मित्रो बोद्ध ने कोई नया धर्म या मत नही चलाया था उनका धम्म वैदिक धर्म का एक सुधारवादी धम्म था जसी तरह वैदिक धम्म में कई मिलावट , ओर वेद विरुद्ध मत बन गये उन्हें सुधारने का कार्य बुद्ध ने किया लेकिन धीरे धीरे बुद्ध के उपदेशो में भी उनके शिष्यों ने गडबड कर दी ये धम्म भी कई सम्प्रदायों में टूट गया जिनमे अन्धविश्वास ,अश्लीलता ,जातिवाद आदि भर गये …
यहा हम बोद्ध के अष्टांगिक मार्ग की तुलना वेदों के उपदेशो से करेंगे जिससे ये साबित होगा की इस धम्म का मूल वेद ही है जो वेद में है उससे नया किसी मत की पुस्तक में नही है –
बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग धम्म चक्क प्पवत्तन सूक्त में निम्न दिए है –
(१) सम्मादिठ्ठि (सम्यक दृष्टि )- शुद्ध दृष्टि या शुद्ध ज्ञान
(२) सम्मा संकल्प (सम्यक संकल्प )-शुद्ध संकल्प
(३) सम्मा वाचा (सम्यक वाणी )- शुद्ध वाणी
(४) सम्मा कम्मन्त (सम्यक कर्म )- शुभ कर्म
(५) सम्मा आजीविका (सम्यक आजीविका )- शुद्ध जीविका वृति
(६) सम्मा व्यायाम (सम्यक व्यायाम )- शुद्ध उद्योग या परिश्रम
(७) सम्मास्ति (सम्यक स्मृति )- शुद्ध विचार
(८) सम्मा समाधि (सम्यक समाधि )- शुद्ध ध्यान व् मन की शान्ति
इन्हें बुद्ध ने आर्य अष्टांगिक मार्ग नाम दिया था ..
अब प्रत्येक को वेदों से दिखलाते है –
(१) सम्मा दिठ्ठि- ऋग्वेद में भावना से युक्त देखने ओर सुनने का उपदेश है –
भद्र कर्णेभि: श्रृणुयाम देवा भद्र पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:- ऋग्वेद १/८९/८
-मानव देखकर ओर सुनकर ही भद्र या अभद्र भावना वाला बन सकता है |
(२) सम्मा संकल्प – इस पर तो वेदों में कई मन्त्र है लेकिन हम एक ऋचा लिख देते है ताकि समझदार समझ जायेंगे –
तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु -यजु. ३४/१-६
मेरा मन शुभ विचारो .संकल्प वाला हो |
(३) सम्मा वाचा – वेदों में आया है – ” अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत -अर्थव. ३/३०/५ एक दुसरे से मनोहर वचनों का प्रयोग करते हुए मिलो |भूयास मधुसंदृश्य: -अर्थव १/३४/३ -शहद के समान मीठे होए |
(४)सम्मा कममन्त -यजुर्वेद में शुभ कर्म की प्रेरणा देते हुए कहा है – ” परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्व मा सुचरिते भज -यजु ४/२८ है अग्नि ! मुझे दुश्यचरित्र से रोको सुचरित्र या शुभ कर्म के लिए प्रेरित करो |
(५) सम्मा जीविका – अग्ने नय सुपथा राये -यजु ५/३६ ,७/४३ ४०/१६ है ईश्वर हमे धन प्राप्ति हेतु सुपथ मार्ग पर ले चल |
शुद्धो रयि निधारय -ऋग. ८/१५/८ है इंद्र परमएश्वर्य शाली ईश्वर हमे शुभ ऐश्वर्य प्रदान कर | इस तरह शुद्द आजीविका का उलेख वेदों में मिलता है |
(६) सम्मा व्यायाम – ऋग्वेद में श्रम के विषय में कहा है – ” भूम्या अंत प्रयेके चरन्ति रथस्य धूर्षु युक्तासो अस्तु | श्रमस्य दाय विभ्जन्त्येभ्यो यदा यमो भवति हमर्ये हित:||-ऋग्वेद १०/११४ /१० इसका भावार्थ है की परिश्रमी व्यक्ति को यम (ईश्वर ) श्रम दाय अवश्य देते है अर्थात पुरुस्कृत करते है |
(७) सम्मा सति – शुद्ध विचारों या स्मृति का नेतिक जीवन में बहुत महत्व है | वेदों में पवित्रता का उपदेश अनेक जगह हुआ है – ” य: पोता स पुनातु न: -ऋग्वेद ९/६७/२२ -जो पवित्र करने वाले है वे हमे पवित्र करे ..”मा पुनीहि: विश्वत: ” (ऋग ९/६७/२५ ) मुझे सभी ओर से पवित्र करे |
(८) सम्मा समाधि – समाधिस्थ योगीजन के विषय में वेद कहता है – तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवास: समिन्धते| विष्णोर्यत्परम पदम् ||- ऋग १/२२/२१ – जागरूक योगी जन व्यापक परमात्मा को स्वात्मा में पाते है |
उपर हमने बोद्ध मार्गो की वैदिक उपदेशो से तुलना की इन सभी से सिद्ध होता है कि वेद सभी मतो का मूल है ओर बुद्ध ने कोई नये उपदेश नही दिए वो वेद में पहले से ही थे |
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शैतान कहाँ है?- प्रो राजेंद्र जिज्ञासु (कुछ तड़प-कुछ झड़प फरवरी द्वितीय २०१५)
ईसाई तथा इस्लामी दर्शन का आधार शैतान के अस्तित्व पर है। शैतान सृष्टि की उत्पत्ति के समय से शैतानी करता व शैतानी सिखलाता चला आ रहा है। उसी का सामना करने व सन्मार्ग दर्शन के लिए अल्लाह नबी भेजता चला आ रहा है। मनुष्यों से पाप शैतान करवाता है। मनुष्य स्वयं ऐसा नहीं सोचता। पूरे विश्व में आज पर्यन्त किसी भी कोर्ट में किसी ईसाई मुसलमान जज के सामने किसी भी अभियुक्त ईसाई व मुसलमान बन्धु ने यह गुहार नहीं लगाई कि मैंने पाप नहीं किया। मुझ से अपराध करवाया गया है। पाप के लिए उकसाने वाला तो शैतान है।
किसी न्यायाधीश ने भी कहीं यह टिप्पणी नहीं की कि तुम शैतान के बहकावे में क्यों आये? दण्ड कर्ता को ही मिलता है। कर्ता की पूरे विश्व के कानूनविद् यही परिभाषा करते हैं जो सत्यार्थप्रकाश में लिखी है अर्थात् ‘स्वतन्त्रकर्ता’ कहिये शैतान कहाँ खो गया? फांसी पर तो इल्मुद्दीन तथा अ दुल रशीद चढ़ाये गये। क्या यह महर्षि दयानन्द दर्शन की विजय नहीं है? अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इरान, पाकिस्तान व मिश्र में इसी नियम के अनुसार अपराधी फांसी पर लटकाये जाते हैं और कारागार में पहुँचाये जाते हैं।
सर सैयद अहमद का लेख याद कीजियेः– मुसलमानों के सर्वमान्य नेता तथा कुरान के भाष्यकार सर सैयद अहमद खाँ ने अपने ग्रन्थ में एक कहानी दी है। एक मौलाना को सपने में शैतान दीख गया। मौलाना ने झट से उसकी दाढ़ी को कसकर पकड़ लिया। एक हाथ से उसकी दाढ़ी को खींचा और दूसरे हाथ से शैतान की गाल पर कस कर थप्पड़ मार दिया। शैतान की गाल लाल-लाल हो गई। इतने में मौलाना की नींद खुल गई। देखता क्या है कि उसके हाथ में उसी की दाढ़ी थी जिसे वह खींच रहा था और थप्पड़ की मार से उसी का गाल लाल-लाल हो गया था।
इस पर सर सैयद की टिप्पणी है कि शैतान का अस्तित्व कहीं बाहर नहीं (खारिजी वजूद) है। तुम्हारे मन के पाप भाव ही तुम से पाप करवाते हैं। अब प्रबुद्ध पाठक अपने आपसे पूछें कि यह क्रान्ति किसके पुण्य प्रताप से हो पाई? यह किसका प्रभाव है? मानना पड़ेगा कि यह उसी ऋषि का जादू है जिसने सर्वप्रथम शैतान वाली फ़िलास्फ़ी की समीक्षा करके अण्डबण्ड-पाखण्ड की पोल खोली।
‘जवाहिरे जावेद’ के छपने परः- देश की हत्या होने से पूर्व एक स्वाध्यायशील मुसलमान वकील आर्य सामाजिक साहित्य का बड़ा अध्ययन किया करता था। उस पर महर्षि के वैदिक सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ता गया परन्तु एक वैदिक मान्यता उसके गले के नीचे नहीं उतर रही थी। जब जीव व प्रकृति भी अनादि हैं, इन्हें परमात्मा ने उत्पन्न नहीं किया तो फिर परमात्मा इनका स्वामी कैसे हो गया? प्रभु जीव व प्रकृति से बड़ा कैसे हो गया? तीनों ही तो समान आयु के हैं। न कोई बड़ा और न ही छोटा है।
आचार्य चमूपति की मौलिक दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ के छपते ही उसने इसे क्रय करके पढ़ा। पुस्तक पढ़कर वह स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास आया। महाराज के ऐसे कई मुसलमान प्रेमी भक्त थे। उसने स्वामी जी से कहा कि आर्यसमाज की सब मान्यताएँ मुझे जँचती थीं, अपील करती थीं परन्तु प्रकृति व जीव के अनादि व का सिद्धान्त मैं नहीं समझ पाया था। पं. चमूपति जी की इस पुस्तक को पढ़कर मेरी सब शंकाओं का उत्तर मिल गया।
मित्रो! कहो कि यह किस की दिग्विजय है। इसी के साथ यह बता दें कि दिल्ली के चाँदनी चौक बाजार में किसी गली में एक प्रसिद्ध मुस्लिम मौलाना महबूब अली रहते थे। मूलतः आप चरखी दादरी (हरियाणा) के निवासी थे। आपने भी यह अद्भुत पुस्तक पढ़ी। फिर आपने एक बड़ा जोरदार लेख लिखा। श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने हमें उस लेख का हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा दी। अब समय मिलेगा तो कर देंगे। इस लेख में पण्डित जी के एतद्विषयक तर्कों को पढ़कर मौलाना ने सब मौलवियों से कहा था कि यदि प्रकृति व जीव के अनादित्व को स्वीकार न किया जावे तो कुरान वर्णित अल्लाह के सब नाम निरर्थक सिद्ध होते हैं। मौलाना की यह युक्ति अकाट्य है। कैसे? अल्लाह के कुरान में ९९ नाम हैं यथा न्यायकारी, पालक, मालिक, अन्नधन (रिजक) देने वाला आदि। अल्लाह के यह गुण व नाम भी तो अनादि हैं। जब जीव नहीं थे तो वह किसका पालक, मालिक था? किसे न्याय देता था? प्रकृति उत्पन्न नहीं हुई थी तो जीवों को देता क्या था? तब वह स्रष्टा (खालिक) कैसे था? किससे सृजन करता था? मौलाना की बात का प्रतिवाद कोई नहीं कर सका। अब प्रबुद्ध पाठक निर्णय करें कि यह किस की छाप है? यह वैदिक दर्शन की विजय है या नहीं?
परीक्षा में सफलता के 101 सूत्र : डॉ त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
विकास की तुलना में मुफ्त की बिजली-पानी भारी : डॉ. धर्मवीर
दिल्ली के चिरप्रतीक्षित चुनाव हो चुके। अप्रत्याशित चुनाव परिणामों ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। जीतने वालों को भी ऐसी आशा नहीं थी, हारने वालों के मन में ऐसी कल्पना नहीं थी। यह जनता का जादू है। जनता ने चला दिया, सभी ठगे रह गये। चुनाव के बाद खूब विश्लेषण हुए, होते ही हैं। इन विश्लेषकों ने मोदी-केजरीवाल की कमी और विशेषतायें खूब गिनाई। मोदी के लिए कहा गया मोदी प्रधानमन्त्री बनकर जमीन भूल गये हैं, वे आसमान में उड़ रहे हैं। राष्ट्रीय समस्याओं को छोड़ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं की बात कर रहे हैं। मोदी साथियों को धमाका रहे हैं, धर्मान्धता को बढ़ावा दे रहे हैं, हिन्दू धर्मान्धता के कारण ही मोदी की छवि खराब हुई है। मोदी को अनुचित शब्दावली प्रयोग के कारण जनता की नाराजगी झेलनी पड़ी है। मोदी अपने व्यक्तित्व को बनाने में लगे हैं आदि-आदि। इसके विपरीत केजरीवाल सरल हैं, कर्मठ हैं, सादगी पसन्द हैं, जनता के आदमी जनता की बात करते हैं आदि।
ये सब बातें चर्चा में है तो कम-अधिक इनका अस्तित्व तो होगा ही परन्तु जिन बातों से मनुष्य पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता तब तक मनुष्य अधिक नहीं बदलता। जब कोई बात मनुष्य के निजी हित को हानि पहुँचाती है तब ही वह तीव्र प्रतिक्रिया करता है। दूसरी परिस्थिति है यदि मनुष्य को कहीं अधिक लाभ दिखाई देता है तब भी वह अनायास उधर की ओर झुक जाता है। इस चुनाव में भी ये दो कारण निश्चित रूप से रहे हैं। जिन आलोचकों और विश्लेषकों ने कम ही ध्यान दिया है। मूल रूप से मोदी और केजरीवाल में कुछ भी नहीं बदला है। बदला तो मतदाता है मतदाता को प्रभावित करने वाले कारणों पर विचार करने से ये सब बात स्पष्ट हो जाती हैं।
दिल्ली के चुनाव परिणाम तो न भूतो न भविष्यति है। यदि इससे कुछ अधिक हो सकता है तो केवल तीन स्थान और केजरीवाल को मिल सकते थे उसके बाद तो होने को कुछ बचता ही नहीं। तीन स्थानों की कमी से जीत का महत्व किसी प्रकार कम नहीं होता, यह तो पूरी विधानसभा ही केजरीवाल की है। इस चुनाव परिणाम को देखकर स्वयं केजरीवाल को ही कहना पड़ा इतनी बड़ी सफलता देखकर तो डर लगता है। डर लगना स्वाभाविक है, यह परिणाम आशाओं का अम्बार लेकर आया है जिसे भगवान् भी पूरा नहीं कर सकता फिर केजरीवाल की तो बात ही क्या है।
हम समाज में जब होते हैं तब आदर्शवादी बन जाते हैं जब अकेले होते हैं तो स्वार्थी होते हैं। मनुष्य समूह में होता है तब आदर्श की बात करता है परन्तु जब व्यक्तिगत रूप से उसे किसी बात का निर्णय करना होता है तो वह स्वार्थी बनने में संकोच नहीं करता। मोदी देश की, समूह की, समाज की बात करते रहे, दूसरी ओर केजरीवाल शुद्ध रूप से व्यक्तिगत लाभ की बातें की। चुनाव से एक-दो दिन पहले की बात है, दिल्ली मेट्रो में यात्रा करते हुए सुनने को मिला, चर्चा स्वाभाविक रूप से चुनाव की थी, खड़े एक व्यक्ति ने कहा भाई केजरीवाल आया तो दाल एक सौ बीस से अस्सी रूपये हो जायेगी और पानी फ्री मिलेगा। इस मनुष्य के अन्दर सस्ती दाल और मुफ्त पानी का उत्साह देखते ही बनता था। वहाँ से केजरीवाल अच्छा है या बुरा है। ये नीति देश और समाज के हित में कैसी है? इन सब बातों पर विचार करने का अवसर ही कहाँ था?
मनुष्य कितना भी पढ़-लिख जाये या कितनी भी धोखा खा जाये परन्तु धोखे का अवसर आने पर वह लाभ की इच्छा को पूरा करने के लिए धोखा खाना स्वीकार कर लेता है। केजरीवाल ने व्यक्ति लाभ की पचासों घोषणाएँ कर डाली। इस चुनाव में केजरीवाल ने ५०० नये स्कूल, २० डिग्री कॉलेज, ३००० स्कूलों में खेल मैदान, ५०० नई बसें, डेढ़ लाख सीसी टीवी कैमरे, दो लाख शौचालय, झुग्गी वालों के लिये फ्लैट और आधी दरों पर बिजली-पानी देने का वादा किया है, जिन्हें एक आदमी अपने लिये आवश्यक समझता है। इसीलिए उसे लगता है यही व्यक्ति उसके लिए सबसे उपयुक्त है।
केजरीवाल कहते हैं दिल्ली को पूर्ण राज्य का स्तर दिलायेंगे। अधूरे राज्य की अपनी समस्याये हैं। यह ठीक बात है। आज दिल्ली के निर्णय केन्द्र सरकार गृह मन्त्रालय करता है। पुलिस गृह मन्त्रालय के आधीन है। केजरीवाल ने अपने पिछले कार्यकाल में जिस पुलिस अधिकारी का तबादला करने के लिए मुख्यमन्त्री होकर धरना तक दिया परन्तु उस अधिकारी का वे स्थानान्तरण नहीं करा सके। इसी प्रकार बड़े अधिकारियों की नियुक्ति और उनपर कार्यवाही दिल्ली मुख्यमन्त्री नहीं कर सकता। इन परिस्थितियों में कोई भी मुख्यमन्त्री और उसकी सरकार चाहेगी उसे पूर्ण अधिकार मिले। सब पर उसकी पूरी पकड़ हो। भारत के किसी कोने में ऐसी परिस्थिति हो तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का स्तर देना सरल है परन्तु दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना इस कारण सम्भव नहीं होगा कि दिल्ली में दो सरकारें हैं एक है केन्द्र की सरकार और दूसरी होगी दिल्ली की सरकार, दोनों में से दिल्ली में किसका अधिकार होगा। आज दिल्ली की सरकार केन्द्र पर निर्भर है कल दिल्ली को पूर्ण राज्य का अधिकार दिये जाने पर केन्द्र सरकार को दिल्ली में किरायेदार की स्थिति में रहना पड़ेगा। आज दिल्ली पूरे देश की राजधानी है, केन्द्र सरकार पर पूरे देश का अधिकार है। यह केन्द्र की राजधानी होने से अन्तर्राष्ट्रीय अतिथियों के आने का स्थान है, ऐसी परिस्थिति में उनकी व्यवस्था केन्द्र सरकार करेगी या दिल्ली की सरकार। अन्तिम और महत्वपूर्ण बात है मतभेद होने पर किसका आदेश मान्य होगा। आज पुलिस या प्रशासन केन्द्र के अनुसार चलता है, दिल्ली को पूर्ण राज्य का अधिकार मिलने पर जैसे राज्य के मन्त्री और विधानसभा सदस्य थानेदार पर रोब डालकर कार्य कराते हैं तब पुलिस के काम करने की क्या शैली होगी यह विचारणीय है। हमें इतिहास भी देखना चाहिए जब रूस का विधान हुआ तब ……मास्को में किन्तु गोर्बचोव का केन्द्र सरकार के पास अपना शासन चलाने के लिए कोई स्थान नहीं था। मास्को की सरकार ने संसद के निर्णयों को मानने से इन्कार कर दिया था तथा संसद पर तोप के गोले दागे थे। जहाँ दो समान अधिकारी होंगे वहाँ संघर्ष की सम्भावना तो सदा ही बनी रहेगी। यह परिस्थिति केन्द्र सरकार की जानकारी में न हो यह सम्भव तो नहीं है फिर केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य अधिकार कैसे दिलायेंगे। आज दिल्ली में दिल्ली की सरकार और दिल्ली नगर निगम में विरोधी पार्टी की सरकार है, उसमें प्रशासन और सामान्य जन उलझा होगा यह सोचा जा सकता है। इस प्रकार की सारी समस्याओं के रहते दिल्ली की केजरीवाल सरकार कितनी सफल होती है यह तो समय ही बतायेगा।
जिस प्रकार एक सामान्य व्यक्ति में उसकी दैनिक असुविधाओं को दूर करने की आशा केजरीवाल में दिखाई दी उसी प्रकार मोदी सरकार के आने से जिनको हानि हुई वे भी मोदी को अपना मत क्यों देंगे। उनमें दो वर्ग मुख्य है एक है किसान और दूसरा व्यापारी। ये दोनों ही मोदी सरकार से दुःखी हैं। मोदी के शासन में आने के समय जनता मंहगाई से दुःखी थी और मंहगाई तेजी से बढ़ रही थी। मंहगाई का मुख्य कारण बाजार में सामान की कमी है, देश से खाद्य वस्तुओं का निर्यात बड़ी मात्रा में हो रहा था अतः मंहगाई का बढ़ना निरन्तर जारी था, मोदी सरकार ने बहुत सारी वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया जिसके परिणाम स्वरूप वस्तुओं के मूल्य गिर गये। इससे सामान्य जनता को भले ही लाभ हुआ परन्तु व्यापारी को लाभ कैसे होता? व्यापारी को लाभ तो तब होगा जब बाजार में वस्तु मंहगे दाम पर बिके। इसके साथ ही व्यापारी मंहगे दाम पर बेच नहीं सकता तो वह किसान से मंहगे दाम पर खरीदेगा कैसे? इससे किसान को भी अपना माल व्यापारी को सस्ते दाम पर ही बेचना होगा। ऐसे व्यापारी और किसान मोदी का समर्थन कैसे करेंगे? यह विचारणीय होगा।
केजरीवाल का सारा जोर गैर भाजपा सरकार पर केन्द्रित रहा, दिल्ली के चुनाव के कुछ समय पूर्व दिल्ली के गिरजाघरों पर लूटपाट व तोड़-फोड़ की घटनायें होना और चुनाव से दो दिन पहले दिल्ली के चर्च और केजरीवाल के तत्वाधान में धरना प्रदर्शन करना, ठीक उसी समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत में बढ़ती हुई धार्मिक असहिष्णुता के बारे में वक्तव्य देना। यह आकस्मिक संयोग नहीं है। इसी तरह दिल्ली में अल्पसंख्यकों का ३२ सीटों पर प्रभाव है उनका निर्णायक रूप से केजरीवाल के साथ जाना, यह एक सुनियोजित कार्यक्रम की ओर संकेत करते हैं।
दिल्ली के चुनाव में पराजय के बहुत सारे कारण हैं, वहाँ एक सामाजिक कारण भी है दिल्ली में ग्रामीण क्षेत्र के किसानों में जाट मतदाता बड़ी संख्या में हैं परिणामों को देखने से पता लगता है कि वे जहाँ किसान होने से घाटे में हैं अतः मोदी विराधी हैं, वहीं जाट मतदाताओं में एक और प्रतिक्रिया भी देखने में आयी है, वह है हरियाणा का मुख्यमन्त्री गैर जाट को बनाना। राजनीति की दृष्टि से हरियाणा में मोदी को गैरजाट मतदाताओं ने ही विजय दिलाई है, अधिकांश जाट मतदाता चौटाला और हुड्डा में बंटा हुआ था। अतः मत विभाजन से इतर जातियों के मत निर्णायक बन गये। इसीलिए सरकार भी उन्हीं की बनी परन्तु जाट बहुल क्षेत्र में इतर जातियों का वर्चस्व इस समुदाय को सहज स्वीकार्य नहीं हुआ। इसका प्रभाव भी दिल्ली के चुनावों में देखा जा सकता है। इन चुनावों में भाजपा के हार की चर्चा की जा रही है, उनमें एक है पार्टी में चुनाव को लेकर गलत निर्णय लिये। इसमें किसी को भी सन्देह नहीं रहना चाहिए कि दुर्घटना गलत निर्णय का ही परिणाम होता है। मूल्यांकन में भूल कहीं भी हुई हो परिणाम तो गलत आयेगा ही। इसके अतिरिक्त इस चुनाव में ध्यान देने की बात है जो लोग मोदी के नकारात्मक चुनाव की आलोचना कर रहे हैं वे वास्तव में मोदी के नकारात्मक प्रचार के सूत्रधार हैं। मोदी प्रधानमन्त्री बन गये यह तो ठीक है परन्तु जिनको मोदी का प्रधानमन्त्री बने रहना रास नहीं आ रहा, उन समाचार पत्रों, दूरदर्शनतन्त्र संचालकों की तथा समाचार समीक्षकों की कमी नहीं है। उदाहरण के लिए ये समालोचक मोदी की हार के लिए संघ के घर वापसी या धर्मान्तरण की घटनाओं की गला फाड़कर आलोचना करते हैं, वे अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत विरोधी आलोचना की निन्दा करने के स्थान पर मोदी के विरोध में उस कथन को प्रमाण मानने में गौरव का अनुभव करते हैं। कोई हिन्दू ईसाई या मुसलमान बनता है तो उसे धर्मपरिवर्तन का अधिकार वैयक्तिक स्वन्त्रता कहा जाता है, उसके विपरीत यदि कोई ईसाई हिन्दू बन जाये तो इसे साम्प्रदायिक संकीर्णता घोषित कर दिया जाता है। यह दोहरापन इसी कारण है कि इन लोगों की निष्ठा न अपने देश के प्रति है, न अपने धर्म के प्रति, इनकी निष्ठा तो इन्हें सुविधा और साधन उपल ध कराने वालों के प्रति है जो देश और संगठन इस समाचार तन्त्र को बड़ी मात्रा में धन राशि उपल ध कराते हैं, ये समाचार पत्र, चैनल उन्हीं का पक्ष लेते हैं, उन्हीं का गुणगान करते हैं। न तो मोदी ने अपना दृष्टिकोण बदला है और न ही केजरीवाल ने फिर यह जीत-हार का इतना बड़ा अन्तर आया तो कैसे? यह परिस्थिति उसकी व्याख्या करती है जो लोग जिन कारणों से केजरीवाल का विरोध करते थे, तो क्या केजरीवाल बदल गये हैं? केजरीवाल के विचार तो वही है, चाहे विदेशी धन लेने का हो या मुसलमानों के तुष्टिकरण का। बदला तो केवल मतदाता का मन है। यह चुनाव जनता की विजय है, वह जिसको चाहे हरा दे, जिसको चाहे जिता दे परन्तु राष्ट्रीयता की दृष्टि से देखें तो यह जीत तुष्टिकरण को बढ़ावा देने वाली और राष्ट्रीय विचारधारा को दुर्बल करने वाली है। अन्ततोगत्वा दिल्ली की जनता ने जो किया है उसका आदर ही करना चाहिए। वेद ने कहा है जो दिल में है वह कब बदल जाये कहा नहीं जा सकता। दूसरा क्या सोचता है अपने निश्चय को कब बदल देता है निश्चयपूर्वक कहा नहीं जा सकता, अतः कहा गया है-
अन्यस्य चि ामभिसंचरेण्यमुताधीतं विनश्यति।
– धर्मवीर
स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)
स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व
(स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)
– नवीन मिश्र
स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती एक वैज्ञानिक संन्यासी थे। वे एक मात्र ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जो वैज्ञानिक के रूप में जेल गए थे। वे दार्शनिक पिता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के एक दार्शनिक पुत्र थे। आप एक अच्छे कवि, लेखक एवं उच्चकोटि के गवेषक थे। आपने ईशोपनिषद् एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों का हिन्दी में सरल पद्यानुवाद किया तथा वेदों का अंग्रेजी में भाष्य किया। आपकी गणना उन उच्चकोटि के दार्शनिकों में की जाती है जो वैदिक दर्शन एवं दयानन्द दर्शन के अच्छे व्याख्याकार माने जाते हैं। परोपकारी के नवम्बर (द्वितीय) एवं दिसम्बर (प्रथम) २०१४ के सम्पादकीय ‘‘आदर्श संन्यासी- स्वामी विवेकानन्द’’ के देश में धर्मान्तरण, शुद्धि, घर वापसी की जो चर्चा आज हो रही है साथ ही इस सम्बन्ध में स्वामी सत्यप्रकाश जी के ३० वर्ष पूर्व के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इसी क्रम में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘अध्यात्म और आस्तिकता’’ के पृष्ठ १३२ से उद्धृत स्वामी जी का लेख पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत है-
‘‘विवेकानन्द का हिन्दुत्व ईसा और ईसाइयत का पोषक है।’’
‘‘महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अवतारवाद और पैगम्बरवाद दोनों का खण्डन किया। वैदिक आस्था के अनुसार हमारे बड़े से बड़े ऋषि भी मनुष्य हैं और मानवता के गौरव हैं, चाहे ये ऋषि गौतम, कपिल, कणाद हों या अग्नि, वायु, आदित्य या अंगिरा। मनुष्य का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से है मनुष्य और परमात्मा के बीच कोई बिचौलिया नहीं हो सकता- न राम, न कृष्ण, न बुद्ध, न चैतन्य महाप्रभु, न रामकृष्ण परमहंस, न हजरत मुहम्मद, न महात्मा ईसा मूसा या न कोई अन्य। पैगम्बरवाद और अवतारवाद ने मानव जाति को विघटित करके सम्प्रदायवाद की नींव डाली।’’
हमारे आधुनिक युग के चिन्तकों में स्वामी विवेकानन्द का स्थान ऊँचा है। उन्होंने अमेरिका जाकर भारत की मान मर्यादा की रक्षा में अच्छा योग दिया। वे रामकृष्ण परमहंस के अद्वितीय शिष्य थे। हमें यहाँ उनकी फिलॉसफी की आलोचना नहीं करनी है। सबकी अपनी-अपनी विचारधारा होती है। अमेरिका और यूरोप से लौटकर आये तो रूढ़िवादी हिन्दुओं ने उनकी आलोचना भी की थी। इधर कुछ दिनों से भारत में नयी लहर का जागरण हुआ-यह लहर महाराष्ट्र के प्रतिभाशाली व्यक्ति श्री हेडगेवार जी की कल्पना का परिणाम था। जो मुसलमान, ईसाई, पारसी नहीं हैं, उन भारतीयों का ‘‘हिन्दू’’ नाम पर संगठन। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई। राष्ट्रीय जागरण की दृष्टि से गुरु गोलवलकर जी के समय में संघ का रू प निखरा और संघ गौरवान्वित हुआ, पर यह सांस्कृतिक संस्था धीरे-धीरे रूढ़िवादियों की पोषक बन गयी और राष्ट्रीय प्रवित्तियों की विरोधी। यह राजनीतिक दल बन गयी, उदार सामाजिक दलों और राष्ट्रीय प्रवित्तियों के विरोध में। देश के विभाजन की विपदा ने इस आन्दोलन को प्रश्रय दिया, जो स्वाभाविक था। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की पराकाष्ठा का परिचय १९४७ के आसपास हुआ। ऐसी परिस्थिति में गाँधीवादी काँग्रेस बदनाम हुई और साम्प्रदायिक प्रवित्तियों को पोषण मिला। आर्य समाज ऐसा संघटन भी संयम खो बैठा और इसके अधिकांश सदस्य (जिसमें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब के विशेष रूप से थे) स्वभावतः हिन्दूवादी आर्य समाजी बन गए। जनसंघ की स्थापना हुई जिसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था। फिर विश्व हिन्दू परिषद् बनी। पिछले दिनों का यह छोटा-सा इतिवृत्त है।
हिन्दूवादियों ने विवेकानन्द का नाम खोज निकाला और उन्हें अपनी गतिविधियों में ऊँचा स्थान दिया। पिछले १००० वर्ष से भारतीयों के बीच मुसलमानों का कार्य आरम्भ हुआ। सन् ९०० से लेकर १९०० के बीच दस करोड़ भारतीय मुसलमान बन गये अर्थात् प्रत्येक १०० वर्ष में एक करोड़ व्यक्ति मुसलमान बनते गये अर्थात् प्रतिवर्ष १ लाख भारतीय मुसलमान बन रहे थे। इस धर्म परिवर्तन का आभास न किसी हिन्दू राजा को हुआ, न हिन्दू नेता को। भारतीय जनता ने अपने समाज के संघटन की समस्या पर इस दृष्टि से कभी सूक्ष्मता से विचार नहीं किया था। पण्डितों, विद्वानों, मन्दिरों के पुजारियों के सामने यह समस्या राष्ट्रीय दृष्टि से प्रस्तुत ही नहीं हुई।
स्मरण रखिये कि पिछले १००० वर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द अकेले ऐेसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने इस समस्या पर विचार किया। उन्होंने दो समाधान बताए- भारतीय समाज सामाजिक कुरीतियों से आक्रान्त हो गया है- समाज का फिर से परिशोध आवश्यक है। भारतीय सम्प्रदायों के कतिपय कलङ्क हैं, जिन्हें दूर न किया गया तो यहाँ की जनता मुसलमान तो बनती ही रही है, आगे तेजी से ईसाई भी बनेगी। हमारे समाज के कतिपय कलङ्क ये थे-
१. मूर्तिपूजा और अवतारवाद।
२. जन्मना जाति-पाँतवाद।
३. अस्पृश्यता या छूआछूतवाद।
४. परमस्वार्थी और भोगी महन्तों, पुजारियों, शंकराचार्यों की गद्दियों का जनता पर आतंक।
५. जन्मपत्रियों, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वासों, तीर्थों और पाखण्डों का भोलीभाली ही नहीं शिक्षित जनता पर भी कुप्रभाव। राष्ट्र से इन कलङ्कों को दूर न किया जायेगा, तो विदशी सम्प्रदायों का आतंक इस देश पर रहेगा ही।
दूसरा समाधान महर्षि दयानन्द ने यह प्रस्तुत किया कि जो भारतीय जनता मुसलमान या ईसाई हो गयी है उसे शुद्ध करके वैदिक आर्य बनाओ। केवल इतना ही नहीं बल्कि मानवता की दृष्टि से अन्य देशों के ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैनी सबसे कहो कि असत्य और अज्ञान का परित्याग करके विद्या और सत्य को अपनाओ और विश्व बन्धुत्व की संस्थापना करो।
विवेकानन्द के अनेक विचार उदात्त और प्रशस्त थे, पर वे अवतारवाद से अपने आपको मुक्त न कर पाये और न भारतीयों को मुसलमान, ईसाई बनने से रोक पाये। यह स्मरण रखिये कि यदि महर्षि दयानन्द और आर्य समाज न होता तो विषुवत रेखा के दक्षिण भाग के द्वीप समूह में कोई भी भारतीय ईसाई होने से बचा न रहता। विवेकानन्द के सामने भारतीयों का ईसाई हो जाना कोई समस्या न थी।
आज देश के अनेक अंचलों में विवेकानन्द के प्रिय देश अमेरिका के षड़यन्त्र से भारतीयों को तेजी से ईसाई बनाया जा रहा है। स्मरण रखिये कि विवेकानन्द के विचार भारतीयों को ईसाई होने से रोक नहीं सकते, प्रत्युत मैं तो यही कहूँगा कि यदि विवेकानन्द की विचारधारा रही तो भारतीयों का ईसाई हो जाना बुरा नहीं माना जायेगा, श्रेयस्कर ही होगा। विवेकानन्द के निम्न श दों पर विचार करें- (दशम् खण्ड, पृ. ४०-४१)
मनुष्य और ईसा में अन्तरः– अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणि के रूप में तुम ईसा कभी नहीं हो सकते। ब्रह्म, ईश्वर और मनुष्य दोनों का उपादान है। …… ईश्वर अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं, स्वामी विवेकानन्द के विचार से ईसा ईश्वर है और हम और आप साधारण व्यक्ति हैं। हम सेवक और वह स्वामी है।
इसके आगे स्वामी विवेकानन्द इस विषय को और स्पष्ट करते हैं, ‘‘यह मेरी अपनी कल्पना है कि वही बुद्ध ईसा हुए। बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी, मैं पाँच सौ वर्षों में पुनः आऊँगा और पाँच सौ वर्ष बाद ईसा आये। समस्त मानव प्रकृति की यह दो ज्योतियाँ हैं। दो मनुष्य हुए हैं बुद्ध और ईसा। यह दो विराट थे। महान् दिग्गज व्यक्ति व दो ईश्वर समस्त संसार को आपस में बाँटे हुए हैं। संसार में जहाँ कही भी किञ्चित ज्ञान है, लोग या तो बुद्ध अथवा ईसा के सामने सिर झुकाते हैं। उनके सदृश और अधिक व्यक्तियों का उत्पन्न होना कठिन है, पर मुझे आशा है कि वे आयेंगे। पाँच सौ वर्ष बाद मुहम्मद आये, पाँच सौ वर्ष बाद प्रोटेस्टेण्ट लहर लेकर लूथर आये और अब पाँच सौ वर्ष फिर हो गए हैं। कुछ हजार वर्षों में ईसा और बुद्ध जैसे व्यक्तियों का जन्म लेना एक बड़ी बात है। क्या ऐसे दो पर्याप्त नहीं हैं? ईसा और बुद्ध ईश्वर थे, दूसरे सब पैगम्बर थे।’’
कहा जाता है कि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को भारत से बाहर निकाल दिया और आस्तिक धर्म की पुनः स्थापना की। महात्मा बुद्ध (अर्थात् वह बुद्ध जो ईश्वर था) को भी मानिये और उनके धर्म को देश से बाहर निकाल देने वाले शंकराचार्य को भी मानिये, यह कैसे हो सकता है? विश्व हिन्दू परिषद् वाले स्वामी शंकराचार्य का भारत में गुणगान इसलिए करते हैं कि उन्होंने भारत को बुद्ध के प्रभाव से बचाया, वरना ये ही विश्व हिन्दू परिषद् वाले सनातन धर्म स्वयं सेवक संघ की स्थापना करके बुद्ध की मूर्तियों के सामने नत मस्तक होते। यह हिन्दुत्व की विडम्बना है। यदि स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में बुद्ध और ईसा दोनों ईश्वर हैं तो भारत में ईसाई धर्म के प्रवेश में आप क्यों आपत्ति करते हैं। पूर्वोत्तर भारत में ईसाइयों का जो प्रवेश हो रहा है, उसका आप स्वागत कीजिये। यदि विवेकानन्द को तुमने ‘‘हिन्दुत्व’’ का प्रचारक माना है तो तुम्हें धर्म परिवर्तन करके किसी का ईसाई बनना किसी को ईसाई बनाना क्यों बुरा लगता है?
मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि विवेकानन्दी हिन्दू (जिन्हें बुद्ध और ईसा दोनों को ईश्वर मानना चाहिए) देश को ईसाई होने से नहीं बचा सकते। भारतवासी ईसाई हो जाएँ, बौद्ध हो जायें या मुसलमान हो जाएँ तो उन्हें आपत्ति क्यों? ईसा और बुद्ध साक्षात् ईश्वर और हजरत मुहम्मद भी पैगम्बर!
महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की स्थिति स्पष्ट है। हजरत मुहम्मद भी मनुष्य थे, ईसा भी मनुष्य थे, राम और कृष्ण भी मनुष्य थे। परमात्मा न अवतार लेता है न वह ऐसा पैगम्बर भेजता है, जिसका नाम ईश्वर के साथ जोड़ा जाए और जिस पर ईमान लाये बिना स्वर्ग प्राप्त न हो।
भारत को ईसाइयों से भी बचाइये और मुसलमानों से भी बचाइये जब तक कि यह ईसा को मसीहा और मुहम्मद साहब को चमत्कार दिखाने वाला पैगम्बर मानते हैं।
– आर्यसमाज, अजमेर
मख (त्रुटिहीन) प्रबन्धन (सांतसा विशेषांक प्रथम भाग) : डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
Advaitwaad Khandan Series 11: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
ग्यारहवाँ अध्याय
शंकर – सूक्तियाँ
यद्यपि शांकर – भाश्य में मौलिक भूलें हैं तथापि जैसा हम पहले कह चुके हैं श्री शंकराचार्य महाराज के भाश्य मंे अनेक ऐसी सूक्तियां पाई जाती हैं जिन से वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति के उत्थान मंे बडी सहायता मिलती है । यदि मायावाद, छायावाद, स्वप्नवाद, ब्रह्मोकवाद, जीव ईष्वर अभेद वाद, प्रकृति – विरोधवाद को छोड दिया जाय या आँख से ओझिल कर दिया जाय तो शांकर – भाश्य अर्णव मंे बहुत से रत्न हैं जो वेद तथा वैदिक ग्रन्थों से मथ कर ही निकाले गये हैं । उनसे पाठकों को बहुत लाभ हो सकता है । हम यहाँ कुछ नमूले के तौर पर देते हैं:-
(1)
वेदस्य हि निपेक्ष स्वार्थे प्रामाण्यं रवेरिति रूप विशये ।
(2।1।1 पृश्ठ 182)
वेद स्वतः प्रमाण है । इसके प्रमाणत्व में किसी अन्य को नहीं । जैसे सूय्र्य की रूप विशय में ।
(2)
ब्रह्म जिज्ञासा के लिये चार बातें चाहियेंः-
(अ) नित्यानित्य वस्तु विवेकः
नित्य और अनित्य की पहचान!
(आ) इहामुत्रार्थभोगविरागः ।
लोक और परलोक के भोग से विरक्ति!
(इ) षमदमादि साधन संपत् ।
षम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान रूपी छः मानसिक वृत्तियां ।
(ई) मुमुक्षुत्व ।
मोक्ष की इच्छा !
(3)
(1।1।1 पृश्ठ 5)
महतः ऋग्वेदादेः षास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थविद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । नहीद्रषस्य षास्त्रस्यग्र्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञ गुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः संभवोस्ति ।
(1।2।3 पृश्ठ 9)
ऋग्वेद आदि बडे षास्त्र हैं । उनमंे अनेक विद्यायें हैं । दीपक के समान वे सब अर्थों के द्योतक हैं । ऐसे सर्वगुण सम्पन्न षास्त्रों का प्रकाष सर्वज्ञ ईष्वर के सिवाय और किसी से नहीं हो सकता ।
(4)
तच्च सम्îग् ज्ञानमेकरूपं वस्तुतन्त्रत्वात् । एकरूपेण ह्यवस्थितो योऽर्थः स परमार्थ । लोके तद्विशयं ज्ञानं सम्यग्ज्ञान मित्युच्यते यथाग्निरूश्ण इति ।
(षां॰ भा॰ 2।1।11 पृश्ठ 194)
जो ज्ञान एक रूप रहे वह सम्यक् हैं, क्यांेकि वह वस्तु के आश्रित् है । परमार्थ वही है जो एक रूप में स्थित रहे, जैसे अग्नि की उश्णता ।
(5)
ध्यानं चिन्तनं यद्यपि मानसं तथापि पुरूशेण कर्तुमकतु मन्यथा वा कत्तुं षक्यं, पुरूशतन्त्रत्वात् । ज्ञानं तु प्रमाणजन्यं प्रमाणं च यथाभूत वस्तु विशयमतो ज्ञानं कर्तुमकर्तुमन्यथावा कत्र्तुमषक्य केवलं वस्तु तन्त्रमेव तत् ।
(1।1।4 पृश्ठ 18)
ध्यान यद्यपि मानस व्यापार है तो भी वह पुरूश के अधीन है, करे, न करे, या अन्यथा करे । ज्ञान प्रमाण जन्य है प्रमाण वस्तु विशय के आश्रित है । इसलिये ज्ञान मंे करने, न करने, या उल्टा करने का प्रष्न नहीं । वह वस्तु के आधीन है
(6)
ज्ञानस्य नित्यत्वे ज्ञानक्रियां प्रति स्वातंत्र्यं ब्रह्मणो हीयते । अथानित्यं तदिति ज्ञानक्रियाया उपरमेतापि ब्रह्म, तदा सर्वज्ञान षक्तिमत्त्वेनैव सर्वज्ञत्वमापतति ।
(1।1।5 पृश्ठ 25)
यदि ब्रह्म सर्वज्ञ है और उसका ज्ञान नित्य है तो संसार मंे जो क्रियायें हुआ करती हैं उनके जानने के लिये ब्रह्म स्वतन्त्र न रहेगा । क्यांेकि उसका ज्ञान बदलेगा नहीं । और यदि वह ज्ञान अनित्य है तो ब्रह्म कभी ज्ञान क्रिया से उपरत भी हो जायगा । अर्थात् ब्रह्म कभी ज्ञान क्रिया को नहीं भी करेगा । इसलिये यही मानना चाहिये कि ब्रह्म की सर्वज्ञता से ‘‘सर्वज्ञान – षक्ति’’ ही अभिप्रेत है ।
(7)
‘‘प्राण’’ के चार अर्थ:-
(1) वायुमात्र (2) देवतात्मा (3) जीव (4) परंब्रह्म ।
(1।1।28 पृश्ठ 56)
(8)
न ह्यन्यत्र परमात्मज्ञानाद्धिततम प्राप्तिरस्ति ।
(1।1।28 पृश्ठ 57)
परमात्मा के ज्ञान से इतर और कोई परम हितकारी प्राप्ति नहीं है ।
(9)
क्रतुः संकल्पो ध्यानमित्यर्थः ।
(1।2।1 पृश्ठ 63)
‘क्रतु’ का अर्थ है संकल्प या ध्यान!
(10)
यद्यपि अपौरूशेये वेदे वक्तुरभावान् नेच्छार्थः संभवति तथा प्युपादानेन फलेनोपचर्यते । लोके हि यच्छब्दाभिहितमुपादेयं भवति तद् विवक्षितमित्युच्यते, यदनुपादेयं तदविवक्षितमिति तद् वद् वेदेप्युपादेयत्वेनाभिहितं
विवक्षितं भवति इतरदविवक्षितम् ।
(1।2।2 पृश्ठ 64-35)
वेद अपौवुशेय है । कोई उसका वक्ता नहीं । इसलिये कहने की इच्छा का प्रष्न नहीं उठता । तथापि उपादान फल के उपचार से ऐसा कहा जाता है । लोक मंे देखते हैं कि जो उपादेय है उसको विवक्षित (कहने योग्य) कहते हैं । जो उपादेय नहीं उसको ‘अविवक्षित’ । ऐसे ही वेद मंे भी है ।
(11)
नन्वोष्वरोपि षरीरे भवति । सत्यम् । षरीरे भवति न तु षरीर एव भवति, ‘ज्यायान् पृथिव्या ज्यायानन्तरिक्षात्’ ‘आकाषवत् सर्वगतश्च नित्यः’ इति च व्यापित्वश्रवणात् । जीवस्तु षरीर एव भवति, तस्य भोगाधिश्ठानाच्छरीरादन्यत्र वृत्त्यभावात् ।
(षां॰ भा॰ 1।2।3 पृश्ठ 66)
जीव को ‘षरीर’ (षरीर वाला) कहते हैं । ईष्वर को नहीं । इस पर प्रष्न करते हैं कि जब ईष्वर भी षरीर मंे रहता है तो वह भी षारीर क्यों नहीं? इसका उत्तर देते हैं । यह ठीक है कि ईष्वर षरीर में है । परन्तु ‘षरीर मंे ही है’ ऐसा नहीं। श्रुति में कहा है कि ‘वह पृथ्वी से भी बडा है’, । अन्तरिक्ष से भी बडा है । आकाष के समान व्यापक है नित्य है । इसके विरूद्ध जीव केवल षरीर में ही है । षरीर से बाहर नहीं । षरीर ही उसके भोग का स्थान है । षरीर से बाहर उसकी वृत्ति नहीं । अतः जीव ही ‘‘षारीर’’ है । ईष्वर नहीं ।
(12)
कर्मफल भोगस्य प्रतिशेवकमेतद् दर्षनं, तस्य संनिहितत्वात् । न विकारसंहारस्य प्रतिशेधकं, सर्ववेदान्तेशु सृश्टि स्थिति संहार कारणत्वेन ब्रह्मणः प्रसिद्धत्वात् ।
(1।2।9 पृश्ठ 70)
ईष्वर कर्मफल का भोक्ता नहीं । इसका यह अर्थ नहीं कि ईष्वर सृश्टि मंे विकार और संहार भी नहंी करता । सब वेदान्त मंे प्रसिद्ध है कि ईष्वर स्त्रश्टि, स्थिति और संहार करने वाला है ।
(13)
विष्वश्चायं नरष्चेति, विष्वेशां वायं नरः, विष्वे वा नरा अस्येति विष्वानरः परमात्मा, सर्वात्मत्वात् । विष्वानर एव वैष्वानरः ।
अग्नि षब्दोपि अग्रणीत्वादि योगाश्रयेण परमात्म विशय एव भविश्यन्ति ।
(1।2।28 पृश्ठ 91)
परमात्मा को वैष्वानर कहते हैं क्योंकि वह विष्व नर या विष्व का नर है । या सब नर उसी के हैं ।
अग्रणी होने से अग्नि भी ईष्वर का ही नाम है ।
(देखो स्वामी दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाष समुल्लास पहला) ।
(14)
सर्वाणीन्द्रियकृतानि पापानि वारयतीति सा वरणा, सर्वाणीन्द्रियकृतानि पापानि नाषयतीति सा नासीति ।
भ्रुवोघ्राणस्य च यः संधिः स एश द्यौलोकस्य परस्य च संधि र्भवति ।
(1।2।32 पृश्ठ 93)
जो पापों को वारे वह वरणा, जो उनको नासे वह नासी । यह ‘वाराणसी’ की व्युत्पत्ति है । नाक के ऊपर भौओं के बीच का भाग ईष्वर के ध्यान होने से ‘वाराणसी’ है । आजकल ‘वाराणसी’ काषी या बनारस नगर का नाम है ।
(15)
नहीदमतिगम्भीरं भावयाथत्म्यं मुक्तिनिबन्धनमागममन्तरे-णोत्प्रेक्षितुमपि षक्यम् रूपाद्यभावाद्धि नायमार्थः प्रत्यक्षगोचरः, लिंगाद्यभावाच्च नानुमानादीनामिति चावोचाम ।
(2।1।11 पृश्ठ 193)
मुक्ति का विशय अति गंभीर है । इसलिये वेद से ही इसका ज्ञान होता है । मुक्ति में न तो रूप आदि है कि प्रत्यक्ष से ज्ञान हो सकता । न लिंग आदि हैं कि अनुभव आदि से ज्ञान हो सके ।
(16)
यद्यपि अस्माकमियं जगद्विम्बविरचना गुरूतरसंरम्भेवाभाति तथापि परमेष्वरस्य लीलैव केवलेयम् । अपरिमित षक्तित्वात् ।
(2।1।33 पृश्ठ 217)
यद्यपि जगत् की रचना हमको बडी भारी तैय्यारी का फल प्रतीत होती तो भी ईष्वर के लिये यह लीला के समान है क्योंकि ईष्वर की षक्ति अपरिमित है ।
(17)
यथापि पर्जन्यो व्रीहि यवादि सृश्टौ साधारणं कारणं भवति, व्रीहियवादि वैशम्ये तु तत्तद् बीजगतान्येवासाधारणानि सामथ्र्यानि कारणानि भवन्ति, एवमीष्वरो देवमनुश्यादिसृश्टौ साधारणं कारणं भवति । देवमनुश्यादि वैशम्येतु तत्तज् जीवगतान्येवा साधारणानि कर्माणि कारणानि भवन्ति ।
(2।1।34 पृश्ठ 217-218)
जैसे चावल जौ आदि के उत्पत्ति मंे वर्शा साधारण कारण है और उनका भेद उनको बीजों के भेद के कारण है इसी प्रकार देव मनुश्य आदि की उत्पत्ति मंे ईष्वर सामान्य कारण है और उनके भेद उन – उन जीवों के भिन्न – भिन्न कर्मों के कारण हैं ।
(18)
‘पुर्यश्टकेन लिगंेन प्राणाद्येन स युज्यते । तेन बद्ध वै बन्धो मोक्षो मुक्तस्य तेन च ।’
षरीर के आठ बन्धन हैं । इनसे बद्ध होता है । और इनसे जो मुक्त है वही मुक्त है ।
(1) प्राणादि पच्चक्रम् ।
प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान ।
(2) भूतसूक्ष्म पच्चक्रम् ।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाष ।
(3) ज्ञानेन्द्रिय पच्चक्रम् ।
आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा ।
(4) कर्मेन्द्रिय पश्चक्रम् ।
हाथ, पैर, वाणी, पायु, उपस्थ ।
(5) अन्तःकरण चतुश्टय ।
मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार ।
(6) अविद्या ।
(7) काम वासना ।
(8) कर्म ।
(2।4।3 पृश्ठ 311)
(16)
अन्नंषब्दश्चोपभोगहेतुत्व सामान्यादनन्नेऽप्युपचयमाणो द्रष्यते । यथा विषोऽत्रं राज्ञां पषवोऽत्र विषामिति ।
(3।1।7 पृश्ठ 329)
‘अन्न’ षब्द सब उपभोग की सामग्री के अर्थों में भी आता है । केवल खाद्य पदार्थ के अर्थ में ही नहीं । जैसे प्रजा राजा का अन्न है और पषु प्रजा के अन्न हैं ।
(20)
यथेह क्षुधितावाला मातर पर्युपासते, एवं सर्वाणि भूतान्यग्निहोत्रमुपासते ।
(3।3।40 पृश्ठ 414)
जैसे भूखे बालक माता को चाहते हैं ऐसे ही सब भूत अग्निहोत्र को चाहते हैं । अर्थात् बिना अग्निहोत्र के पंचभूत अपूर्ण रहते हैं । अग्निहोत्र पूरक हैं । उससे क्षीण अंष की पूर्ति हो जाती है ।
(21)
यदा प्रक्रान्तस्य विद्यासाधनस्य कश्चित् प्रतिबन्धो न क्रियते उपस्थितविपाकेन कर्मान्तरेण तदेहैव विद्योत्पद्यते, यदा तु खलु तत् प्रतिबन्धः क्रियते तदामुत्रेति ।
(3।4।51 पृश्ठ 457)
यदि किसी अन्य कर्म का फल बाधक न हो । तो विद्या का फल इसी जन्म मंे मिलता है । और यदि कोई प्रतिबन्ध आ जाय तो दूसरे जन्म में ।
(22)
उपासनं नाम समानप्रत्यय प्रवाहकारणं न च तद् गच्छते । धावतो वा संभवति गत्यादीनां चित्तविक्षेपकत्वात् । तिश्ठतोऽपि देहधारणे व्यापृतं मनोन सूक्ष्मवस्तु निरीक्षणक्षमं भवति । षयानस्याप्यकस्मादेव निद्रयाभिभूयेत । आसीनस्य त्वेवं जातीयको भूयान् दोशः सुपरिहर इति ।
(4।1।7 पृश्ठ 470)
एक ही प्रत्यय का प्रवाह करना उपासना है । उपासना चलते या दौडते नहीं हो सकतीं । क्योंकि चलने फिरने से चित्त विक्षिप्त होता है । खडे होने में भी मन षरीर के रोके रखने में व्यग्र रहता है अतः सूक्ष्म वस्तु का निरीक्षण नहीं कर सकता । लेटने में निद्रा की संभावना रहती है । इसलिये बैठ कर ही उपासना करने में दोशों से बचत है ।
(23)
नहि वयं कर्मणः फलदायिनी षक्तिमवजानीमहे । विद्यत एव सा, सा तु विद्यादीना कारणान्तरेण प्रतिवध्यत इति बदामः ।
(4।1।13 पृश्ठ 473)
हम कर्म की फलदायिनी षक्ति का अनादर नहीं करते । वह तो होती ही है । परन्तु हमारा तो इतना कहना है कि वह विद्या आदि अन्य कारणों से दब जाती है ।
नोट – इसी का नाम कर्मक्षय है ।
(24)
स्मरति ह्यापस्तम्बः – तद् यथाम्रेफलार्थे निमिते छायागन्धावनूत्पद्येते एव धर्म चर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते । इति ।
(4।3।14 पृश्ठ 500)
आप स्तम्ब का कथन है कि जैसे फल के लिये आम लगाओ तो छाया और गन्ध ऊपर से लाभ में मिलती हैं इसी प्रकार धर्म का आचरण करने से अर्थ – लाभ तो ऊपर से हो जाता है ।
(25)
जगदुत्पत्यादि व्यापारं वर्जयित्वाऽन्यदणिमाद्यात्म कमैष्वर्यं मुक्तनां भवितुमर्हति जगद्व्यापारस्तु नित्यसिद्धस्यैतेश्वरस्य ।
(4।4।17 पृश्ठ 510)
अणिमा आदि षक्तियाँ तो मुक्त जीवों को भी प्राप्त हो जाती हैं परन्तु जगत् का रचना आदि तो नित्य सिद्ध ईष्वर के ही वष में है । अर्थात् मुक्त जीव सृश्टि की उत्पत्ति नहीं कर सकते ।
नोट – इससे ज्ञात होता है कि मुक्त जीव जिन्होंने अविद्या से छूट कर मुक्ति को प्राप्त किया है ब्रह्म नहीं हुये । वे जीव ही हैं, और नित्यसिद्ध ब्रह्म अलग है जो सृश्टि करता है । यहाँ शंकर स्वामी ने ‘ईष्वर’ षब्द अपर ब्रह्म के लिये प्रयुक्त नहीं किया जो मायावष सृश्टि उत्पत्ति करता है । शांकर मत में ईष्वर नित्य सिद्ध नहीं । ब्रह्म ही नित्य सिद्ध है ।
Advaitwaad Khandan Series 10 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
दसवाँ अध्याय
परस्पर विरोध
श्री शंकराचार्य जी महाराज मायावाद और ब्रह्म के अभिन्न – निमित्त उपादान कारणवाद को सिद्ध करना चाहते थे जो उपनिशदों, वेदान्त तथा वैदिक सिद्धान्त के विरूद्ध है । अतएव कई स्ािनों पर परस्पर विरोध हो गया है । यहाँ कुछ उद्धरण दिये जाते हैं ।
1- (अ) ‘अविकार्योऽयमुच्यते ।’
(षां॰ भा॰ 1।1।4 पृश्ठ 17)
वह ईष्वर अविकारी है ।
(क) प्राणानां ब्रह्मविकारत्व सिद्धिः ।
(षां॰ भा॰ 2।4।4 पृश्ठ 308)
इससे सिद्ध है कि प्राण ईष्वर के विकार हैं ।
2- (अ) प्रदीप प्रभायाश्च द्रव्यात्रत्वं व्याख्यातम् ।
(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)
दीपक का प्रकाष एक द्रव्य ही दूसरा है ।
(क) अग्नेरिवौश्ण्य प्रकाषौ ।
(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)
जैसे गरमी और प्रकाष अग्नि के गुण हैं ।
3- (अ) अविद्यावद् विशयाण्येव प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि च ।
(षां॰ भा॰ 1।1।1 पृश्ठ 3)
षास्त्र आदि अविद्यावत हैं । षास्त्र में वेद भी आ गया ।
(क) महतऋग्वेदादेः षास्त्रस्यानेक विद्यास्थानोपवंृहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । (षां॰ भा॰ 1।1।3 पृश्ठ 9)
वेद प्रदीप के समान स्वयं सिद्ध हैं क्यांेकि ब्रह्म ही उसकी योनि है ।
4- (अ) षरीर संबन्धस्य धर्माधर्मयोस्तत् कृतत्वस्य चेतरेताश्रयन्वप्रसंगादन्धपरम्प रैशाऽनादित्वकल्पना । (1।1।4 पृश्ठ 22)
यदि षरीर कर्म के आधीन और कर्म षरीर के आधीन मानें जायँ तो यह अनादित्व की कल्पना अन्ध परम्परा हो जायगी ।
(क) नैश दोशः । अनादित्वात् संसारस्य । (2।1।45 पृश्ठ 218)
यह दोश नहीं । क्यांेकि संसार अनादि है ।
5- (अ) तत् कृतधर्माधर्म निमित्तं सषरीरत्वमितिचेन्न । षरीरसंबन्धस्यासिद्धत्वाद् धर्माधर्मयोरात्मकृतत्वासिद्धः ।
(षां॰ भा॰ 1।4।4 पृश्ठ 22)
आत्मा के किये हुये धर्म अधर्म के कारण षरीर नहीं है । षरीर का सम्बन्ध तो सिद्ध ही नहीं, और धर्म अधर्म आत्मकृत हैं यह भी सिद्ध नहीं ।
(क) सापेक्षो हीश्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते । किमपेक्षत इति वदामः
(2।1।34 पृश्ठ 217)
ईष्वर की बनाई हुई सृश्टि की विशमता अपेक्षा के कारण है । किसकी अपेक्षा से? धर्म और अधर्म की अपेक्षा से । ऐसा हमारा कथन है ।
6- (अ) ज्ञानं तु प्रमाणजन्यम् । (1।4।4। पृ॰ 18)
ज्ञान प्रमाणों द्वारा होता है ।
(क) अविद्यावत् विशयाणि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि । (1।1।1 पृश्ठ 2)
प्रत्यक्ष आदि प्रमाण अविद्यावत् हैं ।
7- (अ) द्विरूपं हि ब्रह्मावगम्यते, नामरूप विकारभेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् । (1।1।12 पृ॰ 34)
ब्रह्म के दो रूप जाने गये हैं एक नामरूप विकार भेद उपाधि विषिश्ट और दूसरा उपाधि रहित ।
(क) समस्त विषेश रहितं निर्विकल्पकमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतम् ।
(3।2।11 पृश्ठ 356)
ब्रह्म को सब विषेशणों से मुक्त निर्विकल्प ही मानना चाहिये अन्यथा नहीं ।
8- (अ) परस्माद्धि ब्रह्मणो भूतानामुत्पत्तिरिति वेदान्तेशु मर्यादा ।
(1।1।22 पृश्ठ 47)
परब्रह्म से ही भूतों की उत्पत्ति हुई ऐसी वेदान्त वाक्यों की मर्यादा है ।
(क) उपाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात् ।
(3।2।11 पृश्ठ 355-356)
ब्रह्म में उपाधि तो अविद्या के कारण है ।
9- (अ) न ह्येकस्मिन्धर्मिणि युगपत् सदसत्त्वादि विरूद्धधर्मसमावेषः संभवति षीतोश्णवत् ।(षां॰ भा॰ 2।2।33 पृश्ठ 253)
एक ही धर्मो में एक ही समय सत् और असत् दो विरूद्ध धर्म नहीं रह सकते जैसे सर्दी और गर्मी दोनों ।
(क) तत्त्वान्यत्वाभ्याम निर्वचनीये नामरूपे । (1।1।5 पृश्ठ 27)
नाम और रूप न तत्व हैं न अतत्व । अनिर्वेचनीय हैं ।
10- (अ) अविद्यावत् विशयाणि प्रत्यक्षदीनि प्रमाणानि ।
(षां॰ भा॰ 1।1।1 पृश्ठ 2)
प्रत्यक्षादि प्रमाण अविद्यावत् हैं ।
(क) यद्धि प्रत्यक्षादीनामन्येतमेन प्रमाणेनोपलभ्यते तत् संभवति । यत् तु न केनचिदपि प्रमाणेनोपलभ्यते तत्र संभवति । (2।2।28 पृश्ठ 248)
जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध हो वह संभव है जो किसी प्रमाण से न सिद्ध हो वह असंभव ।
11- (अ) मायेव संध्ये सृश्टिनं परमार्थ गन्धोऽप्यस्ति ।
(3।2।3 पृ॰ 344)
माया के समान स्वप्न की सृश्टि मंे परमार्थ का गंध भी नहीं है ।
(क) स्मृतिरेशा यत् स्वप्न-दर्षनम् । (2।2।29 पृश्ठ 250)
स्वप्न में स्मृति की चीजें ही प्रतीत होती हैं ।
12- (अ) द्विरूपं हि ब्रह्मावगम्यते नामरूप विकार भेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् ।
(षां॰ भा॰ 1।1।12 पृश्ठ 34)
ब्रह्म के दो रूप हैं एक नाम रूप उपाधि वाला, दूसरा उपाधि रहित ।
(क) समस्त विषेशकरहितं निर्विकल्पमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतं । (3।2।11 पृश्ठ 356)
विषेश रहित, निर्घिकल्प ही ब्रह्म है । इससे विपरीत नहीं ।
न तावत् स्वत एव परस्य ब्रह्मण उभेयलिंगत्वमुपपद्यते ह्येकं वस्तु स्वत एव रूपादि विषेशोपेतं तद् विपरीतं चेत्य-वधारयितंु षक्यं विरोधात् ।
(पृश्ठ 356)
परब्रह्म मंे स्वतः ही उभय लिंगत्व नहीं हो सकता । यह नहीं हो सकता कि एक वस्तु ही स्वतः रूप आदि विषेशता वाली भी हो और इसके विपरीत भी ।
13- (अ) अयमनादिरनन्तो नैसर्गिकोऽध्यासः ।
(1।1।1 पृश्ठ 4)
यह अध्यास अनादि अनन्त नैसर्गिक है ।
(क) अस्यानर्थहेतोः प्रहाणाय आत्मैकत्व विद्या प्रति एत्तये सर्वे वेदान्ता आरभ्यन्ते
(पृश्ठ 4)
इसी अनर्थ के प्रहाण के लिये सब वेदान्त यत्न करते हैं ।
नोट – नैसंर्गिक अनादि अनन्त का प्रहाण कैसा?
14- (अ) क्रियासमवाया- भावाच्चात्मनः कर्तृतवानुपपत्तेः ।
(1।1।4 पृश्ठ 22)
आत्मा का कत्र्ता होना सिद्ध नहीं क्यांेकि आत्मा और क्रिया मंे समवाय सम्बन्ध का अभाव है ।
(क) अनादौ तु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमöावेन कर्मणः सर्गवैशम्यस्य च प्रवृतिर्न-विरूध्यते ।
(2।1।35 पृश्ठ 218)
अनादि संसार में बीज और अंकुर के समान कर्म और विशमता की प्रवृत्ति मंे कोई विरोध नहीं । अर्थात् ईष्वर जीवों के कर्मों के अनुकूल षरीर आदि देता है ।
15- (अ) इदं तु परमार्थिकं, कूटस्थनित्यं, व्योमवत् सर्वव्यापि, सर्व विक्रियाग्हितं, नित्यंतृप्तं, निरवयवं स्वयं ज्योतिः स्वभावम् ।
(1।1।4 पृश्ठ 14)
यह तो परमार्थ में कूटस्थ, नित्य, आकाष के समान सर्वव्यापक, सब क्रियाओं से षून्य नित्य तृप्त, अवयव रहित स्वयं ज्योति है ।
(क) अभिध्योपदेषाच्चात्मनः कर्तृतवप्रकृतित्वे गमयति ।
(1।4।24 पृश्ठ 176)
अभिध्या के उपदेष से ब्रह्म का कर्ता और उपादान होना सूचित होता है ।
नोट – जो विक्रिया रहित हो वह उपादान कैसा?
16- (अ) ब्रह्मणोऽपितर्हि सत्तालक्षणः स्वभाव आकाषा दिश्वनुवतमानो द्रष्यते ।
(2।1।6 पृश्ठ 187)
कारण ब्रह्म और काय्र्य आकाष दोनों में सत्तालक्षण मिलता है ।
(क) काय्र्यस्य तद्धर्माणां चाविद्याध्यारोपितत्वान्न तैः कारणं संसृज्यत इति ।
(2।1।9 पृश्ठ 191)
काय्र्य और उसके धर्म सत्य नहीं, अविद्या के आरोपित मात्र हैं ।
17- (अ) सर्वज्ञस्येश्वर-स्यात्मभूत इव
(2।1।14 पृश्ठ 201)
सर्वज्ञ ईष्वर के ही आत्मभूत ।
(क) अविद्या कल्पिते नाम-रूप ।
(2।1।14 पृश्ठ 201)
अविद्या कल्पित नाम रूप हैं ।
नोट – यहाँ एक ही वाक्य मंे दो परस्पर विरूद्ध बातें हैंः-
(1) सर्वज्ञ ईष्वर के आत्म भूत ।
(2) अविद्या कल्पित नाम-रूप ।
सर्वज्ञ ईष्वर के अविद्या कल्पित नाम रूप आत्म भूत कैसे हुये?
18- (अ) यथा च कारणं ब्रह्म त्रिशुकालेशु सत्वं न व्याभिचरति एवं कार्यमपि जगत् त्रिशु कालेशु सत्त्वं न व्याभिचरति ।
(2।1।16 पृश्ठ 203)
जैसे कारण ब्रह्म तीनों कालों मंे सत्य है इसी प्रकार काय्र्य जगत् भी तीनों कालों मे सत्य है ।
(क) जगत् मिथ्या है ।
19- (अ) अनिर्वचनीये नाम रूपे ।
(1।1।5 पृश्ठ 27)
नाम और रूप न सत् हैं न असत् । अनिर्वाचनीय हैं ।
(क) अवक्तव्याष्चेत्रोच्येरम् । उच्यन्ते चावक्तव्यष्चेति विप्रतिशिद्धम् ।
(2।2।33 पृश्ठ 253)
अवक्तव्य हैं तो कहना नहीं चाहिये था । कहे भी जाते हो । और अवक्तव्य भी कहते हो । यह तो परस्पर विरोध है ।
20- (अ) द्रष्यतेहि लोके चेतनत्वेन प्रसिद्धेभ्यः पुरूशादिभ्यो विलक्षणानां केषनखादीनामुत्पत्तिः । अचेतनत्वेन च प्रसिद्धेभ्यो गोमयादिभ्यो वृश्चिकादीनाम् ।
(2।1।6 पृश्ठ 187)
(क) विलक्षण काय्र्योत्पत्त्यभ्युपगमात् समानः प्रागुत्पत्तेरसत्काय्र्यवादप्रसंगः ।
(2।1।12 पृश्ठ 192)
विलक्षण काय्र्य की उत्पत्ति से तो असत्काय्र्य वादी हो जाओगे ।
नोट – षंकर स्वामी असत्काय्र्य वादी नहीं । तो भी विलक्षण उत्पत्ति मानते हैं ।
21- (अ) न ब्रूमो यस्मिन्नचेतने प्रवृत्तिर्द्रष्यते न तस्य सा इति । भवतु तस्यैव सा । सा तु चेतनाद् भवतीति ब्रूमः ।
(2।2।2 पृश्ठ 222)
हम यह नहीं कहते कि जिस अचेतन में प्रवृत्ति देखी जाती है वह उसकी नहीं । उसी की हो । परन्तु हम यह कहते हैं कि यह प्रवृत्ति चेतन से आती है ।
(क) देहेन्द्रियादिश्वहं ममाभिमानरहितस्य प्रमातृत्वानुपपत्तौ प्रमाणप्रवृत्यनुपपत्तेः ।
(1।1।1 पृश्ठ 2)
देह और इन्द्रिय आदि में ‘अहं’ ‘मम’ रहित प्रमाता की उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः प्रमाण की भी प्रवृत्ति नही ।
नोट – यहाँ यह क्यांे नहीं मानते कि यह प्रवृत्ति आत्मा जो चेतन है उसके कारण है?
22- (अ) यथा सुप्तस्य प्राकृतस्यजनस्य स्वप्न उच्चाव-चान्भावान्पष्यतो निष्चितमेव प्रत्यक्षाभिमतं विज्ञानं भवति प्राक्प्रबोधनात् न च प्रत्यक्षाभासाभिप्रायस्तकाले भवति, तद्वत् ।
(2।1।14 पृश्ठ 198)
जैसे स्वप्न में मनुश्य अतथ्य देखता है ऐसे ही जाग्रत में भी अतथ्य ही है ।
(क) न स्वप्नादि प्रत्ययवज् जाग्रत् प्रत्यया भवितुमर्हन्ति । कस्मात् ? वैधम्र्यात् । वैधम्र्य हि भवति स्वप्रजागरितयोः । किं पुनर्वैधम्र्यम् । बाधाबाधाविति ब्रूमः ।
(2।2।21 पृश्ठ 250)
स्वप्न के प्रत्यय और जाग्रत् के प्रत्ययों में भेद है स्वप्न के प्रत्ययों का बाध हो जाता है जाग्रत के प्रत्ययों का बाध नहीं होता ।
23- (अ) गायत्री वा इदं सर्वमिती । न ह्यक्षरंनिवेष-मात्राया गायत्र्याः सर्वात्मकत्वं संभवति । तस्माद् यद् गायत्र्याख्य विकारेऽनुगतं जगत्कारणं ब्रह्म तदिह सर्वमित्युच्यते ।
(1।1।24 पृश्ठ 54)
(क) विक्रियारहितम् ।
(1।1।4 पृश्ठ 14)
ब्रह्म विकार रहित है ।
24- (अ) नहि जीवनामात्यन्तभिन्नो ब्रह्मणः ।
(1।1।31 पृश्ठ 61)
ब्रह्म से भिन्न जीव नहीं ।
(क) नन्वीष्वरोऽपिषरीरे भवति, सत्यम् । षरीरे भवति न तु षरीर एव भवति ।………..जीवन्तु षरीरएव भवति, तस्य भोगाधिश्ठानाच्छरीरादन्यत्र वृत्त्याभावात् ।
(1।2।3 पृश्ठ 66)
ईष्वर भी षरीर में है । यह ठीक है । परन्तु षरीर में ही है ऐसा नहीं । जीव तो षरीर में ही है । षरीर से बाहर उसकी वृत्ति नहीं जाती । षरीरा उसके भोग का अधिश्ठान है ।
नोट – यहाँ जीव और ईष्वर का स्पश्ट भेद है ।
25- (अ) कर्तृतवानुपपत्तेः ।
(1।1।4 पृश्ठ 22)
(क) सर्ववेदान्तेशु सृश्टि-स्थिति संहारकारणत्वेन ब्रह्मणः प्रसिद्धत्वात् ।
(1।2।9 पृश्ठ 70)
सब वेदान्तों में प्रसिद्ध है कि ईष्वर सृश्टि, स्थिति और संहार करने वाला है ।
26- (अ) नषारीरस्य तनुमहिम्नः ।
(1।2।23 पृश्ठ 85)
जीव अल्पषक्ति है । वह सब भूतों की योनि नहीं हो सकता ।
(क) नहि जीवनामात्यन्त भिन्नो ब्रह्मणः ।
(1।1।31 पृश्ठ 61)
27- (अ) परमार्थावस्थायां सर्वव्यवहाराभावं वदन्ति वेदान्ताः सर्वे ।
(2।1।10 पृश्ठ 201)
परमार्थ अवस्था में सब व्यवहारों का अभाव होता है । ऐसा वेदान्त मानता है ।
(क) व्यवहारावस्थायां तूक्तः श्रुतावर्प ष्वरादिव्यवहारः ।
(2।1।10 पृश्ठ 201)
व्यवहार अवस्था में तो वेद में भी ईष्वरादि का व्यवहार किया है ।
नोट – व्यवहार परमार्थ से भिन्न क्यांे है? यदि व्यवहार परम अनर्थ है तो वेद में इसका प्रतिपादन क्यों है? वेद को तो सूय्र्यवत् कहा है ।
28- (अ) यत् सर्वज्ञं सर्वषक्ति ब्रह्मनित्यषुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं षारीराधिकमन्यत्, तद्वयं जगतः स्त्रश्ट ब्रूमः ।
(2।1।22 पृश्ठ 208)
जो सर्वज्ञ सर्वषक्तिमान, नित्य षुद्ध बुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव है और जीव से बडा है, उसी को हम जगत् का स्त्रश्टा कहते हैं ।
(क) जीवस्य संसारित्वं ब्रह्मणश्च स्त्रश्टंत्वं………सम्यग् ज्ञानेन बाधितत्वात् ।
(2।1।22 पृश्ठ 209)
सम्यग् ज्ञान से जीव का संसारीपन और ब्रह्म का स्त्रश्टा होना बाधित हो जाता है ।
नोट – जब बाधित हो गया तो ब्रह्म का स्त्रश्टा होना भी झूठ रहा ।
29- (अ) सामान्याद्धि विषेशा उत्पद्यमाना द्रष्यन्ते मृदादेर्घटादयो न तु विषेशेभ्यः सामान्यम् ।
(2।3।9 पृश्ठ 271)
सामान्य से ही विषेश उत्पन्न हुये देखे जाते हैं जैसे मिट्टी से घडे आदि । विषेश से सामान्य नहीं ।
नोट – यहाँ षंकर स्वामी सामान्य विषेश का भेद स्वीकार करते हैं ।
(क) न च वैषेशिकैःकल्पितेभ्यः शड्भ्यः पदार्थेभ्योऽन्येऽचिकाः षतं सहस्त्रं वार्था न कल्पयितव्या इति निवारको हेतुरस्ति ।
(2।2।17 पृश्ठ 237)
वैषेशिक ने छः पदार्थों की कल्पना की है । सौ और हजार की भी हो सकती है । कोई हेतु तो है नहीं ।
नोट – यहाँ वैषेशिकों के छः पदार्थों का मखौल उडाया है और आगे स्वयं इन्हीं को माना है
Advaitwaad Khandan Series 9 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
प्रलय का क्रम
षं॰ स्वा॰ – एवं क्रमेण सूक्ष्मं सूक्ष्मतंर चानन्तरमनन्तरं कारणमपीत्य सर्वं कार्याातं परमकारणं परमसूक्ष्म च ब्रह्माप्यतीति वेदितव्यम् ।
(षां॰ भा॰ 2।2।14 पृश्ठ 295)
इस प्रकार क्रम पूर्वक सूक्ष से सूक्ष्मतर, एक काय्र्य से उसके कारण मंे, फिर उसके कारण में, फिर उसके कारण में अन्त को सभी जगत् अन्त्य कारण परमसूक्ष्म ब्रह्म मंे लय हो जाता है ऐसा जानना चाहिये ।
हमारी आलोचना – यदि सृश्टि मिथ्या और अविद्या जन्य होती तो क्रम कैसे हो सकता था? क्रम विद्या का सूचक है न कि अविद्या का । क्रम – भंग के कारण ही तो स्वप्न विष्वसनीय नहीं होते । स्वप्नों मंे कहीं न कहीं कोई न कोई क्रम भंग ऐसा होता है जिससे स्वप्न का अतत्यत्व प्रकट हो जाता है । सृश्टि – रचना की प्रक्रिया में तो अविद्या और माया को स्थान दिया गया है परन्तु प्रलय की प्रक्रिया में नहीं । यह क्यों ? वहाँ तो केवल यह कह दिया गया:-
भूतानामुत्पत्तिप्रलयावनुलोम प्रतिलोम क्रमाभ्यां भवतः
(षां॰ भा॰ 2।3।15 पृश्ठ 275)
भूतों की उत्पत्ति और प्रलय अनुलोम प्रतिलोम क्रम से होती है । यहाँ प्रतिलोम में न कहीं अविद्या है न माया न अभ्यास । उपनिशद् में भी जहाँ उत्पत्ति का उल्लेख है वहाँ अनुलोम क्रम मंे कहीं अविद्या या माया का उल्लेख नहीं । देखोः-
‘तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाषः सम्भूतः’ (तै॰ 2।1)
यहाँ एक बात और याद रखनी चाहिये । यद्यपि माया द्वारा सृश्टि की उत्पत्ति में यह कहा जा सकता है कि कुछ क्रम तो होता है चाहे वह उलटा ही हो परन्तु यह बात प्रलय में कैसे घट सकती है? ‘माया – वाद’ से प्रलय की व्याख्या कठिन है । प्रलय और सृश्टि में क्या भेद है? यदि सृश्टि को स्वप्न माना जाय तो क्या प्रलय भी स्वप्न मंे ही षामिल है? यदि स्वप्न ही है तो भेद क्या हुआ? और यदि स्वप्न नहीं, जागृत अवस्था है तो क्रम कैसा? कल्पना कीजिये कि मैंने स्वप्न में देखा कि मैंने व्यापार किया, धन कमाया, गाय खरीदी, दूध दूहा, दही जमाया, रायता बनाया । यह था स्वप्न का क्रम । आँख खुल गई तो व्यापार, धन, गाय, दूध, दही, रायता रूपी सृश्टि एक क्षण मंे समाप्त हो गई । वहाँ प्रतिलोम प्रलय के लिये स्थान ही नहीं । यदि सृश्टि और प्रलय वास्तविक है तो अनुलोम और प्रतिलोम क्रम ठीक है । परन्तु यदि सृश्टि माया या अविद्या के कारण है तो अनुलोम प्रतिलोम क्रम का प्रष्न ही नहीं उठ सकता ।
Advaitwaad Khandan Series 8 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
शंकर और जादू
शांकर भाष्य में ‘मायावी’ अर्थात् जादूगर का उल्लेख बहुत आता है । श्री शंकराचार्य जी जादू की उपमा देकर इस संसार को मिथ्या सिद्ध करते हैं । आज कल किसी का जादूगर के जादू पर विष्वास नहीं है । बाजारों में नित्य जादू का खेल हुआ करता है । और जादूगर हाथ की चालाकी से कुछ का कुछ दिखा कर लोगों का मनोविनोद किया करते हैं । परन्तु कोई उनसे धोखा नहीं खाता । जादूगर रेत की चुटकी हाथ में लेकर कुछ मन्तर पढ कर रेत की घडी बना देता है । लोग चकित रह जाते हैं । परन्तु किसी को यह विष्वास नहीं होता कि वस्तुतः रेत की घडी बना दी गई हैं । श्री शंकराचार्य जी के समय में जादूगरों के विशय में लोगों की क्या धारणा थी इसका कुछ नमूना भाश्य से मिल जाता है । हम यहाँ कुछ उदाहरण देते हैं ।
(1)
यथा मायाविनश्चर्मखगंधरात् सूत्रेणाकाषमधिरोहतः स एव मायावी परमार्थरूपो भूमिश्ठोऽन्यः ।
(षां॰ भा॰ 1।1।17 पृश्ठ 39)
अर्थ – जैसे असली जादूगर तो जमीन पर खडा रहता है और एक झूठा जादूगर हाथ में ढाल तलवार लिये रस्सी पर चढता हुआ प्रतीत होता है इसी प्रकार जीव ब्रह्म से अलग है । ब्रह्म तो वास्तविक सत्ता है और जीव की केवल प्रतीति होती है । यहाँ श्री शंकराचार्य जी समझते हैं कि वस्तुतः एक मायावी ऊपर चढ जाता है । इसीलिये उन्होंने यह उपमा दी । बात यह नहीं है । रस्सी पर चढे हुये जादूगर भी असली ही होते हैं । उनको इस प्रकार खेल का अभ्यास रहता है कि वह षीघ्र ही उतर चढ सकते हैं । यह उपमा ब्रह्म के विशय मंे विशम ठहरती है । बादरायण के सूत्र में न तो यह उपमा है न इस सिद्धान्त का गन्धमात्र है ।
(2)
यथा स्वयं प्रसारितया मायया मायावी त्रिश्वपि कालेशु न संस्पृष्यते अवस्तुत्वात्, एवं परमात्मापि संसारमायया न संस्पृष्यत इति ।
(षां॰ भा॰ 2।1।9 पृश्ठ 191)
जैसे अपनी फैलायी हुई माया से जादूगर तीन कालों में भी दूशित नहीं होता क्यांेकि वह अवस्तु है इसी प्रकार परमात्मा भी संसार की माया से दूशित नहीं होता ।
यहाँ षं॰ स्वा॰ मान लेते हैं कि जादूगर में यह षक्ति है कि अवस्तु को वस्तु करके दिखा दे । आजकल जादूगर पर बहुत साहित्य उपस्थित है । उसके देखने से ज्ञात हो जाता है कि केवल धोखा है । जादू की उपमा ब्रह्म को देनी सर्वथा असंगत और अनुचित है ।