आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण……….- स्वामी विष्वङ्

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या-५

– स्वामी विष्वङ्

पिछले अंक का शेष भाग…..

इस सम्बन्ध में महर्षि मनु महाराज कहते हैं-

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।

योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः।।

-मनुस्मृति ५.१०६

अर्थात् संसार में बहुत प्रकार की शुद्धियाँ हैं परन्तु उन सभी प्रकार की शुद्धियों में से धन-संम्पति  की शुद्धि सबसे बड़ी शुद्धि है। जो-जो मनुष्य धन के विषय में शुद्ध हैं, वही-वही शुद्ध कहलाता है। बाकी मिट्टी से, जल से जो शुद्ध होने का दिखावा करते हैं, वह केवल दिखावा मात्र है। यथार्थता में अन्दर की पवित्रता से ही बाहर की वस्तुएँ पवित्र होती हैं, अन्यथा नहीं। यहाँ पर महर्षि मनु ने धनार्जन पर विशेष ध्यान दिया है। आजकल मनुष्य धनार्जन जिस किसी भी रीति से प्राप्त करने में जुटे हुए हैं अर्थात् धन पाने के लिए कैसी भी हिंसा कर सकते हैं। चाहे मनुष्य की चाहे पशु-पक्षियों की। धन के लालच से पूरे देश को डुबो सकते हैं। धन पाने के लिए किसी भी प्रकार का झूठ बोल सकते हैं। धनार्जन के लिए किसी भी प्रकार की चोरी कर सकते हैं। धन के लिए व्यभिचार कर सकते हैं। धन को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के पदार्थों का संग्रह कर सकते हैं। धन प्राप्त करने के लिए मन को अत्यन्त मलिन कर सकते हैं। अधिक से अधिक धन बनाने के लिए जीवन को असन्तोष में ढ़केलते हैं। धन के लिए तप का त्याग कर देते हैं और स्वाध्याय करना बन्द कर देते हैं। केवल धन के पीछे चलने वाले व्यक्ति ईश्वर आज्ञा का पालन कभी नहीं कर सकते। इस प्रकार यम और नियम का उल्लंघन करते हुए धनार्जन किया जाता है, तो ऐसे धन को अशुद्ध कहते हैं। इसलिए महर्षि वेदव्यास ने अनर्थ को अर्थ मानने वालों को अविद्या ग्रस्त माना है। इसीप्रकार अर्थ शब्द  से और भी अभिप्राय ले सकते हैं- जैसे भोजन आदि पदार्थ, वेदाज्ञा से विरुद्ध भोजन अपने आप में शुद्ध होने पर भी अशुद्ध माना जाता है। इसप्रकार अनेक उदाहरण हो सकते हैं।

‘तथा दुःखे सुखव्यातिं वक्ष्यति- ‘‘परिणामताप-संस्कार दुःखैर्गुणवृ   वृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’’ (योग. २.१५) इति। तत्र सुखख्यातिरविद्या

अर्थात् उसीप्रकार दुःख में सुख बुद्धि रखना अविद्या है, इस बात को लेकर स्वयं सूत्रकार महर्षि पतञ्जलि आगे इसी साधन पाद के पन्द्रहवें सूत्र में वर्णन करेंगे। मनुष्य के सुख में, शान्ति में, तृप्ति में, निर्भयता में और स्वतन्त्रता में दुःख अत्यन्त बाधक है। यदि जीवन में दुःख है तो न सुख, न शान्ति, न तृप्ति, न निर्भयता और न ही स्वतन्त्रता रहेगी। इसलिए महर्षि पतञ्जलि ने दुःख को अलग से परिभाषित करने के लिए अलग सूत्र बनाया और महर्षि वेदव्यास ने उस सूत्र की विस्तृत व्याख्या की है। उसकी व्याख्या उसी सूत्र पर देखलेंगे इसलिए यहाँ पर उसकी चर्चा नहीं करते हैं।

महर्षि वेदव्यास अविद्या के चौथे भाग की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-

तथानात्मन्यात्मख्यातिर्बाह्योपकरणेषु चेतनाचेतनेषु भोगाधिष्ठाने वा शरीरे, पुरुषोपकरणे वा मनस्यनात्मन्यात्मख्यातिरिति।

अर्थात् जो अनात्मा= जड़ पदार्थ में आत्म=चेतन बुद्धि रखना अविद्या है। मनुष्य जड़ वस्तु को चेतन वस्तु मानकर व्यवहार करता है। यह बहुत बड़ी अविद्या है। मनुष्य के प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए बहुत कुछ साधनों की अपेक्षा रहती है। मनुष्य अपने से अलग बाहर के साधनों का प्रयोग करता है उन बाहर के साधनों को महर्षि ने बाह्य-उपकरण शब्द  से कथन किया है। बाह्य-उपकरण दो प्रकार के हैं- चेतन के रूप में और जड़ के रूप में। यहाँ जो साधन जड़ के रूप में हैं वे- धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि हैं और जो साधन चेतन के रूप में हैं वे- माता, पिता, पति, पत्नी, भाई, बहन, सम्बन्धी, समाजी, देशवासी, विश्ववासी मनुष्य और इनके अतिरिक्त मनुष्येतर प्राणी- पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि। ये सब (अर्थात् चेतन और अचेतन) मनुष्य के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं। उनके बिना मनुष्य का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए महर्षि ने उन्हें बाह्य-उपकरण कहा है। यहाँ पर बाह्य-उपकरण जड़ भी हैं और चेतन भी हैं। जड़ को चेतन माना जा रहा है अर्थात् धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि को मनुष्य चेतन मानकर दुःखी होता रहता है। यद्यपि शब्दों  से मनुष्य को समझ में नहीं आता कि ‘मैं धन को कैसे चेतन मानता हूँ, मैं तो धन को जड़ ही मानता हूँ इत्यादि।’ परन्तु व्यवहार करते समय व्यक्ति धन को चेतन ही मानता हुआ दुःखी होता है। इसका उदाहरण महर्षि स्वयं आगे की व्याख्या में करेंगे।

बाह्य-उपकरण में जड़ वस्तुओं को चेतन मानना तो अविद्या है परन्तु महर्षि ने चेतन को भी बाह्य-उपकरण माना है। फिर चेतन को चेतन मानने में अविद्या कैसे हो सकती है? इसका समाधान है कि यहाँ पर चेतन शब्द  का प्रयोग आत्मा के लिए नहीं आया बल्कि चेतन शब्द  शरीर के लिए आया है। इसलिए यहाँ पर शरीरों को ही लेना चाहिए। मनुष्य शरीर को भी चेतन मानता है। इस कारण यह अविद्या है न कि चेतन को चेतन मानना अविद्या है। मनुष्य जहाँ अन्य लोगों के शरीरों को चेतन मान लेता है वहाँ स्वयं के शरीर को भी चेतन मानता है। इसलिए महर्षि ने कहा- ‘भोगाधिष्ठाने वा शरीरे’ अर्थात् मनुष्य जो भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श व शब्द  वाले पदार्थों का भोग (=सुख रूप में या दुःख रूप में) करता है, वह भोग जिस आश्रय से करता है उसे शरीर कहते हैं। ऐसे साधन रूप (स्वयं के) शरीर को चेतन मानता है। शरीर जड़ है फिर भी मनुष्य अपने शरीर को चेतन मानकर व्यवहार करता है। इसे अविद्या ही कहा जाता है। महर्षि ने जहाँ बाह्य-उपकरणों को लेकर कहा है वहाँ आन्तरिक उपकरण के सन्दर्भ में भी कहा है कि-

पुरुषोपकरणे वा मनस्यनात्मन्यात्मख्यातिरिति।

अर्थात् आत्मा का अत्यन्त निकट उपकरण=साधन मन को आत्मा समझना अविद्या है। मनुष्य मन को ही आत्मा समझ कर सम्पूर्ण व्यवहार करता है। यह बोलता हुआ देखा जाता है कि मेरा मन ऐसा करता है, मेरा मन नहीं मानता, मेरा मन चला गया इत्यादि। यद्यपि मनुष्य शब्दों  से मन को स्थूल बुद्धि से जड़ तो मानता है परन्तु आन्तरिक सूक्ष्म बुद्धि से मन को चेतन ही मानता है। मनुष्य जब तक समाधि लगा कर अनुभव नहीं करता तब तक सूक्ष्मता से मन को चेतन मानता है। हाँ, यह अलग बात है कि वाणी से नहीं बोलता, परन्तु उसका व्यवहार चेतन मान कर ही होता रहता है।

मनुष्य जड़ वस्तु (= धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि) को चेतन कैसे मानता है- कौन भला धन को या भूमि को या मकान को चेतन मानेगा? यह कैसे हो सकता है? हाँ, हो सकता है इसीकारण महर्षि ने कहा जड़ को चेतन मानता है। कैसे?

तथैतदत्रोक्तम् व्यक्तमव्यक्तं वा स वमात्मत्वेनाभिप्रतीत्य

तस्य सम्पदमनुनन्दत्यात्मसम्पदं मन्वानस्तस्य व्यापद-मनुशोचत्यात्मव्यापदं मन्वानः स सर्वोऽप्रतिबुद्ध इति।

अर्थात् इस अविद्या के चौथे प्रकार को जो कि जड़ को चेतन किसप्रकार माना जाता है इस सम्बन्ध में अन्य ऋषि कहते हैं कि व्यक्त (जिन में चेतन आत्मा रहता है वह शरीर) चेतन पदार्थ- जैसे- पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी आदि और पशु, पक्षी आदि अन्य प्राणि। अव्यक्त (धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि) पदार्थ को आत्मा मानकर उन चेतन अचेतन रूप जड़ पदार्थों की समृद्धि-उन्नति-बढ़ोत्तरी  को देखकर अपनी समृद्धि- बढ़ोत्तरी  मानता हुआ व्यक्ति अति प्रसन्न होता रहता है। उसीप्रकार उन जड़ चेतन पदार्थों की विपत्ति -हानि-ह्रास-न्यूनता-विनाश को देखकर अपनी  विपत्ति -हानि-ह्रास-विनाश मानता हुआ शोकग्रस्त होता है- दुःखी होता है। इसप्रकार मानने वाले वे सभी मनुष्य नितान्त अज्ञानी-मूर्ख हैं, ऐसा समझना चाहिए। यह अविद्या की पराकाष्ठा का उदाहरण है।

यहाँ पर धन, भूमि आदि की वृद्धि होने पर मनुष्य यह मानता और बोलता भी है कि ‘मैं बढ़ रहा हूँ, मैं उन्नत हो रहा हूँ, मेरी बढ़ोत्तरी  हो रही है इत्यादि।’ यहाँ मैं से आत्मा लिया जाता है। व्यक्ति आत्मा में वृद्धि मानता है। जबकि आत्मा नित्य पदार्थ है जिस रूप में है उसी रूप में सदा रहेगा। नित्य पदार्थ में न वृद्धि होती है, न न्यूनता आती है, फिर यह कैसे स्वीकार किया जा रहा है कि ‘मैं बढ़ रहा हूँ’ इत्यादि। इसीप्रकार पुत्र व पुत्री के शरीरों में वृद्धि होने पर माता-पिता यह मानते हैं कि ‘हम बढ़ रहे हैं, हमारे अंश बढ़ रहे हैं या हम ही बढ़ रहे हैं इत्यादि।’ जिसप्रकार जड़ व चेतन पदार्थों की वृद्धि से आत्मा की वृद्धि स्वीकार किया जा रहा है उसी प्रकार जड़ पदार्थों में न्यूनता-कमी या विनाश होने पर व्यक्ति अपनी न्यूनता-कमी या विनाश मानता है। उदाहरण के लिए धन कम हो जाये या डूब जाये अथवा कोई हड़प लेवें, तो मनुष्य यह कहता है कि ‘हाय! मैं डूब गया, मैं कम हो गया, मैं लुट-पिट गया, मेरा नाश हो गया इत्यादि।’ यदि पुत्र व पुत्री में न्यूनता आ जाये तो माता-पिता अपनी न्यूनता-कमी मानते हैं। अपना अंश कम हो गया, ऐसा मानते हैं और यदि कोई अपना मृत्यु को प्राप्त हो जाये, तो और अधिक अपना नाश-अपनी हानि समझ कर अत्यन्त दुःखी होते हैं। यहाँ पर वे आत्मा का नाश अनुभव करते हैं। यह इस बात का द्योतक है कि वे जड़ को चेतन मान कर व्यवहार में अत्यन्त दुःखी होते हैं। इसलिए यह अविद्या है।

महर्षि वेदव्यास उपसंहार करते हुए लिखते हैं-

एषा चतुष्पदा भवत्यविद्या मूलमस्य क्लेशसन्तानस्य कर्माशयस्य च सविपाकस्येति।

अर्थात् यह अविद्या चार विभागों वाली है, इसके साथ-साथ यह अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश नाम वाले क्लेशों का मूल कारण है। इतना ही नहीं आत्मा को सुख और दुःख रूप फलों को देने वाले कर्म समुदाय का भी कारण है। यहाँ पर मूल का अभिप्राय है बीज। बीज से ही उस जैसी सन्तान उत्पन्न होती है। इसकारण अस्मिता आदि उसकी सन्तान होने के कारण क्लेशों में अविद्यापन विद्यमान रहता है। कर्माशय भी तब बनता है जब क्लेश विद्यमान हो। इसलिए यहाँ महर्षि ने अविद्या को कर्मसमुदाय का कारण भी बताया है।

अभी तक जिस अविद्या को लेकर जो चर्चा की गई है क्या वह अविद्या स ाात्मक है या विद्या का अभाव मात्र है? कभी कोई ऐसा न समझ बैठे कि अविद्या का अभिप्राय विद्या का अभाव मात्र है। ऐसा बिल्कुल नहीं है फिर क्या है? यहाँ अविद्या का अभिप्राय सत्तात्मक  विरोधी ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) है जिसको अविद्या शब्द  से कथन किया जाता है। इसी बात को लेकर महर्षि वेदव्यास स्पष्ट करते हैं-

तस्याश्चामित्रागोष्पदवद्वस्तुसतवं विज्ञेयम्।

अर्थात् उस अविद्या को ‘अमित्र’ और ‘अगोष्पद’ शब्दों के अर्थों के समान वास्तविक-यथार्थ भावात्मक सत्ता है, ऐसा समझना चाहिए। अमित्र और अगोष्पद शब्दों  का अर्थ स्वयं ऋषि आगे लिखते हैं। परन्तु यहाँ पहले ‘अविद्या’ शब्दों में जो समास है उस पर विचार करते हैं। अविद्या शब्द में ‘नञ्’ त     पुरुष समास है न विद्या अविद्या इति। जो विद्या नहीं है अर्थात् विद्या से विरोधी अविद्या है जिसे मिथ्याज्ञान-विपरीतज्ञान-उल्टाज्ञान शब्दों से कहा जाता है। महर्षि अमित्र व अगोष्पद शब्दों के अर्थों को बताते हुए कहते हैं-

यथा नामित्रो मित्राभावः न मित्रमात्रं किन्तु तद्विरुद्धः सपत्नः।

अर्थात् जिसप्रकार से अमित्र श द का अर्थ मित्र का अभाव नहीं है और न तो मित्र ही है बल्कि उस मित्र का विरोधी भावात्मक-सत्तात्मक  शत्रु है।

यथा चागोष्पदं न गोष्पदाभावो न गोष्पदमात्रं किन्तु देश एव ताभ्यामन्यद्वस्त्वन्तरम्।

अर्थात् जिसप्रकार अगोष्पद श द का अर्थ गाय के पैर का अभाव नहीं है और न तो गाय का पैर ही है किन्तु भावात्मक- सत्तात्मक  एक देश विशेष है- स्थान विशेष है। गाय के पैर और उसके अभाव से भिन्न अलग वस्तु है। इसप्रकार अमित्र का अर्थ शत्रु और अगोष्पद का अर्थ स्थान विशेष है। यहाँ ‘नञ्’ समास से मित्र के विरोधी अर्थ और गाय के पैर से विरोधी अर्थ को बताना मुख्य था।

इसी प्रकार

एवमविद्या न प्रमाणं न प्रमाणाभावः किन्तु विद्याविपरीतं ज्ञानान्तरमविद्येति।

अर्थात् यह जो अविद्या नाम वाला क्लेश है वह न तो किसी भी प्रकार के प्रमाणों के अन्तर्गत आता है अर्थात् वह ज्ञान या विद्या है और न ही वह विज्ञान या विद्या का अभाव मात्र है। बल्कि वह विद्या का विरोधी भिन्न ज्ञान है जिसे मिथ्याज्ञान नाम से कथन किया जाता है। इसलिए कोई भी यहाँ अविद्या का अर्थ अभाव के रूप में न समझें। यहाँ पर एक और भी बात समझ लेना चाहिए कि जब अविद्या के चार भेदों का वर्णन किया जा रहा है और अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश का बीज बताया जा रहा है तब यह कैसे समझ सकते हैं कि अविद्या का अभिप्राय अभाव मात्र है। ऐसा बिल्कुल नहीं। फिर भी कोई समझ सकता हो, तो उसके लिए उपरोक्त समाधान है, ऐसा समझना चाहिए। ऋषियों का बहुत बड़ा उपकार हम सब पर रहता है कि वे अपनी ओर से किसी भी प्रकार की भ्रान्ति या संशय को अवसर नहीं देते हैं। फिर भी हम साधारण बुद्धि वाले भ्रम या संशय उत्पन्न करके ऋषियों पर दोष मड़ते हैं। यह हम सब की उन्नति में बाधक है, ऐसा हमें समझना चाहिए।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

राष्ट्रीय पुस्तक क्या हो? डॉ धर्मवीर

समय-समय पर भारतीय गौरव की चर्चा में इस देश के साहित्य की भी चर्चा होती है। अंग्रेजों ने देश को दास बनाने के लिए यहाँ के गौरव को नष्ट किया है, ऐसे समय में किसी गौरव पूर्ण बात की चर्चा अच्छी लगती है। प्रधानमन्त्री मोदी ने जापान जाकर वहाँ के प्रधानमन्त्री को गीता की पुस्तक भेंट की तो गीता पर फिर से चर्चा चलने लगी। लोगों ने गीता के महत्व  को रेखांकित करने के लिए गीता को राष्ट्र ग्रन्थ घोषित करने की माँग कर दी, विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने अपने कार्यक्रम में कह दिया, सरकार तो गीता को राष्ट्र ग्रन्थ मानती है, बस केवल घोषणा करनी शेष है? विदेश मन्त्री के कथन से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के पेट में दर्द होना स्वाभाविक था। गीता का विरोध प्रारम्भ हो गया। कहा जाने लगा यह देश विभिन्न धर्मों का देश है, किसी एक धर्म पुस्तक को राष्ट्र ग्रन्थ घोषित नहीं किया जा सकता, इस वाद-विवाद में राष्ट्र ग्रन्थ घोषित करने की बात दब गई।

हमारे देश में किसी वस्तु, व्यक्ति, प्राणी को महत्व देने के लिए व्यक्ति, वस्तु आदि को राष्ट्रीय गौरव प्रदान करके राष्ट्र पण्डित, राष्ट्र कवि, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय चिह्न आदि घोषित करते हैं। इस प्रकार देशवासियों के मन में इन का सम्मान बढ़ाते हैं, उनका संरक्षण और प्रचार-प्रसार भी कर देते हैं। इसी क्रम में गीता को राष्ट्र ग्रन्थ बनाने की माँग उठती है। प्रथम तो यह बात ध्यान देने योग्य है कि गीता को धर्म पुस्तक का स्थान दिया गया है। न्यायालय में गीता पर हाथ रखकर शपथ दिलाई जाती है। इसी प्रकार कुरान और बाईबिल की पुस्तक पर हाथ रखकर भी शपथ दिलाई जाती है, शपथ लेने के लिए व्यक्तिगत विश्वास को काम में लिया जाता है। जो लोग नानाधर्मी का देश बताकर गीता का विरोध करते हैं, वे या तो पक्षपाती हैं, उनमें स्वाधीनता और दासता का बोध नहीं है। देश में क्या कुरान को धर्म ग्रन्थ बनाया जा सकता है? हाँ, बनाया जा सकता है जिस दिन इस देश की सत्ता  इस्लाम स्वीकार कर ले। यही परिस्थिति बाईबिल की भी हो सकती है। यदि कभी ऐसा हो भी जाये तो क्या इससे इस देश का गौरव बढ़ेगा? गौरव तो नहीं बढ़ेगा किन्तु दासता का इतिहास बढ़ेगा। यदि यह देश ईसाई बहुल बन जाय तो निश्चित रूप से यहाँ का धर्म ग्रन्थ बाईबिल हो जायेगा। अमेरिका में सभी को अपना धर्म ग्रन्थ मानने की स्वतन्त्रता है परन्तु बाईबिल सर्वोपरि है।

धर्मग्रन्थ को राष्ट्रीय महत्व  देने के पीछे देश के गौरव को प्रदर्शित करने का विचार रहता है। गीता इस देश के इतिहास और परम्परा के प्रतीक  के रूप में स्वीकार की जाती है। इसका कर्म करने, फल में आसक्त न होने का विचार किसी भी बुद्धिमान् व्यक्ति को आकर्षित कर सकता है, वर्तमान में देशी-विदेशी विद्वानों में इसके प्रति रुचि रही है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के नायक लोकमान्य तिलक ने गीता रहस्य लिखकर गीता को समाज का मार्गदर्शक बनाया। महात्मा गाँधी ने भी उसे अपनी प्रेरणा का स्रोत बताया। विदेशी विद्वानों में प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन को गीता का प्रेमी बताया जाता है, ऐसे में गीता की बात को साम्प्रदायिकता से या धर्म निरपेक्षता से जोड़कर देखना दास मानसिकता के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। यह विरोध प्रथम तो हिन्दू विरोध को प्रगतिशीलता मानने वालों की मानसिकता है, दूसरा विरोध का कारण अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की प्रवित्ति है। ये दोनों ही बातें बुद्धि और औचित्य से रहित हैं, अतः निन्दनीय हैं।

यही एक और बात पर भी विचार करना उचित होगा क्या गीता भारतीय ज्ञान परम्परा का सर्वोत्कृष्ट और सर्वोच्च ग्रन्थ है? क्या कोई और भी ग्रन्थ हैं। इस पर विचार करते हुए विचारणीय प्रश्नों में पहला प्रश्न है- क्या गीता कोई ग्रन्थ है? क्या गीता श्री कृष्ण की रचना है? पहली बात गीता कोई स्वन्तत्र ग्रन्थ नहीं है। गीता महाभारत के एक छोटे से भाग का नाम है। महाभारत में अनेक गीता विद्यमान हैं, हिन्दू समाज में कृष्णार्जुन संवाद को प्रमुख स्थान मिला है, अतः समाज में इसका प्रचार-प्रसार बहुत हुआ। वर्तमान में गीता प्रेस जैसे संस्थान में गीता के प्रचार-प्रसार में बहुत योगदान दिया है। पठन-पाठन की परम्परा में भी इसे पाठ्यक्रम में स्थान मिला। हिन्दी में रामचरित मानस जैसे ग्रन्थ धर्मग्रन्थ के रूप में प्रचलित हैं, उसी प्रकार उससे पूर्व से गीता का हिन्दू समाज में धर्म ग्रन्थ के रूप में प्रचार-प्रसार चला आ रहा है। गीता के सम्बन्ध में जानने योग्य तथ्य है, गीता कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है, न ही इसके रचयिता श्री कृष्ण, महाभारत काल में युद्ध समय दिये गये उपदेश को महाभारत की रचना करने वाले ने संकलित कर दिया है। जिस प्रकार महाभारत में प्रक्षेप या मिलावट है उसी प्रकार उसी अनुपात में गीता में भी प्रक्षेप मिलावट है। गीता के श्लोकों की संख्या भी कम अधिक देखने में आती है। बाली द्वीप में प्राप्त गीता में केवल अस्सी श्लोक प्राप्त होते हैं जबकि वर्तमान गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित गीता में सात सौ श्लोक मिलते हैं। इनके भाष्यकार बहुत हुए और उन्होंने बहुत तरह से अर्थ किये हैं परन्तु गीता का महत्व पुरुषार्थ करने की प्रेरणा है। गीता को आज वेदान्त का प्रसिद्ध ग्रन्थ माना जाता है। वेदान्त पर व्याख्यान करने वाले, वेदान्त पढ़ने-पढ़ाने वाले, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता को मिलाकर प्रस्थानत्रयी कहते हैं और तीनों में वेदान्त की पूर्णता मानते हैं। वेदान्त के इन तीन ग्रन्थों में सबसे प्राचीन उपनिषद् है फिर इनके व्याख्यान रूप में ब्रह्मसूत्र है और उसके भी बाद गीता का स्थान आता है। जो लोग गीता का महत्व  पढ़ते हैं, उनमें एक श्लोक पढ़ा जाता है- सर्वोपनिषदः गावो– जिसका अर्थ है- सब अर्थात् उपनिषद् गौवें हैं,  श्री कृष्ण गोपाल है, अर्जुन वत्स अर्थात् बछड़ा है और उनका दूध गीतामृत है।  इस क्रम में गीता का स्थान तीसरा, वेदान्त का मूल उपनिषद् है, ब्रह्मसूत्र गीता उसका व्याख्यान है। मूल से कभी व्याख्यान महत्वपूर्ण  हो सकता है परन्तु यहाँ उपनिषदों का महत्वकम नहीं है, संस्कृत के पठन-पाठन की न्यूनता से उनका प्रचार-प्रसार गीता की अपेक्षा कम है। गीता में और उपनिषदों में एक समानता है, वह यह कि गीता भी स्वतन्त्र रचना नहीं है और सभी उपनिषद् भी स्वतन्त्र पुस्तकों के रूप में किसी के द्वारा नहीं लिखी गई हैं। वैसे आज उपनिषद् ग्रन्थों की संख्या सैकड़ों में हैं, परन्तु विद्वत् समाज में दस या ग्यारह उपनिषद् ही स्वीकार्य हैं और सभी ग्रन्थ ब्राह्मण, शाखा ग्रन्थ या वेद के भाग हैं। इनमें ईशोपनिषद् का सबसे अधिक महत्व है और वह इस कारण है कि उपनिषद् के दो मन्त्रों को छोड़ कर सभी मन्त्र यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र हैं। इसप्रकार सारी उपनिषदें वैदिक साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में से आत्मा और परमात्मा को लेकर लिखी गई चर्चा को लेकर पृथक्-पृथक् पुस्तक के रूप दिया गया है। इस प्रकार उपनिषद्, वेदान्त शास्त्र की प्रामाणिक पुस्तकें हैं। स्वाध्यायशील लोग भली प्रकार जानते हैं कि उपनिषदों को वेदान्त नाम क्यों दिया गया है- वेदान्त शब्द  का अर्थ होता है वेद का रहस्य, वेद का प्रयोजन, वेद का प्रयोजन जहाँ संसार में मनुष्य को किसप्रकार जीवनयापन करना चाहिए यह सिखाता है उसीप्रकार हमारे संसार में आने का और मनुष्य जीवन पाने का परम प्रयोजन आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना है। इस प्रयोजन का नाम ही वेदान्त है। इस प्रयोजन की सिद्धि के बिना- गीता, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ या वेद का कोई महत्व नहीं रहता।

गीता की चर्चा करने वालों को ध्यान में रहना चाहिए गीता वेदान्त का ग्रन्थ है, वेदान्त ब्रह्मसूत्र का भी नाम है, ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के सन्देह स्थलों की और कठिन शब्दों  की व्याख्या करने वाली पुस्तक उपनिषदों के मूल ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थ हैं, जिन ग्रन्थों को तीन भागों में बांटा गया है, सम्पूर्ण ग्रन्थ का नाम ब्राह्मण ग्रन्थ है, उसी के एक भाग को आरण्यक कहते हैं, इसी के एक भाग जिसमें आत्मा-परमात्मा की चर्चा है, उसे उपनिषद् नाम से सम्बोधित किया जाता है। जिन ब्राह्मण ग्रन्थों के भागों को उपनिषद् कहते हैं, उन ब्राह्मण ग्रन्थों को ब्राह्मण इसलिए कहते हैं क्योंकि ब्रह्म वेद को कहते हैं और वेद के व्याख्यान को ब्राह्मण कहते हैं। वेद के व्याख्यान होने के कारण इन्हीं को कहीं वेद भी कह दिया गया है। इस प्रकार गीता का मूल है वेदान्त, वेदान्त का मूल है उपनिषद् ग्रन्थ, उपनिषदों का मूल है ब्राह्मण ग्रन्थ और ब्राह्मण ग्रन्थों के मूल हैं चार वेद संहिता। इतने लम्बे-चौड़े वैदिक साहित्य में गीता का स्थान कहाँ आता है और इसका कितना मह      व है यह विचारशील लोगों के लिए समझना कठिन नहीं है।

हमारे गीता प्रेमी पौराणिक मित्रों का गीता प्रेम आत्मा-परमात्मा का दर्शन को लेकर नहीं है। पौराणिक मित्रों के गीता प्रेम का मुख्य कारण कृष्ण को अवतार और भगवान मानने के कारण है। यदि गीता के एक ही श्लोक को राष्ट्रीय वाक्य बताने के लिए कहा जाये तो वे यदा यदा हिश्लोक को राष्ट्र का आदर्श वाक्य घोषित कर दें। इन मित्रों को गीता के पुरुषार्थ प्रेरणा से उतना प्रेम नहीं है जितना गीता विश्वदर्शन प्रकरण से है वे तो श्री कृष्ण के बाल मुख में विश्वदर्शन से गद्गद् रहते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्रधारी रूप उतना आकर्षित नहीं करता जितना राधा के साथ बांसुरी बजाने वाला रूप अपनी ओर खींचता है। इन मित्रों का मन्त्र है- राधे-राधे बोल, चले आयेंगे बिहारी। ऐसे प्रेमियों को कर्मण्येव…. अधिकार की पंक्तियाँ कैसे आकर्षित कर सकती हैं। गीता सम्मेलनों में गीता पर माला चढ़ा कर, उसके सामने दीप जला कर अपनी श्रद्धा प्रकाशित करने वालों के मन में गीता को राष्ट्र ग्रन्थ बनाने की इच्छा है तो उसके श्री कृष्ण को भगवान सिद्ध करने वाले प्रकरण से है। गीता की इन प्रक्षिप्त पंक्तियों को निकाल कर गीता को धर्म ग्रन्थ बनाने की चर्चा की जाये तो सम्भवतः उन्हें रुचिकर न लगे। गीता में स्त्रियों को, वैश्यों को अन्त्य=निम्न योनियों में गिनने वाली पंक्तियाँ भी गीता पंक्तियाँ ही लगेंगी या तुलसी की ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी की ग्राह्य व्याख्या करने के प्रयत्न यहाँ भी व्याख्या में लगा लेंगे।

गीता की प्रशंसा और उपयोगिता में कोई बात है तो वह है जिस अर्जुन ने शस्त्र छोड़कर युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। ऐसे अर्जुन को पुनः युद्ध के लिये तैयार कर दिया था। गीता के प्रारम्भ के छः अध्याय और अन्त के छः अध्यायों में उपदेश और दर्शन की बातें कहीं गई हैं, परन्तु मध्य में अवतारवाद और व्यर्थ की बातों की भरमार है। गीता जिस प्रकार वेदान्त की व्याख्या उसके अनुसार गीता का मूल स्वर है बिना किसी भय और पक्षपात के अपने कर्तव्य  का पालन करना। मनुष्य जीवन समाप्ति के भय से, संघर्ष करने से पीछे हट जाता है तथा पक्षपात के भाव से कर्तव्य  की उपेक्षा करता है। श्री कृष्ण ने गीता में- न योत्स्य- मैं नहीं लडूँगा, कहने वाले अर्जुन को- करिष्ये वचनन्तव- जो भी तु कहेगा वह सब करने के लिए तैयार हूँ- यहाँ तक पहुँचा दिया यही और इतनी ही गीता है। गीता के सात सौ श्लोक यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मात्र दूसरे मन्त्र की व्याख्या है। इस मन्त्र में कहा गया है, मनुष्य को इस संसार में आकर सदा कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करनी चाहिए। इस कर्म करने की शर्त है कर्म करना है परन्तु उसके बन्धन में नहीं पड़ना है, बन्धन का कारण है- फल की इच्छा करना। इच्छा ही बन्धन का मूल है। यदि इच्छा रहित कर्म किया जाय तो बन्धन से मनुष्य बच सकता है इसे ही शास्त्र की भाषा में कर्     ाव्य कहा गया है। कर्       ाव्य करने में भय और पक्षपात नहीं होते, इसे ही गीता की भाषा में अनासक्त कर्म कहा है, आसक्ति का अर्थ है फंसना, न फंसना है अनासिक्त, यही वेद कहता है जिसकी व्याख्या गीता में भी है, अब आपको सोचना है आपका राष्ट्र ग्रन्थ क्या हो? वेद का मन्त्र है-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

– धर्मवीर

हिंदूइस्म धर्म या कलंक का प्रत्युतर

हिन्दू धर्म पर कटाक्ष करती ओर अंट शंट झूटे आरोपों से युक्त एक अम्बेडकरवादी ऐ आर बाली ने हिन्दू धर्म पर पुराणों के अलावा वेदों के सन्धर्भ से आरोप लगाया कि वेदों में पिता पुत्री ,माता पुत्र , भाई बहन आदि के बीच योन सम्बन्धो की छुट थी | वेसे आपको बता दे हम पुराणों को प्रमाण नही मानते क्यूंकि पुराण काफी बाद के है ओर उनमे सत्य इतिहास भी होना सम्भव नही लेकिन फिर भी आपके कुछ तथ्य पुराणों से जांचते है ..
एक बात ओर ध्यान रखिये यदि किसी एतिहासिक घटना में कोई बुद्धि विरोध या अश्लील प्रसंग आता है तो उसका ये मतलब नही कि वो उसके धर्म का या संस्कृति का अंग है ..जेसे जापान में पिता पुत्री .माँ बेटे के बीच सम्बन्ध बनाने को कानूनी मान्यता मिली है जिसे गूगल पर लीगल इन्सेक्ट लिख कर देख सकते है तो क्या हम ये माने कि बोद्ध धम्म इन सबकी आज्ञा देता है | अब आपके आरोप को देखते है –

आपका कहना है कि पिता पुत्री के सम्बन्ध वैदिक काल में उचित थे महाशय जी जरा वेदों के बारे में भी देखिये वेद इस बारे में क्या कहते है -स लक्ष्मा यद विषुरूपा भवाति -अर्थव ८/१/२ अर्थात सगे सम्बन्धियों की कन्या से सम्बन्ध रखना बड़ा ही विषम है | आप तो वैदिक काल में कुछ ओर बता रहे थे जबकि वेदों में तो मौसी की लडकी , मामी की लडकी बुआ की लडकी आदि सगे सम्बन्धियों की कन्या से सम्बन्ध का निषेध है | ओर देखिये – ” पापामाहुर य: स्वसार निग्च्छात ” अर्थव १८/१/१४ अर्थत वो पापी है जो बहन से सम्बन्ध या विवाह करता है | देखा आपने वेदों में ऐसे सम्बन्धो का निषेध है | लेकिन क्या आप जानते है कि आपके ही भगवान बुद्ध ने अपने बुआ की लडकी यशोधरा से विवाह किया था अर्थात बुद्धो में इन सबकी छुट है आर्यों में नही |
आप मनुस्मृति का निम्न श्लोक भी देखिये –
” असपिंडा च या मातुरसगोत्र च या पितु:| 
सा प्रशस्ता द्विजातीना दारकर्माणि मैथुन || मनु ३:५ || ” अर्थत जो स्त्री माता की छ पीढ़ी ओर पिता के गोत्र की न हो विवाह करने के लिए उत्तम है | 
देखो आर्यों में तो सगोत्र विवाह या सम्बन्ध तक का निषेध है फिर आप ये कहा से ले आये |
अब आपके दिए उदाहरण देखते है – आपने लिखा वशिष्ठ का विवाह शतरूपा से हुआ | वाह क्या कहना आपका ये सब जानते है कि स्वयभू मनु की पत्नि का नाम शतरूपा था | देखिये ब्रह्माण पुराण २/१/५७ में शतरूपा को मनु की पत्नि बताया है ओर धरती के पहले स्त्री पुरुष | फिर आपने लिखा इला का विवाह मनु से ,,,ये भी आपकी मुर्खता कहे या कुंठा समझ नही आता लेकिन ये भी पौराणिक बन्धु जानता है कि मनु की पुत्री इला थी ओर उसका विवाह चन्द्रमा (सोम ) के पुत्र बुद्ध से हुआ जिनका एक पुत्र पुरुरवा था जिससे पुरु वंश चला |
आपने ये भी लिखा है कि दोहित्र ने अपनी पुत्री का विवाह पिता चन्द्र से किया लेकिन उपर देखिये चन्द्र की पत्नि तारा थी जो ब्रहस्पति की पुत्री बताई है | उसी से बुध उत्पन्न हुआ था | मत्स्य पुराण में ऋषि अत्रि ओर अनसूया का पुत्र चन्द्र या सोम बताया है | आपने सूर्य की पुत्री उषा बताई लेकिन पुराणों में सूर्य के पुत्री में यमुना का उलेख है जो कि यम की बहन है | आपने अपने दिमाग के आधार पर सारा इतिहास गढ़ लिया | वेसे आप लोगो के विरोधाभास का क्या कहना एक तरफ तो हिन्दू ग्रंथो को काल्पनिक तो दूसरी तरफ अपना उल्लू सीधा करने के लिए उन्ही का साहरा लेते हो | एक बात पर रुकिए काल्पनिक है तो सब काल्पनिक ही मानिए |
आपने एक प्रथा यज्ञ में अपने मन से गढ़ ली जिसका उलेख न वेदों में है ,न श्रोतसूत्रों में ओर न ही ब्राह्मण ग्रंथो में है वामदेव विर्कत | इसी पुष्टि में आपने सत्यवती ओर पाराशर का उदाहरण भी दिया | लेकिन आपकी कुंठा का क्या कहना महाभारत में जो स्थल नौका का था क्यूंकि सत्यवती एक मछुआरिन थी ,उसे आपने यज्ञ स्थल अपनी गोबरबुद्धि से कर दिया | वो महाभारत का प्रसंग है ओर महाभारत में उतरोतर श्लोक बढ़ते गये है जिनमे हो सकता है ये पूरा प्रसंग प्रक्षेप हो फिर भी जेसा आपने यज्ञ स्थल की बात की है तो बताइए सत्यवती के पिता ने कौनसा यज्ञ का अनुष्ठान किया | ओर यदि महाभारत ,रामायण में पाराशर ओर सत्यवती आदि के जेसे कोई अनुचित सम्बन्ध मिलते है तो इसका ये अर्थ नही कि वो उस संस्कृति या धर्म का सिद्धांत हो गया जेसा मेने उपर ही बता दिया है वो एक घटना मात्र है | आपने योनि शब्द की भी कल्पना कर ली ओर अयोनि की भी पता नही कहा से आपने संस्कृत ,हिंदी का ज्ञान लिया ये तो आप ही जाने लेकिन योनि या योनिज उन्हें बोलते है जो मैथुन आदि से उत्त्पन्न हो जेसे स्तनधारी प्राणी ,सर्प आदि ओर अयोनिज उसे बोलते है जो अमेथुनी अर्थात बिना मैथुन से उत्पन्न होए जेसे क्लोन , पसीने से उत्पन्न कीट , वर्षा ऋतु में उत्त्पन्न मच्छर , मछलिय आदि | इसके लिए वैशेषिक दर्शन भी देख सकते है | अपने पक्ष की पुष्टि के लिए आपने द्रोपती ओर सीता का उदाहरण दिया | आपने बताया कि द्रोपती की उत्त्पति घर के बाहर हुई जबकि महाभारत में ही लिखा है कि एक यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा द्रोपती की उत्त्पति राजा द्रुपद के समक्ष हुई | आपने बाहर का काल्पनिक प्रसंग कहा से गढ़ लिया | आपने सीता का उदाहरण दिया | वेसे आपको बता देंवे महाभारत की तरह रामायण में भी प्रक्षेप है इसका उदाहरण है – चतुविशतिसहस्त्रानि श्लोकानाक्त्वान ऋषि:| तत: सर्गशतान पंच षटकाण्डानि तथोत्तरम ||बालकाण्ड ४/२ अर्थात रामायण का निर्माण २४००० श्लोको पांच सौ सर्ग ओर छह कांडो में कहा गया | जबकि आज प्राप्त रामायण में २५००० श्लोक ओर ७ काण्ड है इससे पता चलता है रामायण में प्रक्षेप है |
सीता जनक की ही पुत्री थी इसका प्रमाण रामायण के निम्न स्न्धर्भो से ज्ञात होता है -रामायण में अनेक जगह सीता को जनक की आत्मजा कहा है | अमरकोश २/६/२७ में आत्मज का अर्थ है जो शरीर से पैदा हो | इस तरह जनक की आत्मजा मतलब जनक से उत्त्पन्न उनकी पुत्री | रामयाण बालकाण्ड ६६/१५ में आया है वर्धमान ममातमजात ये वाक्य सीता का परिचय देते हुए जनक कहते है कि ये मेरी आत्मजा है | रघुवंश १३/७८ में सीता को जनक की आत्मजा बताया है जनकात्मजा (रघुवंश १३/७८ ) |
रामयाण में सीता की भूमि से उत्त्पति वाली काल्पनिक कथा है जिसके बारे में पौराणिक आचार्य करपात्री जी अपनी रामायण मीमासा पेज न ८९ पर लिखते है – ” पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है | जनक की पुत्री सीता का नाम स्पष्ट करने के लिए उसका सम्बन्ध वैदिक सीता ( हलकृष्ट भूमि ) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म भूमि से बता दिया | ” इन सब उपरोक्त प्रमाणों से आपके दिए काल्पनिक उदाहरणों का खंडन हो जाता है | अब आगे देखते है ये महाशय क्या लिखते है –
आप पता नही कौनसा शब्दकोष पढ़ते है जिसमे आपको कन्या का ये अर्थ मिला | कन्या को निरुक्त में दुहिता कहा है जिसका अर्थ स्पष्ट करते हुए यास्क लिखते है – ” दुहिता दुर्हिता दुरे हिता भवतीत ” अर्थात जिसका दूर (गोत्र या देश ) में विवाह होना हितकारी हो | जब आर्यों के मतानुसार उनकी कन्या का विवाह दूर होना हितकारी है फिर किसी भी पुरुष से सम्बन्ध कर ले वो कन्या ये कल्पना क्या आपको बुद्ध ने बताई थी | आपने मत्स्यगंधा का उदाहरण दिया असल में मत्स्यगन्ध सत्यवती का ही दूसरा नाम था जेसा मेने उपर बताया कि वो एक मछुआरिन थी ओर उसमे मच्छलियो जेसी गंध आना स्वभाविक है इसलिए उसका नाम मत्स्यगंधा हुआ अर्थात मछलियों जेसी गंध वाली | आपने कुंती के विवाह से पूर्व कई पुत्र बता दिए ये आपने कहा से पढ़ा महाभारत में भी ऐसा नही है | उसमे कर्ण का वर्णन है ओर यदि ये विवाह पूर्व देवता से सन्तान होना सही माना जाता तो कुंती को उसे नदी में फेकने ओर सबसे छुपाने की आवश्यकता ही न होती आपकी गोबर बुधि का ध्यान इस ओर क्यूँ नही गया क्यूंकि तार्किक नही कुंठित मानसिकता से ग्रसित थे | उस घटना से तो यही सिद्ध होता हहै कि विवाह पूर्व सन्तान उस समय अनुचित ही मानी जाती थी ओर विवाह पूर्व सम्बन्ध भी | वेदों में व्यभिचार की निंदा या विवाह पूर्व सम्बन्ध बनाने की निंदा की हुई है ऋग्वेद २/२९/१ में आये रहसूरिव की व्याख्या करते हुए सायण लिखते है – जो स्त्री अन्यो के द्वारा किये हुए गर्भ के कारण एकांत में सन्तान उत्त्पन्न करती है ,वह व्यभिचारिणी ओर पापी मानी गयी है |  ऐसे सम्बन्धो को आज का समाज लिव एंड ओपन रिलेशन नाम देता है लेकिन वेद ऐसे सम्बन्ध को व्यभिचार ओर पाप ही कहता है | अब आपके आगे के आरोप देखते है –
  आपने अश्वमेध का उदाहरण देकर अश्व ओर स्त्री के बीच सम्बन्ध को लिखा ऐसा किसी वेद संहिता में विधान नही है | ये महीधर के भाष्य में है ओर महीधर ने मन्त्रो का विनियोग कल्प सूत्रों से किया अर्थात ऐसा विधान कल्पसूतरो में है महीधर कात्यायन श्रोत सूत्र अ. २० कंडिका ६ ओर सूत्र १६ से अश्वमेध में लिंग ग्रहण करने की प्रथा का उलेख करते हुए लिखते है – ” अश्वशिश्रमुपस्ये कुरुते वृषावाजिति ” अर्थात वृषाबाजी इत्यादी मन्त्र पढ़ते हुए रानी स्वयम घोड़े का लिंग अपनी उपस्थ इन्द्रिय में धारण करे | ये विधान कल्पसूत्र से है जिसमे वाममार्गियो द्वरा काफी गडबड की हुई है | इनको वेदों के समान प्रमाणिक नही बल्कि अप्रमाणिक काफी समय से माना जाता रहा है | क्यूंकि ये सभी क्रिया कलाप उस समय भी शिष्टजनों में घ्रणित ही समझे जाते थे | जेसा की जैमिनी ने मीमासा दर्शन में स्पष्ट कहा है कि कल्पसूत्रों में वेदों के विरुद्ध कई बातें है अत: उपरोक्त बात भी वेद विरुद्ध ही थी ओर मनु के अनुसार धर्म का मूल वेद ही था | देखिये मीमासा का सन्धर्भ – पूर्व पक्ष से कोई जैमिनी से प्रश्न करता है – ” प्रयोगशास्त्रमिति चेत “(मीमासा १/३/११ ) अर्थात वेद विहित धर्मो का यथाविधि अनुष्ठान बताने वाले कल्पसूत्र भी वेद के समान स्वत: प्रमाण है यदि ऐसा कहो तो –
उत्तर में जैमिनी कहते है – ” नाsसन्नीयमात “(१/३/१२ ) अर्थात यह बात ठीक नही | कल्पसूत्र वेद के समान प्रमाणिक नही हो सकते ,क्यूंकि उसमे आवेदिक विधानों का भी निरूपण पाया जाता है | इसी कथन के पता चलता है कि कल्प सूत्रों के आवेदिक विधान उस समय ऋषि गणों में स्वीकार नही थे |
अब आपके अगले आरोप की समीक्षा करते है –
आपकी गोबरबुधि ओर कुंठित मानसकिता ने आपके दिमाग का कूड़ा कर दिया जो ऋषि दयानद जी के भाष्य को भी आपने नही छोड़ा यदि कोई आपसे कहे की मधुर रसीले आमो का भोग करो ,,मखमली गद्दों का भोग करो तो आप तो आमो से योन सम्बन्ध बनाने ओर गद्दों से मैथुन क्रिया करना शुरू कर देंगे क्यूकि आपके अनुसार भोग का अर्थ सम्भोग ही होता है जबकि संस्कृत में भोग मतलब उपयोग में लेना होता है ऋषि दयानद जी ने भी यही स्पष्ट किया है ,ऋषि ने ऋषभेन उक्षेन भूञ्जीरन लिखा है अर्थात बैल रूपी साधन से खेती व कुए आदि चला कर सुख भोगे | इसी भाष्य में म्ह्रिशी ने लिखा है कि मनुष्य छेरी आदि पशुओ के दूध आदि से प्राणपान की रक्षा के लिए चिकने ओर पके हुए पदार्थो का भोजन कर उत्तम रसो को पीकर वृद्धि को पाते है वे अच्छे सुख को प्राप्त होते है | यहा पशुओ से सम्बन्ध नही बल्कि उनका दूध पीना ,खेती आदि कार्यो में उपयोग लेने का उपदेश है वही अर्थ स्वामी जी ने भी किया है | अब आपके किये अगले मन्त्रो का अर्थ देखते है –  न सेशे ……………..उत्तर: (ऋगवेद १०.८६.१६)  ओर न सेशे………..उत्तर­. (ऋग्वेद १०-८६-१७) इन दोनों मन्त्रो का आपने बहुत अश्लील अर्थ लिखा जबकि इस मन्त्र में लिंग वाची शब्द है ही नही ये मन्त्र संवादत्मक शेली में है जिसमे तीन पात्र इंद्र उसकी पत्नि इन्द्राणी ओर मित्र वृषाकपि है | ऐसा ऐतिहासिक परख अर्थ में है ओर नेरुक्त पक्ष में इंद्र विद्युत इन्द्राणी मध्यम वाक् ओर वृषाकपि आधित्य है | (निरुक्त ११.३८ व ११.३९ ) यहा हम इनका ऐतिहासिक अर्थ लिखते है – इन्द्राणी इंद्र से कहती है – न सेशे ….. विश्वस्मादिन्द्र उत्तर: अर्थात तुम तो सबके सामने नम्र होकर सर झुका कर रहते हो ,नम्रता या सर झुकाने से कार्य निर्वाह नही होता बल्कि अपने प्रभाव को विस्तार करने से होता है | इस मन्त्र में सर झुकने की बात है उसके लिए कृपन शब्द भी आया है लेकिन आपने लिंग अर्थ ले लिया | अब इसका प्रत्युतर इंद्र देता है – न सेशे ….उत्त्तर (ऋग्वेद १० -८६ -१७ ) है इन्द्राणी तुमने जो कहा वह ठीक है | तो यह भी नियम सब पर लागू नही होता | कभी कभी ऐसा होता है की वह समर्थ नही होता जो डट कर खड़ा हो जाता है ओर सर ताने रखता है प्रतुतय वह समर्थ होता है जिसका सर दुसरो के पैरो में झुकता है या नम्र होता है | इस सम्पूर्ण काल्पनिक आख्यान में इंद्र का सखा वृषाकपि उनका सोम ले लेटा है जिसे इन्द्राणी को बहुत बुरा लगता है ओर वो अपने पति इंद्र को उससे लड़ने ,झगड़ने के लिए प्रेरित करती है लेकिन इंद्र उसे नम्रता ओर विनम्रता से वस्तु लेने का उपदेश देता है ,,इस मन्त्र द्वरा या इस आख्यान द्वरा यही उपदेश दिया है कि मित्रो ,बंधुओ से अपना कार्य करवाने के लिए झगड़ा आदि करने की जगह नम्रता से कार्य निकलवाना चाहिए क्यूंकि झगड़ा आदि से कार्य बिगड़ने की गुंजाइश ज्यादा रहती है |
अब अगले मन्त्र ऋग्वेद १०/८६/६ का भी आपने एक अश्लील अर्थ लिखा है जबकि उसका अर्थ होगा – वो भी इसी सूक्त का है उसमे वृषाकपि से क्रोधित ओर जोश में आती इन्द्राणी कहती है – “
 न मत्स्त्री………..­………………उत­्तर:(ऋग्वेद १०-८६-६) अर्थात मुझसे अधिक अन्य कोई स्त्री सुभग्या सुन्दरी नही है , न सुखनि या सुपुत्रवती है , न मुझसे बढ़ कर शत्रुओ को नाश करने वाली है न ही उद्यम करने वाली है | इस मन्त्र में वृषाकपि से क्रोधित इन्द्राणी की बात है तो इसमें वीरता आदि का ही उपदेश होगा न कि मैथुन आदि का इन्द्राणी ओर इंद्र के रूप में वीर स्त्री ओर सदाचारी पुरुष का रूपक अलंकार है | अब आपका अगला मन्त्र देखते है जिसका देवता इंद्र है | यास्क के निघंट में इंद्र को त्वष्टा कहा है ,जिसका अर्थ होता है सूर्य | मन्त्र है ताम……………..­……..शेमम. (ऋग्वेद १०-८५-३७) जिसका उचित अर्थ होगा औषधियों का पोषण करने वाले सूर्य ! जिस भूमि में मनुष्य लोग बीज बोते है जो भूमि हम पुरुषो की कामना को पूरी करती है | जिसके तल में हम आश्रय लेते है अर्थात घर बना कर रहते है | जिसके गर्भ में हल को प्रवेश कराते है ,उस अतिक्ल्याणकारी भूमि को तु वर्षा आदि करा कर प्रेरित कर | इस मन्त्र में भूमि की विशेषता ओर सूर्य द्वरा उचित वर्षा करवा कर उत्तम फसल की उत्त्पति को प्राप्त करने का उपदेश है |
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वैदिक काल में जार कर्म अच्छा नही समझा जाता था अपितु इसे व्यभिचार ओर पाप समझा जाता था | हिंदूइस्म धर्म ओर कलंक के लेखक ने यह अध्याय किसी तार्किक भावना से नही अपितु अपनी कुंठित ओर हिन्दुओ ,आर्यों को नीचा दिखने की मानसिकता से लिखी थी | जिसके कारण उनके दिमाग में ऋषि के अच्छे उत्तम भाष्य का अश्लील अर्थ आया ओर अन्य मन्त्रो का अश्लील अर्थ ही किया जबकि मन्त्रो का अध्यात्मिक ,आधिभौतिक (वैज्ञानिक ) अर्थ भी होता है |
सधर्भित ग्रन्थ या पुस्तके – (१) वेदों की वर्णन शेलिया -रामनाथ जी वेदालंकार 
                                        (२) ऋग्वेद भाष्य – जयदेव शर्मा 
                                       (३) मीरपुरी सर्वस्व – बुद्धदेव मीरपुरी 
                                        (४) निरुक्त -यास्क (भाषानुवाद -भगवतदत्त जी ) 
                                        (५) मनुस्मृति -स्वाम्भुमनु (भाषानुवाद – सुरेन्द्र कुमार )
                                        (६) ऋग्वेद में आचार सामग्री  

भारतीय जी की शोध व्यथा-कथा – ओममुनि वानप्रस्थी

दिल्ली से स्वामी अग्निवेश के साप्ताहिक समाचार-पत्र वैदिक सार्वदेशिक में भवानीलाल जी का एक लेख ‘आर्यसमाज में उच्चतर शोध की स्थिति सन्तोषप्रद नहीं’ शीर्षक से अंक २९ जनवरी से ४ फरवरी, पृष्ठ संख्या ०६ पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख के शीर्षक से लेखक के पीड़ित होने का तो पता लग रहा है, परन्तु पीड़ा आर्यसमाज के शोध को लेकर है या परोपकारिणी सभा को लेकर है, क्योंकि भारतीय जी सभा के सम्मानित सदस्य और अधिकारी भी रहे हैं, इस प्रकार यह बात पाठक को पूरा लेख पढ़ने के बाद ही स्पष्ट हो पाती है।

लेख में जिन-जिन शोध संस्थाओं की तथा शोध विद्वानों की चर्चा की है, उन संस्थाओं के विद्वान् दिवंगत हो चुके हैं या फिर उन संस्थाओं का वर्तमान में शोध कार्यों से कोई विशेष सम्बन्ध देखने में नहीं आता। डॉ. भारतीय जी की पीड़ा को समझने के लिए उन्हीं की शब्दावली  को पहले देख लेने से पीड़ा का कारण समझने में सहायता मिलेगी, वे व्यथापूर्ण श द इस प्रकार हैं- ‘‘इधर अजमेर में परोपकारिणी सभा ने कुछ वर्ष पूर्व करोड़ों रुपये व्यय कर ऋषि उद्यान में विशाल बहुमंजिला भवन तो खड़ा कर लिया, परन्तु रिसर्च के नाम पर शून्य है। केवल ऋषि मेले के समय चार दिनों के लिये यह भवन काम में आ जाता है, अन्यथा शोध के नाम पर यह सब आडम्बर ही है। यह अवश्य हुआ है कि सत्यार्थप्रकाश के संशोधित ३७वें संस्करण ने एक नया विवाद अवश्य खड़ा कर दिया है। पं. मीमांसक तथा पं. रामनाथ वेदालंकार की उपेक्षा की गई और विसंवाही स्थिति बनी। तो संस्थाओं द्वारा प्रारम्भ किये गये शोध प्रकल्पों का अन्ततः यह हश्र देखा गया।’’

इन पंक्तियों के उत्तर  में सभा ने क्या शोध कार्य किये, कराये हैं और करा रही है? यह सब परोपकारी पत्रिका के माध्यम से सर्वविदित है। फिर उस विवरण से भारतीय जी की पीड़ा तो शान्त होने से रही, क्योंकि पीड़ा के कारण दूसरे हैं जिनका इस प्रसंग में उल्लेख करना उचित होगा।

भारतीय जी को करोड़ों रुपये व्यय करके विशाल बहुमंजिला भवन रिसर्च के नाम पर शून्य लगता है और शोध के नाम पर आडम्बर। भारतीय जी को पता नहीं कि भवन में क्या होता है, कोई बात नहीं, किन्तु जिस जनता ने करोड़ों रुपये सभा को दान दिये, डॉ. जी की दृष्टि में तो उन बेचारों ने गलती ही की होगी। भवन की भव्यता पर एक आर्यसमाज प्रेमी ने वास्तुकार माणकचन्द राका जी से कहा- आपने ऋषि उद्यान में इतना विशाल भवन बनाकर पैसों का अपव्यय ही किया है, तब राका जी ने उस प्रेमी से पूछा- क्या सैंकड़ों और हजारों करोड़ों रुपये लगाकर जब एक भव्य होटल बनाया जाता है और जिसमें शराब की बोतल आधी नंगी लड़कियाँ पीती हैं, क्या वहाँ कभी इस अपव्यय का विचार आपके मन में आया है? फिर यहाँ कुछ साधु, संन्यासी, ब्रह्मचारी, विद्वान् लोग शास्त्रों को पढ़े-पढ़ायेंगे तो आपके मन में अपव्यय जैसी बात कैसे आई? वह बेचारा तो चुप रह गया, परन्तु भारतीय जी की पीड़ा उस भवन को लेकर अभी तक शान्त नहीं हुई। भारतीय जी की दानशीलता के सभा पर कितने उपकार हैं, उनको स्मरण किया जाना अनुचित नहीं होगा। जब महर्षि की बलिदान शताब्दी  मनाई गई तो आर्यजनों ने सभा व समारोह के लिए लाखों रुपये का दान एकत्रित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण  लोगों को रसीद बुक दी हैं। समारोह सम्पन्न हुआ। समारोह की दक्षिणा लेने के पश्चात् भारतीय जी ने एक भी रसीद बिना काटे कोरी रसीद बुक सभा को लौटाने का कार्य किया, फिर भी करोड़ों रुपये का भवन बन गया, इस शोध का बोध है या नहीं, पता नहीं।

अजमेर, चण्डीगढ़, जोधपुर रहते हुए अपनी प्रतिदिन भेजी जाने वाली व्यक्तिगत डाक के पैसे वे अजमेर निवास के समय से सभा से निरन्तर माँगते और लेते रहे हैं, जिनके बन्द कर दिये जाने से ‘सभा का शोध कार्य रुक गया’, यह अनुभूति होना बहुत स्वाभाविक है। भारतीय जी को सभा द्वारा अपनी तथाकथित उपेक्षा का दुःख बहुत दिनों से व्यथा दे रहा है, सभा की निन्दा करने जैसा शुभ कार्य आपने अपनी आत्मकथा में भी किया है।

नवजागरण के पुरोधा पुस्तक लिखकर सार्वदेशिक सभा में रखी गई, वहाँ नहीं छप सकी तो सभा मन्त्री श्रीकरण शारदा जी को शताब्दी  के अवसर पर छपवाने के लिये प्रार्थना की और उन्होंने वह छाप दी तथा छपने के बाद स्वामी सत्यप्रकाश जी के माध्यम से रॉयल्टी की माँग की और कुछ सौ पुस्तकें लेकर माने। ऊपर से कलम में यह भी कहने का दम रखते हैं कि जिस सभा के संस्थापक का मैंने शोध पूर्ण जीवन लिखा है, उस सभा को मेरा कृतज्ञ होना चाहिए, इसके विपरीत यह सभा मेरी उपेक्षा करती है। यह शोध सभा में आजकल सच में नहीं हो रहा।

परोपकारी के सम्पादन का भार तो डॉ. जी ने उठाया और उसमें शोधपूर्ण लेख तो कभी भी देखे जा सकते हैं। इस प्रसंग में शोध की बात यह है कि समीक्षा के नाम पर आई पुस्तकों की समीक्षा करके पुस्तक बेचकर पैसे जेब में रखने से अच्छा शोध और क्या हो सकता है? इस क्रम में एक प्रसंग याद आ रहा है। भारतीय जी की चण्डीगढ़ से भेजी समीक्षा नहीं छपी। भारतीय जी द्वारा कारण पूछने पर उन्हें बताया गया कि समीक्षा के लिए पुस्तक की दो प्रतियाँ आती हैं- एक समीक्षक को मिलनी चाहिए, एक सभा को, तो मान्य भारतीय जी ने अपना शोध कौशल दिखा दिया। एक फर्जी बिल भारतीय साहित्य सदन के नाम से बनाया और समीक्षा के लिए आई पुस्तकों के सभा से ही पैसे वसूल कर लिए, इसे कहते हैं शोध। वह बिल बुक भारतीय जी के काम आज भी आ रही होगी। बिल सभा के संग्रह में शोभायमान है।

भारतीय जी जानते हैं, संस्था समाजों से अभिनन्दन कराने से प्रतिष्ठा भी मिलती है और इस बहाने धन भी मिल जाता है। भारतीय जी ने अपने शिष्यों, मित्रों के माध्यम से अभिनन्दन समारोह का उपक्रम किया। प्रश्न था अभिनन्दन ग्रन्थ छपवाने का। वे सभा के सम्मान्य सदस्य भी थे, उन्होंने सभा से कहा- ग्रन्थ प्रकाशित कर दें। मेरे शिष्य लोग इसका व्यय दे देंगे। सभा ने अभिनन्दन ग्रन्थ तो छाप दिया, ग्रन्थ भी छप गया, भेंट का पैसा भारतीय जी को मिल गया, है न कमाल का शोध। सम्भवतः आजकल सभा ऐसा शोध न कर पा रही हो।

आर्यसमाज के एक प्रतिष्ठित विद्वान् थे, वे अपने बड़े पुस्तकालय की सदा चर्चा करते थे। पं. जी के अन्तरंग मित्र जो उनसे परिहास में पूछ लिया करते थे कि पं. जी इनमें से खरीदी हुई कितनी हैं और कबाड़ी हुई कितनी? लगभग वही कहानी भारतीय जी के शोध पुस्तकालय की है। सभा में शोधार्थी आते रहते हैं, एक बार एक छात्रा दयानन्द विश्वविद्यालय अजमेर से ऋषि दयानन्द विषयक शोध कार्य कर रही थी, उसे सभा के कार्यकर्ताओं  ने परामर्श दिया, जोधपुर जाकर भारतीय जी के पुस्तकालय की भी सहायता तुम्हें लेनी चाहिए, वहाँ आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द विषयक प्रचुर सामग्री है। उस छात्रा ने जोधपुर जाकर पुस्तकें देखीं, उसे सामग्री भी मिली परन्तु शोध की बात यह है कि छात्रा ने कहा– परोपकारिणी सभा के पुस्तकालय की दुर्लभ पुस्तकें तो भारतीय जी के संग्रहालय में हैं, तब सभा के कार्यकर्ता को कहना पड़ा कि वहाँ भी सभा का ही पुस्तकालय है। इस बहुचर्चित पुस्तकालय के नाम पर एक और संस्था भी भारतीय जी के शोध का शिकार हो गई। उस संस्था के संचालक ने भारतीय जी से कहा- आपके बाद तो कोई इनका उपयोग करने वाला नहीं हैं, आप अपना पुस्तकालय हमारी संस्था को बेच दें जैसा सुना जाता है भारतीय जी डेढ़ लाख रुपये माँग रहे थे और संस्था वालों ने उन्हें ढाई लाख रुपये दिये। इसमें शोध की बात यह है कि इस सौदे में महत्वपूर्ण  पुस्तकें फिर बचाली गईं। हो सकता है फिर कोई शोध करने का अवसर मिल जाये। आज वहाँ के पुस्तकालय में जाकर सभा की मोहर लगी पुस्तकें देखी जा सकती हैं।

यदि कोई व्यक्ति सभा का अधिकारी होकर दुर्लभ पुस्तकें निकाल कर ले जाये तो यह शोध प्रेम ही कहा जायेगा। दुनिया में पैसे से तो सभी प्रेम करते हैं। उलटे-सीधे बिल बनाते हैं, यह तो समाज की मान्य परम्परा है, इसप्रकार शोध प्रेमियों को किसी भी प्रकार खरीदकर, उधार लेकर (बाई, बोरो एण्ड स्टील) पुस्तक प्राप्त करने का अधिकार पुराने ज्ञान मार्गियों ने दिया है। यह शोध कार्य का ही प्रमाण है।

स्वामी सर्वानन्द जी महाराज ने दयानन्द आश्रम के भवन में भारतीय जी को जिन शब्दों  से सम्बोधित किया था वे शायद  आज भी उन्हें स्मरण होंगे। भारतीय जी ने रामनाथ जी वेदालंकार और युधिष्ठिर मीमांसक जी की उपेक्षा करने का आरोप लगाया है, सत्यार्थप्रकाश में जो भी कार्य किया गया है, वह सब विद्वानों के सामने है, और इनको जाँचने का सबको अधिकार है। इसमें आप भी शोध कार्य कर सकते हैं। सभा की दृष्टि में जो सर्वोत्तम  हो सकता है उसे ही प्रस्तुत करने का प्रयास रहा है। पुस्तक आपके सामने है, आप जो भी त्रुटि बतायेंगे उसपर सभा अवश्य विचार करेगी। सभा ने सदा ही सुझावों को आमन्त्रित किये हैं, प्राप्त सुझाओं का स्वागत भी किया है। यदि विवाद हुआ है तो उस मण्डली के सदस्य भी डॉ. साहब थे।

इसके आगे  भी यदि सभा के शोध कार्य के विषय में कोई प्रश्न भारतीय जी उठायेंगे तो उनका सप्रमाण उत्तर  दिया जा सकेगा। अब तक सभी प्रश्नों और आरोपों का उत्तर दिया जा चुका है।

–      ब्यावर  अजमेर

 

दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि

 

देश के भौगोलिक अध्ययन के लिए, इसे सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जाता है- पहला उत्तर  और दूसरा दक्षिणी भाग। यद्यपि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है, तथापि सामान्य रूप से उत्तरी  भाग को ‘उत्तर  भारत’ और दक्षिणी भाग को ‘दक्षिण भारत’ के नाम से अभिहित किया जाता है। उपर्युक्त विभाजन के अतिरिक्त पाश्चात्य विद्वानों ने एक अलग प्रकार की भ्रामक संकल्पना की है कि आर्य बाहर से इस देश में आए और वे उत्तरी भाग में निवास करने लगे तथा यहाँ के पूर्व निवासियों को उन्होंने दक्षिण में भगाया, अतः उत्तर के निवासी ‘आर्य’ कहलाए और दक्षिण के निवासी ‘द्रविड’ कहलाए। पाठ्यक्रमों में इसी अवधारणा को पढ़ाया जाने के कारण सुशिक्षित एवं बुद्धिजीवी वर्ग में यही भ्रामक अवधारणा प्रबल है। किन्तु यह अवधारणा तर्क व प्रमाण सम्मत नहीं है, क्योंकि संस्कृति, भाषा और दर्शन इन तीनों का उद्गम स्थान एक ही भारत है। दक्षिण की सभी भाषाओं में संस्कृत का शब्द -भण्डार प्रचुर मात्रा में तत्सम रूप में पाया जाता है तथा वेद का पठन-पाठन दक्षिण भारत में ही पारम्परिक रूप से विद्यमान हैं। पूरे भारत में जीवन-पद्धति वेद सम्मत थी, किन्तु धर्माचार्यों ने स्वार्थ, अज्ञान, अन्धविश्वास, सदोष मतमतान्तर के कारण जो वेद विरुद्ध परम्परा प्रारम्भ की उससे हमारी सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय स्थिति अत्यन्त खोखली हो गई। ऐसी आन्तरिक कलह की स्थिति को देखकर उत्तर से अनेक विदेशी आक्रान्ताओं ने समृद्ध भारत पर आक्रमण किए तथा यहाँ की सम्पत्ति , संस्कृति, शिक्षा-पद्धति और जीवन-पद्धति पर तीव्र कुठाराघात किया।

आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों दृष्टियों से कालबाह्य रुढ़ियों तथा सिद्धान्तों से घुन लगा हुआ समाज पूरी तरह खोखला हो गया था। ऐसी दुरावस्था में गुजरात प्रान्त के टंकारा में सन् १८२४ में महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। उनके गुरु विरजानन्द जी ने मानव मात्र में व्याप्त दुःख, अशान्ति तथा रोग के मूलभूत कारण- अज्ञान, अविवेक तथा अन्धविश्वास को बताकर सबके कल्याणार्थ वेद के शाश्वत ज्ञान को मानव-मात्र के कल्याण का मार्ग बताया तथा महर्षि दयानन्द ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन न्यौछावर किया। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने वेदों की अपौरुषेयता तथा आर्ष ग्रन्थों की प्रामाणिकता बताकर तथा अनेक ग्रन्थों का प्रणयन कर मानव-मात्र को जीवन के श्रेयमार्ग का पथिक बनाने के लिए सन् १८७५ में मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की।

यद्यपि आर्यसमाज की स्थापना मुम्बई में हुई तथापि उसका प्रचार-प्रसार उत्तर  भारत में- विशेष रूप से पंजाब में हुआ। लाहौर में उपदेशक महाविद्यालय की स्थापना की गई। दक्षिण भारत के अनेक विद्यार्थी वहाँ पढ़कर उपदेशक बनकर आए और दक्षिण भारत में आर्य समाज के वैचारिक सिद्धान्तों से उपदेशों के द्वारा जनजागृति का कार्य किया।

दक्षिण भारत का योगदानः दक्षिण भारत में उस समय निजामशाही का राज्य था। मराठवाड़ा के वर्तमान आठ जिले, कर्नाटक के ५ जिले तथा आन्ध्र के जिलों को जोड़कर हैदराबाद राज्य की सीमा थी। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में अन्य शासकों के अपने-अपने राज्य थे। उस समय दक्षिण भारत में अनेक मत-मतान्तर थे तथा जैन, बौद्ध, पारसी, इस्लाम, ईसाई, विविध पन्थ, सम्प्रदाय और धर्म प्रचलित थे। ऐसी विषम परिस्थिति में आर्यसमाज को अपना कार्य दक्षिण भारत में करना पड़ा।

व्यक्ति निर्माणः दक्षिण भारत के बहुत लोगों ने आर्यसमाज के विचारों से प्रभावित होकर विद्वान् बनने के लिए उत्तर  भारत की वैदिक संस्थाओं में अध्ययन किया, आर्यसमाज का आजीवन प्रचार किया और साथ ही नए व्यक्तियों को आर्यसमाजी बनने की प्रेरणा दी। इनमें कुछ प्रमुख नाम निम्नलिखित हैं- पं. नरेन्द्र, पं. श्यामलाल, बंसीलाल, शेषराव वाघमारे, उत्त्ममुनी , विनायकराव विद्यालंकार, न्यायमूर्ति कोरटकर, चन्द्रशेखर वाजपेयी। इन लोगों ने अनेक क्षेत्रों में आर्यसमाज के अनेक पहलुओं को लेकर काम किया, जिसके परिणामस्वरूप आज दक्षिण भारत में हजारों आर्यसमाजी अपने विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए आर्यसमाज का प्रचार कर रहे हैं।

संस्थाएँः आर्यसमाज के सैद्धान्तिक विचारों के प्रचार-प्रसार, सेवा, सुरक्षा एवं व्यक्ति निर्माण के लिए आर्यसमाज और संगठन की स्थापना की गई। मुम्बई के बाद बीड़ (महाराष्ट्र) जिले के निवासी तिवारी नामक व्यक्ति ने महर्षि दयानन्द के भाषण सुनकर दूसरा आर्यसमाज सन् १८८० में धारूर नामक ग्राम में स्थापित किया। इसके बाद सुल्तान बाजार (हैदराबाद) में आर्यसमाज की स्थापना की गई जो दक्षिण भारत के आर्यसमाज का बहुत बड़ा केन्द्र था। जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक प्रदेश ने अपनी-अपनी प्रादेशिक सभाओं की स्थापना की जैसे- मुम्बई आर्य प्रतिनिधि सभा, मध्य दक्षिण आर्य प्रतिनिधि सभा तथा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा से संलग्न।

दक्षिण भारत के आर्यसमाजी विद्वान्ः दक्षिण भारत में आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के कारण तथा उ    उत्तर  भारत की संस्थाओं में पढ़कर अनेक विद्वान् तैयार हुए और उन्होंने अपने-अपने प्रान्तों में जाकर वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। इनमें कुछ नाम निम्न प्रकार हैं- पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ (उस्मानाबाद), बंशीलाल व्यास (हैदराबाद), शामलाल (उदगीर), डी.आर. दास (लातूर), गोपालदेव शास्त्री (बसदकल्याण) प्रेमचन्द्र प्रेम (भदनुर), पं. मदनमोहन विद्यासागर, गोपदेव शास्त्री, पं. वामनराय येवणूरधर इत्यादि।  यह सूची प्रदीर्घ है, स्थानाभाव के कारण कुछ ही विद्वानों के नाम गिनाए हैं।

साहित्य-निर्माणः- जनमानस तक वैदिक सिद्धान्तों को पहुँचाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति के लिए साहित्य और आर्यसमाज के सिद्धान्तों को प्रादेशिक भाषाओं में भी निर्माण किया। इन विचारों से समाज में जागृति हुई। प्रमुख लेखकों में पं. नरेन्द्र, विनायकराव विद्यालंकार, खंडेराव कुलकर्णी, उत्त्ममुनी इत्यादि उल्लेखनीय हैं। इसके साथ दक्षिण भारत की सभी भाषाओं में महर्षि दयानन्द की पुस्तकों का अनुवाद भी किया गया।

पत्रिकाएँः हैदराबाद में आर्यसमाज की स्थापना के बाद ‘मुंशी रे दकन’ साप्ताहिक निकाला गया जो वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करता था। उर्दू साप्ताहिक ‘नई जिन्दगी’ जे.एन. शर्मन के सम्पादकत्व में निकलने लगा। शोलापुर से ‘वैदिक सन्देश’ तथा ‘सुदर्शन’ भी साप्ताहिक प्रकाशित होने लगे। चन्दूलाल, पं. नरेन्द्र तथा सोहनलाल ठाकुर के सम्पादकत्व में ‘वैदिक आदर्श’ साप्ताहिक प्रारम्भ हुआ, जो उर्दू में प्रकाशित होकर मुसलमानों के अत्याचारों का जवाब प्रखरता से देता था। बाद में यही साप्ताहिक ‘सोलापुर’ से ‘वैदिक सन्देश’ के नाम से निकलने लगा जो पुनः ‘आर्यभानु’ के नाम से हैदराबाद से शुरू हुआ। लक्ष्मणराव पाठक ने ‘निजाम विजय’ पत्रिका शुरू की। अनेक पत्रिकाएँ नाम बदलकर निकलने लगीं।

व्याख्यान मालाः ग्रामीण भाग के जन साधारण लोगों के लिए जो अनपढ़, अशिक्षित और अज्ञानी थे उनकी वैचारिक जागृति के लिए उनके गाँवों में जाकर उनके समय के अनुसार, उन्हीं की भाषा में विद्वान् पण्डित तथा भजनोपदेशकों ने व्याख्यानों से जनजागरण का कार्य किया। प्रतिवर्ष श्रावणी सप्ताह तथा भारतीय काल गणनानुसार नववर्ष के प्रारम्भ में वार्षिकोत्सव का आयोजन किया जाता था जिसमें विविध सम्मेलन आयोजित किये जाते थे जैसे- धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा, महिला सम्मेलन, वेद-सम्मेलन, संस्कृत सम्मेलन, संस्कार शिविर आदि। इसके साथ ही सामयिक विषयों पर भी व्याख्यान आयोजित किए जाते थे। जिसमें अन्धश्रद्धा निर्मूलन, व्यसनमुक्ति, स्वास्थ्य रक्षा इत्यादि द्वारा जन-जागरण का मह  वपूर्ण कार्य आर्यसमाज के इन उपक्रमों द्वारा किया जाता था।

षोडश संस्कारः महर्षि दयानन्द ने वेदाधारित १६ संस्कार का महत्व  बताकर मनुष्य निर्माण कार्य के लिए प्रतिपादन किया। साथ ही इसकी वैज्ञानिकता भी प्रतिपादन की। सोलह संस्कारों की प्रासंगिकता प्रतिपादित की तथा समाज के जिस वर्ग का उपनयन संस्कार नहीं होता था उन सबका आर्यसमाज ने उपनयन संस्कार कराया तथा समाज के वातावरण का निर्माण किया। इसके साथ-साथ कन्याओं तथ महिलाओं का भी उपनयन संस्कार करा कर नारी को म्हात्व्यपूर्ण  स्थान दिलाया। जिसके फलस्वरूप आज महिलाएँ पौरोहित्य का कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करा रही हैं। अन्त्येष्टि संस्कार का भी वैदिक पद्धति से प्रचलन किया।

शिविरों का आयोजनः ग्रामीण तथा शहरी भागों में वैचारिक क्रान्ति, सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता, मानव को संस्कारित करने के लिए विद्वान् और सेवाभावी लोगों ने शिविरों का आयोजन किया। संस्कार शिविरों द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्वाश्रमी हरिश्चन्द्र गुरु जी) ने अनेक तरुण विद्यार्थी तथा विद्यार्थिनियों को सन्मार्ग बताकर सुसंस्कारित, जागरूक तथा कर्तव्य  परायण नागरिक बनाया। इसी प्रकार आर्यवीर दल तथा स्वास्थ्य रक्षा शिविरों द्वारा नवयुवकों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न की तथा व्यसनाधीनता से परामुख किया। इसके साथ-साथ कन्याओं की उन्नति के लिए कन्या संस्कार शिविर, समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को पौरोहित्य कार्य की वैदिक निधि का ज्ञान कराने के लिए पुरोहित प्रशिक्षण शिविर, बाल्यावस्था के कोमल मन पर राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए तथा संस्कारों के बीजवपन के लिए बाल संस्कार शिविर, मन की स्थिरता के लिए ध्यान योग शिविर, आसन प्राणायाम शिविर तथा योग शिविर, रोग चिकित्सा के लिए प्राचीन काल की ऋषियों द्वारा अनुमोदित आयुर्वेद चिकित्सा शिविर तथा गोमाता की रक्षा के लिए गो कृषि शिविर आयोजित किए जाते हैं, जिससे समाज के उपर्युक्त सभी क्षेत्रों तथा अंगों में जागृति आने से व्यक्ति, परिवार, समाज सभी सुखी और स्वस्थ बन सके।

सम्मेलनों का आयोजनः समाज के अन्तिम छोर के व्यक्ति के निर्माण के साथ-साथ, पूरे समाज को जगाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति, सामुदायिक परिवर्तन, आत्मविश्वास, सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा बल, बाह्य परम्पराओं से विद्रोह के लिए अनेक शीर्षस्थ विद्वानों के भाषणों से समाज परिवर्तन के लिए विविध स्तरों पर अनेक सम्मेलन आयोजत किए गए। जिनके परिणामस्वरूप जनसामान्य में सामाजिक जागृति हुई। इन सम्मेलनों से विविध प्रदेशों के आर्यसमाजी व्यक्तियों का जहाँ पारस्परिक परिचय हुआ वहीं भाषाई आदान-प्रदान भी हुआ जिसने आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वानों और लेखकों के साहित्य के अनुवाद कार्य के लिए सेतु का कार्य किया। ये सम्मेलन प्रान्तीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए जाते हैं। जैसे मॉरीशस के अन्तर्राष्ट्रीय आर्य सम्मेलन में श्री हरिश्चन्द्र जी धर्माधिकारी इत्यादि ने सम्मिलित होकर वहाँ की सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक स्थितियों का अध्ययन किय। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अर्ध शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९३३) तथा महर्षि दयानन्द जी के शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९८३-८४) में दक्षिण भारत  के हजारों कार्यकर्ता  सम्मिलित हुए और वहाँ से ऊर्जा प्राप्त कर अपने-अपने शहरों, गाँवों तथा महानगरों में अधिकसक्रियता से भाग लिया। इसी प्रकार सामाजिक सुधारों के लिए महिला सम्मेलन, वानप्रस्थियों के आत्म कल्याण के लिए वानप्रस्थी सम्मेलन, सैद्धान्तिक विषयों के विचार-मन्थन के लिए विद्वत्-सम्मेलन, आयोजित किए जिसमें डॉ. ब्रह्ममुनि,डॉ. कुशलदेव शास्त्री, डॉ. देवदत्त  तुंगर आदि ने सक्रिय भाग लिया। बसैये बन्धु ने औरंगाबाद में मराठवाड़ा स्तर का सम्मेलन आयोजित किया जिसमें विद्वानों तथा स्वन्त्रता-सैनानियों को सम्मानित किया गया।

निजाम के विरोध में सत्याग्रहः अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, संस्कृति एवं मानव-धर्म को मिटाने के विरुद्ध, असुरक्षा के विरुद्ध तथा राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने के लिए, व्यक्ति, परिवार, समाज में  जागृति लाकर शासन के विरुद्ध निजाम के विरोध में न्याय, धर्म, संस्कृति और नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह प्रारम्भ किया। निजाम ने आर्यसमाज के विद्वानों के प्रवेश बन्दी, यज्ञ बन्दी, समाचार-पत्रों पर बन्धन तथा धार्मिक उत्सवों तथा विद्वानों के भाषणों पर बन्दी लागू कर दी, जिससे सार्वदेशिक सभा दिल्ली के नेतृत्व में उत्तर  भारत से विभिन्न नेताओं के नेतृत्व में सत्याग्रही लोगों के जत्थे पर जत्थे आए। उदगीर के दंगे से मराठवाड़ा का वातावरण भी पूरी तरह अशान्त हो गया। श्यामलाल, रामचन्द्रराव कामठे, गंगाराम डोंगरे तथा अमृराव जी को पकड़ा गया और जिन्हें कड़ी से कड़ी धाराओं में सजा दी गई उसमें श्यामलाल जी का बलिदान हुआ। गुलबर्गा में सत्याग्रहियों को जेल में डाला गया जिसमें दक्षिण केसरी पं. नरेन्द्र पर अमानवीय अत्याचार किए गए, जिसमें उनकी एक टांग टूट गई। उन्हें कारावास में अनेक यातनाएँ दी गईं और खाने के लिए सीमेंट की रोटी दी गई। कठोर से कठोर यातनाओं को देने के बाद भी इन देशप्रेमी आर्य सत्याग्रहियों ने माफी नहीं माँगी, जिससे अन्य लोगों में भी देश-प्रेम की भावना जगी और जगह-जगह पर क्रूर निजाम के विरोध में आन्दोलन होने लगे जिसमें हजारों सत्याग्रहियों को कठोर कारावास हुआ तथा अनेक सत्याग्रही हुतात्मा हुए। प्रथम जत्थे के नेता महात्मा नारायण स्वामी थे जो गुरुकुल काँगड़ी के ४० विद्यार्थियों को लेकर शोलापुर से हैदराबाद गए। इसके बाद आठ आर्य नेताओं के नेतृत्व में जिनमें अन्तिम- विनायकराव विद्यालंकार थे, सत्याग्रह किया गया। जिसके सामने निजाम को झुकना पड़ा और उनकी माँगें मान ली गईं। इस सत्याग्रह में मित्रप्रिय मिसाल (नसगीर), खण्डेराव द     दत्तात्रय (शोलापुर) गोविन्दराव (नसंगा), पाण्डुरंग (उस्मानाबाद), सदाशिवराव पाठक (शोलापुर) माधवराव पाठक (लातूर) आदि का जेल में बलिदान हुआ तथा महाराष्ट्र के लगभग ४०० सत्याग्रही लोगों को कठोर कारावास की यातनाएँ भोगनी पड़ी। जिनमें शेषराव वाघमारे, गुरु लिंबाड़ी चव्हाण, दिगम्बरराव धर्माधिकारी, आराम परांडेकर, भीमराव कुलकर्णी (डॉ. धर्मवीर, कार्यकारी प्रधान, परोकारिणी सभा के पिता) रघुनाथ टेके, दिगम्बर शिव नगीटकर, तुलसीराम कांबले, दिगम्बर पटवारी, शंकरराव कापसे इत्यादि सत्याग्रहियों के नाम प्रमुख हैं। यह सूची अत्यन्त प्रदीर्घ है लेकिन स्थानाभाव के कारण कुछ व्यक्तियों के ही नाम दिए गए हैं। इन सभी स्वतन्त्रता सेनानियों के त्याग, बलिदान, राष्ट्रप्रेम, सिद्धान्तप्रियता इत्यादि मूल्यों के कारण ही भारतवर्ष की आजादी के बाद लगभग १३ महीने बाद हैदराबाद राज्य स्वतन्त्र हुआ।

शेष भाग अगले अंक में……

My Only True Friend By Vatsala Radhakeesoon

My Only True Friend

Hectic, hectic is mundane life;
Human beings can barely enjoy time.

To No Human Heart I’m now attached,
Fragile expectations have long ago been smashed.

‘OM,OM,OM*’ in my mind his name rhymes,
Senses, Soul connect to the Omniscient Divine;
My anger,fears, torments he deeply understands,
His justice, love ,strength aren’t like slippery grains of sand.

I feel for me he’s always there,
Whatever he does he’s always fair,
He’s my only True Friend -The Divine
whom in my life flawlessly, constantly shines.

Vatsala Radhakeesoon

*OM: According to the Vedas, the main name of God

An Islamic Caliphate in Seven Easy Steps By Yash Arya

http://www.spiegel.de/international/the-future-of-terrorism-what-al-qaida-really-wants-a-369448.html

An Islamic Caliphate in Seven Easy Steps

In the introduction, the Jordanian journalist writes, “I interviewed a whole range of al-Qaida members with different ideologies to get an idea of how the war between the terrorists and Washington would develop in the future.” What he then describes between pages 202 and 213 is a scenario, proof both of the terrorists’ blindness as well as their brutal single-mindedness. In seven phases the terror network hopes to establish an Islamic caliphate which the West will then be too weak to fight.

    • The First Phase Known as “the awakening” — this has already been carried out and was supposed to have lasted from 2000 to 2003, or more precisely from the terrorist attacks of September 11, 2001 in New York and Washington to the fall of Baghdad in 2003. The aim of the attacks of 9/11 was to provoke the US into declaring war on the Islamic world and thereby “awakening” Muslims. “The first phase was judged by the strategists and masterminds behind al-Qaida as very successful,” writes Hussein. “The battle field was opened up and the Americans and their allies became a closer and easier target.” The terrorist network is also reported as being satisfied that its message can now be heard “everywhere.”
    • The Second Phase “Opening Eyes” is, according to Hussein’s definition, the period we are now in and should last until 2006. Hussein says the terrorists hope to make the western conspiracy aware of the “Islamic community.” Hussein believes this is a phase in which al-Qaida wants an organization to develop into a movement. The network is banking on recruiting young men during this period. Iraq should become the center for all global operations, with an “army” set up there and bases established in other Arabic states.
    • The Third Phase This is described as “Arising and Standing Up” and should last from 2007 to 2010. “There will be a focus on Syria,” prophesies Hussein, based on what his sources told him. The fighting cadres are supposedly already prepared and some are in Iraq. Attacks on Turkey and — even more explosive — in Israel are predicted. Al-Qaida’s masterminds hope that attacks on Israel will help the terrorist group become a recognized organization. The author also believes that countries neighboring Iraq, such as Jordan, are also in danger.
    • The Fourth Phase Between 2010 and 2013, Hussein writes that al-Qaida will aim to bring about the collapse of the hated Arabic governments. The estimate is that “the creeping loss of the regimes’ power will lead to a steady growth in strength within al-Qaida.” At the same time attacks will be carried out against oil suppliers and the US economy will be targeted using cyber terrorism.
    • The Fifth Phase This will be the point at which an Islamic state, or caliphate, can be declared. The plan is that by this time, between 2013 and 2016, Western influence in the Islamic world will be so reduced and Israel weakened so much, that resistance will not be feared. Al-Qaida hopes that by then the Islamic state will be able to bring about a new world order.
    • The Sixth Phase Hussein believes that from 2016 onwards there will a period of “total confrontation.” As soon as the caliphate has been declared the “Islamic army” it will instigate the “fight between the believers and the non-believers” which has so often been predicted by Osama bin Laden.
  • The Seventh Phase This final stage is described as “definitive victory.” Hussein writes that in the terrorists’ eyes, because the rest of the world will be so beaten down by the “one-and-a-half billion Muslims,” the caliphate will undoubtedly succeed. This phase should be completed by 2020, although the war shouldn’t last longer than two years.

author can be reached at https://yasharya.wordpress.com/2015/04/09/an-islamic-caliphate-in-seven-easy-steps/

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आर्यसमाज से सीखोः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आर्यसमाज से सीखोः हिन्दू समाज वेद विमुख होने से अनेक कुरीतियों का शिकार है। एक बुराई दूर करो तो चार नई बुराइयाँ इनमें घुस जाती हैं। सत्यासत्य की कसौटी न होने से हिन्दू समाज में वैचारिक अराजकता है। धर्म क्या है और अधर्म क्या है? इसका निर्णय क्या स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी भाषण से होगा? गीता की दुहाई देने लगे तो गीता-गीता की रट आरम्भ हो गई। गीता में श्री कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है कि मैं वेदों में सामवेद हूँ। क्या यह नये हिन्दू धर्म रक्षक वेद के दस बीस मन्त्र सुना सकते हैं?

एक शंकराचार्य बोले साईं बाबा हमारे भगवानों की लिस्ट में नहीं तो दूसरा साईं बाबा भड़क उठा कि साईं भगवान है। इस पर श्री भागवत जी भी चुप हैं और तोगड़िया जी भी कुछ कहने से बचते हैं। प्राचीन संस्कृति की दुहाई देने वाले प्राचीनतम सनातन धर्म वेद से दूर रहना चाहते हैं। धर्म रक्षा शोर मचाने से नहीं, धर्म प्रचार से ही होगी। दूसरों को ही दोष देने से बात नहीं बनेगी। अपने समाज के रोगों का इलाज करो। सनातन धर्म के विद्वान् नेता पं. गंगाप्रसाद शास्त्री ने लिखा है कि पादरी नीलकण्ठ शास्त्री काशी प्रयाग आदि तीर्थों पर प्रचार करता रहा कोई हिन्दू उसका सामना न कर पाया। ऋषि दयानन्द मैदान में उतरे तो उसकी बोलती बन्द हो गयी।

कल्याण में एक शंकराचार्य का लेख छपा कि ओ३म् केवल है केवल ही कर देगा। ब्राह्मणेतर सबको ओ३म् के जप करने से डरा दिया। संघ परिवार ने क्या उसका उत्तर  दिया? उत्तर देना आर्यसमाज ही जानता है। ये लोग सीखेंगे नहीं । ये अमरनाथ यात्रा के लंगर लगाकर धर्म रक्षा नहीं कर सकते। टी.वी. पर एक मौलवी ने इन्हें कहा, इस्लाम मुहम्मद से नहीं  रत आदम व हौवा से आरम्भ होता है। यह आदि सृष्टि से है। विश्व हिन्दू परिषद् का नेता, प्रवक्ता उसका प्रतिवाद न कर सका। कोई आर्यसमाजी वहाँ होता तो दस प्रश्न करके उसे निरुत्तर  करा देता। आदम व माई हौवा के पुत्र पुत्रियों की शादी किस से हुई? उनके सास ससुर कौन थे? एक जोड़े से कुछ सहस्र वर्ष में इतनी जनसंख्या कैसे हो गई?

एक मियाँ ने कहा जन्म से हर कोई मुसलमान ही पैदा होता है। किसने उसका उत्तर  दिया?

शंकराचार्य की गद्दी पर आज भी ब्राह्मण ही बैठ सकता है। काशी, नासिक, बैंगलूर आदि नगरों में विश्व हिन्दू परिषद् एक तो वेदपाठशाला दिखा दे जहाँ सबको वेद के पठन पाठन का अधिकार हो। काशी में कल्याणी देवी नाम के एक आर्य कन्या को मालवीय जी के जीवन काल में धर्म विज्ञान की एम.ए. कक्षा में वेद पढ़ने से जब रोका गया तो आर्य समाज को आन्दोलन करना पड़ा । यह कलङ्क का टीका कब तक रहेगा?

पं. गणपति शर्मा जी का वह शास्त्रार्थः- एक स्वाध्यायशील प्रतिष्ठित भाई ने पं. गणपति शर्मा जी के पादरी जानसन से शास्त्रार्थ के बारे में कई प्रश्न पूछ लिये। संक्षेप से सब पाठक नोट कर लें । यह शास्त्रार्थ १२ सितम्बर सन् १९०६ में हजूरी बाग श्रीनगर में महाराजा प्रतापसिंह के सामने हुआ। यह गप्प है, गढ़न्त है कि तब राज्य में आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध था। पोपमण्डल अवश्य वेद प्रचार में बाधक था। तब श्रीनगर आर्यसमाज के मन्त्री महाशय गुरबख्श राय थे। हदीसें गढ़नेवालों ने सारा इतिहास प्रदूषित करने की ठान रखी है। मन्त्री गुरबख्श राय जी का छपवाया समाचार इस समय मेरे सामने है। और क्या प्रमाण दूँ?

ये चार राम थेः पं. लेखराम, पं. मणिराम (पं. आर्यमुनि), लाला मुंशीराम तथा पं. कृपाराम (स्वामी श्री दर्शनानन्द)। हम पहले बता चुके हैं कि पं. आर्यमुनि जी उदासी सम्प्रदाय से आर्यसमाज में आये थे अतः आपको सिख साहित्य का अथाह ज्ञान था। वेद शास्त्र मर्मज्ञ तो थे ही। पुराने पत्रों में यह समाचार मिलता है कि इस काल में सिख ज्ञानियों के मन में यह विचार आया कि जीव ब्रह्म के भेद और सम्बन्ध विषय में किसी दार्शनिक विद्वान् की स्वर्ण मन्दिर में व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाये। तब एक मत से सबने पं. आर्यमुनि जी को इसके लिये चुना।

पण्डित जी ने लगातार सात दिन तक जीव व ब्रह्म के स्वरूप, सम्बन्ध व भेद पर स्वर्ण मन्दिर में व्याख्यान दिये। सब आनन्दित हुए। इसके पश्चात् स्वर्ण मन्दिर में किसी संस्कृतज्ञ, वेद शास्त्र मर्मज्ञ की व्याख्यानमाला की कहीं चर्चा नहीं मिलती।

डॉ. रामप्रकाश जी का सुझावः- डॅा. रामप्रकाश जी से चलभाष पर यह पूछा कि आपके चिन्तन व खोज के अनुसार महर्षि दयानन्द जी के पश्चात् आर्य समाज के प्रथम वैदिक विद्वान् कौन थे? आपने सप्रमाण अपनी खोज का निचोड़ बताया, ‘‘पं. गुरुदत्त  विद्यार्थी।’’

मैंने कहा कि मेरा भी यह मत है कि सागर पार पश्चिमी देशों में जिसके पाण्डित्य की धूम मच गई निश्चय ही वे पं. गुरुदत्त थे। सन् १८९३ में अमेरिका में वितरण के लिए उनके उपनिषदों का एक ‘शिकागो संस्करण’ पंजाब सभा ने छपवाया था। इसकी एक दुर्लभ प्रति सेवक ने सभा को भेंट कर दी है। इसका इतना प्रभाव पड़ा कि अमेरिका के एक प्रकाशक ने इसे वहाँ से छपवा दिया। इस दृष्टि से पं. गुरुदत्त निर्विवाद रूप से ऋषि के पश्चात् प्रथम वेदज्ञ हुए हैं। परन्तु वैसे देखा जाये तो ऋषि जी के पश्चात् पं. आर्यमुनि आर्यसमाज के प्रथम वेदज्ञ हैं । मेरा विचार सुनकर डॉ. रामप्रकाश जी ने तड़प-झड़प में उन पर कुछ लिखने को कहा।

पण्डित जी ने राजस्थान में गंगानगर (तब छोटा ग्राम था) में संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए काशी चले गये। वे उदासी सम्प्रदाय से थे। वहीं ऋषि के दर्शन किये। एक शास्त्रार्थ भी सुना। ऋषि के संस्कृत पर असाधारण अधिकार तथा धाराप्रवाह सरल, सुललित संस्कृत बोलने की बहुत प्रशंसा किया करते थे। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी को अजमेर में बताया था कि ऋषि जी को काशी में सुनकर आप आर्य बन गये। आप ऐसे कहिये कि एक ब्रह्म जीव बन गया।

पण्डित जी का पूर्व नाम मणिराम था। आर्य समाज के इतिहास में प्रथम प्रान्तीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब थी। इसके प्रथम दो उपदेशक थे पं. लेखराम जी तथा पं. आर्यमुनि जी महाराज। दोनों अद्वितीय विद्वान्, दोनों ही शास्त्रार्थ महारथी और दोनों चरित्र के धनी, तपस्वी, त्यागी और परम पुरुषार्थी थे। पण्डित जी जब सभा में आये थे तो आपका नाम मणिराम ही था। राय ठाकुरदत्त  (प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन के दादा) जी ने इन दोनों विभूतियों के तप,त्याग व लगन की एक ग्रन्थ में भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सभा के आरम्भिक काल में पेशावर से लेकर दिल्ली तक और सिंध प्रान्त व बलोचिस्तान में चार रामों ने वैदिक धर्मप्रचार की धूम मचा रखी थी।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज सुनाया करते थे कि पं. आर्यमुनि जी अपने व्याख्यानों में पहलवानों के और मल्लयुद्धों के बड़े दृष्टान्त सुनाया करते थे परन्तु थे दुबले पतले। एक बार एक सभा में एक श्रोता पहलवान ने पण्डित जी से कहा, ‘‘आप विद्या की बातें और विद्वानों के दृष्ठान्त दिया करें। कुश्तियों की बातें सुनाना आपको शोभा नहीं देता। इसके लिये बल चाहिये।’’ इस पर पण्डित जी ने कहा मल्लयुद्ध भी विद्या से ही जीता जा सकता है। इस पर पहलवान ने उन्हें ललकारा अच्छा फिर आओ कुश्ती कर लो। पण्डित जी ने चुनौती स्वीकार कर ली। सबने रोका पर पण्डित जी कपड़े उतारकर कुश्ती करने पर अड़ गये। पहलवान तो नहीं थे। अखाड़ों में कुश्तियाँ बहुत देखा करते थे। सो स्वल्प समय में ही न जाने क्या दांव लगाया कि उस हट्टे-कट्टे पहलवान को चित करके उसकी छाती पर चढ़कर बैठ गये। श्रोताओं ने बज्म (सभा) को रज्म (युद्धस्थल) बनते देखा। लोग यह देखकर दंग रहे गये कि वेद शास्त्र का यह दुबला पतला पण्डित मल्ल विद्या का भी मर्मज्ञ है।

पण्डित जी का जन्म बठिण्डा के समीप रोमाना ग्राम का है। वे एक विश्वकर्मा परिवार में जन्मे थे। गुण सम्पन्न थे। कवि भी थे। हिन्दी व पंजाबी दोनों भाषाओं के ऊँचे कवि थे।

बड़ों ने सिखायाःप्रा राजेंद्र जिज्ञासु

बड़ों ने सिखायाः मेरे प्रेमी पाठक जानते हैं कि मैं यदा-कदा अपने लेखों व पुस्तकों में उन अनेक आर्य महापुरुषों व विद्वानों के प्रति कृतज्ञता व आभार प्रकट करता रहता हूँ जिन्होंने मुझे कुछ सिखाया, बनाया अथवा जिनसे मैंने कुछ सीखा। मैंने प्रामाणिक लेखन के लिये नई पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिए ‘दयानन्द संदेश’ में पं. लेखराम जी तथा पूजनीय स्वामी वेदानन्द जी की एक-एक घटना दी थी। कुछ युवकों को ये दोनों प्रसंग अत्यन्त प्रेरक लगे। तब कुछ ऐसे और प्रसंग देने की मांग आई।

आज लिखने के लिये कई विषय व कई प्रश्न दिये गये हैं परन्तु दो मित्रों के चलभाष पाकर प्रामाणिक लेखन के लिए  अपने दो संस्मरण देना उपयुक्त व आवश्यक जाना। श्री वीरेन्द्र ने सन् १९५७ में अपनी जेल यात्रा पर एक लेखमाला में लिखा था कि उनके साथ वहीं उनके पिता श्री महाशय कृष्ण जी व आनन्द स्वामी जी को बन्दी बनाया गया। महाशय जी की आयु अधिक थी, शरीर निर्बल व कुछ रोगी भी था। उन्हें रात्रि समय शरीर में बहुत दर्द होने से नींद नहीं आती थी । एक रात्रि शरीर दुखने से वे हाय-हाय कर रहे थे। वीरेन्द्र जी को गहरी नींद में पिता के कष्ट का पता ही न चला। आनन्द स्वामी जी वैसे ही दो-तीन बजे के बीच उठने के अभ्यासी थे। आप उठे और महाशय जी के शरीर को दबाने लगे।

महाशय जी समझे के वीरेन्द्र मेरा शरीर दबा रहा है फिर पता चला कि श्री आनन्द स्वामी जी उनकी टांगें बाहें दबा रहे हैं। आपने महात्मा जी को रोका। आप संन्यासी हैं, ऐसा मत करें। श्री स्वामी ने कहा, आप मुझ से बड़े हैं। हमारे नेता हैं। सेवा करने का मेरा अधिकार मत छीनिये।

इस घटना की जाँच व पुष्टि के लिए मैं आनन्द स्वामी जी के पास गया। आपने भी वही कुछ बताया और कहा कि महाशय जी का ध्यान बदलने के लिये मैं उन्हें हँसाता रहता, चुटकले सुनाता इत्यादि। मेरे ऐसा करने से इतिहास की पुष्टि हो गई। प्रामाणिकता को बल मिला। प्रसंग से पाठकों को अधिक ऊर्जा मिली।

स्वामी सत्यप्रकाश जी के संन्यास के पश्चात् श्री आनन्द स्वामी पहली बार तब प्रयाग गये तो आर्यों से कहा, ‘‘मैं स्वामी सत्यप्रकाश जी के दर्शन करना चाहता हूँ। उनसे मिलवा दें।’’

उन्होंने कहा, ‘‘वे आपसे मिलने आयेंगे ही।’’

श्री आनन्द स्वामी जी ने कहा, ‘‘नहीं मैं वहीं जाऊँगा।’’ उनका आग्रह देखकर समाज वाले उन्हें कटरा समाज में ले गये। महात्मा जी को देखते ही स्वामी सत्यप्रकाश उनके चरण स्पर्श करने उठे। उधर से आनन्द स्वामी उनके चरण स्पर्श करने को बढ़े। देखने वालों को इस चरण स्पर्श प्रतियोगिता का बड़ा आनन्द आया। वे दंग भी हुये।

इस घटना की जानकारी पाकर मैं महात्मा जी से मिला और कहा, ‘‘प्रयाग में स्वामी सत्यप्रकाश जी के चरण स्पर्श की अपनी घटना, आप सुनायें।’’ आपने कहा, ‘‘हमारे महान् नेता और विद्वान् पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के सपूत ने धर्मप्रचार के लिए संन्यास लिया है। मैं उनके दर्शन करने को उत्सुक था। सारी घटना सुना दी। फिर स्वामी सत्यप्रकाश जी के पास गया उनसे भी वही निवेदन किया। आपने भी घटना सुनाते हुए कहा, आनन्द स्वामी  बड़े हैं, उनके शरीर में फुर्ति है। वे जीत गये।  मैं हार गया।’’

पता चला कि उस समय श्री गौरी शंकर जी श्रीवास्तव वहीं थे। मैं उनके पास गया। दर्शक की प्रतिक्रिया जानी। इसी प्रकार इतिहास की सामग्री की खोज में मैंने सदा इसी ढंग से जाँच पड़ताल के लिए भाग दौड़ की। समय दिया। धन फूँका।

उतावलापना इतिहास रौंद देता हैः किसी योग्य युवक ने अब्दुलगफूर  पाजी जो धर्मपाल बनकर छलिया निकला उसके बारे में चलभाष पर कई प्रश्न पूछे। मैंने उन्हें कुछ बताया और कहा, उस पर कुछ मत लिखें। मेरे से मिलकर बात करें। आपकी जानकारी भ्रामक है। अधकचरे लेखकों ने इतिहास को पहले ही प्रदूषित कर रखा है। एक ने उसे महाशय धर्मपाल लिखा है। वह कभी महाशय धर्मपाल के रूप में नहीं जाना गया। सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाने का उसने भी छेड़ा था। इतिहास रौंदने वालों ने यह तो कभी नहीं बताया।

लोखण्डे जी का चलभाषः माननीय लोखण्डे जी ने इस्लाम छोड़कर आर्य समाज में प्रविष्ट होने वालों पर ग्रन्थ लिखने का मन बनाया। मैंने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा, ‘‘आप मौलाना हैदर शरीफ पर कुछ खोज करें।’’

उन्होंने पुनः सूफी ज्ञानेन्द्र व पं. देवप्रकाश जी पर कुछ जानकारी चाही। तब मुझे विवश होकर यह बताना पड़ा कि श्री लाजपतराय अग्रवाल से मिलें। वह बतायेंगे कि सन् १९७७ में इसी व्यक्ति ने हनुमानगढ़ समाज के उत्सव में घुसकर समय लेकर आर्यसमाज की भरपेट निन्दा की। किसी अन्य संगठन का गुणगान कर वातावरण बिगाड़ा । श्री लाजपतराय ने मुझे उसका उत्तर  देने के लिए अनुरोध किया । मैंने अपने व्याख्यान में सूफी के  विषैले कथन का निराकरण कर दिया। तब उसके प्रेमी संगठन के लोग मुझे पीटने को…….. मुझे कहा गया , आप भीतर कमरे मे चलिये। ये लोग आपको मारेंगे।

मैंने कहा, ‘‘जो कैरों के मारे न मरा वह इनके मारने से भी नहीं मरेगा। आये जिसका जी चाहे।’’

इसी व्यक्ति ने गंगानगर समाज में आर्यसमाज की निन्दा में कमी न छोड़ी। तब ला. खरायतीराम जी ने व मैंने उत्तर  दिया।

कोटा से भी किसी ने परोपकारी में इसकी प्रशंसा में ………मैं चुप रहा। इसी सूफी ने कभी एक अत्यन्त निराधार चटपटी कहानी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के बारे गढ़कर भ्रामक प्रचार किया। स्वामी जी महाराज का तो यह कुछ न बिगाड़ सका, यह आप ही आर्यसमाज में किनारे लग गया। व्यसनी भी था। इस पर लिखने के लिए उत्सुक जन वैदिक धर्म पर इसके दस बीस लेख तो कहीं खोजकर लायें।

मैं किसी को निरुत्साहित करने का पाप तो नहीं कर सकता, परन्तु दृढ़ता पूर्वक कहूँगा कि जो लिखो वह प्रामाणिक, प्रेरणाप्रद, खोजपूर्ण व मौलिक हो। विरोधियों के उत्तर  तो देते नहीं। जिससे न्यूज बने, कुछ भाई ऐेसे विषय ही चुनते हैं। पूज्य पं. देवप्रकाश जी के शिष्यों की खोज करके कुछ लिखो।

वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६