~पं.मनसाराम जी वैदिक तोप~राजेंद्र जी जिज्ञासु

लौह लेखनी चलाई, धूम धर्म की मचाई।

जयोति वेद की जगाई, सत्य कीर्ति कमाई।।

तेरे सामने जो आये, मतवादी घबराये।

कीनी पोप से लड़ाई, ध्वजा वेद की झुलाई।।

वैदिक तोप नाम पाया, दुर्ग ढोंग का गिराया,

विजय दुंदुभि बजाई।।

रूढ़िवादी को लताड़ा, मिथ्या मतों को पछाड़ा।।

काँपे अष्टादश पुराण, पोल खोलकर दिखाई।।

लेखराम के समान, ज्ञानी गुणी मतिमान।

जान जोखिम में डाल, धर्म भावना जगाई।।

जिसकी वाणी में विराजे, युक्ति, तर्क व प्रमाण।

धाक ऋषि की जमाई, फैली वेद की सच्चाई।।

मनसाराम जी बेजोड़, कष्ठसहे कई कठोर।

धुन देश की समाई, लड़ी गोरोंसे लड़ाई।।

बड़ा साहसी सुधीर, मनसाराम प्रणवीर,

सफल हुआ जन्म जीवन, तार गई तरुणाई।।

धर्म धौंकनी चलाई, राख तमकी हटाई।

जीवन समिधा बनाके, ज्ञानाग्नि जलाई।।

~राजेंद्र जी जिज्ञासु~

जीव फल भोगने में परतन्त्र क्यों? – इन्द्रजित् देव

प्रत्येक जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। वह चाहे जैसा कर्म करे, यह उसकी स्वतन्त्रता है। अपने विवेक, ज्ञान, बल, साधन, इच्छा व स्थिति के अनुसार ही कर्म करता है परन्तु अपनी इच्छानुसार वह फल भी प्राप्त कर ले, यह निश्चित नहीं। इसे ही दर्शनान्दु सार फल भोगने में परतन्त्रता कहते हैं।

कर्म का कर्त्ता व इसका फल भोक्ता जीव है परन्तु वह फलदाता नहीं। यही न्याय की माँग है। फलदाता स्वयं बन जाता तो पक्षपात व अन्यय सर्वत्र व्याप्त हो जाएगा। हम लोग-समाज में देखते हैं कि हम कर्म किए बिना फल चाहते हैं। फल भी ऐसा चाहते हैं जो सुखदायक हो। यदि हम चाहते-न-चाहते हुए पाप कर्म कर लेते हैं तो भी फल तो पुण्यकर्म का चाहते हैं-

फलं पापस्य नेछन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।

फलं धर्मस्य चेछन्ति धर्मं न कुवन्ति मानवाः।।

हमारी इच्छानुसार व्यवस्था हो जाए तो अनाचार, अन्याय व अव्यवस्था का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। अतः ईश्वर ने जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता प्रदान कर रखी है तथा कर्मों का फलदाता वह स्वयं ही है। इससे व्यवस्था ठीक रखन में सहायता मिलती है। यदि हमारी इच्छानुसार ही व्यवस्था हो जाए व हम न्याय व सत्य को तिलाञ्जलि देकर कर्म करेंगे तो समाज में अनाचार, अव्यवस्था व अत्याचार का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। अतः ईश्वर ने जीवों को केवल कर्म करने की स्वतन्त्रता प्रदान की तथा कर्मफल का अधिकार अपने पास ही रखा है। फल भोगने में परतन्त्रता का दूसरा कारण यह है कि जीव सर्वज्ञ नहीं है। दूसरों के कर्मों को जानना तो दूर की बात है, वह अपने सभी कर्मों को भी पूर्णतः नहीं जानता। कर्मों की संया न उनका शुभ-अशुभ होना, पापयुक्त या पुण्ययुक्त होना, किस कर्म का क्या फल है- इन बातों की जानकारी जीव को नहीं होती। मनुष्य योनि में रह रहे जीव को यदि तनिक-सा ऐसा ज्ञान हो भी जाए पर मनुष्येतर योनियों में तो ज्ञान होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। मनुष्येतर योनियों में जीव केवल आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन- इन चार कर्मों से अधिक कर्म करने की क्षमता, ज्ञान व इच्छा नहीं होती। मनुष्य योनि में आया जीव उपरोक्त चार कर्मों के अतिरिक्त धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि से युक्त कर्म करने का सामर्थ्य रखता है परन्तु वह भी एक सीमा तक। अपनी सीमा में रहकर भी अपने सब कर्मों को स्मरण रखना व उनका निर्णय करने की पूर्ण क्षमता जीव में है ही नहीं।

तीसरा कारण यह है कि जीव को फल प्राप्त करने हेतु शरीर, आयु व भोग पदार्थों की आवश्यकता है। शरीर रहित जीव को यह भी बोध नहीं होता कि वह है भी अथवा नहीं। प्राण, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेंन्द्रियाँ, मन व बुद्धि आदि के बिना वह ऐसे रहता है, जैसे अस्पताल में मूर्च्छित अवस्था में एक व्यक्ति पड़ा रहता है। तब उसे अनुभव नहीं होता कि वह है भी अथवा नहीं। वह कौन है, कहाँ है, क्यों है, यह भी ज्ञात नहीं होता। अंग-प्रत्यंग, श्वास-प्रश्वास आदि को प्राप्त करके ही जीव फल भोगने में समर्थ होता है। ये वस्तुएँ उसे पूर्व जन्मों के कृत कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होती हैं।

इस सबन्ध में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का निनलिखित लेख विषय को अधिक स्पष्ट करता है-

प्रश्नजीव स्वतन्त्र है वा परतन्त्र?

उत्तरअपने कर्त्तव्य- कर्मों में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ‘स्वतन्त्र कर्त्ता’ यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र (=अष्टा. 1/4/54) है जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है, वही कर्त्ता है।

प्रश्नस्वतन्त्र किसको कहते हैं?

उत्तरजिसके अधीन शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि हों। जो स्वतन्त्र न हो तो उसको पाप-पुण्य का फल प्राप्त कभी नहीं हो सकता क्योंकि जैसे भृत्य, स्वामी और सेना, सेनाध्यक्ष की आज्ञा अथवा प्रेरणा से युद्ध में अनेक पुरुषों की मार के भी अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और अधीनता से काम सिद्ध हों तो जीव की पाप वा पुण्य न लगे। उस फल का भागी भी प्रेरक परमेश्वर होवे। नरक-स्वर्ग अर्थात् दुःख-सुख की प्राप्ति भी परमेश्वर की होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्र-विशेष से किसी को मार डाला तो वही मारने वाला पकड़ा जाता है और दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं, वैसे पराधीन जीव पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसीलिए सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र परन्तु जब वह पाप कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप के फल भोगता है। इसीलिए कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल और पुण्य के सुख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है।

प्रश्नजो परमेश्वर जीव को न बनाता और सामर्थ्य न देता तो जीव कुछ भी न कर सकता। इसलिए परमेश्वर की प्रेरणा ही से जीव कर्म करता है।

उत्तरजीव उत्पन्न कभी न हुआ, अनादि है। जैसा ईश्वर और जगत् का उपादान कारण नित्य है और जीव का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाए हुए हैं परन्तु वे सब जीव के अधीन है। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है, वही भोक्ता है, ईश्वर नहीं।’’

– सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास

– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर-135001 (हरियाणा)

 

‘‘माँ’’ – देवेन्द्र कुमार मिश्रा

बस माँ ही है

धरती की भगवान

बेटों के लिए वरदान।

जिसके कारण

जीवन में सुगन्ध

रहती है।

वरना दुर्गन्ध आने लगी

रिश्तों से। माँ न होती तो

तो पता नहीं दुनियाँ का क्या होता।

जब सारे रिश्ते

बाजार लगते हैं

जब मोह भंग हो जाता है

जीने से ही

तब वो माँ है

जिसे देखकर

जीने की इच्छा होती है

और भगवान पर भरोसा होता है।

क्योंकि उसनें माँ दी है।

माँ देकर उसने

मरने से बचा लिया।

कलयुग के इस चरण में

जब भगवान, भक्ति

ध्यान-ज्ञान भी बिकता है

ऐसे में बस एक ही अनमोल

चीज है बच्चों के पास

वो है माँ

जो जन्म से मरण तक

सिर्फ  माँ होती है

घने वृक्ष की छाँव

शीतल जल का स्रोत

तेरी गोद में सारे दुखों से मुक्ति

माँ तुहारा स्नेह ममता दुलार

जन्म-जन्म तक नही चुका सकता

माँ शद अपने

आप में

पूर्ण है।

किसी व्याया, विवरण

अर्थ की जरुरत नहीं है।

माँ बिना संभव ही नहीें

हे संसार की समस्त

स्त्रियों तुम माता हो

संसार की

तुहारी चरण वन्दना

करता हूँ और जानता हूँ

मेरे रोने से मेरे हंसने से

तुम क्षमा करके छिपा लोगी

अपनी आंचल की छाँव में

और तुहारे स्पर्श मात्र

से सब दुख दूर हो जायेंगे

हे मेरी जननी।

मेरी जान न जाने

कहाँ-कहाँ भटकी रहती है।

लेकिन माँ की जान बेटे में

अटकी रहती है।

मेरा प्रणाम स्वीकार करो

अपनी ममता की छाँव में करो

मैं दूर बहुत हूँ तुमसे

रोजी-रोटी का चक्कर है

लेकिन मैं जानता हूँ

मेरी याद में आंँसू बहाती होगी।

मेरी सलामती की दुआ माँगती होगी।

माँ मैं तो श्रवण कुमार बन नहीं सका

लेकिन मैं जानता हूँ तुम माँ ही

रहोगी।

आरभ से अन्त तक।

युग बदले,दुनियाँ बदली

जमाना बदला

लोगों के चाल-चलन

रहन-सहन बदले

दिल बदले, व्यवहार बदले।

लेकिन नहीं बदली।

तो सिर्फ  माँ।

– पाटनी कॉलोनी, भारत नगर, चन्दनगाँव, छिन्दवाड़ा, म.प्र.-480001

अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के 74 वें बलिदान दिवस पर – चन्दराम आर्य

जीविते यस्य जीवन्ति विप्राः मित्राणि बान्धवाः।

सफलं जीवनं तस्य आत्मार्थे को न जीवति।।

अर्थात् जिस व्यक्ति के जीवन से ब्राह्मण, मित्र गण एवं बान्धव जीवित रहते हैं उसका जीवन सफल माना जाता है। अपने लिए तो कौन नहीं जीता। अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह का जीवन भी ठीक उसी प्रकार का था।

जन्म व स्थानः- 24 फरवरी सन् 1885 को हरियाणा प्रान्त के अन्तर्गत वर्तमान में सोनीपत जिले के माहरा ग्राम में चौधरी बाबर सिंह के घर माता तारावती की कोख से एक होनहार एवं तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। तत्कालीन रीति-रिवाज अनुसार नामकरण सस्ंकार करवाकर बालक का नाम हरफू ल रखा गया। बालक का मस्तक बड़ा प्रभावशाली एवं आकृति आकर्षक रही जिससे पण्डितों ने उसको बड़ा भाग्यशाली बताया।

शिक्षाः- जब हरफूल आठ वर्ष का हुआ तो पिता ने अपने गाँव के समीप जुूआं गांव के स्कूल में पढ़ने ोज दिया। उस काल में कृषकों के बच्चों का पढ़ना या पढ़ाना बड़ा कठिन कार्य था। बालक ने प्रथम, द्वितीय व तृतीय श्रेण्ी उत्तम अंक अर्जित करके उत्तीर्ण की। परन्तु चौथी श्रेणी में बालक पर कुसं ग का रंग चढ़ गया और अनुत्तीर्ण रहा माता-पिता व गुरुजनों के काफी प्रयास से बालक न पुनः प्रवेश लिया औरबड़ी योग्यता  से चतुर्थ श्रेणी उत्तीर्ण की। बालक को आगे पढ़ने के लिए ऐतिहासिक स्थल महरौली के  स्कूल में भेजा। उस स्कूल से हरफूल ने पांच, छठी और सप्तम श्रेणी उत्तीर्ण की। उस स्कूल के मुयाध्यापक की चरित्रहीनता के कारण पिता ने वह स्कूल छूड़ा कर खरखौदा के स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया।

अद्भूत घटना एवं हरफू ल सिंह से फूल सिंह नाम पड़नाः- खरखौदा स्कूल के कूएं में वर्षा ऋ तु में वर्षा की अधिकता के कारण जलस्तर ऊपर आ गया और पानी भी दूषित हो गया। मुयाध्यापक जी ने छात्रों को बालटियों से पानी निकालने का आदेश दिया जब वेपानी निकाल रहे थे तो उनको कुएं में एक विषैला सर्प दिखाई दिया। मुयाध्यापक के पास सर्प होने की सूचना दी गई। सब छात्र भयभीत हो गए। हरफूल सिंह को बुलाया गया। बालक हरफू ल सिंह ने कहा गुरु जी एक मोटी रस्सी से टोकरी को बन्धवा कर कू एं में लटकवा दे और मुझे एक मजबूत डण्डा दे दें। मैं साँप को मारकर बाहर निकाल दूंगा। तदनन्तर टोकरी में हरफूल डण्डा लेकर बैठ गया। पानी से फूट भर ऊपर उसने टोकरी को रुकवा लिया। फिर बड़ी फूर्ती से उस साँप को उसने मार डाला । इसके बाद अपने साथियों को कहा कि टोकरी को खींच लो। उनकेाींचने पर हरफूल लाठी पर साँप लटकाये ं बाहर निकले। बालक की इस वीरता तथा निर्भयता को देख मुयाध्यापक दंग रह गये। वे प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले- बेटा फूल सिंह। तू वास्तव में वीर है, साहसी है। इस साहस के बाद से हरफूल को फूल सिंह नाम से पुकारा जाने लगा।

तदुपरान्त मिडिल श्रेणी को उत्तीर्ण कर फूलसिंह ने खलीला गाँव में रहकर पटवार की एक वर्ष तक तैयारी की। समय पर पानीपत में पटवार की परीक्षा देकर उसमें बहुत अच्छे नबरों से उत्तीर्ण हुए। अब बालक फूल सिंह न रहकर फूलसिंह पटवारी कहलाने लगे।

गृहस्थाश्रम में प्रवेशः- पटवारी बने फूल सिंह को आी एक ही वर्ष हुआ था। उनका बीस वर्ष की आयु में रोहतक जिलेके खण्डा गाँव की कन्या धूपकौर के साथ विवाह सपन्न हुआ। माल विभाग की ओर से आप सन् 1904 में पटवारी बनकर सबसे प्रथम सीख पाथरी गाँव जिला करनाल में आये। आप में कार्य करने की क्षमता स्वभाव से ही थी। आप अपने काम को पूरा करके ही विश्राम लेते थे। उस समय पटवारी को गाँव का राजा माना जाता था। छोटे से लेकर बड़े पुरुषों तक सभी आपका बहुत समान  करते थे। युवावस्था वाले दोष संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट के कथनानुसार ‘‘योवनम् स्खलितं दुर्लभम्’’ अर्थात् यौवन का निर्दोष रहना बड़ा कठिन है। आप भी यौवन के बसन्त काल में मखमल लगा सुन्दर जूता, चमकीले कीमती वस्त्र पहनकर गलियों में घूमना, हुक्का रखने वाले नौकर को साथ लेकर चलना अपनी शान मानते थे आप 1907 में उरलाने में स्थायी पटवारी बनकर आये। वस्तुतः यहीं से पटवारी फूल सिंह का जीवनोद्देश्य परिवर्तित हुआ। अब आपने पटवार का काम के उपरान्त अतिरिक्त समय में जनता जर्नादन की सेवा करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।

आर्य समाज में प्रवेशः- इसराना गाँव के पटवारी प्रीत सिंह उस समय के प्रसिद्ध आर्य समाजी माने जाते थे। वे प्रति सप्ताह पानीपत नगर में आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संग में जाया करते थे । आपका तथा पटवारी प्रीतसिंह का परस्पर बड़ा प्रेम था जब दोनों आपस में कभी मिलते तो बड़े प्रसन्न होते थे। देवयोग से एक बार पटवारी प्रीत सिंह व पटवारी फूलसिंह को पटवार के विशेष कार्य से पानीपत नगर में तीन मास तक इकट्ठा रहने का अवसर मिला। प्रीत सिंह आपमें विशेष गुण देखकर आपको आर्य समाजी  बनाना चाहते थे। उन्होंने इसका एक उपाय सूझा। वे पानीपत आर्य समाज से भजनों की एक पुस्तक खरीद कर लाये और पटवारी फूल सिंह को पढ़ने के लिए दी। फूलसिंह भजनों को गाते हुए तन्मय हो जाते थे। प्रीत सिंह जी आपको समय-समय पर आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संग में चलने की प्रेरणा भी देते रहते थे। पटवारी प्रीत सिंह के साथ साप्ताहिक सत्संग में भी जाना आपने प्रारभ कर दिया। वहाँ पर विद्वानों, सन्यासियों, महात्माओं, प्रसिद्ध भजनोपदेशकों के व्यायान प्रवचन, मधुर गीत और भजन सुने तो आपकी अन्तर्ज्योति जाग उठी। अब तो आप आर्य समाज के प्रत्येक सत्संग में स्वयं जाने लगे तथा मित्रों को भी चलने की प्रेरणा देने लगे।

एक बार आप अपने मित्रों सहित आर्य समाज के प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के वार्षिकोत्सव पर पधारे। वहाँ पर महात्मा मुन्शी राम (स्वामी श्रद्धानन्द) का मधुर उपदेश व शिक्षाप्रद हो रहा था। महात्मा जी कह रहे थे- ‘‘मानव जीवन दुर्लभ है। इस जीवन को जो लोग भोग विलास तथा प्रदर्शन में नष्ट कर देता है, उसे बाद में पछताना पड़ता है। सुकर्म करो, कुकर्म से सदा दूर रहो। आर्य समाज का मुय उद्देश्य संसार का उपकार करना है। भटके हुए लोगों को सुमार्ग पर लाओ।’’ महात्मा जी के मुखारविन्द से आपने जब ये शद सुने तो आपने मन ही मन निश्चय किया कि मैं आज से ही पटवार के अतिरिक्त समय को आर्य समाज के प्रचार व प्रसार में लगाऊँगा।

गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार से आप आर्य समाज के दीवाने बन कर आये । फिर आपने नियम पूर्वक आर्य समाज का सदस्य बनने का निश्चय किया। आपने इसके लिए योग्य गुरु की तलाश थी। आपकी इच्छानुसार पानीपत आर्य समाज उत्सव में पण्डित ब्रह्मानन्द जी (स्वामी ब्रह्मानन्द)जी के दर्शन हुए। उनसे आपने अपने मन की इच्छा प्रकट की। पण्डित जी ने भी  श्रद्धालु शिष्य में दिव्य ज्योति के दर्शन हुए। पण्डित जी ने यज्ञ के  उपरान्त आपका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर आपको शिक्षाप्रद उपदेश देकर लाभान्वित किया । उसी दिन से आप आर्य समाज के सदस्य बन गये।

वैदिक धर्म का प्रचार एवं जनता की सेवाः- आर्य समाज के रंग में रंगे हुए फूल सिंह पटवारी सरकारी काम के अतिरिक्त अपना सारा समय समाज सेवा में लगाने लगे महात्माओं, सन्यासियों, विद्वानों का अपके यहाँ डेरा लगा रहता था। आप पटवार भवन में धर्म-कर्म चर्चा के साथ-साथ गांव के आस-पास के विवादाी सुलझाने लगे। जब आप उरलाना में पटवारी थे तो उस वर्ष वर्षा न होने के कारण सारी फसलें नष्ट हो गई थी तो आपने उसी गाँव के मुसलमान राजपूत से पाँच हजार रूपये उधार लेकर साी ग्रामवासियों की मालगुजारी सरकारी खजाने में जमा करा दी। ग्राम वासियों के भी संकट मोचक को उक्त राशि सहर्ष एवं सधन्यवाद वापिस कर दी।

प्लेग की महामारी में जनता जनार्दन की महान सेवा का व्रत लेनाः- सन् 1909 में सारे भारत में प्लेग की महामारी सर्वत्र फैल गई। इस महामारी से कोई गाँव या नगर अछूता न बचा था। आप उन दिनों उरलाना गाँव में पटवारी थे। उरलाना गाँव भी महामारी से बचा न रहा। इस महामारी के  प्रकोप से चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। रोगियों को सभालने वाला कोई नहीं था।

माता-पिता अपने दिल के टूकड़े को,ााई-बहिन को पति-पत्नी को अनजान से बनकर भूल गये थे। ऐसे भयंकर संकट के समय आपने उरलाना गाँव के लोगों की सहायता करने का निर्णय लिया। इस घोर संकट काल में सब आफिसर अवकाश लेकर अपने-अपने परिवारों को सँभालने के लिये अपने-अपने घरों में चले गए पर सेवा भावी फूल सिंह ने अपने कुटुब को भुलाकर उरलाना गाँव के दुःखियों, रोगियों को ही अपना परिवार मानकर उनकी दिन-रात सेवा की। आपके आफिसर भी आपकी निस्वार्थ सेवा से बहुत प्रभावित हुए।

मनुष्य पर संकट सदा नहीं बना रहता है। वह मनुष्य की परीक्षा का समय होता है। एक वह समय आता है कि आकाश के बादलों के हटने के समान उसके  संकट स्वयंमेव दूर हो जाते हैं। पटवारी जी ने भी देखा कि उनके पुरुषार्थ से और प्रभु की अपार कृपा से प्लेग के दिन समाप्त हुए। बिछुड़े हुए लोग परस्पर आकर मिले। बेटे ने बाप को, पति ने पत्नी को, भाई ने भाई को पहचाना तथा परस्पर गले मिले। पता नहीं जो महामारी आई थी वह कहाँ चली गई। सब गाँवो वालों ने पटवारी जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की एवं पावों में गिरकर उनकी सेवा और त्याग और साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। पटवारी जी नेाी उन सबको उठाकर अपनी छाती से लगाया।

रिश्वत छोड़ने का दृढ़ निश्चयः- आपके ऊपर आर्य समाज के सिद्धान्तों, महात्माओं व विद्वानों के उपदेशों का इतना प्रभाव हुआ कि आप आत्मशोधन के लिए भी उद्यत हो गये। इसके लिये रिश्वत छोड़ने की एक महत्वपूर्ण घटना इस प्रकार हुई कि बुआना लाखू गाँव में एक बनिये ने क्रुद्ध होकर अपनी स्त्री को मार डाला । इसकी सूचना जब पुलिस को लगी वह वहाँ पहुँची पुलिस को देख बनिया बहुत डरा, आपकी शरण में आकर बोला पटवारी जी आप चाहे कितना ही रूपया मुझसे ले लें आप नबरदारों की सहायता से मेरा छुटकारा पुलिस से करा दें। पटवारी जी ने 600 रूपया लेकर बनिये को छुड़ाने का वायदा किया। पटवारी ने नबरदारों की सहायता से उस बनिये का पुलिस से पिण्ड छुड़वा दिया। रिश्वत में लिए हुए तीन सौ रूपये पटवारी जी के तथा तीन सौ नबरदारों के निश्चित हुए थे। आपने 300 रुपये स्वयं लेकर शेष रूपये नबरदारों में बाँट दिये। सब नबरदारों ने अपना-अपना भाग ले लिया परन्तु दृढ़ आर्य समाजी नबदार याली राम ने रिश्वत का रूपया लेना स्वीकार न किया। पूछने पर उन्होंने कहा रिश्वत का रुपया बहुत बुरा होता है, जिसे इसकी चाट लग जाती है फिर इससे छुटकारा कठिन है।  आपने 1914 में रिश्वत न लेने की प्रतिज्ञा की तथा जो रिश्वत लेता था उसका डटकर विरोध करते थे। रिश्वत लेने को आप महापाप कहने लगे।

थानेदार से रिश्वत वापिस दिलवानाः- जिन दिनों आप बुवाने में पटवारी थे उन दिनों एक थानेदार ने कात गाँव के लोगों को डरा-धमकाकर उनसे आठ सौ रूपये ले लिये । उसी समय कात से एक आदमी भागा हुआ बुवाना ग्राम आया और आपके सामने सारी घटना कह सुनाई। आप उसके साथ कात गाँव आये और गांव वालों ने बताया कि आठ सौ रूपये थानेदार के मूढ़े के नीचे दबे हुए है। आपका मुख-मण्डल क्रोध से रक्त-वर्ण हो गया और आपने थानेदार को कड़क कर कहा थानेदार बना फिरता है, गरीब ग्राम वासियों को तंग करके रूपये हड़पने में तुझे शर्म नहीं आती। ऐसा कहकर थानेदार को मूढ़े से नीचे धकेल दिया ओर कमर पर जोर से लात मारी ओर कहा पापी निकल यहाँ से नहीं तो तू जीवित नहीं बचेगा। वह थानेदार आपकी गर्जना सुनकर थर-थर काँपने लगा गिड़गिड़ाकर घोड़े पर सवार होकर चुपचाप थाने की ओर चला गया। इसके बाद उसमें कोई भी अदालती आदि कार्यवाही करने का साहस नहीं रहा। ऐसी उदाहरणें अन्य भी हैं।

समाज सेवा करने की अभिलाषा से पटवार से त्याग पत्र देने की इच्छाः- आपका जीवन आर्य समाज की सेवा के  लिए अर्पित हो गया। आप सोचने लगे दीन-दुखियों की सेवा करनी है तो पटवार का मोह छोड़ना होगा। इससे भी समाज सेवा में बाधा उपस्थित होती है। कई दिन विचार करते हुए आपने यह बात अपने प्रेमियों से भी कही तो उन्होंने सलाह दी शीघ्रता से कार्य करना लाभप्रद नहीं होता अतः आप त्याग पत्र न देकर एक वर्ष का अवकाश ले लें । आपको साथियों की यह बात समझ आ गई। आपने विचार किया इस अवकाश काल में स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज के आश्रम में रहकर सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर आर्य समाज के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त किया जाये। ऐसा निश्चय करके सन् 1916 दिसबर मास में एक वर्ष का अवकाश प्राप्त कर अपना चार्ज बरकत अली नाम के पटवारी को सौंप दिया। ऐसा करके निश्चित होकर आप पटवार गृह में ही सो गये।

सभालका गाँव में गोहत्या स्थल (हत्थे) को रोकनाः- अपने जीवन को देश के लिये अर्पण करने का मानचित्र स्वसंकल्पों से चित्रित कर अभी पटवार घर में सोये ही थे कि उनके परिचित मित्र सभालका निवासी चौ. टोडरमल की आवाज सुनाई दी। उन्होंनें कहा, भक्त जी हम बड़े धर्म संकट में हैं। इधर कु आँ है, उधर खाई है। एक ओर धर्म की पुकार है दूसरी ओर सरकार का विरोध है। हमारे गाँव सभालका में गौ-हत्था खोलने की मुसलमानों को स्वीकृति मिल गई है और कल ही इसकी नींव रखी जायेगी। आपने श्री टोडरमल की बात ध्यान से सुनी और ओजस्वी वाणी में कहा कि हत्था नहीं खुलेगा। तुम जाओ, तुम से जो बन सके तुम भी करो।

प्रातःकाल ही आपने अपने पटवार गृह में बुवाना गाँव के प्रतिष्ठित पुरुषों को इकट्ठा किया और उनके सामने श्री टोडरमल की बात सबके सामने कही। गाँव वालों ने कहा ‘‘हम सब आपके साथ हैं, बताओ हमने क्या करना है?’’ भक्त जी ने कहा ‘‘पहले तो हम शान्ति से निपटाना चाहेंगे अगर ऐसे काम नहीं चला तो लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी। बिना हथियारों के लड़ाई नहीं लड़ी जाती है। हथियारों के लिए 1200 रु. की आवश्यकता है। दो दिन में ही गांव वालों ने 1200 रु. एकत्रित कर आपके चरणों में अर्पित कर दिए। आपने उन रूपयों से उपयोगी हथियारों का संग्रह किया। तदन्तर प्रत्येक गांव ूमें आदमी भेजकर निर्धारित तारीख व स्थान पर हत्था तोड़ने के लिए चलने का सन्देश भेजा। आपके सन्देश को सुनक र ग्रामों से ग्रामीण भाई दलबल समेत सभालका गाँव की ओर चल पड़े। जब मुसलमानों को ग्रामीणों की इस चढ़ाई का पता चला तो वे भागकर कस्बे के डिप्टी कमिश्नर की सेवा में पहुँचे और गा्रमवासियों के आक्रमण की सूचना डिप्टी कमिश्नर महोदय को दी।’’

कमिश्नर महोदय ने क्रुद्ध जनता की क्रोध एवं जोशपूर्ण आवाज सुनी, कोई कह रहा था यदि यहाँ हत्था खुला तो खून की नदी बह जायेगी, कोई कह रहा था कि हमारी लाशों पर ही हत्था खुल सकेगा। हम किसीाी कीमत पर हत्था नहीं खुलने देंगे। क्रुद्ध जन समुदाय को शान्त करते हुए कमिश्नर ने घोषणा की ‘‘प्यारेग्राम वासियों। मैं आपकी भावना को जानता हूँ मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यहां पर हत्था नहीं खुलेगा।’’ आप सब अपने-अपने घरों को जाओ। किन्तु जिलाधीश कीघोषणा के उपरान्त भी कुछ क्रुद्ध वीर युवक आक्रमण की प्रतीक्षा में बाग में छिपे बैठे थे। आपने एक टीले पर चढ़कर चारों ओर चद्द्र घुमाकर सबको संकेत किया कि भाइयों जिस उद्देश्य से हम आये थे वह काम हमारा पूरा हो गया और आप इस स्थान को छोड़कर अपने-अपने घरों को चले जायें। कवि ने ठीक ही कहा है-

इरादे जब पाक होते हैं, सफलता चलकर आती है

चट्टानें थरथराती हैं और समुद्र रास्ते देते हैं।

पटवारी बरकत अली की नीचताः- इस घटना को साप्रदायिक रंग देने के लिये मुसलमान पटवारी पदवृद्धि के लोभी  बरकत अली ने उसी हल्के के अदुल हक नामक गिरदावर के साथ मिलकर एक समिलित रिपोर्ट तैयार की। उस रिपोर्ट में इस विप्लव का मुखिया आपको बतलाते हुए यह सिद्ध किया कि जाटों को भड़का कर मुसलमानों को खत्म करने की योजना थी और धीेरे-धीेरे अंग्रेज सरकार का तता उलटना पटवारी फूल सिंह चाहता था। अतः पटवारी फूल सिंह को बागी घोषित कर जल्दी से जल्दी बन्दी बनाया जाये। इस दोनों  की रिपोर्ट पर श्री गोकुल जी नबरदार बिजावा, श्री बशी राम परढ़ाणा, श्री मोहर सिंह सभालका श्री टोडरमल सभालका, श्री चन्द्रभान और सूरज भान सहित सबको बन्दी बना लिया। सब से पाँच-पाँच हजार की जमानत लेकर छोड़ा गया।

आप इन मुकदमों की पैरवी के लिए करनाल के वकीलों व रोहतक के वकीलों के पास गये । किसी में भी सरकार का सामना करने का साहस न हुआ। अन्त में आप निराश होकर ग्रामीण जनता के परम सेवक दीनबन्धु श्री चौधरी छोटूराम जी की सेवा में उपस्थित हुए उनके सामने जो घटना जैसी घटी थी वह सब सुना डाली और यह भी कहा सब स्थानों पर घूम चुका हूँ कोई भी वकील इस मुकदमें की पैरवी करने के लिए तैयार नहीं है। भक्त जी की बातों को सुनकर उन पर गहरा विचार कर चौधरी छोटूराम जी ने उनसे कहा- ‘‘भक्त जी, मैं आपके मुकदमे की पैरवी करुंगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप इस मुकदमे से मुक्त हो जाओगे। यह मेरा निश्चय है आप सर्वदा निश्चित रहें। और मैं आपसे इसकी फीस भी नहीं लूँगा।’’

चौधरी साहब ने अपने वचन के अनुसार उस मुकदमे की पैरवी करने में बड़े वाक् चातुर्य से काम लिया। उन दोनों मुसलमानों की रिपोर्ट की धज्जियाँ उड़ा दी। जब आप पैरवी करते थे तब सुनते ही बनता था। उन्होंने कानून की दृष्टि से मुकदमे का अध्ययन अति सूक्ष्मता से किया हुआ था। विरोधी वकील उनके द्वारा प्रस्तुत तर्कों को काट न सके। आपकी प्रबल पैरवी से भक्त जी के साथ ही अन्य सब साथी अभियुक्त भी मुक्त हो गये।

शेष भाग अगले अंक में……

  सूर्य नमस्कार- एक विवेचन -विद्यासागर वर्मा, पूर्व राजदूत

सूर्य नमस्कार आसन के विषय में सपूर्ण भारत में एक विवाद खड़ा हो गया है, जिसका देश के हित में समाधान ढूंढना आवश्यक है। अन्तरिम् रूप से भारत सरकार ने सूर्य नमस्कार आसन को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर भव्य सामूहिक कार्यक्रम से हटा दिया है।

सर्वप्रथम यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि केवल योग-आसन, योग नहीं। योग एक विस्तृत आध्यात्मिक पद्धति है जिसका ध्येय आत्मा और परमात्मा का मिलन है। पतंजलि ऋषि के योगदर्शन में आसन सबन्धी केवल चार (4) सूत्र हैं। आसन की परिभाषा है ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् सुख पूर्वक स्थिरता से, बिना हिले-डुले, एक स्थिति में बैठना आसन है ताकि अधिक समय तक ध्यान की अवस्था में  बैठा जा सके। प्रचलित योग-आसन हठयोग की क्रियाएँ हैं। हठयोग के ग्रन्थों में पशु-पक्षी के आकार के 84 आसनों का वर्णन है, जैसे मयूरासन, भुजंगासन आदि। ये आसन स्वास्थ्य की दृष्टि से लााप्रद हैं परन्तु ध्यान लगाने के लिए उपयुक्त नहीं।

Rev. Albert Mohler Jr. Prsident South Baptist Theosophical Society ने कितने स्पष्ट शदों में योग को परिभाषित किया है, यह सराहने योग्य है You may twidting yourself into pretzels or grasshoppers, but if there is no meditation or direction of consciousness, you are not practising Yoga.”   अर्थात् चाहे आप कितनी तरह से अपने शरीर को मरोड़कर एक वक्राकार की टिड्डा तरह बैठकर (गर्भासन) या एक शलभ के समान बनाकर बैठ जायें (शलभासन), यदि उस स्थिति में ध्यान की अवस्था नहीं है, चेतना की एकाग्रता नहीं है, उसे योग नहीं कह सकते।

सारांश में हम कह सकते हैं कि योग ध्यान की उस स्थिति का नाम है जहाँ आत्मा का परमात्मा से तादात्य हो जाता है। इस स्थिति का वर्णन सभी धर्मों के ग्रन्थों में पाया जाता है। उदाहरणार्थ कुरान शरीफ में कहा गया है- ‘‘व फि अन्फुसेकुम अ-फ-ल तुबसेरुन’’ अर्थात् मैं तुहारी आत्मा में हूँ, तुम मुझे क्यों नहीं देखते? मैं तुहारी हर श्वास में हूँ परन्तु तुम पवित्र नेत्र से विहीन हो, इसलिए देख नहीं पाते। यही तो योग विद्या का संदेश है। अहिंसा, सत्याचरण, चोरी न करना, दूसरों का हक न मारना, सभी शुभ कर्म ईश्वर की इबादत (ईश्वर प्रणिधान) भाव से करने से आत्मा पवित्र दृष्टि प्राप्त करता है और अपने अन्दर ईश्वर का साक्षात्कार करता है। अथर्ववेद (12.1.45)का कथन है ‘जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्’ अर्थात् पृथ्वी भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले तथा देशकाल के अनुसार भिन्न-ािन्न विश्वासों ´ (Nation of Religion)  का अनुसरण करने वाले जन-समुदाय का भरण (पोषण) करती है। विश्व के सभी धर्म सत्य, अहिंसा, भातृभाव, सदाचार की शिक्षा देते हैं ताकि मनुष्य का जीवन उत्कृष्ट बन सके और वे अन्ततः उस परमशक्ति से जुड़ सकें। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर सभी धर्मस्थलों पर ईश्वर है क्योंकि वह सर्वव्यापक है परन्तु तुहारी आत्मा केवल तुहारे शरीर में हैं, वहाँ नहीं है। मिलन तो किसी दो का तभी हो सकता है जहाँ दोनों मौजूद हों। वह स्थान केवल आपका शरीर है, वहीं आत्मा और परमात्मा का मिलन हो सकता है तभी तो पवित्र बाईबल में लिखा है “ Your Body is the Temple of God”  अर्थात् आपका शरीर ही परमात्मा का पूजा स्थल है। यही योग विद्या का सार है।

आसन और प्राणायाम योग के बहिरंग ((Outer Shell)) माने गये हैं। ये योग साधना में सहायक होते हैं जैसे आसन शरीर को निरोग रखते हैं और प्राणायाम मन की एकाग्रता को बढ़ाते हैं। योग का सबन्ध शरीर, मन और आत्मा से है। प्रकृति ने मानवमात्र को एक जैसा पैदा किया है, सभी को शरीर, मन और आत्मा दी है। मनुष्य चाहे साईबीरिया में पैदा हो जहाँ तापमान (-) 50डिग्री सैल्सियस होता है चाहे सहारा के मरुस्थल में पैदा हो जहाँ तापमान (+)50 डिग्री सैल्सियस होता है, मानव शरीर का तापमान सभी स्थानों पर (+)37 डिग्री सैल्सियस ही होता है। इसी प्रकार मनुष्य चाहे अमेरिका का रहने वाला हो या अफ्रीका का, क्रोध के आवेश में उसका रक्तचाप बढ़ जाता है, हृदयगति तेज हो जाती है, नजाी तेजी से चलने लगती है और चेहरा लाल हो जाता है। जैसे कोई भी दवाई या बीमारी किसी के शरीर पर असर करने से पहले उसकी नागरिकता या धार्मिक आस्थाओं की जानकारी नहीं लेती, इसी प्रकार योग की क्रियाएँ मानवमात्र पर एक सा प्रभाव छोड़ती हैं। हाँ, जो अधिक निष्ठा से इन्हें करेगा, उसे अधिक लाभ होगा, जो टूटे मन से करेगा, उसे कम लाभ होगा । यह व्यवस्था सभी विद्याओं पर एक सी लागू होती है।

योग-पद्धति एक धर्म निरपेक्ष, मानवमात्र हितकारी पद्धति है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह बात इसी से सिद्ध हो जाती  है कि संयुक्त राष्ट्र की जनरल एसेबली में 21जून को अन्तर्राष्ट्रीय येाग दिवस घोषित करने सबन्धी प्रस्ताव न केवल सर्वसमति से पारित हुआ बल्कि 177 देशों द्वारा अनुमोदित किया गया जिसमें मुस्लिम देश संगठन (ह्रढ्ढष्ट) के भी अधिकतर देश समिलित थे। इससे पूर्व कैलीफोर्निया की एक अपील अदालत ने न्याय व्यवस्था दी कि सैनडीएगो काऊँटी के स्कूलों में सिखाए जा रहे योग से धार्मिक स्वतन्त्रता का उल्लंघन नहीं हो रहा। दैनिक हिन्दी समाचार ‘हिन्दुस्तान’ दिनांक 5 अप्रैल, 2015 एवं अंग्रेजी समाचार पत्र ‘टाइस ऑफ इंडिया’ दिनांक 5 अप्रैल, 2015 में छपे समाचार के अनुसार तीन सदस्यीय अपील अदालत ने योग के कार्यक्रम को धर्मनिरपेक्ष्य घोषित किया । इससे भी पूर्व अमेरिका के एक राज्य ‘इलिनॉइस की संसद ने 24 मई, 1972 के दिन एक प्रस्ताव (संया-677) पारित किया जिसमें योग की ध्यान पद्धति का गुणगान करते हुए इसे राज्य की सभी शिक्षा संस्थाओं में सिखाने के लिए अनुरोध किया गया एवं इसकी परियोजनाओं के लिए हर सभव योगदान देने का निर्देश दिया गया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि अनुसंधानों से पाया गया कि ध्यान से मानसिक तनाव का कम होना, उच्च रक्तचाप का नीचे आना, श्वास रोग का ठीक होना, ध्यान लगाने वाले छात्रों का अध्ययन में प्रगति करना, अनगिनत रोगों में रोगियों का ध्यान लगाने से अन्यों की अपेक्षा शीघ्र ठीक होना, अफीम आदि के व्यसनियों (Drug Addicts) का ध्यान लगाने से व्यसन से छुटाकारा पाना आदि लाभ प्राप्त होते हैं।

योग पद्धति साधकों एवं सांसारिकों दोनों के लिए लाभप्रद है। योग दो प्रकार का है- लौकिक ((Worldly) और आध्यात्मिक (Spiritual))। जो लौकिक विषय पर ध्यान लगाते हैं उन्हें लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, जैसे न्यूटन ने गिरते हुए सेब पर ध्यान लगाया, विश्व को गुरुत्वाकर्षण का ज्ञान दिया। इसी प्रकार जो आध्यात्मिक विषय पर ध्यान लगाते हैं उनहें आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य नमस्कार को लेकर समस्त योग विद्या को त्याज्य समझना उचित नहीं। वस्तुतः सभी मुस्लिम भाई ऐसा समझते भी नहीं हैं। हाँ, जो सूर्य नमस्कार आसन को आपत्तिपूर्ण मानते हैं, उनकी आपत्ति वाजिब हो सकती है, उचित हो सकती है। इस्लाम में जड़ की उपासना एवं ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना धर्म-विरुद्ध है। इस विचारधारा का सभी को समान करना चाहिए। इसी के साथ-साथ समस्या का समाधान ढूंढ़ना चाहिए। भारत सरकार ने जो समाधान ढूंढ़ा है कि सूर्य नमस्कार को ही योगासनों से हटा दिया जाए, केवल क्षणिक, अल्पकालीन उपाय है, चिरस्थायी नहीं।

योग आसनों में तीन आसन स्वास्थ्य की दृष्टि से अतीव महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। वे हैं- शीर्षासन, सूर्य नमस्कार आसन और सर्वांगासन। इन तीनों से शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग सुचारु रूप से कार्य करते हैं और सुदृढ़ होते हैं। अतः सूर्य नमस्कार आसन को सदा के लिए बहिष्कृत करना उचित नहीं होगा।

सूर्य नमस्कार आसन पर विवाद इसलिए है कि इसमें जड़ पदार्थ सूर्य के सामने सिर झुकाया जाता है। मेरा मत है कि यहाँ सूर्य का अर्थ सूर्य है ही नहीं, यहाँ सूर्य का अर्थ ईश्वर है। वेद में, संस्कृत भाषा में एवं अन्य भाषाओं में एक शद के एक से अधिक अर्थ होते हैं। वेदों में ईश्वर को सूर्य, अग्नि, इन्द्र, विष्णु आदि क ई नामों से वर्णित किया गया है। इसकी पुष्टि वेदों का जर्मन भाषा में अनुवाद करने वाले विश्ववियात दार्शनिक प्रो. एफ. मैक्समूलर भी करते हैं। अपनी पुस्तक India what It Can Teach Us? में वे कहते हैं “They ( the Names of Deities like Indra, Varuna, Surya) were all meant to express the Beyond, the Invisible behind the Visible, the Infinite within the Finite, the Supernatural above the Natural, the Divine, Omnipresent, Omnipotent.” अर्थात् वे (इन्द्र, वरुण, सूर्य आदि देवता वाचक शद) सभी परोक्ष के द्योतक थे, दृश्य के पीछे अदृश्य, सान्त के पीछे अनन्त, अपरा के पीछे परा, दिव्य, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् के द्योतक थे।

प्रो. एफ. मैक्समूलर की उपरोक्त घोषणा वेद के अन्तः साक्ष्य से भी सिद्ध होती है। यजुर्वेद (7.42) का कथन है सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च अर्थात् सूर्य इस चेतन जगत् एवं जंगम (स्थावर) जगत् की आत्मा है। सूर्य तो स्वयं जड़ है और इस समस्त स्थावर जगत् का एक तुच्छााग है। वह जड़ एवं चेतन जगत की आत्मा (चेतन सत्ता) कैसे हो सकता है? नक्षत्र विज्ञान बतलाता है कि सूर्य हमारी आकाश गंगा (Milky Way Galaxy) का एक सामान्य तारा ((Star) है, जिसमें अरबों तारे हैं। इतना ही नहीं, सारे ब्रह्माण्ड (Universe) में अरबों ऐसी और इससे भी कई गुना बड़ी आकाश गंगाएँ हैं। इतने विशाल ब्रह्माण्ड की आत्मा एक अधना-सा सूर्य नहीं हो सकता। इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि यहाँ सूर्य का अर्थ ईश्वर है। इसके अतिरिक्त हमारे धर्म ग्रन्थों में यह भी कहा गया है कि वे सूर्य, तारे, अग्नि आदि सभी उसी ईश्वर के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं – ‘‘तस्यभासा सर्वमिदं विभाति’’ कठोपनिषद् (2.2.15) अर्थात् उस ईश्वर के  प्रकाश से यह सब कुछ प्रकाशित होरहा है।

ईश्वर ही ब्रह्माण्ड की आत्मा है, केवल वेद ही नहीं कहता, अन्य सभी धर्म भी ऐसा ही मानते हैं, बड़े-बड़े दार्शनिक एवं वैज्ञानिक भी ऐसा ही मानते हैं। उदाहरणार्थ-

(1) हक जाने जहान अस्त व जहान जुमला बदन।

– सूफी शायर

ईश्वर विश्व की आत्मा है और यह समस्त विश्व उसका शरीर।

(2)  The Universe is one stuperndous Whole

Whose Body Nature is, and God the Soul.

-Alexander Pop

यह ब्रह्माण्ड एक विशाल पूर्ण-कृति है।

प्रकृति जिसका शरीर है और ईश्वर आत्मा।

– एलेक्जेंडर पोप

(3) अल्लाहो बे कुल्ले शमीन मुहित

अल्लाहो नूर उस समावाति वल अर्द। – कुरान शरीफ

अल्लाह समस्त संसार को घेरे हुए है और उसमें व्याप्त है।

उसका नूर द्यौलोक एवं पृथ्वी को प्रकाशित करता है।

(4) God said let there be light and there was light.                                       – The Holy Bible

ईश्वर ने कहा कि प्रकाश हो जाए और प्रकाश हो गया।         – पवित्र बाईबल

(5) सरब जोतिमहिं जाकी जोत।

– गुरु ग्रन्थ साहब

सारांश में, सूर्य नमस्कार आसन में सूर्य शद ईश्वर का द्योतक है। अथर्ववेद (2.2.1) की आज्ञा है। ‘एक एव नमस्योऽवीक्ष्वीड्यः’ अर्थात् सभी लोगों द्वारा केवल एक ईश्वर नमन और स्तुति के योग्य है। क्योंकि सूर्य शद के लाक्षणिक-अर्थ ईश्वर न लेकर रुढ़ि-अर्थ-तारा ले लिया गया है, इसलिए यह भ्रम की स्थिति पैदा हुई है। सूर्य को एक प्राकृतिक शक्ति के रूप में देवता कहा गया है यहाँ यह स्पष्ट कर देनााी प्रासंगिक है कि देव या देवता वह है जो देता है या चमकता है। प्रकृति पदार्थ जो हमें लाभ पहुंचाते हैं या चमकते हैं देवता कहलाते हैं। वे केवल उस ईश्वर की शक्तियों को परिलक्षित करते हैं। तभी वेद में कहा गया है ‘‘अस्मिन् सर्वेः देवाः एकवृत्तो भवन्ति’’ अर्थात् सभी देवता (प्राकृतिक शक्तियाँ) उसी ईश्वर में समा जाते हैं। कुरान शरीफ में भी कहा गया है ‘‘हे परवर दिगार। ये सूरज, चाँद, सितारे हमारे लिये (तुहारी खिलकत के लिए) तुहारे हुक्म में काम कर रहे हैं। कुदरत की इन निशानियों को देख कर, तुहारी ताकत, हिकमत और कारीगरी का अन्दाजा लगा सकते हैं।’’ यही यजुर्वेद (33.31) में कहा है : देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्। अर्थात् सूर्य, चन्द्र आदि मानो परमदेव की पताकाएँ (केतवः= झण्डे, पताका) हैं उसके यश को संसार में फैलाती है और विश्व के लोगों को सूर्य के समान प्रकाशवान् ईश्वर को दर्शाती हैं। यहाँ भी सूर्य का अर्थ ईश्वर है।

अतः मेरा विनम्र सुझाव है कि सूर्य नमस्कार आसन का नाम ईश-नमस्कार आसन रख दिया जाए। मुझे आशा है कि हमारे मुस्लिम भाइयों को इसमें आपत्ति नहीं होगी क्योंकि ईश नमस्कार का अर्थ है अल्लाह को सजदा (Salutation to God) वैसे तो इसके साथ किसी प्रकर की प्रार्थना की आवश्यकता नहीं, अगर कोई करना भी चाहे तो निम्न प्रार्थना पर गौर किया जा सकता है- हे परमपिता। हमें शक्ति दो कि हम सूर्य और चाँद की भांति निरन्तर अपने कर्त्तव्य एवं परोपकार के कल्याणकारी मार्ग पर चलते रहें। (सूर्य नमस्कार का नाम बदलकर ईश-नमस्कार आसन करने से हम सहमत नहीं है। यह तो सीधा-सीधा मजहबी तुष्टिकरण होगा यह आसन उनके हित के लिए है। इसमें योग का प्रचार करने वालों का कोई स्वार्थ नहीं है-

सम्पादक ) लेखक भारतीय विदेश सेवा के सेवा निवृत्त सदस्य हैं। इन्होंने योगदर्शन पर काव्य व्याया लिखी है जिसका विमोचन मा. उपराष्ट्रपति श्री कृष्णकान्त ने अप्रैल, 2002 में किया था। इन्होंने कजाखस्तान में भारतीय दूतावास में कजाख लोगों को एवं वहाँ के राजनयिकों को योग की निःशुल्क शिक्षा दी। योग पर दिये प्रपाठकों को द्विभाषी पुस्तक (अंग्रेजी, रूसी भाषा में) के रूप में छापा गया।

पता– 109, आई.एफ.एस. विल्लाज, पी-6, बिल्डरज एरिया, ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश- 201310 चलभाषः 9871724733

Leaving Islam…..Aditya Nandiwardhana

‘No matter how many good things you have done before you kick the bucket, if you are not a Muslim, then bad news for you. Even back then, I had a problem accepting that part of the religious teaching’

“In the afterlife, only Muslims get to enter paradise.”

That was what my Quran tutor told me when I was in fourth grade. The moment she told me that, I was really, really, surprised.

I was raised as a Muslim, and like any other Muslim kid in Indonesia, I had to learn how to recite the Quran. My father hired a Quran tutor for me and I spent a couple of hours 3 days a week with her. I did not only learn how to recite the Quran from her, I also learned about Islam in general, about what Islam (well, at least her version of Islam) teaches us.

One of the things that I learned from her was that entering paradise is a Muslim privilege. No matter how many good things you have done before you kick the bucket, if you are not a Muslim, then bad news for you.

Even back then, I had a problem accepting that part of the religious teaching.

Here is the thing, I was born into the Muslim tradition because my father is a Muslim man. However, that was not the only tradition that I was born into.

My mother is a Catholic woman, a devout one in my opinion. When I was very little, I spent a lot of time with my grandparents from my mother’s side. They had to babysit me a lot because both my parents were working back then.

They had a lot of Catholic ornaments in their house – crucifixes on the walls, a statue of Virgin Mary, pictures of various saints, and many others. They would tell me stories about Jesus when they were babysitting me and I liked those stories.

When I was not being babysat by them, my father usually told me to perform shalat prayers with him. I did not know how to actually perform the prayers, of course, but I would just follow the movements from him.

That was my early childhood. I was always aware of the fact that my parents had different religious backgrounds. I did not have any problem accepting that fact – it all just made sense to me. I also knew that there were other people with other religious beliefs out there and thought that all of those different beliefs were as valid as mine. I had already identified as a Muslim at the time. If anyone asked me what my religion was, I would answer: Islam.

I never thought that my religion was superior to others, though. Until my Quran tutor taught me otherwise.

Becoming agnostic

I guess that was the starting point of the journey that led me to become an agnostic-atheist.

I had a problem accepting the doctrine of the superiority of Islam over other religious beliefs, that only Muslims can enter paradise after the apocalypse. I loved my grandparents and I thought that it was not fair that they were going to hell just because they believed in God in a different way than I did. As I grew up, I started having other questions regarding other aspects of Islam such as the role of women in the traditional views of Islam and LGBT rights, but I was also afraid to question those views further because I did not want to go to hell for doubting my faith.

It wasn’t until my second year of university that I finally stopped practicing Islam. I stopped performing shalat, I stopped going to the masjid (mosque) every Friday, and I stopped performing shawm (fasting) during Ramadan. I did not identify as a Muslim anymore. I was not an atheist yet at the time. I was kind of a deist, still believing in a “higher power” of some sort. But I had finally become a murtadin (apostate).

I was not open about my epiphany to my parents. I lived in a kost (a boarding house for university students) in Yogyakarta when I first stopped identifying as a Muslim, while my parents lived in Jakarta, so that made it easier for me. But every time I went back to my parents’ house in Jakarta, I would pretend that I was still a Muslim.

I would try to get out of the house every time it was near prayer time, because I did not want to pray with my father. Of course I could not always get out of the house during prayer time, so I had to pretend to pray with my father during those occasions.

“The main crisis that humanity faces now is not religion, as many atheists would suggest. it is the oppressive power structures that oppress lgbt people, religious minorities (including but not limited to atheists), women, the working class and other oppressed groups.”

Ramadan was the hardest challenge for me. I had to pretend that I was fasting and think of how to sneak food into my room without getting caught. Every time I went back to Jakarta during university break, I could not wait to go home to my kost in Yogyakarta.

Exploring Buddhism

I began to have curiosity about Buddhism during my first years of apostasy. I read a lot about Buddhism and also went to the local Buddhist temple near my kost to learn more about it. I used to meditate regularly, and I am still trying to now.

This artilcle was taken from the following web portal

 

http://www.rappler.com/world/regions/asia-pacific/indonesia/bahasa/englishedition/106964-atheist-islam

ओ३म् ‘क्या देश ने महर्षि दयानन्द को उनके योगदान के अनुरूप स्थान दिया?’ -मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने भारत से अज्ञान, अन्धविश्वास आदि दूर कर इनसे पूर्णतया रहित सत्य सनातन वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना की थी और इसे मूर्तरूप देने के लिए आर्यसमाज स्थापित किया था। वैदिक धर्म की यह पुनस्र्थापना इस प्रकार से है कि सत्य, सनातन, ज्ञान व विज्ञान सम्मत वैदिक धर्म महाभारत काल के बाद विलुप्त होकर उसके स्थान पर नाना प्रकार के अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानतायें व पाखण्डों से युक्त पौराणिक मत ही प्रायः देश में प्रचलित था जिससे देश का प्रत्येक नागरिक दुःख पा रहा था। अज्ञान व अन्धविश्वास ऐसी चीजें हैं कि यदि परिवार में एक दो सदस्य भी इनके अनुगामी हों, तो पूरा परिवार अशान्ति व तनाव का अनुभव करता है। देश की जब बहुत बड़ी जनता अन्धविश्वासों में जकड़ी हुई हो, तो फिर सारे देश पर उसका दुष्प्रभाव पड़ता ही है और ऐसा ही महर्षि दयानन्द जी के समय में हो रहा था। उनके आगमन से पूर्व वैदिक धर्म के अज्ञान व अन्धविश्वास के कारण तथा विश्व में सत्य धर्म का प्रचार न होने के कारण अविद्यायुक्त मत उत्पन्न हो गये थे जो हमारे सनातन वैदिक धर्म की तुलना में सत्यासत्य की दृष्टि से निम्नतर थे। महर्षि दयानन्द ने सत्य धर्म का अनुसंधान किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सृष्टि की आदि में ईश्वर से ऋषियों को प्राप्त ज्ञान ‘‘चार वेद ही वास्तविक धर्म की शिक्षायें हैं जिनका संसार के प्रत्येक व्यक्ति को आचरण करना चाहिये तभी वसुधैव कुटुम्बकम् का स्वप्न साकार होने के साथ विश्व में सुख व शान्ति स्थापित हो सकती है। स्वामी दयानन्द जी को सद्ज्ञान प्रदान कराने वाले गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे। उन्होंने गुरू दक्षिणा में उनसे देश से अज्ञान व अन्धविश्वास मिटाकर देश में वैदिक सूर्य को पूरी शक्ति के साथ प्रकाशित करने का दायित्व सौंपा था जिसे अपूर्व शिष्य महर्षि दयानन्द ने स्वीकार किया और उसका प्राणपण से पालन किया। इतिहास में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जैसे गुरू और स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे शिष्य देखने को नहीं मिलते। ऐसा भी कोई महापुरूष इस देश विश्व में नहीं हुआ जिसे इतनी अधिक समस्याओं के साथ एक साथ जूझना पड़ा हो जितना की स्वामी दयानन्द जी को जूझना पड़ा।

 

स्वामी दयानन्द के समय देश धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों से गम्भीर रूप से ग्रसित था। राजनैतिक दृष्टि से भी यह स्वतन्त्र न होकर पहले मुगलों तथा बाद में अंग्रेजों का गुलाम बना। यह परतन्त्रता ईसा की आठवीं शताब्दी से आरम्भ हुई थी। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से चार ऋषियों को आध्यात्मिक व भौतिक अर्थात् परा व अपरा विद्याओं का ज्ञान ‘‘वेद’’ प्राप्त हुआ था। सृष्टि के आरम्भ से बाद के समय में उत्पन्न सभी ऋषियों व राजाओं ने इसी वैदिक धर्म का प्रचार कर सारे संसार को अन्धविश्वासों से मुक्त किया हुआ था। लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत काल के बाद वेदों का प्रचार प्रसार बाधित हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत में सर्वत्र अज्ञान व अन्धविश्वास फैल गया और इसका प्रभाव शेष विश्व पर भी समान रूप से हुआ। अज्ञानता व अन्धविश्वासों के परिणाम से देश में सर्वत्र मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, पुनर्विवाह न होना, सतीप्रथा, विधवाओं की दयनीय दशा, जन्मना जातिवाद, स्त्रियों व शूद्रों को वेद आदि की शिक्षा का अनाधिकार आदि के उत्पन्न होने से देश व समाज का घोर पतन हुआ। यह समय ऐसा था कि लोग धर्म के सत्यस्वरूप को तो भूले ही थे, ईश्वर व आत्मा के स्वरूप सहित अपने कर्तव्यों को भी भूल गये थे। विधर्मी हमारे बन्धुओं का जोर-जबरस्ती, प्रलोभन व नाना प्रकार के छल द्वारा धर्मान्तरित करते थे। हिन्दू समाज के धर्म गुरूओं को इसकी किंचित भी चिन्ता नहीं थी। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द का आगमन हुआ जैसे कि रात्रि के बीतने के बाद सूर्योदय होता है।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का उद्घोष कर कहा कि वेद ईश्वरीय ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों में कोई बात अज्ञानयुक्त असत्य नहीं है। वेद ज्ञान का उद्देश्य मनुष्यों को धर्म अधर्म तथा सत्य असत्य की शिक्षा देकर कर्तव्य अकर्तव्य का बोध कराना है। वेद विहित कर्तव्य ही धर्म तथा वेद निषिद्ध कार्य ही अधर्म कहलाते हैं। मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, बाल विवाह, अनमेल विवाह को उन्होंने वेद विरूद्ध कार्य बताया। उन्होंने पूर्ण युवावस्था में समान गुण, कर्म व स्वभाव वाले युवक युवती के विवाह को वेद सम्मत बताया। वह सबको वेद आदि शास्त्रों सहित ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण एक समान, अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा के पक्षधर थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्णो को वह गुण, कर्म व स्वभावानुसार मानते थे तथा जन्मना जाति वा जन्मा मिथ्या वर्ण व्यवस्था के प्रथम व सबसे बड़े विरोधी थे। उन्होंने देश व जाति के पतन के कारणों पर विचार व अनुसंधान किया और इसकी जड़ में उन्होंने वेद विद्या का अनभ्यास, ब्रह्मचर्य का पालन न करना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, बाल व अनमेल विवाह सहित बहु विवाह एवं व्यभिचार, जन्मना जाति व्यवस्था, सामाजिक असमानता आदि को कारण बताया। उन्होंने पूरे देश में एक जन आन्दोलन चलाया व अनेक कुप्रथाओं का उन्मूलन भी किया। वह आर्य भाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक और गोहत्या सहित सभी पशुओं के प्रति हिंसा वा मांसाहार के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने एक निराकार व सर्वव्यापक ईश्वर की उपासना का सन्देश दिया। वह त्रैतवाद के उद्घोषक थे व उन्होंने उसे तर्क, युक्ति व न्याय की कसौटी पर सत्य सिद्ध किया। ईश्वर की उपासना की सही विधि उन्होंने देश वा विश्व को दी। ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरूप का भी उन्होंने अनुसंधान कर प्रचार किया। उन्होंने सभी धर्मों का अध्ययन कर पाया कि संसार के सभी मनुष्यों का एक ही धर्म है और वह है सत्याचरण। सत्य वह है जो वेद प्रतिपादित कर्तव्य हैं। उन्होंने वायु शुद्धि, स्वास्थ्य रक्षा और प्राणि मात्र के सुख तथा परजन्म के सुधार के लिए अग्निहोत्र यज्ञों का भी प्रचलन किया।

 

विधवा विवाह का उनके विचारों से समर्थन होता है, जो कि उन दिनों एक प्रकार से आपद धर्म था। उनकी एक मुख्य देन धार्मिक जगत में मतभेद व भ्रान्ति होने पर उसके निदान हेतु शास्त्रार्थ की प्राचीन पद्धति को पुनर्जीवित करना था। सभी मतों के विद्वानों से उन्होंने अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ किये और वैदिक मान्तयाओं की सत्यता को देश व संसार के समक्ष सिद्ध किया। उनकी एक अन्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन शुद्धि की परम्परा को स्थापित करना था। उनके व उनके अनुयायियों के वेद प्रचार से अनेक स्वजाति व अन्य मतस्थ बन्धु प्रभावित हुए और उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक वैदिक धर्म स्वीकार किया। आजकल इस परम्परा को हमारे अनेक पौराणिक बन्धु भी अपना रहे हैं जो कि उचित ही है। शुद्धि का अर्थ है श्रेष्ठ मत व धर्म को ग्रहण करना और निम्नतर व हेय को छोड़ना। हम स्वयं पौराणिक परिवार के थे और हमने आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म को अपनाया है। शास्त्रार्थ व शुद्धि, यह दो कार्य, महर्षि दयानन्द के हिन्दू जाति के लिए वरदान स्वरूप कार्य हैं। उनकी एक प्रमुख देन सत्यार्थ प्रकाश व इतर वैदिक साहित्य का प्रणयन है। सत्यार्थ प्रकाश तो आज का सर्वोत्तम धर्म ग्रन्थ है। जो इसको जितना अपनायेगा, उसकी उतनी ही आध्यात्मिक भौतिक उन्नति होगी। महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों के प्रयत्नों के बाद भी मूर्तिपूजा जारी है जिसका बुद्धि संगत समाधान व वेदों में विधान आज तक कोई मूर्तिपूजा का समर्थक दिखा नहीं सका। अतीत में इसी मूर्तिपूजा व इन्हीं अन्धविश्वासों के कारणों से हमारा सार्वत्रिक पतन हुआ था। अन्य सभी अन्धविश्वास काफी कम हुए हैं जिससे देश में भौतिक सामाजिक उन्नति हुई है। इस सब देश समाज की उन्नति का श्रेय यदि सबसे अधिक किसी एक व्यक्ति को है तो वह हैं महर्षि दयानन्द सरस्वती। हम महर्षि दयानन्द की सभी सेवाओं के लिए उनको कृतज्ञता पूर्वक नमन करते हैं। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर जिन कार्यों को करणीय बताया और जिन अज्ञानपूर्ण कार्यों का विरोध किया, उसे संसार का सारा बुद्धिजीवी समाज स्वीकार कर चुका है जिससे दयानन्द जी के सभी कार्यों का महत्व निर्विवाद रूप से सिद्ध है।

 

एक काल्पनिक प्रश्न मन में यह भी उठता है कि यदि महर्षि दयानन्द भारत में न आते तो हमारे समाज व देश की क्या स्थिति होती। हमने जो अध्ययन किया है उसके आधार पर यदि महर्षि दयानन्द न आते तो हमारे समाज से अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां, मिथ्याचार, व्यभिचार, जन्मना जातिवाद, सामाजिक असमानता कम होने के स्थान पर कहीं अधिक वृद्धि को प्राप्त होती। विधर्मी हमारे अधिकांश भाईयों को अपने अपने मत वा धर्म में परिवर्तित करने का प्रयास करते और उसमें वह सफल भी होते, ऐसा पुराने अनुभवों से अनुमान कर सकते हैं। हिन्दू समाज में उस समय धर्मान्तरण को रोकने वाला तो कोई नेता व विद्वान था ही नहीं। इससे देश का सामाजिक वातावरण भयंकर रूप से विकृत हो सकता था। देश में स्वाधीनता के प्रति वह जागृति उत्पन्न न होती जो आर्य समाज की देन है। आर्य समाज ने आजादी में जो सर्वाधिक योगदान दिया है उसके न होने से देश के आजाद होने में भी सन्देह था। कुल मिलाकर देश की वर्तमान में जो स्थिति है उससे कहीं अधिक खराब स्थिति देश व समाज की होती। यदि महर्षि न आते तो वेद तो पूर्णतया लुप्त ही हो गये होते। योग व आयुर्वेद भी विलुप्त हो जाते या मरणासन्न होते। सच्ची ईश्वरोपासना से सारा संसार वंचित रहता। लोगों को सत्य धर्म व मत-मजहब-सम्प्रदाय का अन्तर पता न चलता। कुल मिलाकर स्थिति आज की तुलना में भयावह होती, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है।

 

हमारे इस विवेचन से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि महर्षि दयानन्द देश में सबसे अधिक मान-सम्मान व आदर पाने के अधिकारी हैं। इस पर भी देश के प्रभावशाली लोगों ने अपने-अपने मत, अपने अपने हितों के साधक व राजनैतिक समीकरण में फिट होने वाले इच्छित व्यक्तियों को गुण-दोष को भूलकर मुख्य माना। आर्य समाज जिसने देश को ज्ञान विज्ञान सम्मत बनाने, देश को आजादी का मन्त्र देने व अंग्रेजों से प्रताड़ना मिलने पर भी देश की स्वतन्त्रता के लिए तिल तिल कर जलने का कार्य किया व समाज से असमानता दूर करने का महनीय व महानतम कार्य किया, उसकी देश की आजादी के बाद घोर उपेक्षा की गई है। आज का समय सत्य व यथार्थवाद का न होकर समन्वयवाद व स्वार्थवाद का अधिक दिखायी देता है। सब अपने अपने विचारों व विचारधाराओं के लोगों को ही श्रेष्ठ व ज्येष्ठ मानते हैं जबकि सत्य दो नहीं केवल एक ही होता है। हम निष्पक्ष भाव से विचार करने पर भी महर्षि दयानन्द को ही देश का महानतम महापुरूष पाते हैं। स्वार्थ, अज्ञानता तथा अपने व पराये में पक्षपात करने का यह युग इस देश में कभी समाप्त होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। यह ईश्वर का संसार और ब्रह्माण्ड है। महर्षि दयानन्द तो अपना बलिदान देकर अपना एक एक श्वास इस देश को अर्पित कर चले गये हैं। अब तक भी देश में सत्य आध्यात्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा न होकर हमारे हृदयों में सर्वव्यापक सच्चिदानन्द परमात्मा के स्थान पर पाषाण देवता ही विराजमान हैं। यह स्थिति भी अप्रिय है कि आज आर्य समाज संगठनात्मक दृष्टि से शिथिल पड़ गया है। यहां भी वेद विरोधी व ऋषि द्रोही स्वार्थी व्यक्तियों की कमी नहीं है जो येन केन प्रकारेण अपना प्रभुत्व कायम रखना चाहते हैं।

 

यदि हमारे सभी देशवासी महर्षि दयानन्द के दिखाये मार्ग को सर्वात्मा स्वीकार कर लेते और उस पर चलते तो आज हम संसार में आध्यात्मिक व भौतिक प्रगति में प्रथम स्थान पर होते। कोई देश हमें आंखे दिखाने की कुचेष्टा नहीं कर सकता था। परन्तु नियति ऐसी नहीं थी। आज भी देशवासी एक मत, एक भाव, एक भाषा, एक सुख दुख के मानने वाले नहीं है। यहां तक कि ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दी गई संस्कृत भाषा व ईश्वरीय ज्ञान वेद भी देश व विश्व में राजनीति व हानि लाभ की दृष्टि से देखे जाते हैं। इसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है। इससे समाज बलवान होने के स्थान पर कमजोर हुआ है। महर्षि दयानन्द देश को आदर्श देश व विश्व गुरू बनाना चाहते थे, उनका वह स्वप्न अधूरा है। अनुभव होता है कि इसमें अनेक शताब्दियां लग सकती है। यह सत्य है कि देश व विश्व को सुखी, सम्पन्न, समृद्ध, एक भाव व विश्व गुरू बनाने में जो मार्ग महर्षि दयानन्द ने बताया है, वही एक मात्र सही मार्ग है और उसी पर चल कर ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का लक्ष्य प्राप्त होगा। नान्यः पन्था विद्यते अयनाय।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

1965 के भारत-पाक युद्ध की पृष्ठ भूमि तथा मेरे संस्मरण -मेजर रतनसिंह यादव

  1. 1. युद्ध की पृष्ठभूमि-विशाल भारत का विखण्डन आरभ हुआ तो बर्मा, श्रीलंका आदि स्वतन्त्र राष्ट्र बनते चले गये। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति, भारत विभाजन का दुर्भाग्य पूर्ण तथा रक्त रंजित अध्याय भी 1947 के आते-आते लिख दिया गया। इसकेपश्चात् कई नवोदित राष्ट्रों में प्रजातन्त्रीय व्यवस्था से चुनी गयी सरकारों का सैनिक तानाशाहों ने तता पलट दिया। बर्मा, श्री लंका तथा विशेषकर पाकिस्तान में तो प्रधानमन्त्री की हत्या तक कर दी गयी। ऐसे में प्रधानमन्त्री पद के लालच में भारत विभाजन तक का पाप करने वाले, महात्मा गाँधी के प्रिय जवाहरलाल नेहरु को लगा कि यह चारों ओर के पड़ोसियों के घर में लगी आग कहीं मेरी कुर्सी तक न आ पहुँचे। इससे भयभीत नेहरु जी ने भारतीय सेना को वर्ष प्रति वर्ष कमजोर करने का सिलसिला आरभ कर दिया। सेनाध्यक्ष जिसका स्थान वरीष्ठता क्रम में राष्ट्राध्यक्ष गवर्नर जनरल के बाद होता था, घटाकर मन्त्रीमण्डल के सदस्यों के भी नीेचे गिरा दिया गया। रक्षा-बजट प्रतिवर्ष कम से कमतर होता गया। इसका दुष्परिणाम 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में हमारी शर्मनाक पराजय के रूप में राष्ट्र ने झेला। हमारे सैनिकों के पास द्वितीय विश्वयुद्ध कीपुरानी तकनीक की थ्री नॉट थ्री राइफलें एयूरेशन की घोर कमी, बर्फानी प्रदेश की हाड़कँपा देने वाली सर्दी से बचाव के कपड़ों का नितान्त अभाव यहाँ तक कि जूते तक न थे। ऐसे हालात में भी हमारी सेना की 13 कुमाऊँ रेजिमेंट की एक कपनी ने वीरता का जो इतिहास रचा, उसका उदाहरण विश्व के सैनिक इतिहास में दुर्लभ है। हमें गर्व है कि इस रेजांगला का स्वर्णिम इतिहास लिखने वाले हरियाणा के अहीरवाल क्षेत्र के वीर अहीर ही थे।
  2. चीनी आक्रमण के तुरन्त पश्चात् आपातकाल घोषित कर दिया अब सेना की ओर कुछ-कुछ ध्यान दिया जाने लगा। पर तीन वर्ष से भी कम समय में रक्षा बजट पर कंजूसी बरतने वाली परपरा की अयस्त सरकार अधिक कुछ न कर पायी। तब तक चीन के चेले पाकिस्तान ने सोचा, चीन की तरह हम भी भारत को पीट लेंगे, काश्मीर छीन लेंगे। पर पाकिस्तान के इरादे इसलिए सफल नही हो सके कि हमने 1962 के युद्ध से थोड़ा-बहुत सीख कर सेना को पहले से अधिक मजबूत कर लिया था। 1965 के युद्ध में हम अपनी विजय पर कितना भी गर्व करें, पर यह कोई पूरी तरह निर्णायक युद्ध न था। काश्मीर में हम भले ही लाभ की स्थिति में थे, पर सीमा के अन्य क्षेत्रों में हमें हानि भी उठानी पड़ी थी।
  3. पर काश्मीर में सेना के लहू ने जो क्षेत्र जीता लिया, उसे ताशकन्द में लिखे कागज की स्याही ने छीन लिया। जिस काश्मीर को हम भारत का अभिन्न अंग कह कर वर्षों से चिल्ला रहे थे, उस अभिन्न अंग को हमारे भीरु, दबू तथा समझौतावादी राजनैतिक नेतृत्व ने रूस के दबाव में वापिस शत्रु का अभिन्न अंग बना दिया। सेना के मनोबल पर इसका जो दुष्प्रभाव हुआ, उसे मेरे अग्रज कैप्टन नौरंग सिंह के शदों में जो उस युद्ध में सक्रिय भागीदार थे कहूँ ‘‘हम सब रोते हुए वापिस आ गये’’ अच्छा हुआ जो श्री लालबहादुर शास्त्री इस समझौते के आघात को न सह सके और अपने प्राण तक दे बैठे, वरना ताशकन्द से लौटने पर उनकी बहुत किरकिरी होती।
  4. हमारी यह अदूरदर्शी, आत्मघाती समझौतावादी परपरा सन् 1971 के शिमला समझौते में भी बनी रही। हमने तो पाकिस्तान के एक लाख के लगभग सैनिक कैदी लौटा दिये, पर अपने लगाग 50 सैनिक कैदियों को पाकिस्तान से छुड़ाना भूल गये। न जाने उनका क्या हुआ होगा। जो जुल्फिकार अलि भुट्टो शिमला में गिड़गिड़ा रहा था, वही अपनी गली में जाते ही शेर बनकर दहाड़ने लगा। ‘‘हम घास खायेंगे, पर एटमबब बनायेंगे। हिन्दुस्तान के हजार टुकड़े करेंगे, हजार वर्ष तक लड़ेंगे।’’ संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे विदेशमन्त्री सरदार स्वर्ण सिंह को ‘इण्डियन डॉग’ तक कहकर अपने पुरखों को भी अप्रत्यक्ष रूप से गाली दी। एटम बब तो भारत से ज्यादा नहीं तो बराबर के तो बना ही लिए। और भी बनाने में लगे हुए हैं। हजार वर्ष तक लड़ने का सिलसिला चालू ही है।
  5. मेरे सेना में आने का कारण- मेरे अग्रज सूबेदार नौरंगसिंह भारत विभाजन से पूर्व की मियाँमीर की छावनी लाहौर में सेना में भरती हो चुके थे। मेरी पूज्य भाभी जी सरती देवी को फिरोजपुर, मेरठ, अबाला आदि सैनिक छावनियों में काी-कभी उनके साथ रहने का अवसर मिला। गर्मियों में स्कूल की लबी छुट्टियाँ होने पर मैं भी उनके पास चला जाया करता। फौज का जीवन मुझे काफी पसन्द आता था। शिक्षा पूर्ण कर 1961 में अपने गाँव के निकट स्थायी रूप से शिक्षक नियुक्त हो गया। 1962 में चीन ने भारत पर धोखे से अचानक आक्रमण कर दिया। देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया।ााई नौरंगसिंह अपनी बटालियन 16 पंजाब के साथ मोर्चे पर चले गये। भाभीजी घर लौट आई। मुझ से कहने लगी, ‘‘रतन! जो तू ये मास्टरी वास्टरी की नौकरी कर रहा है, ये तो जिनानियों का काम है। देश पर आपत्ति आई है। तेरा भाई कम पढ़ा लिखा है, सूबेदार बन गया। तू तो बीस वर्ष का पढ़ा लिखा जवान है। फौज में ऑफिसराी बन सकता है।’’

तत्कालीन पंजाब सरकार ने (तब हरियाणा न बना था) अपने समस्त विभागों को सर्कू लर जारी कर सेना के लिए वालिण्टियर माँगे। मैंने अपने हैडमास्टर श्री सोमदत्त जी कौशिक को प्रार्थनापत्र देकर सेना के लिए मेरा नाम भेजने का अनुरोध किया। उनका उत्तर था ‘‘इतनी ही तनखा फौज में मिलेगी (तब एक सौ रूपये थी) घर के पास की आराम की नौकरी छोड़कर क्यों मरने के लिए फौज में जाना चाहता है?’’ मुझे मध्यकालीन वीर काव्य (आल्हा-उदल) के रचियता कवि जगनिक की पंक्तियाँ याद आ गई । मैंने कहा-

‘‘बारह बरस तक कुकर जिये, और तेरह तक जिये सियार।

बरस अठारह छत्री जिये, आगे जिये को धिक्कार।।’’

हम तो मरने के लिए ही बने हैं। मेरा नाम भर्ती कार्यालय महेन्द्रगढ़ में भेज दिया। मेरी योग्यतानुसार मुझे सेना-शिक्षा कोर में हवलदार के पद पर सीधे नियुक्ति मिली।

  1. युद्ध के संस्मरण– 1965 के युद्ध के समय मुझे जालन्धर कैण्ट स्थित सप्लाई डिपो केरियर की सुरक्षा तथा युद्ध के मोर्चे से घायल होकर आने वाले सैनिकों को सैनिक अस्पताल में भर्ती कराने की जिमेदारी सौंपी गयी। मेरी सहायता के लिए पाँच नये-नये सैनिक भी थे।

अमृतसर से लाहौर जाने वाले मार्ग पर पाकिस्तान की सीमा में इच्छोगिल नहर है। इस नहर पर पाकिस्तानी सेना पक्के सीमेण्टेड बैंकरों में अमेरीकी आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित हमारे मुकाबले के लिए पहले से ही तैयार थी। हमारे सेना की थर्ड जाट युनिट को नहर के पार पाकिस्तानी इलाके पर कजा करने का अत्यन्त दुस्साहसपूर्ण खतरे से भरपूर चुनौती पूर्ण टास्क सौंपा गया। बहादुर जाटों ने जान हथेली पर रखकर न जाने कितना रक्त बहाकर इच्छोगिल नहर के पानी को लाल कर दिया। सफलता मिली, पर मूल्य बहुत चुकाया। रात को घायलों से भरी ट्रेन अमृतसर से जालन्धर पहुँची। मैं एबुलेंस की अस्पताल की गाड़ी, स्टेचर तथा अपने साथी सैनिकों को लेकर घायल सैनिकों को स्टेचर पर रखने लगा तो एक बहादुर जाट सैनिक को अन्धेरे में ध्यान से देखा। उसके चेहरे में गोली धँसी हुई थी। सूजन से एक आँख बन्द हो चुकी थी। उसने हाथ उठाकर मुझे राम-राम कहने का प्रयास किया। मेरी आँखों में आँसू आ टपके। धन्य है वह वीर जवान, धन्य है वह सैनिक परपरा जिसने ऐसी शोचनीय शारीरिक स्थिति में भी अभिवादन की सैनिक परपरा को स्मरण रखा। वह मार्मिक दृश्य आज भी मेरी आँखों में सजीव है।

  1. जालन्धर कैण्ट में रामामण्डी के निकट जी.टी. रोड से जाते हुए सैनिकों की गाड़ियों को आग्रहपूर्वक रोककर भोजन सामग्री, फल-फ्रूट तथा मालाओं से लादकर सिक्ख भाईयों ने राष्ट्रभक्ति का जो जोश दिखाया, वह अभूतपूर्व था। इण्डियनआर्मी जिन्दाबाद भारत माता की जय से आसमान गूंजता था। आज भले ही कुछ गिने-चुने, पाकिस्तान द्वारा बरगलाये सिक्ख युवक तथा राष्ट्र प्रेमी सिक्ख जनता द्वारा बहिष्कृत, थके माँदे, नेतृत्व तथा पद लोलुप तथाकथित नेता भारत के विरुद्ध विषवमन करें पर पंजाब तथा देश के विभिन्न भागों में सिक्खों की देशभक्ति में किसी को शक नहीं होना चाहिए। ऐसे गुमराह सिक्ख युवकों को सिक्ख जाति केगौरवपूर्ण इतिहास को स्मरण करते हुए गुरु अर्जुन देव तथा जहाँगीर, गुरु तेगबहादुर तथा औरंगजेब, गुरु गोविन्द सिंह और उनके चारों साहिबजादों तथा औरंगजेब के साथ बन्दा बहादुर और फर्रुखशयर के नाम न भूलने चाहिए। दूर इतिहास की गहराई में न जायें तो देश विभाजन के समय पाकिस्तान से विस्थापित सिक्खों के साथ जो भयानक जुल्म किये गये, उनका आँखों देखा हाल बताने वाले कितने ही आज भी जिन्दा है। कितने ही राठौर, चौहान सिक्ख राजपूत, कितने ही सेठी, बाजवा, घुमन इस्लाम कीाूनी तलवार का या तो शिकार हो गये या फिर सनम सेठी या जफर इकबाल राठौर बन गये । कोई उदाहरण है क्या जब किसी इस्लाम के अनुयायी ने विभाजन के समय अपना महजब भयभीत होकर बदला हो।

वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान 1971 के युद्ध की पराजय का बदला, बंग्लादेश का बदला लेकर खालिस्तान का दिवास्वप्न दिखाकर सिक्ख-हितैषी होने का राजनैतिक पाखण्ड कर रहा है। अरे ये तो वही पाकिस्तानी हैं जिन्होने साझे भारत के साझे शहीदेआजम भगतसिंह के नाम पर लाहौर के चौराहे का नाम तक नहीं करने दिया। तर्क है पाकिस्तान की भूमि पर किसी गैरमुस्लिम के नाम पर कोई सड़क या स्मारक नहीं होगा।

  1. सूर्यास्त होने को था। जालन्धर कैण्ट से कुछ दूरी पहले सतलुज नदी पर रेलवे पुल है। इसी रेल मार्ग से अमृतसर तक हमारी सेनाओं को रसद पहुँचायी जाती थी। पाकिस्तान के तीन छाताधारी सैनिक पास के गन्ने के खेतों में उतर गये। योजना रेल पुल को उड़ाने की थी। गाँववालों ने कैण्ट के हैडक्वाटर को सूचना दी। रियर में तो नाम चारे के सैनिक रहते हैं। उन्हें लेकर हमने गन्ने के खेतों को घेर लिया। पाकिस्तानी छाताधारियों को चेतावनी दी गयी कि जान बचाना चाहते हो तो हथियारों से मैगजीन अलगकर, गले में डालकर, हाथ ऊपर कर आत्म समर्पण कर दें। पहले दो चेतावनियाँ निष्फल रही। अन्त में तीसरी बार मशीनगनों से गन्ने के खेतों के छलनी करने का आर्डर सुनते ही एक लबा-चौड़ा पाकिस्तानी ऑफिसर निर्देश का पालन करते हुए बाहर आ गया। हमारे ऑफिसर ने उसके हथियार लेकर आँखों पर पट्टी तथा दोनों हाथ पीछे की ओर बाँध कर सड़क पर खड़ी जीप की ओर ले चले। कुछ तो मार्ग उबड़-खाबड़ था, कुछ आँखें बन्धी थी, तो कुछ बेचारा घबराया हुआ, धीरे-धीरे चल रहा था। हमारे मिलट्री-पुलिस के एक जवान ने उसे आगे धकेलते हुए पीठ पर एक घूंसा मार दिया। हमारे ऑफिसर ने उस मिलेट्री-पुलिस के जवान को बुरी तरह डाँटा कहा कि कैदी के साथ भी इन्सानियत का बर्ताव करना चाहिए। यह है हमारी संस्कृति और मानवता। दूसरी ओर हमारे कारगिल में कैद हुए कैप्टन सौरभ कालिया के साथ जिस दरिन्दगी और पाशविकता का बर्ताव किया, उसकी गूँज अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय तक गूँज रही है। कैप्टन कालिया का मृत शरीर जब लौटाया तो उसकी अगुंलियों के नाखून तक न थे। उस वीर के कान में गोली मारी गयी थी। जुल्म करने के निकृष्टतम तरीके तो शायद पाकिस्तानी सेना को ट्रेनिंग में सिखाये जाते हैं।
  2. युद्ध के कारण अचानक सेना को बहुत बड़ी संया में सीमा पर आना पड़ा था। सप्लाई डिपो जालन्धर से स्थान्तरित कर सीमा के कुछ निकट यास आ चुका था। खाद्य सामग्री भण्डारण के लिए फील्ड टैण्ट भी पर्याप्त न थे। ऐसे में हमारे कमाण्डिग ऑफिसर लेटिनेन्ट कर्नल ए.के.गुहा ने बाबा राधास्वामी जी से प्रार्थना की। बाबा जी ने कहा-‘‘सारा डेरा आपके आधीन है। डेरा देश से बड़ा नहीं है।’’ हमने डेरा के कमरों में फौज का राशन भर दिया। युद्ध की समाप्ति पर वापिस जालन्धर लौटने से पहले बाबा जी का आभार व्यक्त करने सभी आँफिसर तथा जवान गये। बाबा ने आशीर्वाद दिया।
  3. सितबर मास आ गया है। सरकार गर्व से 1965 के युद्ध के पचास वर्ष पूरे होने पर विजय समारोह आयोजन करने जा रही है। पूर्व सैनिकों ने इस आयोजन के बहिष्कार की घोषणा पहले ही कर दी है, तो आयोजन हमारे वीर शिरोमणि मन्त्री करेंगे। दूसरी ओर इतने वर्षों में उस युद्ध में प्राण गँवाने वाले कितने ही सैनिकों की वीरागनाएँ तो अपने शहीद पतियों के पास कभी की जा चुकी है। बची-खुची भी इस बहरी सरकार के कानों तक आवाज पहुँचने तक जानी ही है। वे आज के पेंशन प्राप्त कर्त्ताओं की तुलना में एक चौथाई पेंशन पर अपनी वृद्धावस्था ढो रही हैं। हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और खजाना मन्त्री श्री जेटली के पास जमू काश्मीर सरकार के लिए विशेष पैके ज के लिए एक लाख करोड़ रूपये तो हैं पर पूर्व सैनिकों तथा उनकी विरांगनाओं के लिए मात्र 9100 करोड़ ही हैं। हमारे आदरणीय प्रधान मन्त्री को जब भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमन्त्री पद का उमीदवार घोषित किया तो उनकी पहली रैली रेवाड़ी में पूर्व-सैनिकों तथा अर्द्धसैनिक बलों ने आयोजित की थी। ऐसी रैली न भूतो नाविष्यति। मोदी जी ने वचन दिया ‘एक रैंक एक पेंशन’ मिलेगी। हमारे आदरणीय जनरल वी.के.सिंह भी मंच पर विराजमान थे। आज डेढ वर्ष होने को आया- न तो मोदी जी को अपने वचन याद रहे, न जनरल वी.के.सिंह को उन्हें याद दिलाने की फुर्सत है- मन्त्री जो बन गये। इसका नाम तो है-राजनीति पर है यह राज कुनीति-कुरीति।

हमारे माननीय सांसद पाँच वर्ष में कितने दिन संसद में उपस्थित रहे? संसद में आये तो क्या राष्ट्र हित के बिलों पर बहस में कितनों ने भाग लिया? क्या कभी प्रश्न पूछा? अपने इलाके क ी भलाई की कितनों ने माँग उठाई् कई तो दूरदर्शन पर निद्रा लाभ लेते हुए दिखाये जाते हैं। संसद का कोई कर्तव्य पूरा किये बिना अच्छा भला वेतन, पेंशन तथा अन्य सुख-सुविधाऐं लेना न भूले। बात बिना बात संसद ठप्प करने वाले हमारे सांसद के वल एक बात को सर्वसमति से हाथ उठाकर एक मिनट में पास कर देते हैं- वह बिल है-सांसदों की वेतन वृद्धि तथा पेंशन वृद्धि।

सेना तो बहुत दूर की बात है संसद के दरवाजे पर प्राण देने वाले जवानों तक को कितना महत्व दिया, सब जानते हैं।

इंग्लैण्ड की महारानी का बेटा अफगानिस्तान के मोर्चे पर वर्षों से अपने देश के समान के लिए लड़ रहा है। है कोई हमारे 68 वर्ष के इतिहास में ऐसा उदाहरण जब किसी प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल, या मन्त्री का बेटा भारत माता की रक्षा हेतु युद्ध क्षेत्र में गया हो। सभाओं में नारा लगायेंगे-जय जवान जय किसान। पर काम होगा- मर जवान – मर किसान।

वैसे भी सेना का एक जवान सरहद पर मरता है तो अप्रत्यक्ष रूप से एक किसान भी मरता है, क्योंकि मरने वाला एक किसान का बेटा है किसी राजनेता का नहीं।

अन्त में मैं हमारे देश के सभी नेताओं को नीति शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित चाणक्य के शब्दों  को याद दिलाना चाहता हॅूँ जिसकी नीति ने एक साधारण बालक चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया था।

‘‘चन्द्रगुप्त! जिस दिन सेना तुम से अपने अधिकारों की माँग करने लग जाये, उस दिन तुहारे साम्राज्य का पतन आरभ हो जायेगा।’’

कोई सुन रहा है क्या?

शिक्षा – योगेन्द्र दमाणी

जब से मैंने क, ख, ग, घ, सीखा है तब से मैं यह सुनता आया हूँ कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह शायद ठीक ही  है। शायद शब्द का व्यवहार इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मेरा यह सौभाग्य कम हो पाया कि उस प्रधानता को मैं देख सकूँ। इतने बड़े देश में सब तरह के कार्य होते हैं और किसी एक को कम या अधिक रूप में देखना उचित भी नहीं। हर एक से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। जैसे कृषि को ही लें। खेतालिहानों में हम पाते हैं कि बच्चे अपने माता-पिता के साथ कृषि का कार्य करते हुए बड़े होते हैं उन्हें कृषि सिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। बहुत कम अक्षरी शिक्षा में भी ये लोग अपना जीवन-निर्वाह कर लेते थे, अब भी कर लेते हैं। कुछ ऐसा माहौल बनाया या बिगाड़ा गया कि अक्षरी शिक्षा का भूत इन पर भी सवार कराया जाने लगा और अब वो आत्महत्या करते हुए पाए जा रहे हैं। (कारण कुछ और भी हो सकते हैं।) हमारे यहाँ शिक्षा का अर्थ सिर्फ अक्षरी शिक्षा के ज्ञान को ही माना जाने लगा। शिक्षा का मतलब ए, बी, सी, डी, ही हो गया। लोहार के बेटे को यह बताने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी कि लोहे को पीटा कैसे जाता है, यह तो वह परिवार के साथ काम करते हुए स्वयं ही सीख जाता था। इसी तरह बुनकर, बढ़ई या और कोई भी अन्य हाथ से काम करने वाले के लिए भी यही बात लागू थी। भारत सोने का देश था क्योंकि सामान्य ज्ञान और शिल्पकला की वजह से लोग अपने सीमित दायरे में रहते हुए संचय क रते थे और जीवन खुशी से व्यतीत करते थे। आज सब तरफ त्राहि-त्राहि हो रही है। शिल्पविद्या की शिक्षा पर फिर से बल दिया जा रहा है। क्योंकि हम पहले गलत दिशा में चलते हैं और फिर सुधार के कार्यक्रम लागू करते हैं। जब बच्चे अपने या अपने आसपास के लोगों के साथ जीविकोपार्जन की शिक्षा लेते थे तब उनक ो हमारे तथा कथित सय समाज ने बाल मजदूरी का नाम दे दिया। इस दिशा में कार्य करने वालों की भावना अच्छी थी  कि नहीं, उनके पास ऐसे कार्यों को करने या करवाने के  पीछे किनका-किनका या किसका हाथ था, है यह तो इतिहास बतायेगा परन्तु यह सत्य है इसी एक मुद्दे ने इस देश से शिल्पकला रूपी स्वर्णिम भारत को हमसे छीन लिया। अक्षरी शिक्षा के नाम पर हजारों स्कूल और कॉलेज खोले गये। हर चीज से कुछ न कुछ लाभ होता ही होगा लेकिन इनकी हानि भी अब नजर आने लगी है और इस इन्टरनेट के जमाने में जब सब कुछ आन-लॉइन है तब तो अब के अध-पढ़े युवक-युवतियाँ तो अधर में ही है। सारा काम अब प्लास्टिक मनी कर देगी । किसी को किसी की आवश्यकता नहीं। सारे बाजार बन्द। घर से निकलना बन्द। यह आधुनिकता की हद है सुना है कि जापान का बच्चा, बचपन से ही छोटी-मोटी मोटर या अन्य यन्त्र बना लेता है क्योंकि वह बचपन से इन चीजों को करता है। (जिसे हम चाइल्ड-लेबर कहते हैं।) उसे अंग्रेजी सीखने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता वह तो अपना समय शिल्पविद्या विकसित करने में लगाता है। चीनी आज किसी का मुहताज नहीं क्योंकि हर आदमी की चाहत कम है हर हाथ शिल्पकला का हाथ है और इस कारण उन्हें कम लागत पर सामान विकसित करना आ गया और इसलिए वे पूरे विश्व में छाते जा रहे हैं।

मैं अभी कुछ दिन पहले अमेरिका में था। वहाँ के मूल लोगों को अपनी भाषा के अलावा कोई और भाषा आती ही नहीं। वह चाहे अंग्रेजी हो या स्पेनिश। वहाँ भी बचपन से बच्चे काम करते देखे जा सकते हैं। चाइल्ड-लेबर का वहाँ कोई ऐतराज नहीं। क्योंकि अल्प शिक्षा पर भी वो अपना जीवन बड़े आराम से व्यतीत कर लेते हैं। दुनिया के किसी अन्य कोने में क्या हो रहा है या नहीं यह जानकारी उन्हें हो या न हों किन्तु अपने कार्य में  वे दक्ष हैं और इसका एकमात्र कारण है कि बचपन से खेलते-खेलते हुए वे पा लेते हैं अपने जीवन यापन की जानकारी में प्रगाढ़ता। यह नहीं है कि भारत पहले ऐसा ही था। हमारा अध्यात्म तो उनसे कई गुना आगे है किन्तु ‘जब अपने ही घर को आग लग गई अपने चिराग से’ तो कोई क्या क रे । हमने आध्यात्म की शिक्षा बिल्कुल छोड़ दी। चार आश्रमों के  आधार पर 25 वर्षों तक शिक्षा तत्पश्चात् गृहस्थ, वानप्रस्थ और फिर संन्यास। यहाँ शिक्षा का गूढ़ अर्थ था (शिक्षा, जिससे विद्या, सयता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियता आदि की बढ़ती होवे और उनसे अविद्या आदि दोष छूटें। उसी को शिक्षा कहते हैं- महर्षि दयानन्द सरस्वती) अक्षरी शिक्षा के साथ-साथ जिनका जो कार्य था वह माता-पिता अपने बच्चों को वही ज्ञान, या उसके लगाव वाला ज्ञान देते-देते उसे इतना दक्ष  बना देते थे कि वह गृहस्थ का भार बड़े आराम से उठा सकता था। यदि इस 25 वर्ष की अवधि को सब अपनाते तो कोई बेरोजगारी नहीं होती। पचास वर्ष का होने पर व्यक्ति समाज सेवा में लगते और अन्तिम पच्चीस पूरे विश्व के साथ-साथ अध्यात्म के लिए समर्पित होता। गृहस्थ इसका (समस्त आश्रमियों का) पूरा भार उठाता था। आज रिटायर करना पड़ता है, होते नहीं हैं। यह नहीं सोचते कि अगर आप रिटायर नहीं होंगे तो एक युवक का भाग्य आप छीन रहे हैं और इसका प्रतिफल या तो रोगों में या अवसाद आदि में आखिर तो मिलेगा ही। यह पहला या आखिरी जीवन नहीं, इसका कारण ये अक्षरी शिक्षा का तांडव है जो कि जानबूझकर हमारे समाज को विघटित करने एवं कराने के उद्देश्य से विदेशी षडयन्त्रों के रूप में हमारे अपनों द्वारा कराया जाता है। आप कोई भी इस तरह के  कार्य में जिससे आपकी संस्कृति बिखरती है लग जाइए आप को कोई न कोई विदेशी पुरस्कार तो पुकार ही लेगा।

शिक्षा पद्धति को सही दिशा में ले जाना है तो इस मानसिकता से हमें हटना होगा कि चाइल्ड लेबर कुछ होता है। हम अगर लेबर से मुंह मोड़ने लगे तो सिर्फ  और सिर्फ बेरोजगार ही दिखेगा। हर अक्षरी शिक्षा के पण्डित को भी हाथ के  हुनर जानने वाले की आवश्यकता अवश्य पड़ती है। तो उसकी कीमत ज्यादा और हुनर वाले की कीमत कम क्यों? यदि इस कीमत के  फासले को कम कर दिया जाय तो फिर से लोग हस्तकला सीखने के लिए प्रेरित हो जाएंगे। शिक्षा वह भी है और यह भी -यह मूलमन्त्र है। सिर्फ स्कूलों, कॉलेजों की डिग्री काम करने का ठप्पा का ही महत्व तो नहीं होना चाहिए। इन डिग्री देने वालों को पहले तो किसी बिना डिग्री वाले ने ही दी होगी। इसमें जब कोई सन्देह नहीं तो फिर उसी से हम बैर क्यों कर बैठे। अंग्रेजी शिक्षा ने क्लर्क  तो बहुत उत्पन्न कर दिये जो नौकरिया करने के लिए तत्पर हैं। महीने का मेहनताना मिल जाय बस। कोई यह भी नहीं सोचता कि हम उतना नौकरी देने वाले को दे या पा रहे हैं कि नहीं। किसी क्लर्क को आप रख कर देखिए। वह काम ठीक से करे या न करे। तन्खाह तो उसे सही समय पर चाहिए ही। हमने भी ऐसे अनगिनत कानून बना डाले कि नौकरी देने वाला ही व्यावहारिक रूप में मानो सबसे बड़ा गुनाहगार हो। इस मानसिकता से हटे बिना हम विदेशी शिकन्जे में फँसे रहेंगे। हम कमजोर रहें, अपनी संस्कृति से दूर रहें-यही उनकी नीति रही है। आज व्यवसाय वाले के सामने अनगिनत व्यवधान डाले जाते हैं। जहाँ अक्षरी शिक्षा नीति के कारण हजारों लोग बेरोजगार हैं, (जिसमें उनका दोष नहीं) वहाँ इतने कानून कि कुछ शुरुआत के पहले आप उन कानूनों को कैसे पालन करेंगे यही दिमाग खराब कर देता है। इस शिक्षा नीति ने हमें या तो सिर्फ राईट या सिर्फ लेट कर दिया है। समन्वय का इसमें अवसर ही नहीं है। कारोबार करने वाले और उसमें काम करने वाले दोनों का सही समन्वय भी तो आवश्यक है। किसी कारखाने के बन्द होने में दोनों पक्ष कहीं न कहीं उत्तरदायी होते हैं। बंगाल तो इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। यहाँ काम करने वाला समय के बाद पहुँचता है और जल्दी जाने की चेष्टा करता है। पैसे देने वाला भी जितना देर से व जितना कम दे सके यही सोचता है। वह भी क्या करे उधार ने जीवन तबाह कर रखा है। सब कुछ इतना उलट-पुलट क्यों हो रहा है इसे विचारने की आवश्यकता है। गूढ़ता में खोजने पर गलत शिक्षा, आध्यात्म रहित शिक्षा, हस्तकला रहित शिक्षा, अत्यधिक भौतिकता, कानून की गलत धाराएँ चारों ओर यही सब नजर आएँगे। हुनर की शिक्षा के स्कूल खोलिए, प्रेक्टिकल काम करने का मौका विकसित कराइये बचपन से ही। बच्चों को बढ़ई, लोहार, कुहार राजमिस्त्री, वैद्य, मैकनिक, कृषि आदि की डिग्री भी दीजिए। जो अक्षर ज्ञान चाहे उनके लिए वो और जो ये सब चाहें उनको ये। बच्चे सही शिक्षा प्राप्त कर सकें इसके उपाय करने की नितान्त आवश्यकता है। सिर्फ हमारी आज की कथित अक्षरी शिक्षा से समन्वय नहीं होगा। अति सर्वत्र वर्जयेत।

 

ईश्वर को प्राप्त करने की सरल विधि क्या है’ -मनमोहन कुमार आर्य

प्रत्येक व्यक्ति सरलतम रूप में ईश्वर को जानना व  उसे प्राप्त करना चाहता है। हिन्दू समाज में अनेकों को मूर्ति पूजा सरलतम लगती है क्योंकि यहां स्वाध्याय, ज्ञान व जटिल अनुष्ठानों आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। अन्य मतों की भी कुछ कुछ यही स्थिति है। अनेक मत वालों ने तो यहां तक कह दिया कि बस आप हमारे मत पर विश्वास ले आओ, तो आपको ईश्वर व अन्य सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। बहुत से भोले-भाले लोग ऐसे मायाजाल में फंस जाते हैं परन्तु विवेकी पुरूष जानते हैं कि यह सब मृगमरीचिका के समान है। जब रेगिस्तान की भूमि में जल है ही नहीं तो वह वहां प्राप्त नहीं हो सकता। अतः धार्मिक लोगों द्वारा अपने भोले-भाले अनुयायियों को बहकाना एक धार्मिक अपराध ही कहा जा सकता है। दोष केवल बहकाने वाले का ही नहीं, अपितु बहकने वाले का भी है क्योंकि वह संसार की सर्वोत्तम वस्तु ईश्वर की प्राप्ति के लिए कुछ भी प्रयास करना नहीं चाहते और सोचते हैं कि कोई उसके स्थान पर तप व परिश्रम करे और उसे उसका पूरा व अधिकतम लाभ मिल जाये। ऐसा पहले कभी न हुआ है और न भविष्य में कभी होगा। यदि किसी को ईश्वर को प्राप्त करना है तो पहले उसे उसको उसके यथार्थ रूप में जानना होगा। उस ईश्वर  व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानकर या फिर किसी सच्चे विद्वान अनुभवी वेदज्ञ गुरू का शिष्य बनकर उससे ईश्वर को प्राप्त करने की सरलतम विधि जानी जा सकती है। इस कार्य में हम आपकी कुछ सहायता कर सकते हैं।

 

ईश्वर व जीवात्मा को जानने व ईश्वर को प्राप्त करने की सरलतम विधि कौन सी है और उसकी उपलब्घि किस प्रकार होगी? इसका प्रथम उत्तर है कि इसके लिए आपको महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की शरण में आना होगा। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर अपने ग्रन्थों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य व यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया है जिसे स्वयं पढ़कर जानना व समझना है। यदि यह करने पर जिज्ञासु को कहीं किंचित भ्रान्ति होती है तब उसे किसी विद्वान से उसे जानना व समझना है। उपासक को महर्षि दयानन्द की उपासना विषयक मान्यताओं व निर्देशों को अच्छी तरह से समझ कर पढ़ना व अध्ययन करना चाहिये। इस कार्य में महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, पंच महायज्ञ विधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला, व्यवहारभानु आदि पुस्तकें सहायक हो सकती हैं। आईये, इसी क्रम में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयास करते हैं।

 

जीवात्मा को ईश्वर के उपकारों से उऋण होने तथा जन्म मरण से मुक्ति के लिए ईश्वर की उपासना करनी है अतः इन दोनों सत्ताओं के सत्य स्वरूप उपासक को विदित होने चाहिये नहीं तो भ्रान्तियों में पड़कर उपासक सत्य मार्ग का चयन नहीं कर सकता। पहले ईश्वर का वेद वर्णित स्वरूप जान लेते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के स्वमन्तव्यअमन्तव्य प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के स्वरूप वा गुण, कर्म व स्वभाव को संक्षेप में बताते हुए लिखा है कि जिसके ब्रह्म परमात्मा आदि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं। ईश्वर के इस स्वरूप का उपासक को बार बार विचार करना चाहिये और एक एक गुण, कर्म, स्वभाव व लक्षण को तर्क वितर्क कर अपने मन व मस्तिष्क में अच्छी तरह से स्थिर कर देना चाहिये। जब इन गुणों का बार बार विचार, चिन्तन व ध्यान करते हैं तो इसी को उपासना कहा जाता है। उपासना की योग निर्दिष्ट विधि के लिए महर्षि पंतजलि का योग दर्शन भी पूर्ण सावधानी, तल्लीनता व ध्यान से पढ़ना चाहिये जिससे उसमें वर्णित सभी विषय व बातें बुद्धि में स्थित हो जायें। ऐसा होने पर उपासना व उपासना की विधि दोनों का ज्ञान हो जाता है। ईश्वर के स्वरूप व उपासना विधि के ज्ञान सहित जीवात्मा को अपने स्वरूप के बारे में भी भली प्रकार से ज्ञान होना चाहिये। जीव का स्वरूप कैसा है? आईये इसे ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर निश्चित कर लेते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है तो जीव भी सत्य व चेतन स्वरूप वाला है। ईश्वर में सदैव आनन्द का होना उसका नित्य, शाश्वत् व अनादि गुण है परन्तु जीव में आनन्द नहीं है। यह आनन्द जीव को ईश्वर की उपासना, ध्यान व चिन्तन से ही उपलब्ध होता है। उपासना का प्रयोजन भी यही सिद्ध होता है कि ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति व उसकी उपलब्धि करना। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं परन्तु जीव को ज्ञान के लिए माता-पिता व आचार्य के साथ वैदिक साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता होती है, तब यह कुछ कुछ पवित्र बनता है। वह मनुष्य भाग्यवान है कि जिसके माता-पिता व आचार्य धार्मिक हों व वैदिक विद्या से अलंकृत हों। धार्मिक माता-पिता व आचार्य के सान्निध्य व उनसे शिक्षा ग्रहण कर ही कोई मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन सकता है, अन्यथा नहीं। हमारा आजकल का समाज इसका उदाहरण है जिसमें माता-पिता व आचार्य धार्मिक व वैदिक विद्वान नहीं है, और इसी कारण समाज में भ्रष्टाचार, अनाचार व दुराचार आदि देखें जाते हैं। आजकल के माता-पिता व आचार्य स्वयं सत्य व आध्यात्मिक ज्ञान से हीन है, अतः उनकी सन्तानों व शिष्यों में भी सत्य वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं आ पा रहा है। इसका हमें एक ही उपाय व साधन अनुभव होता है और वह महर्षि दयानन्द व वेद सहित प्राचीन ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों एवं वेदांगों, उपांगों अर्थात् 6 दर्शन तथा 11 उपनिषदों सहित प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि का अध्ययन है। इन्हें पढ़कर मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा व संसार से संबंधित सत्य ज्ञान को प्राप्त हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को वेद के आधार पर सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त बताया है। इस पर विचार करने से जीवात्मा अल्पज्ञ, सूक्ष्म एकदेशी बिन्दूवत आकार वाला, सर्वव्यापक ईश्वर से व्याप्य, अनुत्पन्न, अल्पशक्तिमान, दया-न्याय गुणों से युक्त व मुक्त दोनों प्रकार के स्वभाव वाला, ईश्वरकृत सृष्टि का भोक्ता और ज्ञान व विज्ञान से युक्त होकर अपनी सामर्थ्य से सृष्टि के पदार्थों से नाना प्रकार के उपयोगी पदार्थों की रचना करने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र परन्तु उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के अधीन आदि लक्षणों वाला जीवात्मा है। इस प्रकार से विचार करते हुए हम जीवात्मा के अन्य गुणों को भी जान सकते हैं क्योंकि हमारे सामने कसौटी वेद, आप्त वचन व ईश्वर का स्वरूप आदि हैं तथा विचार व चिन्तन करने की वैदिक चिन्तन पद्धति है। सृष्टि में तीसरा महत्वपूर्ण पदार्थ प्रकृति है जो कारणावस्था में अत्यन्त सूक्ष्म तथा सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है। ईश्वर इसी प्रकृति को अपनी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता से पूर्व कल्पों की भांति रचकर स्थूलाकार सृष्टि करता है जिसमें सभी सूर्य, ग्रह व पृथिवी तथा पृथिवीस्थ सभी भौतिक पदार्थ सम्मिलित हैं।

 

अब ईश्वर को प्राप्त करने की विधि पर विचार करते हैं। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए जीवात्मा को स्तुति, प्रार्थना सहित सन्ध्या-उपासना कर्मों व साधनों को करना है। महर्षि दयानन्द ने दो सन्ध्या कालों, रात्रि व दिन तथा दिन व रात्रि की सन्धि के कालों में सन्ध्या-उपासना को करने के लिए सन्ध्यायेपासना की विधि भी लिखी है जिसको जानकर सन्ध्या करने से लाभ होता है। इस पुस्तक की उन्होंने संक्षिप्त भूमिका दी है। सन्ध्या के मन्त्र व उनके अर्थ देकर उन्होंने जो सन्ध्या करने का विधान लिखा है, उसे सभी मनुष्यों को नियतकाल में यथावत करना चाहिये। सन्ध्या अन्य नित्य कर्मों, दैनिक अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ को करने का फल यह है कि ज्ञान प्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ कार्यों की सिद्धि का होना। इससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। इनको प्राप्त होकर मनुष्यों का सुखी होना उचित है। सन्ध्या के समापन से पूर्व समर्पण का विधान करते हुए उपासक को ईश्वर को सम्बोधित कर सच्चे हृदय से कहना होता है कि हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयाऽनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः। इसका अर्थ कर वह कहते हैं कि सन्ध्या के मन्त्रों व उनके अर्थों से  परमेश्वर की सम्यक् उपासना करके आगे समर्पण करें कि हे ईश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जो जो उत्तम काम हम लोग करते हैं, वह सब आपके समर्पण हैं। हम लोग आपको प्राप्त होके धर्म अर्थात् सत्य व न्याय का आचरण, अर्थ अर्थात् धर्म से पदार्थों की प्राप्ति, काम अर्थात् धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों का सेवन तथा मोक्ष अर्थात् सब दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना, इन चार पदार्थों की सिद्धि हमको शीध्र प्राप्त हो। मोक्ष जन्म व मरण के चक्र से छूटने को कहते हैं। मोक्ष की पहली शर्त है कि उपासना व सत्कर्मों को करके ईश्वर का साक्षात्कार करना व जीवनमुक्त जीवन व्यतीत करना। बिना ईश्वर का साक्षात्कार किये मोक्ष वा जन्म मरण से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। अतः गौण रूप से समर्पण में यह भी कहा गया है कि ईश्वर हमें अपना दर्शन वा साक्षात्कार कराये और हम जन्म-मरण से मुक्त भी हों। ईश्वर का साक्षात्कार होने पर मनुष्य जीवनमुक्त का जीवन व्यतीत करता है और मृत्यु आने पर जन्म-मरण से छूट जाता है।

 

वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। ईश्वरीय ज्ञान वेद के हम 3 मन्त्र पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। यह तीनों मन्त्र ऋग्वेद के दसवें मण्डल के हैं। मन्त्र हैं- अहम्भुवं वसु नः पूव्र्यस्पतिरहं धनानि संजयामि शश्वतः। मां हवन्ते पितरं जन्तवोऽहं दाशुषे विभजामि भोजनम्।1, दूसरा मन्त्रअहमिन्द्रो पराजिग्य इद्धनं मृत्यवेऽवतस्थे कदाचन। सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु मे पूरवः सख्ये रिषाथन।2 तीसरा मन्त्रअहं दां गृणते पूव्र्य वरवहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम्। अहं भुवं यामानस्य चोदितायज्वनः साक्षि विश्वरिमन्भरे।3 इन तीनों मन्त्रों के अर्थ हैं प्रथम मन्त्र- ईश्वर सब को उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान सब जगत् का पति हूं। मैं सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूं। मुझ ही को सब जीव, जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं, वैसे पुकारें। मैं सब को सुख देनेहारे जगत् के लिये नानाप्रकार के भोजनों का विभाग पालन क लिये करता हूं।1। मैं परमैश्वर्यवान् सूर्य के सदृश सब जगत् का प्रकाशक हूं। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूं। मैं ही जगत् रूप धन का निर्माता हूं। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले मुझ ही को जानो। हे जीवो ! ऐश्वर्य प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ से मांगो और तुम लोग मेरी मित्रता से पृथक मत होओ।2। हे मनुष्यों ! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझको वह वेद यथावत् कहता, उससे सब के ज्ञान को मैं बढ़ाता, मैं सत्पुरुष का प्रेरक, यज्ञ करने हारे को फल प्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है, उस सब कार्य का बनाने और धारण करनेवाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ कर किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।3 इन मन्त्रों को प्रस्तुत करने का हमारा अभिप्रायः पाठको को कुछ वेद मन्त्रों व उनके अर्थों से परिचित कराना है। सृष्टि की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु ईश्वरीय ज्ञान वेद का सभी को प्रतिज्ञापूर्वक नित्य प्रति स्वाध्याय करना चाहिये।

 

मनुष्य जब ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व ध्यान-उपासना करते हुए ईश्वर में मग्न हो जाता है तो समाधि के निकट होता है। कालान्तर में ईश्वर की कृपा होती है और जीवात्मा को ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होता है। इसका वर्णन करते हुए उपनिषद में कहा गया है कि जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, जिसने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त को लगाया है, उसको जो परमात्मा के योग का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता। क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उस को सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो जो काम करना होता है, वह वह करना चाहिये। यहां हम पुनः दोहराना चाहते हैं कि उपासना में सफलता के लिए महर्षि दयानन्द के सभी ग्रन्थों में स्तुति-प्रार्थना-ध्यान-उपासना के सभी प्रसंगों को ध्यान से देखकर उसे अपनी स्मृति में स्थापित करना चाहिये और तदवत् आचरण करना चाहिये।

 

उपासक वा योगियों को ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उपासना करते समय कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर से ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार का वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है और इसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, यह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है। यह शब्द महर्षि दयानन्द ने स्वानुभूति के आधार पर लिखे हैं। तर्क से भी यह सत्य सिद्ध हैं। अतः उपासक को इस प्रकार से उपासना करनी चाहिये जिसका परिणाम शुभ होगा और सफलता भी अवश्य मिलेगी।

 

यह भी विचारणीय है कि सभी मत मतान्तरों के अनुयायी भिन्न भिन्न प्रकार से उपासना व पूजा आदि करते हैं। क्या उन्हें उन्हें ईश्वर की प्राप्ति होती है वा नहीं? विचार करने पर हमें लगता है कि उससे लाभ नहीं होता, जो लाभ होता है वह उनके पुरूषार्थ तथा प्रारब्घ से होता है। ईश्वर के यथार्थ ज्ञान तथा योग दर्शन की विधि से उपासना किये बिना किसी को ईश्वर की प्राप्ति व धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि प्राप्त नहीं होती, यह स्वाध्याय व चिन्तन से स्पष्ट होता है। अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए सभी को वैदिक धर्म व वैदिक उपासना पद्धति का ही आश्रय लेना उचित है। यही ईश्वर प्राप्ती की एकमात्र सरल विधि है। अन्य प्रकार से उपासना से ईश्वर प्राप्ति सम्भव नहीं है।

मनमोहन कुमार आर्य

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