यह दोहरा मापदण्ड क्यों?– – राजेन्द्र जिज्ञासु

‘आर्य सन्देश’ दिल्ली के 13 जुलाई के अंक में श्रीमान् भावेश मेरजा जी ने मेरी नई पुस्तक ‘इतिहास प्रदूषण’ की समीक्षा में अपने मनोभाव व्यक्त किये हैं। मैंने अनेक बार लिखा है कि मैं अपने पाठक के असहमति के अधिकार को स्वीकार करता हूँ। आवश्यक नहीं कि पाठक मुझसे हर बात में सहमत हो। समीक्षक जी ने डॉ. अशोक आर्य जी के एक लेख में मुंशी कन्हैयालाल आर्य विषयक एक चूक पर आपत्ति करते हुए उन्हें जो कहना था कहा और मुझे भी उनके लेख के बारे में लिखा। मैंने भावेश जी को लिखा मैं लेख देखकर उनसे बात करूँगा। अशोक जी को उनकी चूक सुझाई। उन्होंने कहा , मैंने पं. देवप्रकाश जी की पुस्तक में ऐसा पढ़कर लिख दिया। मैंने फिर भी कहा स्रोत का नाम देना चाहिये था और बहुत पढ़कर किसी विषय पर लेखनी चलानी चाहिये।

मैं गत 30-35 वर्ष से आर्यसमाज में इतिहास प्रदूषण के महारोग पर लिखता चला आ रहा हूँ परन्तु

‘रोग बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।’

वाली उक्ति के अनुसार यह तो ऊपर से नीचे तक फैल चुका है। भावेश जी ने अशोक जी की चूक पर तो झट से अपना निर्णय दे दिया कि यह भ्रामक कथन है। मैंने कई लेखकों की कई पुस्तकों व लेखों की भयङ्कर भूलों नाम की, सन् की, सवत् की, स्थान की, हटावट की मिलावट की बनावट की मनगढ़न्त हदीसें मिलाने की निराधार मिथ्या बातों के अनेक प्रमाण दिये तीस वर्ष से झकझोर रहा हूँ। मेरे एक भी प्रमाण व एक भी टिप्पणी को कोई आगे आकर झुठलाकर तो दिखावे। अशोक जी के एक लेख पर एक कथन पर भावेश जी ने झट से उसका प्रतिवाद कर दिया। अब भी वह ऐसा करते तो अच्छा होता अथवा मेरे दिये प्रमाणों को झुठलाते। यह तो वही बात हुई ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी’

तड़प-झड़प वाली शैली पर जो आपत्ति समीक्षक ने की है, वही ऋषि दयानन्द, पं. लेखराम, पं. चमूपति, देहलवी जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. धर्मभिक्षु, पं. नरेन्द्र जी पर विरोधी कोर्टों व पुस्तकों में करते चले आ रहे हैं परन्तु कोई असंसदीय शद तो किसी कोर्ट में सिद्ध न हो सका। एक व्यक्ति ने गत तीस-पैंतीस वर्ष से प्रदूषण का आन्दोलन छेड़ा है तो उसी पर अधिक लिखा जावेगा। वेश्या व जोधपुर के राज परिवार के लिए आर्यसमाज के इतिहास को ही प्रदूषित करना क्या उचित है?

तड़प-झड़प वाले का लेख ईसाई पत्रिका पवित्र हृदय ने आदर से प्रकाशित किया। जब-जब किसी ने प्रहार किया, चाहे सत्यार्थप्रकाश पर दिल्ली में अभियोग चला, हर बार तड़प-झड़प वाले को ही उत्तर देने व रक्षा के लिए समाज पुकारता है। इसका कारण आप ही बता दें। गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय अमृतसर का Sikh Theology विभाग सारा ही तड़प-झड़प वाले के पास पहुँचा तो क्या इससे आर्यसमाज का गौरव बढ़ा या नहीं? किसी और से वह काम ले लेते। महोदय! मुसलमानों ने आचार्य बलदेव जी से कहलवाकर तड़प-झड़प वाले की एक पुस्तक दो बार छापने की अनुमति ली। शहदयार शीराजी एक विदेशी मुस्लिम स्कॉलर ने पं. रामचन्द्र जी देहलवी व दो अन्य महापुरुषों पर तड़प-झड़प वाले से ग्रन्थ लिखवा कर समाज की शोभा शान बढ़ाई या नहीं? ये कार्य आप अपनी विभूति से करवा लेते तो संसार जान जाता। ‘इतिहास प्रदूषण’ में दिया गया एक प्रमाण, एक टिप्पणी तो झुठलाओ।

परोपकारी पर वार हो तो संगठन भूल जाता है। प्रदूषणकार, हटावट, मिलावट, बनावट करने वाले पर लेखनी उठाई जावे तब संगठन की दुहाई देने का क्या अर्थ? तड़प-झड़प वाला अर्थार्थी, स्वार्थी नहीं परमार्थी पुरुषार्थी है। यह क्यों भूल गये? न कभी किसी से पुरस्कार माँगा है, न समान व पेंशन माँगी है। कई बार अस्वीकार तो करता आया है। तन दिया है, मन दिया है, लहू से ऋषि की वाटिका, सींची है। धन को धूलि जानकर समाज पर वारा है। न तो कभी साहित्य तस्करी की है और न पुस्तकों की तस्करी का पाप कभी किया है। सच को सच तो स्वीकार करो। इसे झुठलाना आपके बस में नहीं है।

इससे हमने क्या सीखा?ः- राजेन्द्र जिज्ञासु

पूर्वजों के तर्क व युक्तियाँ सुरक्षित की जायेंः आज हम लोग एक बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं। हम कुछ हल्के दृष्टान्त, हंसाने वाले चुटकले सुनाकर अपने व्यायानों को रोचक बनाने की होड़ में लगे रहते हैं। इससे हमारा स्तर गिरता जा रहा है। यह चिन्ता का विषय है। पं. रामचन्द्र जी देहलवी हैदराबाद गये तो आपने हिन्दुओं के लिए मुसलमानों के लिए व्यायान के पश्चात् शंका करने के दिन निश्चित कर रखे थे। निजाम ने प्रतिबन्ध लगा दिया कि मुसलमान पण्डित जी से शंका समाधन कर ही नहीं सकता। वह जानता था कि पण्डित रामचन्द्र जी का उत्तर सुनकर मुसलमान का ईमान डोल जायेगा। उसके भीतर वैदिक धर्म घुस जायेगा। देहलवी जी से प्रश्न करने पर लगाई गई यह पाबन्दी एक ऐतिहासिक घटना है।

इससे हमने क्या सीखा?ः- हमें बड़ों के मनन-चिन्तन की सुरक्षा को मुयता देकर नये सिरे से उनके विचारों पर गहन चिन्तन करना होगा।

होना तो यह चाहिये था कि पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, पं. गणपति शर्मा, स्वामी नित्यानन्द, पं. धर्मभिक्षु, श्री महाशय चिरञ्जीलाल प्रेम, पं. चमूपति, पं. शान्तिप्रकाश और पं. अमरसिंह आर्य पथिक आदि सबके मौलिक चिन्तन व युक्तियों को संग्रहीत करके उनका नाम ले लेकर लेखों व व्यायानों में उन्हें प्रचारित करके अगली पीढ़ियों तक पहुँचाया जाये।

मैंने इस दिशा में अत्यधिक कार्य किया है। इन महापुरुषों के साहित्य, व्यायानों व लेखों से इनकी ज्ञान राशि को खोज-खोज कर सुरक्षित तो किया है परन्तु वक्ता या तो उनका नाम नहीं लेते हैं और नाम लेते भी हों तो तर्क, युक्ति प्रसंग को बिगाड़ करके रख देते हैं। इसके बीसियों उदाहरण दिये जा सकते हैं। यह बहुत दुःखदायक है।

दुःखी हृदय से ऐसे दो प्रसंग यहाँ दिये जाते हैं। श्रद्धेय पं. सत्यानन्द जी वेदवागीश, पं. ओम् प्रकाश जी वर्मा दोनों पं. शान्तिप्रकाश जी के पुनर्जन्म विषय पर एक शास्त्रार्थ का प्रेरक प्रसंग सुनाया करते हैं। पण्डित जी के मुख से स्वपक्ष में कुरान की आयतें सुनकर प्रतिपक्षी मौलाना ने अपनी बारी पर पण्डित जी के आयतों के उच्चारण व कुरान पर अधिकार के लिए कहा था, ‘‘कमबख्त  पिछले जन्म का कोई हाफिजे कुरान है।’’

इस पर पण्डित जी ने कहा- बस पुनर्जन्म का सिद्धान्त सिद्ध हो गया। आपने इसे स्वीकार कर ही लिया है। मैं भी यह घटना सुनाया करता हूँ। शास्त्रार्थ के अध्यक्ष स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज थे। यह शास्त्रार्थ लाहौर में हुआ था। वर्मा जी भी यह बताया करते हैं।

अभी पिछले दिनों पं. शान्ति प्रकाश जी के पुत्र श्री वेदप्रकाश जी ने मेरे मुख से यह घटना सुनने की इच्छा प्रकट की। आपने पिताश्री के मुख से कभी इसे सुना था। मैंने उसको पूरा-पूरा प्रसंग सुना दिया। अब हो क्या रहा है। गत दिनों एक भद्रपुरुष ने इस घटना को बिगाड़ कर पं. रामचन्द्र जी देहलवी के नाम से जोड़ दिया। श्री देहलवी जी के पुनर्जन्म विषयक किसी लेख, व्यायान और शास्त्रार्थ में इसका कहीं भी संकेत नहीं मिलता।

न जाने लोगों को गड़बड़ करने में क्या स्वाद आता है। एक ने मुझे कहा कि मैंने राधा व श्री कृष्ण पर लेख देना है। कहाँ से सामग्री मिलेगी? मैंने उसे पं. मनसाराम जी की दो पुस्तकें देखने को कहा। उसने झट से लेख तो छपवा दिया परन्तु पं. मनसाराम जी के ग्रन्थ का उल्लेख नहीं किया। क्या ऐसा करके वह ठाकुर अमरसिंह की कोटि का विद्वान् बन गया? बड़ों ने वर्षों श्रम किया, तप किया, दुःख कष्ट झेले तब जाकर वे पूज्य बने। तस्करी करके या बड़ों का नाम न लेकर, उनकी उपेक्षा करके हम यश नहीं प्राप्त कर सकते।

आचार्य प्रियव्रत जी ने मुझे आज्ञा दीः आचार्य प्रियव्रत जी ने एक बार मुझे एक भावपूर्ण पत्र लिखकर एक महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपा था। आपने मेरे ग्रन्थ में स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के द्वारा सुनाये जाने वाले कई दृष्टान्त पढ़कर यह आज्ञा दी कि मैं स्वामी जी महाराज के सब दृष्टान्तों की खोज करके उनका दृष्टान्त सागर तैयार कर दूँ। वे सत्य कथाओं का अटूट भण्डार थे। यदि स्वामी सर्वानन्द जी, स्वामी विज्ञानानन्द जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. नरेन्द्र जी और आचार्य प्रियव्रत मेरे पर निरन्तर दबाव बनाते तो यह कार्य तब हो सकता था। अब इसे करना अति कठिन है। कोई युवक इस कार्य के लिए आगे निकले तो मैं उसको पूरा-पूरा सहयोग करूँगा। यह एक करणीय कार्य है।

बड़ों को समझो, उन्हें बड़ा मानो तोः- कोई 20-22 वर्ष पुरानी बात होगी। आर्यसमाज नया बांस देहली में एक दर्शनाचार्य युवक से भेंट हो गई। वह रोजड़ से दो दर्शनों का आचार्य बनकर आया था। उससे मिलकर बड़ा आनन्द हुआ। तब पं. चमूपति जी के पुत्र श्री डॉ. लाजपतराय भी वहीं बैठे थे। मैंने दर्शनाचार्य जी से पूछा, किस-किस आर्य दार्शनिक के दार्शनिक साहित्य को आपने पढ़ा है? उसने कहा, जो वहाँ पढ़ाये जाते थे, वही ग्रन्थ पढ़े हैं।

अब मैंने उसे कहा- हम त्रैतवाद को मानते हैं। जीव और प्रकृति को भी अनादि व नित्य मानते हैं। मुसलमान जीव की उत्पत्ति तो मानते हैं परन्तु नाश नहीं मानते। हमारे विद्वान् यह प्रश्न पूछते रहे कि क्या एक किनारे वाले भी कोई नदी होती है? जिसका अन्त नहीं उसका आदि भी नहीं होगा और जिसका आदि नहीं उसी का अन्त नहीं होगा। यह नहीं हो सकता कि कहीं एक किनारे की नदी हो।

उसे बताया गया कि झुंझलाकर एक मौलाना ने लिखा कि फिर ऐसी भी तो किनारा न हो अर्थात् जिसका न आदि हो और न अन्त हो।

मैंने कहा- दर्शनाचार्य जी! आप इसका क्या उत्तर देंगे। वह लगे सूत्र पर सूत्र सुनाने परन्तु मियाँ के तर्क को काट न सके। लाजपत जी ने उसे संकेत दिया- भाई किनारे को काटो तब उत्तर बनेगा परन्तु उसे कुछ न सूझा। तब मैंने उसे बताया कि पं. चमूपति जी ने इसका उत्तर दिया, ‘‘हाँ, मौलाना एक ऐसी नदी भी है- अल्लाह मियाँ, जिसका न आदि आप मानते हैं और न अन्त आप मानते हैं।’’ कैसा बेजोड़ मौलिक सबकी समझ में आने वाला उत्तर है। मैं किसी को निरुत्साहित करना पाप मानता हूँ। मेरी इच्छा है कि परोपकारिणी सभा पं. लेखराम जी, स्वामी दर्शनानन्द जी, पं. चमूपति जी, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के दार्शनिक चिन्तन पर उच्च स्तरीय शिविर लगाये। इस प्रकार के शिविरों से इन विचारकों का वंश बढ़ेगा। फूलेगा, फलेगा।

बिस्मिल्लाह के चमत्कार

अधिकतर कार्यों को आरम्भ करने से पहले मुसलमान  बिस्मिल्लाह का पढ़ना आवश्यक समझते हैं  कुरान के अधिकतर अध्यायों की शुरुआत भी बिस्मिल्लाह से ही हुयी है आइये जानते हैं बिस्मिल्लाह के कुछ चमत्कारों के बारे में

तफसीर ए जलालैन ने इसके बारे में जो दिया है वो पढ़िए :

बिस्मिल्लाह के गुण :

  • मुस्लिम की रिवायत है कि जिस खाने पर बिस्मिल्लाह नहीं पढी जाती उसमें शैतान का हिस्सा होता है .
  • अबू दाऊद की रिवायत है कि आप की मजलिस मै किसी सहाबी ने बगैर बिस्मिल्लाह खाना शुरू कर दिया आखिर में जब याद आया तो बिस्मिल्लाह कहा तो आं हजरत को यह देख कर हंसी आ गयी और फरमाया कि शैतान ने जो कुछ खाया था इनके बिस्मिल्लाह पढ़ते ही खड़े हो कर सब उल्टी कर दिया . अल बल्गाह में अपना वाकया फरमाया है कि एक दोस्त खाना खाने लगे तो उन के हाथ से रोटी का टुकडा छूट कर दूर तक लटकता चला गया जिससे सभी को ताज्जुब हुआ और अगले रोज़ मोहल्ले में किसी के सर पर खबीस आकर बोला कि कल हमने फलां सख्स से एक टुकड़ा छीना था मगर आखिरकार इसने हमसे ले ही लिया .
  • तिर्मज़ी की रिवायत हजरत अली से है कि शौचालय में जाने के वक्त बिस्मिल्लाह पढने से जिन्नात व शैतान की नज़र इसके आवरण (गुप्तांगों ) तक नहीं पहुँचती है .

इमाम राजी ने तफसीर कबीर में लिखा है कि हजरत दुश्मन के मुकाबले जंग में पर जमाए खड़े हैं और जहर हलाहल  की एक शीशी पीस करके …….  दीन की सराकत का इम्तिहान लेना चाहते हैं आपने पूरी शीशी बिस्मिल्लाह पढ़ कर पी ली लेकिन इसकी बरकत से आप पर जहर का मामूली असर भी नहीं हुआ .

लेकिन आप कहेंगे कि इस तरह के ताशीर (प्रभावोत्पादकता) आपका मशाहरा (the act of disagreeing angrily) चूँकि हमको नहीं होता इसलिये यह वाकयात गलत बे बुनियाद खुशफहमी पर बनी मालूम होते  है .सुबात यह है कि किसी चीज की ताशीर के लिए इस बात  व शरायत का मुहैया होना और मुआना व रुकावटों का दूर होना दोनों बातें जरुरी होती हैं .
अजलह मर्ज़ और हसूल सेहत के लिए सिर्फ दो दुआ कारगर  नहीं हो सकतीं ताव कतीकाह नुकसानदेह  चीजों और बद परहेजों से बिलकुल नहीं बचा जाए यहाँ भी साफ़ नीयत ईमान का मिल अगर शरायत ताशीर हैं  तो रयाकारी बद्फह्मी तोहमत व खयालात बद आत्कादी गैर मुआयना भी है दोनों ही मकर मज्मुई तोर पर अगर मौशर होते हों तो भी क्या  इश्काल (संदेह ) रह जाता है (हक्कानी )

  • इब्ने अहमद बन मुसी अपनी तफसीर में जाबर बन से रिवायत करते हैं कि बिस्मिल्लाह जब नाजिल हुयी तो बादल पूर्वी दिशा में दौड़ने लगे हवा रुक गयी समन्दरों में जोश हुआ जानवर कान खड़े करके सुनने लगे और अल्लाह ने अपनी महानता की कसम खायी कि बिस्मिल्लाह जिस चीज पर पढी जायेगी मैं इस में जरुर बरकत दूंगा .
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  • पण्डित देवप्रकाश जी ने जो लिखा जो लिखते हैं :
    पाठकों के मनोरंजन के लिए इस आयत के साथ जोड़े चमत्कार लिख देते हैं :
    इब्ने कसीर ने लिखा हजरत दाउद फरमाते हैं कि जब ये आयत बिस्मिल्लाह उतरी बादल पूर्व की और छंट गए हवा रुक गयी समुद्र ठहर गया ,जानवरों ने कान लगा लिया शिअतान पर आकाश से आग के शोले गिर इत्यादि (इब्ने कसीर जिल्द १ पृष्ट २४)
    अबू दाउद से उद्धृत किया है की नबी (मुहम्मद) के सामने एक व्यक्ति ने बिना बिस्मिल्लाह पढ़े खाना खाया . जब भोजन का एक ग्रास शेष रहा तो उसने बिस्मिल्लाह पढी तो शैतान ने जो कुछ खाया था खड़े होकर उल्टी कर दी .सहीह मुस्लिम से उद्धृत किया है कि जिस भोजन पर बिस्मिल्ल्लाह नहीं पढ़ा जाता उसमें शैतान भागीदार हो जाता है .
    तिरमिजी ने हजरत अली से उद्धृत किया है कि जब कोई व्यक्ति शौचायल में जाकर बिस्मिल्लाह पढता है तो इससे उसके गुप्तांगों व जिन्नों की आँखों के मध्य यह कलाम पर्दा बंद जाता है . तफसीर हक्कानी जिल्द १ पृष्ठ १७ न जाने ये जिन्न पखाने में मुसलामानों के पीछे क्यों जाते हैं .

इस तरह की बातों पर कोई भी विवेकशील व्यक्ति यकीन नहीं कर सकता . इन सब बातें वास्तविकता से परे हैं और अंधविश्वासों को बढ़ाने वाली हैं . पहले भी लोग बिस्मिल्लाह बिना पढ़े खाते थे और आज भी  बिना बिस्मिल्लाह पढ़े खाते हैं लेकिन आज तक तो किसी की रोटी को किसी शैतान ने नहीं छीना  न ही किसी को शौचालय में शैतान के होने का आभास हुआ है . इन सब तत्थ्यों के होते हुए इन सब बातों पर पढ़े लिखे और विवेकशील मुसलामानों का भी विश्वास करना शायद कठिन होता होगा गैर मुस्लिम के बारे में तो क्या कहें .

विवेकशील और बुद्धिमान मौलवियों आलिम फज़िलों को चाहीये की इस तरह की हदीसों के बारे में जो इस्लाम को वास्तविकता से परे रखने का कार्य करती हैं पर अपना मत स्पष्ट करना चाहिए

दयानन्द थे भारत की शान -श्रीकृष्ण चन्द्र शर्मा

लड़े जो कर-करके विषपान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

बोले गुरुवर दयानन्द, क्या दक्षिणा दोगे गुरु की।

विनय युक्त वाणी में बोले, आज्ञा दो कह उर की।।

आर्य धर्म की ज्योति बुझी है, चली गई उजियारी।

घोर तिमिर में फंसे हुए हैं, पुत्र सभी नर-नारी।।

 

चार कार्य करने को निकलो, आज्ञा मेरी मान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

पहला है आदेश, देश का करना है उपकार।

देश धर्म से बड़ा नहीं है, जग का कुछ व्यवहार।।

पराधीन हो कष्ट भोगता, जन-जन यहाँ कुरान।

स्वतन्त्रता का शुभ प्रभात हो, आवे आर्य सुराज।।

 

भाव संचरण हो स्वराज का, छेड़ो ऐसी तान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

दूजे भारत की जनता है, सच्ची भोली-भाली।

पाखण्डी रचते रहते हैं, नित नई चाल निराली।।

निजी स्वार्थ हित गढ़ते रहते, झूठे ग्रन्थ पुरान।

हुए आचरणहीन इन्हीं से, भूले सच्चा ज्ञान।।

 

सत्य शास्त्रों की शिक्षा दे, दूर करो अज्ञान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

सत् शास्त्रों से वंचित कर दिया, रच-रच झूठे ग्रन्थ।

अपनी पूजा मान के कारण चलाये, निज-निज पन्थ।।

अपने मत को उजला कहते, अन्य की चादर मैली।

सत्य आचरण के अभाव में दिग्भ्रमता है फैली।।

 

दूर अविद्या हो इनकी यह तृतीय कार्य महान।

दयानन्द थे भारत की शान।।

वेद ज्ञान के विना देश पर आई विपत्ति अपार।

झूठ, कुरीति पाखण्डों की हो रही है भरमार।।

चला रहे ईश्वर के नाम पर, उदर भरु व्यापार।

कार्य चतुर्थ करो तुम जाकर, वैदिक धर्म प्रचार।।

 

आपके ये आदेश महान, करूँगा जब तक तन में प्राण।

दयानन्द थे भारत की शान।।

-एस.बी.7, रजनी विहार, हीरापुरा,

अजमेर रोड़, जयपुर।

अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों की आयुः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आदि सृष्टि का वैदिक सिद्धान्त सर्वविदित है। परोपकारी के गत अंकों में बताया जा चुका है कि एक समय था कि हमारी इस मान्यता का (अमैथुनी सृष्टि) का कभी उपहास उड़ाया जाता था परन्तु अब चुपचाप करके अवैदिक मत पंथों को ऋषि दयानन्द की यह देन स्वीकार्य है। परोपकारी में बाइबिल के प्रमाण देकर इस वैदिक सिद्धान्त की दिग्विजय की चर्चा की जा चुकी है। हमारे इस सिद्धान्त के तीन पहलू हैंः-

  1. आदि सृष्टि के मनुष्य बिना माता-पिता के भूमि के गर्भ से उत्पन्न हुए।
  2. वे सब युवा अवस्था में उत्पन्न हुए।
  3. उनका भोजन फल, शाक, वनस्पतियाँ और अन्न दूध आदि थे।

इस सिद्धान्त की खिल्ली उड़ाने वाले आज यह कहने का साहस नहीं करते कि आदि सृष्टि के मनुष्य शिशु के रूप में जन्मे थे। इसके विपरीत बाइबिल में स्पष्ट लिखा है कि परमात्मा भ्रमण करते हुए उद्यान में आदम उसकी पत्नी हव्वा की खोज कर रहा था। उनको आवाजें दी जा रही थी कि अरे तुम कहाँ हो? स्पष्ट है कि पैदा हुये शिशु आवाज सुनकर, समझ ही नहीं सकते। वे उत्तर क्या देंगे? उन्होंने लज्जावश अपनी नग्नता को पत्तों से, छाल से ढ़का। लज्जा शिशुओं को नहीं, जवानों को आती है।

निर्णायक उत्तरःबाइबिल से यह भी प्रमाणित हो गया है कि अब ईसाई भाई एक जोड़े की नहीं, अनेक स्त्री-पुरुषों की उत्पत्ति मान रहे हैं। अब वैदिक मान्यता पर उठाई जाने वाली आपत्तियों का निर्णायक उत्तर हम पूज्य पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय के शदों में आगे देते हैं सृष्टि के आदि के मनुष्यों का, ‘‘आमाशय बच्चों के समान होता तो उनके जीवन-निर्वाह के लिए केवल माता का दूध ही आवश्यक था क्योंकि बच्चों के आमाशय अधिक गरिष्ठ (पौष्टिक) भोजन को पचा नहीं सकते परन्तु यह बात असभव है कारण? उनकी कोई माता नहीं थी जो उन्हें दूध पिलाती परन्तु यदि उनके आमाशय अन्न को पचा सकते थे तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनके आमाशय युवकों के समान स्वस्थ व सशक्त थे। युवा आमाशय केवल युवा शरीर में ही रह सकते हैं। यह असभव है कि आमाशय तो युवा हो और अन्य अंग शैशव अवस्था में हों।’’

आर्य दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने अपने अनूठे, सरल, सबोध तर्क से विरोधियों के आक्षेप का उत्तर देकर आर्ष सिद्धान्त सबको हृदयङ्गम करवा दिया।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-18

मन्त्र के प्रथम पद में घर में रहने वाले सदस्यों के मध्य भोजन अन्नपान आदि की व्यवस्था सन्तोषजनक होने की बात की है। घर के सभी सदस्यों को उनकी आवश्यकता, वय, परिस्थिति के अनुसार पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिये। घर में भोजन के शिष्टाचार में बच्चे, बूढ़े, रोगी और महिलाओं के बाद पुरुषों का अधिकार आता है। असुविधा दो कारणों से उत्पन्न हो सकती है- प्रथम आलस्य, प्रमाद, पक्षपात से तथा दूसरी ओर अभाव से। इसके लिये उत्पादन से वितरण तक अन्न की प्रचुरता का शास्त्र उपदेश करता है।

वेद में अन्न को सब धनों से बड़ा धन बताया है। विवाह संस्कार के समय अयातान होम की आहुतियाँ देते हुए मन्त्र पढ़ा जाता है- अन्नं साम्राज्यानां अधिपति- संसार में, जीवन में किसी वस्तु का सबसे अधिक महत्त्व है तो वह अन्न है। वेद ने अन्न को साम्राज्यानां अधिपति कहा है। अन्न संसार में राजा से भी बड़ा है। यदि राज्य में अकालादि के कारण अन्न का अभाव हो जाये तो राज्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। अन्न नहीं तो मनुष्य नहीं, मनुष्य नहीं तो समाज नहीं फिर देश और राष्ट्र की बात ही कहाँ से आती? इसलिये प्राण को बचाने का आधार होने से अन्न को ही प्राण कहा गया है- अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः।

अन्न की मात्रा की चर्चा करते हुए हर प्रकार से सभी प्रकार के अन्नों को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करने का विधान किया गया है। शास्त्र कहता है- अन्नं बहु कुर्वीत– अन्न को बहुत उत्पन्न करना चाहिए। प्राकृतिक रूप से स्वयं उत्पन्न अन्न जंगली प्राणी, तपस्वी साधकों के लिये होते हैं। नगर, ग्रामवासियों को तो अन्न अपने पुरुषार्थ से उत्पन्न करना पड़ता है। अन्न उत्पन्न करने की पद्धति वेद से प्रतिपादित है। अन्न को उत्पन्न करने की प्रक्रिया को कृषि कहा गया है। अन्न एवं उससे सबन्धित सामग्री का उत्पादक कृषिवलः या कृषक होता है। वेद समस्त मनुष्यों को उपदेश देता है- कृषिमित् कृषस्व, हे मनुष्य तू खेती कर, इसी में पशुओं की प्राप्ति है। इसी से धन की प्राप्ति है। जब वर्षा न होने से अन्नादि की उत्पति न्यून होती है, तब संसार के सारे व्यवसाय स्वयं नीचे आ जाते हैं। समस्त साधनों, सुख-सुविधाओं का मूल खेती है, अतः जो देश समाज सुखी होना चाहते हैं, उन्हें अपनी खेती को गुणकारी और समुन्नत बनाना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कृषि के महत्त्व को देखकर लिखा है कि किसान राजाओं का राजा है। संसार के जीवन का आधार अन्न है और अन्न का आधार किसान है।

संसार में मनुष्य को जीवनयापन के साधनों का संग्रह करना पड़ता है, साधनों के लिए धन प्राप्ति हेतु नाना व्यवसाय करने होते हैं। संसार में हजारों व्यवसाय हैं, परन्तु सभी व्यवसाय गौण हैं। समाज में दो ही व्यवसाय मुय हैं– एक खेती और दूसरा है शिक्षा। एक से शरीर जीवित रहता है, बलवान बनता है, दूसरे से आत्मा सुसंस्कृत होती है। अन्य सभी व्यवसाय तो इन दो से जुड़े हुए हैं।

अन्न को उत्पन्न करने के साथ उसे नष्ट न करने या उसका दुरुपयोग रोकने के लिये भी कहा गया है। कभी अन्न की निन्दा न करने के लिये कहा है, इसीलिये भारतीय संस्कृति में अन्न को देवता कहा गया है। अन्न को जूठा छोड़ने या बर्बाद करने को पाप कहा गया है। हम भोजन कराने वाले को अन्नदाता कहते हैं। अन्न को बुरी दृष्टि से न देखें। अन्न के उत्पादन, सुरक्षा एवं सदुपयोग को मनुष्य के जीवन का अङ्ग बताया गया है। इस प्रवृत्ति के रहते ही मनुष्य अन्न का इच्छानुसार पर्याप्त मात्रा में उपभोग कर सकता है। किसी के प्रेम को प्राप्त करने के उपाय के रूप में प्रेम से भोजन कराने का निर्देश है। स्वामी दयानन्द ने कहा है- भोजन प्राणिमात्र का अधिकार है। हर भूखा प्राणी भोजन का अधिकार रखता है।

ईश्वर न्यायकारी व दयालु अवश्य है परन्तु वह कभी किसी का कोई पाप क्षमा नहीं करता’ -मनमोहन कुमार आर्य

ईश्वर कैसा है? इसका सरलतम् व तथ्यपूर्ण उत्तर वेदों व वैदिक शास्त्रों सहित धर्म के यथार्थ रूप के द्रष्टा व प्रचारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों में प्रस्तुत किया है जहां उनके द्वारा प्रस्तुत ईश्वर विषयक गुण, विशेषण व सभी नाम तथ्यपूर्ण एवं परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में अपने स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में ईश्वर के विषय में वह लिखते हैं कि ईश्वर वह है जिसके ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं। यहां ईश्वर के लिए न्यायकारी गुण वा नाम का प्रयोग हुआ है तथा उसे सब जीवों को सत्य न्याय से कर्मों का फलदाता आदि लक्षणयुक्त बताया गया है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के जिस स्वरूप का वर्णन किया है वह वेदों के आधार पर है तथा उसे वेदों से सत्य सिद्ध किया जा सकता है। यदि सृष्टि पर दृष्टि डाले तो यह ईश्वर का स्वरूप सृष्टि में विद्यमान नियमों के अनुसार भी सत्य सिद्ध होता है। यदि हम सच्चिदानन्द शब्द पर ही विचार करें तो यह शब्द सत्य, चित्त तथा आनन्द से मिलकर बना है। यह तीनों गुण ईश्वर में विद्यमान है, यह सच्चिदानन्द शब्द से व्यक्त होता है। सत्य का अर्थ है कि ईश्वर की सत्ता है। ईश्वर का अस्तित्व व सत्ता है, यह कथन बन्ध्या स्त्री के पुत्र के समान कल्पित व असम्भव बात नहीं है। सत्तावान पदार्थ दो प्रकार के होते हैं एक दृश्यमान व दूसरे अदृश्यमान। यह ससार तथा इसमें मनुष्य व प्राणियों के देहादि को हम देखते हैं, यह दृश्य सत्तावान पदार्थ है। आकाश, ईश्वर, जीवात्मा, मूल प्रकृति, वायु में विद्यमान आक्सीजन आदि अनेकानेक गैसें, बहुत दूर और बहुत पास की अनेक वस्तुएं हमें दिखाई नहीं देतीं। यह अदृश्यमान पदार्थ हैं परन्तु इनका अस्तित्व शास्त्र के प्रमाणों तथा युक्ति व तर्क आदि से सिद्ध है।

 

अतः ईश्वर के अदृश्य होने पर भी उसकी सत्ता सत्य है एवं स्वयंसिद्ध है जिसे सृष्टि में होने वाले अपौरुषेय कार्यों के सम्पादन वा लक्षणों से भी जाना जा सकता है। सच्चिदानन्द में दूसरी बात यह है कि ईश्वर चेतन पदार्थ है। इसका अर्थ है कि वह जड़ व निर्जीव पदार्थ नहीं है। जड़ व निर्जीव पदार्थ चेतन जीवों व ईश्वर के प्रयोग व उपयोग के लिए होते हैं। जड़ व निर्जीव पदार्थ सृष्टि में प्रकृति व इसके विकार के रूप में यह दृष्टि जगत व इस पर उपलब्ध पृथिवी, अग्नि, जल, वायु आदि हैं। चेतन पदार्थों के दो मुख्य गुण, ज्ञान व कर्म होते हैं। ईश्वर के चेतन तत्व होने के सहित उसमें अन्य असंख्य गुणों में सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमान का गुण भी सम्मिलित है। इन दोनों गुणों के कारण ही उसने यह संसार रचा, इसका पालन करता है व जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मानुसार यथावत् सुख व दुःख रूपी कर्म फलों को देता है। इन कार्यों को करने से ईश्वर का स्वरूप चेतन सत्य सिद्ध होता है। ईश्वर का तीसरा गुण उसका आनन्द स्वरुप होना है। ईश्वर आनन्द स्वरूप है, इसका कारण यह है कि ईश्वर सृष्टि का रचयिता, पालक व संहारक है। जिस चेतन पदार्थ में आनन्द व सुख-शान्ति का गुण नहीं होगा वह परहित का कुछ अच्छा कार्य भली प्रकार से नहीं कर सकता। दुःखी व्यक्ति तो दया का अधिकारी होता है। उससे सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमत्ता के कार्यों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। हम संसार में प्रत्येक क्षण ईश्वर की सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता के दर्शन करते हैं। वह सूर्य को बना कर धारण किये हुए है। इसी प्रकार से ब्रह्माण्ड में अन्यान्य असंख्य ग्रह, उपग्रह व अन्य पिण्ड आदि की रचना कर उसका धारण व पोषण कर रहा है और यह सब भी उसकी व्यवस्था का पालन कर रहे हैं या वह पालन करा रहा है। इससे ईश्वर का सृष्टि में सर्वत्र, सर्वव्यापक व आनन्दमय होना सिद्ध होता है। यदि वह आनन्दमय न होता तो सृष्टि की रचना व संचालन न कर सकता। यजुर्वेद के 40/1 मन्त्र में कहा गया है कि ईशा वास्यमिदं सर्वम् अर्थात् परमैश्वर्यवान् परमात्मा चराचर जगत में व्यापक है। इससे ईश्वर के अस्तित्व व सत्ता सहित उसका चेतन व आनन्दयुक्त होना ज्ञात होता है। परमैश्वर्यववान चेतन सत्ता ही होती है न कि जड़ सत्ता। और ऐश्वर्य उसी का होता है जो आनन्दमय या आनन्द से युक्त हो। दुःखी व्यक्ति तो दरिद्र ही होता है। इस विवेचन को प्रस्तुत करने का तात्पर्य यह था कि महर्षि दयानन्द वर्णित ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव आदि सत्य हैं। अब ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप पर विचार करते हैं।

 

यजुर्वेंद के 40/8 मन्त्र में ईश्वर को पापविद्धम् कहा गया है। इसका अर्थ है कि ईश्वर पापाचरण से रहित है। न्याय न करना वा सत्य व न्याय के विरुद्ध आचरण करना पापाचरण होता है और न्याय व इसका आचरण करना धर्माचरण कहा जाता है। ईश्वर सदा सर्वदा तीनों कालों में धर्माचरण करने से न्यायकारी सिद्ध होता है। न्याय क्या है? सत्य का पालन और असत्य का त्याग ही न्याय व धर्म है। सत्याचरण अर्थात् धर्म का आचरण व पालन करने वालों को प्रसन्नता व आनन्द प्रदान करना व पापाचरण वा अधर्माचरण करने वालों दण्डित, कष्ट व दुःख देना न्याय कहलाता है। न्यायालय में क्या होता है? जो व्यक्ति सत्य व सदाचार का पालन करता है, उसे विजयी किया जाता है और जो व्यक्ति असत्य पक्ष का होता है उसकी बात स्वीकार न कर उसे दण्डित किया जाता है। पूरा पूरा न्याय कौन कर सकता है? न्याय वह कर सकता है कि जो सब मनुष्य आदि प्राणियों के सब कार्यों को, भले ही वह रात्रि के अन्धकार में छिप पर कोई करे व दिन के प्रकाश में, उन सब कार्यों का प्रत्यक्षदर्शी वा साक्षी हो। दूसरा जिनका न्याय करता है, उनसे अधिक बलवान व बुद्धिमान हो अर्थात् सर्वज्ञानमय हो। तीसरा न्यायकर्त्ता किंचित पक्षपात करने वाला न हो। पक्षपात करना सत्य को दबाना और असत्य को अनदेखा करना है। जो चेतन सत्ता, मुनष्य वा ईश्वर, सत्य में स्थित होती है वह न तो पक्षपात करती है और किसी के प्रति अन्याय। वह तो सत्य पक्ष को भी न्याय प्रदान करती है और असत्य को दण्ड देकर भी न्याय ही करती है। सत्य को सम्मानित करना और असत्य को अपमानित व दण्डित करना ही न्याय की मांग है। यदि सत्य को अपमानित होना पड़े और असत्य को महिमा से युक्त किया जाए तो यह घोर अन्याय ही होता है और इसे करने वाला दुष्ट ही कहा जा सकता है। न्याय करने वाली सत्ता का निडर, भयरहित व साहसी होना भी आवश्यक है। यह सभी गुण कुछ कुछ मनुष्यों में मिलते हैं परन्तु ईश्वर में इन गुणों की पराकाष्ठा है। अतः ईश्वर पूर्णतया न्यायकारी हो सकता है व वस्तुतः पूर्ण न्यायकारी है भी, इसमें किंचित सन्देह नहीं है। यदि वह न्याय न करे तो यह संसार चल नहीं सकता। इसमें सर्वत्र अव्यवस्था फैल जायेगी और विश्व में सुख व शान्ति कहीं भी देखने को नहीं मिलेगी। विश्व में यत्र तत्र सर्वत्र सुख व शान्ति का होना इस बात का प्रमाण है कि विश्व में सत्य व न्याय विद्यमान है।

 

अब प्रश्न होता है कि क्या ईश्वर पापों को क्षमा करता है। वैदिक धर्म से इतर संसार के प्रायः सभी मतों में यह माना जाता है कि ईश्वर पापों को क्षमा करता है। हमारे सामने ऐसा कोई मत व सम्प्रदाय नहीं है जो यह न मानता तो कि ईश्वर पापों को क्षमा नहीं करता? तर्क यह दिया जाता है कि क्योंकि ईश्वर दयालु है, इसलिये वह मनुष्यों व प्राणियों को अपनी उदारता के कारण क्षमा कर देता है। ऐसा होना असम्भव है। दया निर्दोषों के प्रति की जाती है, दोषी प्राणियों के प्रति नहीं। दोषियों को तो दण्ड देना ही दया है। यदि दोषियों पर दया कर उन्हें क्षमा कर दिया जाये तो यह पीडि़तों के प्रति अन्याय हो जायेगा। अतः दोषियों व पापियों को क्षमादान करने को न्याय नहीं कह सकते। यदि ईश्वर ऐसा करेगा तो वह न्यायकारी नहीं अपितु पापियों व अधर्म करने वालों का संरक्षक ही कहा जायेगा। इससे धार्मिक लोग भी पाप करना आरम्भ कर देंगे, इसलिए करेंगे कि उन्हें यह विश्वास होगा कि पाप करके सुख भोगेंगे और क्षमा मांग कर उस पाप के दण्ड से मुक्त हो जायेंगे। यदि ऐसा होता तो सम्भवतः संसार के सभी मनुष्य जमकर पाप करते। सर्वत्र हत्या, चोरी, लूट, असत्य, मारपीट, छीना-झपटी का ही आलम होता। ऐसा नहीं है, इसीलिए पाप करते समय मनुष्य के हृदय में ईश्वर की ओर से भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है और धर्म व परोपकार के कार्य करने में मन व आत्मा में उत्साह, आनन्द और प्रसन्नता होती है जो कि अन्तर्यामी ईश्वर की ओर से होती है, स्वतः नहीं हो सकता और न ही अन्य कोई बाहरी सत्ता ऐसा कर सकती है। इससे सिद्ध है कि ईश्वर धर्म व सत्य का व्यवहार करने वालों को प्रसन्नता देता है और अधर्म व असत्य का व्यवहार करने वालों को डराता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में प्रश्न किया है कि क्या ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? इसका स्वयं उत्तर देते हुए महर्षि लिखते हैं कि नहीं, ईश्वर किसी के पाप क्षमा नहीं करता। क्योंकि जो ईश्वर पाप क्षमा करे तो उस का न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। इसलिए कि क्षमा की बात सुन कर ही पाप करने वालों को पाप करने में निभर्यता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा यदि अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उन को भी भरोसा हो जायेगा कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने में न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।

 

ईश्वर पाप क्षमा नहीं करता इसका उदाहरण प्रकृति में घट रही एक घटना से मिलता है। हर व्यक्ति चाहता है कि वह अधिकतम सुखी हो व उसे कोई दुःख न हो। विचार करने में पता चलता है कि अधिकतम सुख बलवान व स्वस्थ शरीर तथा धन ऐश्वर्य सम्पन्न मनुष्यों को ही मिलता है। अतः यदि ईश्वर पाप क्षमा करता तो सब जीवों को मनुष्यों की श्रेष्ठ योनियां ही मिलनी चाहियें थी। जो मत पाप क्षमा व स्वर्ग आदि को मानते हैं वह सब स्वर्ग में होते, उनको मृत्यु लोक में मनुष्य आदि जन्म लेने की आवश्यकता ही नहीं थी। पाप क्षमा होने पर पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि प्राणी के रूप में तो किसी का जन्म ही न होता क्योंकि यह तो पापों का दण्ड हैं। पाप क्षमा होने पर किसी को कोई रोग व शोक तो कदापि न होता क्योंकि यह सब हमारे बुरे कर्मों के कारण होते हैं। यदि वह बुरे कर्म क्षमा कर दिये जाते तो फिर दुःख व क्लेश का प्रश्न ही पैदा नही होता। क्योंकि मनुष्य व अन्य प्राणियों के रूप में जीवात्मायें विगत लगभग 2 अरबों से जन्म लेती आ रही हैं और दुःख व सुख दोनों भोग रही हैं, अतः सिद्ध है कि किसी व्यक्ति का कोई पाप क्षमा नहीं हुआ व होता है। अतः ईश्वर को न्यायकारी मानकर हमने जो विवेचन किया है, वह सृष्टि में स्पष्ट व मूर्त रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। लेख को और अधिक विस्तार न देकर हम इसे समाप्त करते हुए कहना चाहते है कि ईश्वर न्यायकारी है, वह किसी भी मनुष्य के किसी भी अशुभ व पाप कर्म को क्षमा नहीं करता। अशुभ व पाप कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल तो सब जीवात्माओं को अवश्य ही भोगने हांेगेण् कहा है कि अवश्मेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। कर्मों का फल भोगे बिना कोई बच नहीं सकेगा। अतः यदि दुःखों से बचना है तो कभी कोई अशुभ कर्म न करें अन्यथा जन्म जन्मान्तरों में भटकना व दुःख अवश्यमेव भोगने होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

बुखार होने का कारण : इस्लामी किताबों से

बुखार का होना एक सामान्य रोग है जो कभी न कभी किसी का किसी को जकड ही लेता है . जब जब मौसम बदलते हैं तो अक्सर ये रोग अधिक हो फ़ैल जाता है और अधिक लोगों को अपने चपेटे में ले लेता है .

कई बार यह डेंगू बुखार का रूप ले कर महामारी का कारण भी बन जाता है . इस महामारी कई बार लोगों की जान तक चली जाती है . सामान्यतया चिकत्सक इस समय स्वच्छता पर ध्यान देने के लिए सलाह देते हैं जिसे मक्खियाँ जिन वस्तुओं पर बैठती हैं उन्हें न खाया जाए , पानी भर कर किसी बर्तन या किसी जगह पर न इकठ्ठा होने  दिया जाए जिससे कि  मच्छर इत्यादी न पनपें .

जब डेंगू का बुखार महामारी का रूप ले ले तो बड़ी कठिनाई हो जाती है. विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं और सरकार के लिए यह कठिन समय होता है . बीमार लोगों की अस्पताल में भीड़ इकट्ठी हो जाती हैं जो कई बार अस्पतालों में उपलब्ध सेवाओं से कहीं अधिक होती है. इसलिए सभी लोग इसके बचाव का ही प्रयास करते हैं .

लेकिन जब हम इस्लाम का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि इसका एक कारण और भी है.

ये हदीसें देखिये :

सहीह बुखारी जिल्द ४ ,हदीस संख्या ४८३ ~४८६ पृष्ट संख्या ३१४ -३१५

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अबू जमरा अब दाब से रिवायत है कि मैं अब्बास के साथ मक्का बैठा करता था एक दिन मुझे बुखार था तो उसने मुझसे कहा कि ज़मज़म के पानी से बुखार को ठंडा कर लो . अल्लाह के रसूल ने कहा था कि बुखार नर्क की गर्मी से आता है इसलिए इसे ज़मज़म के पानी से ठंडा कर लो .

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रफ़ी बिन ख़दीज से रिवायत है कि मैने रसूल का  कहा  सुना कि बुखार नर्क की गर्मी से होता है इसलिए इसे जमजम के पानी से ठंडा कर लेना चाहिए

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आयशा से रिवायत है कि  रसूल ने कहा कि बुखार नर्क की गर्मी से होता है इसलिए इसे जमजम के पानी से ठंडा कर लेना चाहिए

 

इसी प्रकार की दुसरे कई हदीसें इस बार में सहीह बुखारी में दी गयी हैं . इसी तरह सहीह मुस्लिम में भी ये हदीसें आती हैं . सहीह मुस्लिम से ये हदीस देखिये .

सहीह मुस्लिम हदीस २२११, जिल्द -३, पृष्ठ संख्या ४७६

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आस्मा से रिवायत है कि एक औरत को काफी तेज बुखार की हालात में उसके पास लाया गया . उसने पानी मंगाया और उसके वक्ष स्थल के उपरी भाग पर छिड़क दिया और कहा कि बुखार को पानी से ठण्डा कर लो क्यूंकि ये नर्क की तेज़ गर्मी के कारण है .

अब मुहम्मद साहब द्वारा बताये गए बुखार के फायदों पर एक नज़र डालते हैं :

पाप दूर करता है बुखार:

सहीह मुस्लिम हदीस २५७५ जिल्द ४ पृष्ठ संख्या १९४

 

जबीर बी अब्दुल्लाह् से रिवायत है कि मुहम्मद साहब  उम्मा आइब या उम्मा मुसय्य्यिब के यहाँ  गए और उम्मा आइब या उम्मा मुसय्य्यिब को बोला कि तुम क्यूँ  कांप रहे हो . उसने कहा कि मुझे बुखार है और क्या यह अल्लाह की सजा नहीं है ? मुहम्मद साहब ने कहा की बुखार को मत कोसो क्यूंकि ये आदम की भावी पीड़ी के पापों का प्रायश्चित है  जैसे कि भट्टी लोहे से मिश्रित धातुओं को अलग कर देती है .

एक और हदीस देखिये

सहीह मुस्लिम हदीस २५७५ जिल्द ४ पृष्ठ संख्या १९४

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तात्पर्य यह है कि एक दिन अब्दुलाह मुहम्मद साहब के पास गए और देखा की मुहम्मद साहब को बुखार है तो मुहम्मद साहब को पूछा की आपको तो बुखार है तो उन्होंने कहा कि हाँ मुझे आप लोगों से कहीं ज्यादा बुखार होता है . मुहम्मद साहब ने पुनः कहा कि जब कोई मुसलमान बीमार पड़ता है तो उसका परिणामतः उसके कुछ पाप धुल जाते हैं .

 

इसी तरह की कुछ हदीसें बुखारी में भी दी हुयी हैं.

विचार करने की बात ये है कि चूँकि

चूँकि इस्लामिक मान्यता के अनुसार खुदाई किताब कुरान के  अनुसार  मुहम्मद साहब जो कुछ बोलते हैं अल्लाह की तरफ से ही बोलते हैं  जैसे की कुरान की ये आयत कहती है :

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तुम्हारे साथी ( मुहम्मद साहब ) नहीं भूले हैं न ही भटके हैं और वो अपनी ख्वाइश से नहीं बोलते वह तो सिर्फ वही ( ईश्वरीय ज्ञान ) है जो उन की तरफ वही की जाती है .

सूरा अन नज़्म ५३ आयत २ -४

अब यदि इस्लाम ने अनुसार खुदाई किताब को सत्य मानकर विचार किया जाए तो यह बात सत्य होनी चाहिए कि बुखार नर्क की गर्मी की वजह से होता है और पानी से चला जाता है .

लेकिन कोई भी विवेकशील व्यक्ति इस बात को मनाने के लिए तैय्रार नहीं होगी क्यूंकि:

  • नर्क और स्वर्ग आदि का अस्तित्व कहीं भी नहीं.
  • यदि नर्क का अस्तित्व्य दुर्जन्तोशान्य के लिए मान भी लिया जाए तो नर्क की गर्मी के वजह से यदि बुखार होता है तो फिर सभी व्यक्तियों जानवरों पक्षियों आदि को एक साथ होना चाहिए सभी को एक साथ क्यूँ नहीं होता.
  • नर्क की उस गर्मी से पृथ्वी का तापमान भी बढना चाहिए वो क्यों नहीं बढ़ता.
  • यदि बुखार नर्क की गर्मी से होता है तो फिर बाकी की बीमारियाँ किस कारण से होती हैं
  • विज्ञानं ने जो कारण बुखार होने के ढूंढे हैं, जैसे कि मच्छरों का काटना , उनका फिर क्या मूल्य रहा जाता है .
  • बुखार जब महामारी के रूप में फ़ैल जाता है और अनेकों लोगों की जान लेने का भी कारण बनता है उस समय सरकारें पैसा पानी की तरह बहाकर महामारी को रोकती हैं .यदि वह केवल नर्क की गर्मी की वजह से होता तो फिर उपचार से रोकना संभव नहीं था .
  • मुहम्मद साहब ने कहा की बुखार आदम की भावी पीढी के पापों का प्रायश्चित है तो भावी पीडी जब उत्पन्न ही नहीं हुयी तो फिर उसके पाप कैसे उत्पन्न हो गए और फिर पापों का फल तो उस व्यक्ति को मिलना चाहिए जिसने पाप किये हैं जिसने पाप नहीं किये उसे किसी और के कर्मों का फल दे देना कहाँ की बुद्धिमतता है . यह तो खुदा तो अन्यायकारी और नासमझ ही ठहराती है .
  • बुखार की वजह से पाप कैसे दूर हो सकते हैं ? यदि बुखार से पाप दूर होते हैं तो फिर बाकि की बीमारियों से पाप दूर होते हैं या नहीं होते हैं .
  • बाकी लोगों के पापों से मुहम्मद साहब के पाप दुगने दूर क्यों होते हैं. यदि ऐसा है तो क्या यह उस खुदा का पक्षपात नहीं है जो अपनी सन्तति के साथ भेदभाव करता है .
  • हदीस में कहा गया है कि पानी से बुखार दूर हो जाता है यदि ऐसा होता तो फिर उपचार के लिए इतनी औषधियां लेने की क्या आवश्यकता थी . मुसलमान भी बुखार के लिए औषधालयों में दवाई लेते ही देखे जा सकते हैं . उन्हें केवल पानी से बुखार दूर कर लेना चाहिए  और सभी मुस्लिम देशों में बुखार की दवाई बनाने बेचने और लेने पर प्रतिबन्ध कर देना चाहिए क्योंकि वो केवल पानी से दूर किया जा सकता है

 

मौलवियों को चाहिए कि इन हदीसों की वैज्ञानिक सन्दर्भ को सिध्ध करें .

फलित होती अल्पसंयक व आरक्षण विष बेल : डॉ धर्मवीर

कुछ दिन पूर्व दूरदर्शन पर एक घटना दिखाई गई। महाराष्ट्र के राज ठाकरे ने अपने घर पर अनेक बड़े कुत्ते पाल रखे हैं। दूरदर्शन पर दिखाया गया कि कुत्तों से राज ठाकरे खेल रहे हैं, कुत्ते भी ठाकरे से प्रेम कर रहे हैं। दूरदर्शन पर इस घटना को दर्शाने का उद्देश्य कुत्तों का प्रेम नहीं था। हुआ यह था कि राज ठाकरे की पत्नी ने एक पालतू कुत्ते को खाते समय छेड़ दिया, तो कुत्ते ने ठाकरे की पत्नी के मुँह पर इतना काटा कि 60-65 टाँकें लगाने पड़े और चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करानी पड़ी। मनुष्य, कुत्ता या कोईाी प्राणी हो, जब उसके अधिकार अस्तित्व पर संकट आता है तो उसे रोकने का प्रयत्न सभी करते हैं। हम समझते हैं कि मनुष्य ऐसा नहीं करता, यह भी मिथ्या है। जब मनुष्य को लगता है कि उसके स्वार्थ की हानि हो रही है, तब वह भी ऐसे ही व्यवहार पर उतर आता है। आज आरक्षण के समर्थक या विरोधी इसी मानसिकता से पीड़ित होते जा रहे हैं।

मनुष्य कोई कार्य तो किसी अच्छाई के नाम पर प्रारभ करता है, परन्तु धीरे-धीरे उसमें स्वार्थ के कारण लिप्त हो जाता है, फिर उसे अधिकार मानकर छीने जाने के भय से आक्रामक हो जाता है। आरक्षण बहुत पिछड़े लोगों को प्रोत्साहन देने के लिए देश की स्वतन्त्रता के समय दस वर्ष के लिए स्वीकार किया गया था, वही आरक्षण पिछड़ों की जागीर बन गया। लोकतन्त्र में वोट के सामर्थ्य ने उनको उसे बनाये रखने का सामर्थ्य दे दिया। कोई भी सरकार क्यों न हो, इन मतदाताओं के इस स्वार्थ को कोई नहीं छीन सकता। प्रारभ में तो यह सीमित था, बहुत वर्षों तक इसकी हानि उन लोगों को पता नहीं लगी जिन्हें आरक्षण प्राप्त नहीं था। धीरे-धीरे पता लगने पर देश के विधान, नियम से विवश होकर सहन करते रहे परन्तु आज जो परिस्थिति देश में उत्पन्न हो गई है, उसमें वे भी संगठित होकर उग्र होने लगे हैं, आन्दोलन करने लगे हैं। यह परिस्थिति देश में धीरे-धीरे विकट होती जा रही है। आरक्षण प्राप्त लोग संगठित होकर अपने आरक्षण को बचाने में लगे हैं तो जिनका अधिकार छीना जा रहा है, वे भी संगठित होकर आन्दोलन करने पर उतारू हैं। ऐसी परिस्थिति में देश संघर्ष और विनाश के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। संघर्ष अब रोका नहीं जा सकता, क्योंकि आरक्षण एक राजनैतिक शक्ति का तो परिणाम है, परन्तु नैतिकता का इसमें अभाव है।

आरक्षण से उसे लाभ हो रहा है, जिसे मिला है। उसकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक स्थिति में सुधार हो रहा है, परन्तु आरक्षण से देश और समाज की भयंकर हानि हो रही है। आरक्षण की सबसे बड़ी हानि देश की बौद्धिक क्रियाशील सपदा का क्षय है। आज प्रतिस्पर्धा के युग में संघर्ष में प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, वहाँ प्रतिभा को कुण्ठित और प्रताड़ित किया जा रहा है। उचित और न्याय से पराजित व्यक्ति को दुःख उतना नहीं होता, जो होता है वह भी अपनी दुर्बलता का होता है, परन्तु अन्याय से पराजित होने का दुःख उसमें आक्रोश, प्रतिकार के भाव उत्पन्न करता है। देश में आज नई पीढ़ी के सामने बहुत सारे संकट हैं, वहाँ एक संकट आरक्षण का है। कोई छात्र चिकित्सा, इञ्जीनियर, प्रशासन, शिक्षा के आरक्षित वर्ग में स्थान पा जाता है, यह परिस्थिति मनुष्य के अन्दर वही भाव उत्पन्न करती है जो किसी प्रतियोगिता में उनका स्वार्थ छिन जाने पर उत्पन्न होते है। अन्य प्राणियों में संघर्ष शक्ति से निर्णायक होता है, परन्तु मनुष्य में निर्णय बुद्धि से किये जाने की अपेक्षा रहती है। यदि यहाँ भी बुद्धि औचित्य न्याय का स्थान शक्ति ले ले तो प्रतिक्रिया में संघर्ष ही मिलेगा, उसे हम कितने समय तक रोक सकते हैं? आरक्षण से अपने एक अयोग्य व्यक्ति को तन्त्र में स्थापित तो कर दिया पर इससे जहां एक योग्य व्यक्ति की प्रतिभा से समाज वञ्चित हो जाता है, वहीं समाज को अयोग्यता का दण्ड वर्षों तक सहना पड़ता है, उसी अनुपात में अयोग्यता बढ़ती जाती है।

गत दिनों आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली के एक चिकित्सक से चर्चा हो रही थी, तब उसने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि आरक्षण के कारण एक व्यक्ति छात्र या सरकारी सेवक के रूप में ही चयन नहीं, अपितु हर बार आरक्षण के कारण ऊँचा स्थान पा जाता है, फिर जहाँ चिकित्सा जैसा कार्य आता है, तब ये व्यक्ति दर्शनीय हुण्डी की तरह होते हैं और जो कार्य उन्हें करना चाहिए, वह उनसे पिछड़ गये लोगों को करना पड़ता है। गुजरात के पटेल आरक्षण को लेकर समाचार पत्रों में बताया गया कि अन्तर् राष्ट्रीय स्तर पर दो सर्वेक्षण किये गये, जिनके निष्कर्ष में बताया गया है कि भारत की प्रगति में आरक्षण बड़ी बाधा है। आरक्षण के कारण देश की प्रगति मन्द हुई है।

आरक्षण से जहाँ अयोग्यता को प्रश्रय मिला है, वही जातिवाद की जड़ें गहरी हुई हैं। जातिवादी संगठन मजबूत होकर उभरे हैं। आरक्षण का आधार जातिवाद है और आरक्षण के लाभ-हानि से जातियाँ ही प्रभावित होती हैं। एक ओर आरक्षण बचाने के लिए जातीय संगठन बन रहे हैं, वहीं जिन्हें आरक्षण प्राप्त नहीं है, उनके द्वारा आरक्षण प्राप्त करने के लिये जातियों को संगठित किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप पटेल, गुर्जर, जाट आन्दोलनों को हम समाज में देख रहे हैं। आज आन्दोलनों का आधार आवश्यकता या औचित्य नहीं है, आरक्षण प्राप्त जातियाँ शक्ति प्रदर्शन द्वारा अपने आरक्षण को बनाकर रखना चाहती हैं। इतना ही नहीं, ये आरक्षण प्राप्त संगठन निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिये सरकार को बाध्य करते रहे हैं। जब आरक्षण का आधार शक्ति प्रदर्शन ही रह गया है, तब समाज की दूसरी जातियों को आन्दोलन करने से कौन रोक सकता है? जो लोग आरक्षण के क्षेत्र में हैं और जो आरक्षण माँग रहे हैं, दोनों लोग अपने समाज की गरीबी के आँकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं। क्या समाज में कभी ऐसा हुआ है कि सभी लोग समान रूप से सपन्न हुए हों? ऐसा न कभी पहले हुआ और न कभी हो सकता है। समाज में सपन्न, मध्यम और गरीब सदा से रहे हैं और कोई भी सत्ता इन तीन वर्गों को मिटा नहीं सकती। न्याय का आधार होता है कि समाज में कोई भी व्यक्ति न्यूनतम आवश्यकताओं से वञ्चित न रहे। आवास, भोजन, शिक्षा, चिकित्सा जैसी सुविधायें न्यूनतम मूल्य पर सुलभ हों। यह व्यवस्था करना शासन का दायित्व है। धन तो कोई बुद्धि से कमा लेता है, मूर्खता से नष्ट भी कर देता है। शासन का दायित्व है कि किसी का धन कोई बलपूर्वक या छलकपट से न छीन ले। यदि इतनी व्यवस्था शासन कर दे तो समाज में सुरक्षा का भाव बढ़ेगा, उपार्जन करने का जिसके पास जैसा सामर्थ्य है, वैसा वह करेगा। जो समर्थ है, उनकी चिन्ता वे स्वयं करेंगे, समाज को उनकी चिन्ता करनी होती है, जो असमर्थ, बुद्धिहीन, विकलांग, वृद्ध एवं रोगी हों। सरकार से गरीब का कोई विरोध नहीं होता, विरोध समाज में तब उत्पन्न होता है, जब गरीब को गरीबी से निकलने नहीं दिया जाता। उसके गरीबी से निकलने के मार्ग बन्द कर दिये जाते हैं। ऐसे समाज को दण्ड भोगना पड़ता है। उसमें वर्ग संघर्ष होता है, ऐसा देश पराधीन होता है। ऐसे समाज को दास बनने से कोई नहीं रोक सकता।

बुद्धिमान लोग इस बात को समझ सकते हैं। यह देश एक हजार वर्ष पराधीन रहा, क्यों रहा? हमने यही आरक्षण अपनाया था। ब्राह्मणों ने इस समाज को सवर्ण-असवर्ण में बाँटा। ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित कर जन्म की जाति व्यवस्था को अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए स्थापित किया। इस व्यवस्था से पहले भी शूद्र थे, परन्तु किसी को अपने शूद्र होने पर दुःख नहीं होता था। शूद्र उसकी एक परिस्थिति थी, वह उसे बदल सकता था, उसका शूद्रत्व उस पर किसी ने थोपा नहीं था, यह केवल उसकी असमर्थता थी। वह उसे यदि दूर कर सकता था तो उसे आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता था। यदि इस जन्म में वह शूद्र रहा भी तो उसकी सन्तान को कोई शूद्र रहने के लिये बाध्य नहीं कर सकता था। वर्ण व्यवस्था तो स्वाभाविक सामर्थ्य, स्वभाव एवं प्रवृत्तियों का व्यवस्थापक चक्र मात्र था। जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र शदों से भयभीत होते है, घृणा करते हैं या चिड़ते हैं, वे न तो शास्त्र जानते हैं, न मनोविज्ञान की समझ रखते हैं। हमारे शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के भी चार-चार विभाग किये गये हैं। एक ब्राह्मण केवल ब्राह्मण नहीं होता, ब्राह्मण में ब्राह्मणत्त्व प्रधान हो, परन्तु क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के भाव भी कम या अधिक रहते हैं, वैसे ही क्षत्रिय होते हुए ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र हो सकता है। वैश्य में भी ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, शूद्रत्व का अनुपात रहता है। वैसे ही शूद्र भी केवल शूद्र नहीं होता, उसमें भी ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व व वैश्यत्व का भाव पाया जाता है। जिस मनुष्य में जो भाव प्रबल है, वह वही बन जाता है, बन सकता है। कोई शूद्र, शूद्र रहने के लिए बाध्य नहीं है, उसी प्रकार ब्राह्मणत्व भी किसी की ठेकेदारी नहीं है। यह मात्र व्यवस्था है। समाज देश व्यवस्था से ही चलता है। जिन लोगों ने व्यवस्था को समाप्त किया, वे इस देश की दासता के लिए उत्तरदायी हैं। हम फिर वही कर रहे हैं। पहले सवर्णों ने, ब्राह्मणों ने अपनी मूर्खता, अज्ञानता और स्वार्थ का आरक्षण कर इस समाज और देश का अहित किया, आज दलित और पिछड़ों के नाम पर अयोग्यता को संरक्षण देकर देश का अहित कर रहे हैं।

न्याय में सबको अवसर समान दिया जाता है, फल उनके कार्य और योग्यता के अनुसार दिया जाना उचित है, परन्तु हम एक का अवसर ही छीन रहे हैं और दूसरे को बिना कार्य और बिना योग्यता के फल दे रहे हैं, यह अन्याय है, अनुचित है। इसका परिणाम संघर्ष, वैमनस्य, विनाश तो होना ही है। आज समाज में वह परिस्थिति आ गई है, जब न्याय संगत विचार करने की आवश्यकता है। आप इसे बहुत समय टाल नहीं सकते, समाज को धोखे में नहीं रख सकते। यह देश बड़ा विचित्र है, यहाँ आरक्षण के नाम पर जातिवाद और अयोग्यता का संरक्षण किया जाता है। अल्पसंयक होने के नाम पर देश के नियम, कानून और व्यवस्था से मुक्त रहने का अधिकार दिया जाता है। उन्हें धर्म के नाम पर उन्माद, अराजकता फैलाने की स्वतन्त्रता है और देश की सपत्ति पर पहला अधिकार भी। इस पर पञ्चतन्त्र की यह उक्ति सटीक बैठती है-

प्रथमस्तावद् अहं मूर्खः द्वितीयो पाशबन्धकः।

ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वै मूर्ख मण्डलम्।।

– धर्मवीर

 

सृष्टि में मनुष्यों का प्रथम उत्पत्ति स्थान और आर्यों का मूल निवास’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमारा यह संसार वैदिक मान्यता के अनुसार आज से 1 अरब 96 करोड़ 08 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व बनकर आरम्भ है।  इस समय मानव सृष्टि संवत् 1,96,08,53,116 हवां चल रहा है। यह वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ हुआ है। इस सृष्टि सम्वत् के प्रथम दिन ईश्वर ने मनुष्यों को किस स्थान पर उत्पन्न किय था, इस प्रश्न पर संसार के लोग एकमत नहीं हैं। महर्षि दयानन्द ने इस विषय का शंका समाधान कर अपना शास्त्रीय, तर्क व युक्ति से सिद्ध मत अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में दिया है। इस प्रश्न के महर्षि दयानन्द द्वारा दिए गए उत्तर को प्रस्तुत करने से पूर्व हम यह बताना चाहते हैं कि 12 फरवरी, सन् 1825 को गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर जन्में महर्षि दयानन्द ने अपनी आयु के बाईसवें वर्ष के आरम्भ में अपने मातृ-पितृ गृह का त्याग किया था। उन्होंने सन् 1863 तक निरन्तर देश का भ्रमण किया और जहां जो विद्वान मिला, उससे उन्होंने अध्ययन किया। संस्कृत व गुजराती भाषा का अध्ययन वह अपने माता-पिता के साथ रहते हुए ही कर चुके थे। विद्वानों से ज्ञान ग्रहण करने के साथ उन्होंने अपनी यात्रा में मिलने वाले बड़ी संख्या में दुर्लभ मूल ग्रन्थों व अनेक पाण्डुलिपियों का अध्ययन भी किया था। योगाभ्यास में उनकी गहरी रूचि थी और अनेक गुरूओं से उन्होंने समय समय पर योग सम्बन्धी ज्ञान व उसके रहस्यों को जाना व समझा तथा उन्हें अभ्यास द्वारा प्रत्यक्ष भी किया था। उनका अध्ययन सन् 1863 में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन करने पर पूर्ण हुआ। उसके बाद भी उनका देश का भ्रमण जारी रहा। जिज्ञासु वृत्ति उनको जन्म से प्राप्त थी। अतः उन्होंने एक मनुष्य में जितने अधिक से अधिक प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं और वह उनका ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वह सब जिज्ञासायें उनमें हुईं व उनके उत्तर भी उन्होंने प्राप्त किये। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ उनकी इस जिज्ञासु वृत्ति और उन्होंने जो विद्यायें अर्जित कीं, उनका जीता जागता प्रमाण है। अतः महषि दयानन्द ने सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति स्थान के बारे में जो उत्तर व समाधान प्रस्तुत किया है, वह प्रमाणिक, तथ्यपूर्ण एवं यथार्थ है, इसका पाठकों को विश्वास करना चाहिये। उनका कथन इसलिए भी प्रमाणिक है कि वह एक धर्मात्मा और महात्मा थे, पूर्णतया निष्पक्ष थे और धर्म एवं संस्कृति सहित वेदादि शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। वह धर्मात्मा आप्त कोटि के अपूर्व पुरुष थे जो अपने जीवन में कभी असत्य कथन नहीं करता। इस कारण भी उनका इस विषय का समाधान स्वीकार्य, माननीय व किसी प्रकार के सन्देह से परे है।

 

महर्षि दयानन्द का प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश है। इसके आठवें समुल्लास में वह प्रश्न करते हैं कि मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई? इसका उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि त्रिविष्टिप् अर्थात् जिस को तिब्बत कहते हैं (वहां हुई थी)। (प्रश्न) आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक? (उत्तर) एक मनुष्य जाति थी, पश्चात् ‘‘विजानीह्यार्यांये दस्यवः यह ऋग्वेद का वचन है। श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान, देव और दुष्टों के दस्यु, डाकू व मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। ‘‘उत शूद्र उतार्ये यह अथर्ववेद का वचन है। आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चार भेद हुए। द्विज विद्वानों का नाम आर्य और मूर्खों का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात् अनाड़ी नाम हुआ। (प्रश्न)  फिर वे यहां कैसे आये? (उत्तर)  जब आर्य और दस्युओं में अर्थात् विद्वान् जो देव तथा अविद्वान् जो असुर, उन में परस्पर लड़ाई, बखेड़ा व बहुत उपद्रव आदि होने लगा, तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जान कर यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का (प्रथम) नाम ‘‘आर्यावर्त्त हुआ। (प्रश्न) आर्यावर्त्त की अवधि कहां तक है? (उत्तर) आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।। तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्त विदुर्बुधाः।। 1।। सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्वदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशमार्यावत्र्त प्रचक्षते।।2।। उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र तक।।1।। तथा सरस्वती पश्चिम में, अटक नदी पूर्व में, द्वषद्वती जो नेपाल के पूर्वभाग पहाड़ से निकल के बंगाल के आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम ओर हो कर दक्षिण के समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्र कहते हैं, और अटक जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आकर मिली है। हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वरम् पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं, उन सब को आर्यावर्त्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावत्र्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त्त कहाया है। (प्रश्न) प्रथम इस देश का नाम क्या था, और इसमें कौन बसते थे? (उत्तर) इस (आर्यावर्त्त नाम) के पूर्व इस देश का अन्य कोई भी नाम नहीं था, और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे, क्योंकि आर्य लोग सृष्टि की आदि में (सृष्टि उत्पत्ति के) कुछ काल के पश्चात्  तिब्बत से सीघे इसी देश में आकर बसे थे। (प्रश्न) कोई कहते हैं कि ये (आर्य) लोग ईरान से आये, इसी से इन लोगों का नाम आर्य हुआ है। इनके पूर्व यहां जंगली लोग वसते थे कि जिन को असुर और राक्षस कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उन का जब संग्राम हुआ, उस का नाम देवावसुर संग्राम कथाओं में ठहराया। (उत्तर) यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि ‘‘विजानीह्यार्यान्ये दस्यवो बर्हिष्मते रंधया शासद व्रतान्। यह ऋग्वेद का मंत्र 1/51/8 है तथा उत शूद्र उतार्ये। यह अथर्ववेद का प्रमाण है। यह लिख चुके हैं कि आर्य नाम धार्मिक, विद्वान, आप्त पुरुषों का और इन से विपरीत जनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकु, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विजों का नाम आर्य और शूद्र का नाम अनार्य अर्थात् अनाड़ी है। जब वेद ऐसे कहता है, तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर संग्राम में आर्यावर्तीय अर्जुन तथा महाराजा दशरथ आदि, हिमालय पहाड़ में आर्य और दस्यु-मलेच्छ-असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें देव अर्थात् आर्यों की रक्षा और असुरों के पराजय करने को सहायक हुए थे। (अर्जुन व दशरथ के काल अलग अलग होने से यह भी सम्भावना लगती है कि यह देवासुर संग्राम अनेक बार हुआ)। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्यावर्त्त के बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, देश में मनुष्य रहते हैं, उन्हीं का नाम असुर सिद्ध होता है। क्योंकि जब जब हिमालय प्रदेशस्थ आर्यों पर (विदेशी दस्यु व असुर) लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब तब यहां के राजा-महाराजा लोग उन्हीं उत्तर आदि देशों में आर्यों के सहायक होते। और जो श्री रामचन्द्र जी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उसका नाम देवासुर संग्राम नहीं है, किन्तु उस को राम-रावण अथवा आर्य और राक्षसों का संग्राम कहते हैं। किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा है कि आर्य लोग ईरान से आये और वहां के जंगलियों को लड़कर, विजय पा के, निकाल के, इस देश के राजा हुए। पुनः विदेशियों का (पक्षपात से पूर्ण) लेख माननीय कैसे हो सकता है? (अर्थात् नहीं हो सकता)।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने वचनों में सृष्टि की आदि में मनुष्य की उत्पत्ति के स्थान को तिब्बत बताया है। अन्य प्राचीन प्रमाणों से भी यही स्थान सिद्ध होता है। इसके लिए विख्यात विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी की पुस्तक आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता पठनीय है। महर्षि दयानन्द जी ने अंग्रेजों की इस मिथ्या मान्यता का भी सप्रमाण प्रतिवाद कर दिया है कि आर्य इस आर्यावर्त्त के मूल निवासी नहीं हैं। उनके अनुसार आर्य किसी अन्य देश में आकर यहां आर्यावर्त्त भारत में नहीं बसे अपितु सृष्टि की आदि में, जब पूरा भूलोक व पृथिवी खाली पड़ी थी, तिब्बत से सीधे यहां आकर बसे व इसको उन्होंने ही बसाया था। अंग्रेजों ने जो आर्यों के ईरान व अन्य किसी देश से आने की मान्यता प्रचलित थी, उसके पीछे उनका निजी स्वार्थ था। वह यह प्रचारित करना चाहते थे कि जिस प्रकार हम विदेशी हैं उसी प्रकार से वर्ण व आश्रम धर्म-व्यवस्था को मानने वाले आर्य भी हैं। महर्षि दयानन्द का अंग्रेजों की इस स्वार्थपूर्ण मान्यता का सप्रमाण खण्डन उनकी ऐतिहासिक तथ्यों पर सूक्ष्म तथ्यात्मक दृष्टि व दूरदर्शिता सहित देशहितैषी होने का प्रमाण है। हम आशा करते हैं कि लेख के पाठक महर्षि दयानन्द के दोनों ही निष्कर्षों से सहमत होंगे। आवश्यकता इस बात की है कि महर्षि दयानन्द की मान्यता का डिन्डिम घोष से प्रचार व प्रसार हो और भारत सरकार इस तथ्यात्मक मान्यता को स्केूली पाठ्यक्रम में शामिल कर न्याय करे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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