से नहीं चूका . मिर्जा ने लिखा है मेने एक डरावने व्यक्ति को देखा . इसको भी फ़रिश्ता ही बताया है – ” उसने मुझसे पूछा कि लेखराम कहाँ है ? और एक और व्यक्ति का नाम लिया की वह कहा है ?

– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २२५   प्रथम संस्करण

पाठकवृन्द ! क्या  यह सर्वज्ञ अल्लाह का घोर अपमान नहीं की वह कादियां फ़रिश्ते को भेजकर अपने पोस्टमैन मिर्ज़ा गुलाम अहमद से पण्डित लेखराम तथा एक दूसरे व्यक्ति ( स्वामी श्रद्धानन्द ) का अता पता पूछता है . खुदा के पास फरिश्तों की क्या कमी पड़  गयी है ? खुदा तो मिर्ज़ा पर पूरा पूरा निर्भर हो गया . उसकी सर्वज्ञता पर मिर्जा ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया .

एक और झूठ गढ़ा गया : – ऐसा लगता है कि कादियां में नबी ने झूठ गढ़ने की फैक्ट्री लगा दी . यह फैक्ट्री ने झूठ गढ़ गढ़ कर सप्लाई करती थी पाठक पीछे नबी के भिन्न भिन्न प्रमाणों से यह पढ़ चुके हैं कि पण्डित जी की हत्या :
१. छुरी से की गयी

२. हत्या तलवार से की गए

३. हाथ भाले से की गयी

नबी के पुत्र और दूसरे खलीफा बशीर महमूद यह लिखते हैं :-

४. घातक ने पण्डित जी पर खंजर से वर किया
देखिये – “दावतुल अमीर ” लेखक मिर्जा महमूद पृष्ठ – २२०

अब पाठक इन चरों कथनों के मिलान कर देख लें की इनमें सच कितना है और झूठ कितना . म्यू हस्पताल के सर्जन डॉ. पेरी को प्रमाण मानते ही प्रत्येक बुद्धिमानi यह कहेगा कि बाप बेटे के कथनों में ७५ % झूठ है .

 

‘होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार’

ओ३म्

होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत और भारत से इतर देशों में जहां भारतीय मूल के लोग रहते हैं, प्रत्येक वर्ष फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन रंगों का पर्व होली हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। होली के अगले दिन लोग नाना रंगों को एक दूसरे के चेहरे पर लगाते हैं, मिठाई व पकवानों का वितरण आदि करते हैं और कुछ हुड़दंग भी करते हैं। क्या होली का प्राचीन स्वरुप भी वर्तमान जैसा था? इससे कुछ भिन्न था वा यह वर्तमान स्वरूप पूर्व की विकृति वा रूपान्तर है?

 

विचार करने पर ज्ञात होता है कि भारत की धर्म व संस्कृति 1.96 अरब पुरानी है। महाभारत काल, आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व, तक वैदिक संस्कृति अपने मूल स्वरूप में देश देशान्तर में विद्यमान रही। इसका प्रमाण है कि भारत में वेदों के साक्षात ज्ञानी, ऋषि, मुनि व योगी महाभारत काल तक बहुतायत में रहे हैं। दूसरा प्रमाण यह है कि न भारत में और न हि विश्व के किसी अन्य देश में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व की किसी अन्य धर्म, संस्कृति का कोई प्रमाण मिलता है। महाभारत ग्रन्थ में ऐसे अनेक प्रमाण है कि प्राचीन काल में भारत के लोग विश्व वा यूरोप के प्रायः सभी देशों में आते जाते थे। मनुस्मृति ग्रन्थ सृष्टि के आदि में रचा गया जिसमें वर्णन है कि यह आर्यावर्त्त देश ही संसार का अग्रजन्मा देश है। संसार के सभी देशों के लोग यहां विद्यार्जन करने आते थे और अपने योग्य चरित्र आदि की शिक्षा लेते थे। यहां से वेदों आदि व सभी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर अपने देश में उसका प्रचार व उपयोग करते कराते थे।

 

वेद मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के लिए ईश्वरोपासना सहित पंचमहायज्ञों का विधान करते हैं। इन पंच महायज्ञों में मनुष्यों के अनेक व अधिकांश कर्तव्य आ जाते हैं। वैदिक धर्म व संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को मानने वाली संस्कृति है। यहां सभी लोग सृष्टि के आदि काल से सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। की प्रार्थना करते आ रहे हैं। अतः आज जैसी होली महाभारतकाल तक भारत व विश्व में कहीं होने की कोई सम्भावना नहीं है। अनुमान है कि वर्तमान जैसी होली का प्रचलन मध्यकाल में पुराणों की रचना से कुछ समय पूर्व व रचना होने से प्रचलित हुआ। प्राचीन काल में तो प्रत्येक माह पूर्णमास पर बड़े-बड़े यज्ञों का प्रचलन होने का अनुमान होता है। वृहत यज्ञों के उस प्राचीन स्वरूप का अनुसरण ही मध्यकाल से प्रचलित होकर वर्तमान काल तक फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन रात्रि को होली जलाकर किया जा रहा है। यज्ञ से वायुमण्डल शुद्ध, पवित्र, सुगन्धित व स्वास्थ्यवर्धक होता है। यज्ञ से बादल बनते हैं, समय पर आवश्यकतानुसार वर्षा होती है, अतिवृष्टि वा अनावृष्टि नहीं होती, शुद्ध, पवित्र व स्वास्थ्यवर्धक अन्न उत्पन्न होता है व यज्ञ में देवपूजा, संगतिकरण व दान करने से ऐसे अनेक लाभों सहित हमारे अन्दर पाप की प्रवृत्ति का भी शमन होता है। इसके साथ अदृष्ट धर्म लाभ भी होता है जिससे हमारा वर्तमान, भविष्य, परजन्म सुधरता है व अच्छे कर्मों के सग्रंह से मोक्ष की प्राप्ति की ओर जीवात्मा प्रवृत्त होता है।

 

फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाये जाने का एक कारण यह भी है कि भारत में सृष्टि के आदि काल से प्रचलित चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, आषाण आदि बारह हिन्दी महीने जो चैत्र से आरम्भ होकर फाल्गुन की पूर्णिमा को समाप्त होते हैं, उनमें फाल्गुन पूर्णिमा वर्ष का अन्तिम दिन होता है। आज हिन्दी के बारह महीनों का अन्तिम महिना फाल्गुन का अन्तिम दिन है। एक प्रकार से वर्ष का अन्त हो रहा है। कल से चैत्र का महीना आरम्भ होगा। यह वर्ष का पहला महीना होता है। अतः वर्ष के अन्त पर वृहत्त यज्ञ का आयोजन कर उसे विदाई दी जाती थी और हो सकता है कि नये वर्ष के प्रथम महीने चैत्र के प्रथम दिन को नये वर्ष के रूप में हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता रहा हो। इसका इतना अभिप्राय हो सकता है कि यदि किसी का किसी के प्रति कोई द्वेष भाव होता रहा होगा तो इस दिन उसे छोड़ने का संकल्प लिया जाता होगा व ऐसे लोग परस्पर मिलकर आपस में प्रेम व मैत्री पूर्ण संबंध पुनः स्थापित करने की प्रतिज्ञा करते होंगे। उसी का कुछ विकृत रूप आज एक दूसरे पर रंग लगाकर, गले मिलकर, स्वादिष्ट पदार्थों का परस्पर वितरण करके व रंग डालकर मनाने की परम्परा मध्यकाल व उसके बाद से चल पड़ी है।  ऐसा देखा जाता है कि इस दिन लोग हुड़दंग करते हैं, कुछ नशा करके गलत उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं तथा कहीं कहीं परस्पर लड़ाई झगड़े आदि भी हो जाते हैं। वर्तमान का समय शिक्षा व आधुनिकता का युग है अतः सभी को सभ्यता का अच्छा उदाहरण इस दिन प्रस्तुत करना चाहिये।

 

यह भी विचारणीय है कि होली से पूर्व शीत के महीने होते हैं। शीत ऋतु वृद्ध लोगों के लिए तो कष्टकर होती ही है परन्तु साथ हि युवा व बच्चों सहित निर्धन लोगों के लिए भी अति कष्टदायक होती है। अतः ऋतु परिवर्तन से शीत की निवृत्ति व सबके लिए सुखद ऋतु वसन्त के होने पर सबका हर्षित व प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है। देश के कृषक लोग भी इस अवसर पर प्रसन्नता व सुख का अनुभव करते हैं क्योंकि उनकी गेहूं व अन्य फसलें पक कर तैयार होती हैं। सारा वातावरण नये नये फूलों की सुगन्ध से सुवासित होता है। सभी वृक्ष अपने पुराने पत्ते-पत्तियों का त्याग कर नये हरे पत्ते धारण करते हैं जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है। इससे सारा वातावरण व उसका परिदृश्य मनमोहक व लुभावना बन जाता है। ऐसे में सामान्य मनुष्य का मन कुछ आमोद प्रमोद की बातों में लगना स्वाभाविक होता है जिसकी अभिव्यक्ति होली के चैत्र कृष्ण प्रथमा के पर्व से होती है। इतना ही निवेदन है कि मनुष्य को जोश के साथ होश भी रखना चाहिये। कहीं किसी के द्वारा इस पर्व पर कोई अमर्यादित बात व कार्य नहीं होना चाहिये। वैदिक साहित्य का अध्ययन कर हमें लगता है कि सभी परिवारों में पूर्णिमा व अगले दिन प्रथमा को अनिवार्य रूप से अग्निहोत्र व हवन का प्रचलन होना चाहिये जिसमें किसान अपनी नई फसल वा गेहूं की बालियों की आहुतियां भी दे सकते हैं जिससे यह पर्व मनाना सार्थक होता है। इस प्रकार यज्ञ पूर्वक होली को मनाना होली का मुख्य प्रतीक बनना चाहिये। इससे लाभ ही लाभ होगा। समाज, पर्यावरण व देश सभी उन्नत होंगे और ईश्वर प्रदत्त प्राचीन वैदिक धर्म व संस्कृति उन्नति को प्राप्त होगी।

 

होली के दिन प्रायः सभी घरों में स्वादिष्ट भोजन व नाना प्रकार के पकवान बनते हैं और लोग परस्पर अपने पड़ेसियों व मित्रों में इसका वितरण व सेवन आदि करते हैं। यह अच्छी प्रथा है। लेख को विराम देने से पूर्व इतना और निवेदन है कि इस दिन सभी समर्थ व सम्पन्न लोगों को समाज क निर्धन व साधनहीन लोगों तक अपनी ओर से उनके उपयोग की कुछ वस्तुयें वितरित करने का प्रयास करना चाहिये और उनको आगे बढ़ाने का कुछ सहयोग किया जा सके तो इसका विचार करना चाहिए। आज होली के दिन हमने कुछ क्षण जो चिन्तन किया है, उसे आपको सादर भेंट करते हैं और सभी बन्धुओं व मित्रों को हमारी होली के पर्व की बहुत बहुत शुभकामनायें हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी की शालीनता

मिर्ज़ा  गुलाम अहमद  कादियानी  और  उसकी उम्मत  लगातार ये कहती  आयी है कि  पण्डित लेखराम की वाणी अत्यन्त तेज  व  असभ्य थी . मिर्ज़ा  गुलाम अहमद  और  न ही उसके चेले  आज तक  इस  सन्दर्भ में कोई  प्रमाण प्रस्तुत  कर पाए हैं . इसके विपरीत मिर्ज़ा  गुलाम अहमद स्वयम कहता है कि पण्डित लेखराम  सरल  स्वाभाव  के थे :

‘ वह अत्यधिक  जोश के होते हुए भी अपने स्वभाव से सरल था ”
सन्दर्भ- हकीकुत उल वही पृष्ट  -२८९ ( धर्मवीर पण्डित लेखराम – प्र राजेन्द्र जिज्ञासु)

मिर्ज़ा गुलाम अहमद और उनके चेले तो धर्मवीर पण्डित लेखराम जी के वो शब्द तो न दिखा सके न ही दिखा सकते हैं क्योंकि झूठ के पांव नहीं होते .

आइये आपको मिर्ज़ा गुलाम अहमद की भाषा की शालीनता के कुछ नमूने उनकी ही किताबों से देते हैं :

 

रंडियों की औलाद  

” मेरी इन किताबों को हर मुसलमान  मुहब्बत  की नजर से देखता है और उसके इल्म से फायदा उठाता है और मेरी अरु मेरी दावत के हक़ होने की गवाही देता है और इसे काबुल करता है .

किन्तु रंडियों (व्यभिचारिणी औरतों ) की औलादें मेरे हक़ होने  की गवाही नहीं देती ”

– आइन इ कमालाते  इस्लाम पृष्ट -५४८ लेखक – मिर्जा गुलाम अहमद प्रकाशित सब १८९३ ई

 

हरामजादे

” जो हमारी जीत का कायल नहीं होगा , समझा जायेगा कि उसको हरामी (अवैध संतान ) बनने का शौक हिया और हलालजादा (वैध संतान ) नहीं है .”

– अनवारे इस्लाम पृष्ट -३० , लेखक – मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी प्रकाशित – सन १८९४ ई

मर्द सूअर  और औरतें  कुतियाँ

” मेरे  विरोधी जंगलों के सूअर हो गए और उनकी  औरतें  कुतियों से बढ़ गयीं ”

– जज्जुल हुदा पृष्ठ – १० लेखक  मिर्ज़ा  गुलाम अहमद  कादियानी प्रकाशित – १९०८ ई

जहन्नमी

मिर्ज़ा जी बयान करते हैं :

‘ जो व्यक्ति मेरी पैरवी नहीं करेगा और मेरी जमाअत में दाखिल नहें होगा वह खुदा और रसूल की नाफ़रमानी करने वाला है जहन्नमी है ”

– तबलीग रिसालत पृष्ट – २७ , भाग – ९

मौलाना मुहम्मद अब्दुर्रउफ़ “कादियानियत की हकीकत” में लिखते हैं कि मानो कि तमाम मुसलमान जो मिर्ज़ा गुलाम अहमद के हक़ होने की गवाही न तो वह जहन्नमी और हरामजादे , जंगल के सूअर और रण्डियों की औलादें हैं और मुसलमान औरतें हरामजादियां रंडियां (वैश्याएँ) और जंगल की कुतियाँ और जहन्नमी हैं

– पृष्ट -५४, प्रकाशन – २०१०

 

मिर्ज़ा गुलाम अहमद की भाषा शैली किस स्तर तक गिरी हुयी थी ये उसके चुनिन्दा नमूने हैं अन्यथा भाषा की स्तर इस कदर गिरा हुआ है कि हम उसे पटल पर रखना ठीक नहीं समझते .

समझदारों के लिए इशारा ही काफी है .

 

Pandit Lekhram gave Mirza Ghulam Ahmad a very hard time for a number of years. He would respond to the latter’s challenges, and would show up to meet him, and also wrote in an equally tough, though more civil tone, but nevertheless very sarcastic.  Here references are given of sarcastic & unplished tone of Mirza Ghulam Ahamd

 

 

जिनके हम ऋणी हैं

 जिनके हम ऋणी हैं

रघुनाथ प्रसाद कोतवाल

आर्य समाज के इतिहास में हम अपना परिचय ऋषि दयानन्द के साथ करते हैं। ऋषि के साथ परिचय करते हुए हम जिन लोगों से परिचित होते हैं, उनमें उनके गुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द से परिचित होते हैं, जिनके बिना स्वामी दयानन्द ऋषि दयानन्द नहीं बन सकते थे। दण्डी स्वामी विरजानन्द ने ऋषि दयानन्द को वह दृष्टि दी, जिससे उन्होंने संसार को देखा और सत्य-असत्य का विवेक किया। जिस विवेक ने धर्म और पाखण्ड के अन्तर को स्पष्ट किया और ऋषि दयानन्द वैदिक धर्म का प्रचार करने में सफल हुए तथा पाखण्ड पर आक्रामक प्रहार कर सके। बौद्धिक दृष्टि से गुरुजी ने स्वामी दयानन्द को प्रखर बनाया, वहीं पर कुछ लोग हैं, जिन्होंने यदि सहयोग और सुरक्षा स्वामी दयानन्द को न दी होती तो समभव था, इतिहास न बन पाता या कुछ और प्रकार से बनता।

ऋषि दयानन्द के विद्याध्ययन में गुरुजी के अतिरिक्त अनेक सहयोगी हुए हैं। किसी ने दूध का प्रबन्ध किया, किसी ने दीपक के तेल का। मुखय सहयोग भोजन का था, जो मथुरा निवासी अमरलाल जोशी ने किया, जिनके पौत्र मथुरा शताबदी के समय थे। उसके बाद वे एक बार अजमेर भी पधारे थे। अब मथुरा के उस घर में सम्भवतः कोई नहीं रहता, सब इधर-उधर चले गये हैं।

प्रचार के समय में जिन्होंने सहयोग किया, वे अनेक महानुभाव है, परन्तु मंगलवार 16 नवबर 1869 में काशी शास्त्रार्थ के समय जिन्होंने ऋषि दयानन्द की प्राण रक्षा की, वे थे रघुनाथ प्रसाद कोतवाल। जो बनारस के गुण्डों से बचाकर स्वामी जी को आनन्दबाग के दूसरे सिरे पर जहाँ नगरपालिका भवन है, उसके एक कमरे में ले गये तथा राजा को भी कहा कि आपकी उपस्थिति में एक अकेले संन्यासी के और काशी के सैकड़ों गुण्डे ईंट-पत्थर फेंकें और जान से मारने की चेष्टा करें, यह उचित नहीं, तब राजा ने कोतवाल रघुनाथ प्रसाद से कहा था- धर्म रक्षा के लिये कभी-कभी अनुचित का भी आश्रय लेना पड़ता है। इससे अधिक हम रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के विषय में नहीं जानते। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि जो परिवार ऋषि के समय से काशी में रह रहा है, जिनके पौत्र अभी जीवित हैं, उनकी चर्चा आर्य समाज के इतिहास में उस महत्त्व के साथ उल्लिखित नहीं हुई।

गत दिनों काशी के आर्य समाज के कार्यकर्त्ता श्री अशोक कुमार त्रिपाठी जी से भेंट हुई और उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का चित्र और उनके जीवन पर लिखी सामग्री सुरक्षित है। मैंने माँगी तो उन्होंने सहर्ष स्वीकृति देते हुए कहा कि मैंने यह सामग्री परोपकारी के लिये ही रखी है, अतः किसी और को नहीं दी। मैं बनारस जाकर वह चित्र और सामग्री आपके पास भेज दूँगा। अपने वचन के अनुसार त्रिपाठी जी ने स्वनाम धन्य रघुनाथ प्रसाद कोतवाल जी तथा उनके पौत्र मेवालाल पाण्डे जो वर्तमान स्वामी ओमानन्द जी से संन्यास दीक्षा लेकर केवलानन्द बन गये हैं। इन दोनों का चित्र परोपकारी को भेजा, जो इस अंक में प्रकाशित किया जा रहा है। यह परोपकारी पत्र एवं परोपकारिणी सभा के लिये गौरव की बात है।

श्री अशोक कुमार त्रिपाठी जी ने जो रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का परिचय भेजा है। वह परिचय आर्य हरीश कौशल पुरी द्वारा 18 जुलाई 2008 का लिखा है। संयोग से इस लेख पर उनका पता और दूरभाष संखया भी अंकित है। मैंने लेखन की प्रामाणिकता  के लिये उनसे सपर्क किया तो उन्होंने केवल इतना स्वीकार किया कि इसकी प्रामाणिकता बस इतनी है कि श्री रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के पौत्र स्वामी केवलानन्दजी ने अपनी स्मृति और परिवार में चली आ रही बातों के आधार पर जो बोला, मैंने उसे लिख दिया, इससे अधिक मेरी कोई प्रामाणिकता नहीं है। मैंने स्वामी जी से समपर्क कर इसकी प्रामाणिकता को पुष्ट करने का प्रयास किया, परन्तु आयु अधिक होने के कारण वे प्रश्नों के उत्तर के स्थान पर अपनी बात को ही दोहराते रहे। यह बात कराने में इनके डॉ. पुत्र का योगदान रहा।

जो परिचय अशोक त्रिपाठी जी ने भेजा है। उसमें योगी का आत्मचरित वाली शैली है, जिसको प्रमाणित नहीं किया जा सकता। इस लेख में समय और स्थान में समन्वय नहीं है, अतः उस लेख को यथावत् प्रकाशित न करके उस सामग्री का उपयोग करते हुए ये पंक्तियाँ लिखी हैं। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का जन्म 28 जनवरी 1826 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मेहनगर गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम श्रीमहावीर प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती वसुन्धरा पाण्डेय था। ये भारद्वाज गोत्रीय सरयू पारी ब्राह्मण थे। रघुनाथ पाण्डेय ने 12वीं की शिक्षा लखनऊ से पूरी की। इनको तत्काल ही पुलिस विभाग में नौकरी मिल गई। सर्व प्रथम इनकी नियुक्ति देहरादून में हुई फिर उनको सी.आई.डी. इंस्पेक्टर बना कर कानपुर भेजा गया। ये सरकार के विश्वासपात्र कर्मचारी थे। आगे चल कर इनका कार्य क्षेत्र कानपुर से लेकर बुन्देलखण्ड तक बढ़ा दिया गया। इनकी सेवा से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने रघुनाथ प्रसाद कोतवाल को राय की उपाधि से सममानित किया, परन्तु रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने इस उपाधि का नाम के साथ कभी प्रयोग नहीं किया, क्योंकि ऐसा करने में उन्हें गर्व के स्थान पर अपमान का अनुभव होता था।

ऋषि दयानन्द रघुनाथ प्रसाद कोतवाल से बहुत प्रेम करते थे। एक दिन वे अपने धर्मपत्नी रामप्यारी पाण्डेय के साथ महर्षि से मिले, तब स्वामी जी ने दोनों को वेदोपदेश देकर वेदानुसार जीवन जीने की प्रेरणा दी। उसी के अनुसार उनके परिवार में आर्य परमपरा का निर्वाह किया जा रहा है, कोतवाल जी के पुत्र श्री मिश्रीलाल जी तथा उनके पुत्र मेवालाल जी आजतक श्रद्धापूर्वक परिवार में वैदिक धर्म का पालन कर रहे हैं।

कहा जाता है कि स्वतन्त्रता संग्राम के समय इनकी नियुक्ति झाँसी के कोतवाल के रूप में थी, उन्होंने परोक्ष रूप से रानी लक्ष्मीबाई को युद्ध में सहायता भी पहुँचाई थी। इसका कारण था, रघुनाथ प्रसाद के चाचा रघुवीर पाण्डेय झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के सलाहकार थे और रानी के विधवा होने पर रानी को ओजपूर्ण कवितायें और कहानियाँ सुनाकर प्रोत्साहित किया करते थे। महिला सेना के निर्माण में भी इनका योगदान था। इसी प्रकार परिवार के अन्य सदस्य भी स्वतन्त्रता संग्राम में भाग ले रहे थे। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के छोटे चाचा शिवनन्दन, श्रवण कुमार, कुँवर सिंह के साथ लड़ाई में शामिल हुये और कंधरापुर के पास तमसा के किनारे वीरगति को प्राप्त हुए। कुँवर सिंह युद्ध करते हुए आगे बढ़ते रहे, वे आजमगढ़ के सिधारी पुल पर तमसा नदी के किनारे पहुँचे थे कि उनके हाथ में एक अंग्रेज सिपाही की बन्दूक की गोली लगी, कुँवर सिंह ने तत्काल तलवार से गोली लगा अपना हाथ काट दिया और नदी में प्रवाहित कर दिया। एक हाथ से युद्ध करते हुए बक्सर होते हुये, अपने गाँव जगदीशपुर पहुँचे। 85 वर्ष की अवस्था में उनका स्वर्गवास हुआ। बाद में उनके सुपुत्र जगदीश सिंह ने मोर्चा समभाला और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते रहे।

इस प्रकार रघुनाथ प्रसाद कोतवाल एवं उनके परिवार का जीवन देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये अर्पित हुआ।

रघुनाथ प्रसाद कोतवाल को उनके चाचा ने ही प्रेरणा देकर पुलिस विभाग में भर्ती कराया था और निर्देश दिया था कि तुमहें अंग्रेजों को प्रसन्न रखते हुए, भारत माता की दासता की जंजीरों को काटना है, जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने और कितने भी कार्य देशहित में किये होंगे, परन्तु काशी में उस दिन काशी के गुण्डों से महर्षि के प्राणों की रक्षा करके जो महान् कार्य किया, उससे बड़ा और कोई कार्य नहीं हो सकता। यह उनकी देश और समाज की सबसे बड़ी सेवा है।

इसके लिये यह देश और समाज उनका सदा ऋणी रहेगा।

– धर्मवीर