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डा अम्बेडकर का खंडन प. शिवपूजन सिंह कुशवाह द्वारा भाग २
पिछले लेख में शिवपूजन सिंह जी द्वारा अम्बेडकर साहब के अछूत कौन ओर केसे का खंडन हमने प्रकाशित किया था अब शुद्रो की खोज की उन बातो के खंडन का अंश जो अम्बेडकर जी ने वैदिक विचारधरा पर आक्षेप किया था उसका प्रत्युतर है |
डा. अम्बेडकर – पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रक्षिप्त किया है | कोल बुक का कथन है कि पुरुष सूक्त छंद तथा शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न है |अन्य भी विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद का बना है |
शिवपूजन सिंह जी – आपने जो पुरुष सूक्त पर आक्षेप किया है ये आपकी वेद की अनभिज्ञता प्रकट करता है |आधिभौतिक दृष्टि से चारो वर्णों के पुरुषो का समुदाय एक पुरुष रूप है | इस समदाय पुरुष या राष्ट्र पुरुष के यथार्थ परिचय के लिए पुरुष सूक्त के मुख्य मन्त्र -ब्राह्मणोंsस्य मुखमासीत …(यजु ३९/११)
पर विचार करना चाहिय | उक्त मन्त्र में कहा है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय भुजाय, वैश्य जंघाए,शुद्र पैर ,,केवल मुख पुरुष नही ,भुजाय पुरुष नही ,जंघाए पुरुष नही ,पैर पुरुष नही अपितु मुख ,भुजाय ,जंघाए ,पैर इन सबका समुदाय पुरुष है | वह समुदाय भी यदि असंगत ,या क्रमरहित अवस्था में है तो उसे हम पुरुष नही कह सकते है | उसे पुरुष तभी कहेंगे जब वो एक विशेष प्रकार के क्रम में हो ओर विशेष प्रकार से संगठित हो |राष्ट्र में मुख के स्थापन ब्राह्मण है ,भुजाओं के क्षत्रिय ,जंघाओं के वैश्य ओर पैरो के शुद्र | राष्ट्र के ये चारो वर्ण जब शरीर के मुख आदि अवयवो की तरह व्यवस्थित ओर सुसंगत हो जाते है तभी इनकी पुरुष संज्ञा है | अव्यवस्थित तथा छीनभिन अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को पुरुष नही पुकार सकते है | आधिभौतिक दृष्टि में यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान ,क्षात्र , व्यवसाय तथा परिश्रम – मजदूरी इनका निर्दशक जनसमुदाय ही एक पुरुष रूप है |
चर्चित मन्त्र का मह्रिषी दयानद इस प्रकार अनुवाद करते है ” इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण तथा सत्य भाषण ओर सत्योपदेश आदि श्रेष्ट कर्मो से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है |इन गुण कर्मो के सहित होने से वह पुरुष उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रमयुक्त आदि पूर्वोक्त गुणों से क्षत्रिय को उत्पन्न किया | इस पुरुष के उपदेश से खेती,व्यापर ओर सब देशो की भाषाओ को जानना तथा पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिद्ध होता है | जैसे पग सबसे नीचे का गुण है वैसे मुर्खता आदि गुणों से शुद्र वर्ण सिद्ध होता है |
आपका लिखना की पुरुष सूक्त बहुत बाद में वेदों में जोड़ दिया गया सर्वथा भ्रमपूर्ण है | चारो वेद ईश्वर का ज्ञान है पुरुष सूक्त बाद का नही है | मैंने अपनी पुस्तक ऋग्वेद के १० मंडल पर पाश्चताप विद्वानों का कुठाराघात में सम्पूर्ण ” पाश्चताय और प्राच्य विद्वानों का खंडन किया है |
डा. अम्बेडकर – शुद्र क्षत्रियो के वंशज होने से क्षत्रिय है | ऋग्वेद में सुदास, शिन्यु, तुरवाशा, त्र्प्सू , भरत आदि शुद्रो के नाम आये है |
प.शिवपूजन सिंह जी – वेदों के सभी शब्द यौगिक है रूढ़ नही | आपने ऋग्वेद में जिन नामो को प्रदर्शित किया है | वे ऐतिहासिक नाम नही है| वेद में इतिहास नही है क्यूंकि वेद सृष्टि के आरम्भ में दिया ज्ञान है|
डा.अम्बेडकर – छत्रपति शिवाजी शुद्र तथा राजपूत हूणों की सन्तान है |
प.शिवपूजन सिंह जी – शिवाजी शुद्र नही वरन क्षत्रिय थे | इसके लिए अनेको प्रमाण इतिहास में भरे पड़े है | राजस्थान के प्रख्यात इतिहासक ,महोपाध्याय डा. गौरी शंकर हरीचंद औझा लिखते है – मराठा जाति दक्षिणी हिन्दुस्तान की रहने वाली है | इनके प्रसिद्ध राजा क्षत्रपति शिवाजी का मूल मेवाड़ का सिसोदिया राज्य वंश ही है | कविराज श्यामलदासजी लिखते है कि -शिवाजी महाराणा अजयसिंह के वंश में थे | यहो सिद्धांत बालकृष्ण ,लिट् आदि का है | इसी प्रकार राजपूत हूणों की सन्तान नही शुद्ध क्षत्रिय थे | श्री चिंतामणी विनायक वेद्य ऍम ए ,श्री ई.बी.कावेल ,श्री शेरिंग, श्री वहीलर, श्री हंटर, श्री क्रुक ,पंडित नागेब्द्र भट्टाचार्य आदि विद्वान् राजपूतो को शुद्ध क्षत्रिय मानते है| प्रिवी कौंसिल ने निर्णय किया है कि जो क्षत्रिय भारत में रहते है और राजपूत एक ही श्रेणी के है |
इस तरह उन्होंने अपने खंडन अम्बेडकर जी को भी पंहुचाय लेकिन अम्बेडकर जी इसके ५ साल ओर ३ माह बाद चल बसे | उन्होंने इसका प्रत्युतर भी नही दिया ओर ना ही अपनी जिद्द के कारण अपनी उन दोनों किताबो में कोई परिवर्तन किया |
आम आदमी पार्टी की वास्तविकता
‘आप’ का बनना, चुनाव लड़ना, सरकार बनाना, सब कुछ अप्रत्याशित लगता है | जिस आशा के साथ इस पार्टी का निर्माण हुआ, उतनी ही निराशा इसके काम से है | इसके बनने के कारण में सामान्यजन की पीड़ा मुख्य है | इस पीड़ा का मूल शासन-प्रशासन में व्याप्त रिश्वतखोरी है | जिसके कारण नियम, व्यवस्था सब कुछ निरर्थक हो गई है| इस घूसखोरी के कारण सामान्य मनुष्य का जीवन कठिनाई में पद गया है | जिसका काम नियम से होना चाहिए, उसका काम नहीं होता | जिसका काम होने योग्य नहीं है, उसका काम पैसे देकर हो जाता है | इस कुचक्र में सामान्यजन फंस कर रह गया है, इस विवशता को उसने नियति मान लिया था | ऐसे समय में उसकी पीड़ा को छूने का काम इन वर्षों में हुआ है | आप पार्टी ने भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर जनता से समर्थन माँगा, परन्तु आज सरकार में बैठकर आदर्श की बात को व्यवहार के धरातल पर लाने में असफल हो गई | इसके कारण पर विचार करने पर एक बार स्पष्ट होती है की भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सरकार बनाने वाले स्वयं भ्रष्टाचार के दोषी है |
भ्रष्टाचार को हमने बहुत संकुचित अर्थ में लिया है | भ्रष्टाचार शब्द पुरे आचरण की भ्रष्टता की बात करता है | केवल पैसे के या घुस लेने की बात भ्रष्टाचार नहीं है | घुस लेना तो बहुत मोटा अर्थ है | वास्तव में भ्रष्टाचार विचारों से प्रारम्भ होता है | जिनके विचार पवित्र नहीं है, उनका आचरण कैसे पवित्र हो सकता है ? भ्रष्टाचार मिटाने वालों के चरित्र और विचारों को देखने से उनके भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने की इच्छा-शक्ति का पता लगता है | आप पार्टी के लोगों की जड़ों तक जाने पर आपको पता लगता है की ये उन विचारों का प्रतिनिधित्व करते है, जो इस देश के आचार-विचार और परम्परा से सहमति नहीं रखते | इनके सामने संकट भ्रष्टाचार नहीं है, भ्रष्टाचार को तो इन्होने लड़ाई के साधन के रूप में काम में लिया है | आप पार्टी के नेता केजरीवाल जहाँ खड़े होकर लड़ रहे हैं वह स्थान ही भ्रष्टाचार का उद्गम स्थल है | आधुनिक पठित वर्ग में सामाजिक लड़ाई वाले वर्ग का नाम गैर सरकारी संगठन है | इसे एनजीओ के नाम से जाना जाता है | भारत में चलने वाले ऐसे संगठनों की जांच पड़ताल में पाया गया है की अधिकाँश ऐसे स्वयंसेवी संगठन केवल कागजों पर काम करते हैं | जो संगठन या समाज संघर्ष करते हैं, उनका संघर्ष उद्देश्य के लिए नहीं होता | ये संगठन उन लोगों के संकेत पर नाचते है, जो इनको पैसा देते है | जो लोग इस प्रकार के संगठनों को पैसा देते है, उनका वास्तविक उद्देश्य संघर्ष करने वाले लोगों को अपने विरोधी को नष्ट करने में लगाना तथा ऐसे लोगों को सुविधाजीवी बनाकर उनको सामर्थ्यहीन करना होता है |
आप पार्टी के कार्यकर्ताओं का चरित्र देखेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा | भाजपा के नेता हर्षवर्धन ने सदन में केजरीवाल और सिसोदिया पर आरोप लगाया था की इनके संगठनों ने फोर्ड फाउंडेशन से लाखों रुपये की सहायता ली है | आश्चर्य की बात है की केजरीवाल ने अपने उतर में इसकी चर्चा तक नहीं की | जो लोग विदेशी सहायता के तथ्य को समझते है, वे जानते हैं की ये संगठन आकर्षक सुन्दर नामों से काम करने वाले संगठनों से इस देश को तोड़ने और यहाँ की संस्कृति को निंदनीय बताकर उसे नष्ट करने के लिए बड़ी माता में धन देते हैं | इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है | पिछले वर्षों में फोर्ड फाउंडेशन ने विश्वविद्यालयों को अपनी कार्ययोजना को क्रियान्वित करने के लिए बहुत धन दिया, उसमें एक योजना थी- भारत की अनेकता में एकता | इस कार्यक्रम में लगता तो ऐसा है की जैसे बंटे हुए देश को एक करने का कार्य किया जा रहा है, परन्तु इसमें अलगाववाद को बढ़ावा देना इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य है | ये संगठन चर्च के माध्यम से समाज सुधार का काम करते हैं, परन्तु इनका उद्देश्य हिन्दू समाज में विघटन उत्पन्न करके उसको बिगाड़ना हैं | इस फाउंडेशन की सहायता लेने वाले केजरीवाल किस रास्ते से देश की उन्नति करना चाहते हैं | यह पता लग जाता है | केजरीवाल को सामाजिक आन्दोलन में लाने वालो सुचना के अधिकार के आन्दोलन के लिए काम करने वाली श्रीमति अरुणा राय थीं | इस सब की पृष्ठभूमि देखने पर ज्ञात होता है की ये कांग्रेस, कम्युनिष्ट तथा विदेशी धन पर काम करने वाले संगठनों से जुड़े है | जो लोग सता में रहे हैं, सता के सहयोगी रहे हैं, वे एकाएक कैसे भ्रष्टाचार को मिटाने के अगुवा बन बैठे, यह समझने की बात है | अरविन्द केजरीवाल, अरुणा राय के दल के सदस्य हैं और अरुणा राय सोनिया गांधी की सलाहकारों में है | जो व्यक्ति सोनिया गांधी के सहयोगियों में हो, वह कौन से भ्रष्टाचार को हटाने की बात कर रहे हैं यह विचारणीय है | जो सरकार देश में अब तक सबसे अधिक भ्रष्टाचार में लिप्त रही है, उनके सहयोगी आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे हैं |
भ्रष्टाचार केवल पैसे से नहीं होता, आचरण एक व्यापक शब्द है | इसका सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है | जो व्यक्ति स्वयं के व्यक्तिगत जीवन में भ्रष्टाचार का दोषी रहा हो, वह आज भी, आचरण से दूर कैसे रह सकता है | भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘आप’ का आन्दोलन एक नारे से आगे नहीं बढ़ सका है | झूठ बोलना, दूसरों पर दोषारोपण करना भी तो भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है | आज आप पार्टी भ्रष्टाचार के आन्दोलन को कांग्रेस की नीतियों के बचाव के लिए लड़ रही है | सामान्यजन की बात करने वाला केवल पैसे के बेईमानी की बात करता हैं, राष्ट्रद्रोह के विरोध में बोलना उचित नहीं समझता, सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद् अल्पसंख्यकों के नाम पर हिन्दू समाज को कुचलने के लिए कानून बनाने के लिए तैयार खड़ी हैं, क्या यह आचरण देश और समाज के साथ भ्रष्टाचार नहीं है ? ऐसे लोगों को बचाने के लिए ही आप पार्टी का आन्दोलन है | कांग्रेस को आज भारतीय जनता पार्टी और मोदी से भय है और आप पार्टी भ्रष्टाचार के नाम पर मोदी विरोध करके देश के कांग्रेस विरोधी आन्दोलन को असफल करने के प्रयास में है | यह इमानदारी के नाम पर खेला जाने वाला बैईमानी का खेल है | इसी प्रकार आप पार्टी के अन्य नेताओं का भी इतिहास है | आज इंटरनेट ने जनता को सबकुछ सुलभ करा दिया है |
केजरीवाल के दुसरे साथी मनीष सिसोदिया भी अरुणा राय के दल के सदस्य है | यह कैसे माना जा सकता है, जो व्यक्ति कल तक कांग्रेस और कम्युनिस्टों के साथ काम कर रहा था आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहा है | यदि लड़ाई केवल भ्रष्टाचार के विरुद्ध हो तो सबसे पहले भ्रष्ट सरकार को केंद्र से हटाने की आवश्यकता है | आप में मुख्यमन्त्री से नेता तक अराजकता फैलाने को भ्रष्टाचार मिटाना कहते है | सदन में अराजकता तो सड़क पर अराजकता, इससे लाभ यह होता है की जनता का ध्यान मुख्य काम से हट जाता है | लोग इनके आचरण के पक्ष-विपक्ष बनकर विवाद में उलझे रहते है | दिल्ली सरकार के मन्त्री मनीष सिसोदिया भी स्वयं-सेवी संगठन चलाते रहे हैं और केजरीवाल के साथ अन्ना आन्दोलन में भाग लेकर आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन के अगुआ बने हुए हैं | आप पार्टी में विवादास्पद लोगों की भरमार हैं, इनमें एक नाम है- वकील प्रशांत भूषण | इनकी विशेषता है की नक्सलवादी लोग वार्ता के लिए इनको अपना मध्यस्थ मानते हैं | इसी से इनकी विचारधारा का पता लगता है | जो व्यक्ति देश के साथ द्रोह करता हो वह भ्रष्टाचार विरोधी नारों का खोखलापन प्रमाणित हो जाता है | इतना ही नहीं, प्रशांत भूषण को यह गौरव भी प्राप्त है की वे आज भी कश्मीर में जनमत की बात करते हैं | उनके विचार से कश्मीर के आतंकवादियों के विरुद्ध सेना की नियुक्ति वहां की जनता से पूछकर की जानी चाहिए | प्रशांत भूषण अपने राष्ट्र विरोधी वक्तव्यों के कारण हर समय विवाद में बने रहते हैं | समाचार देखने वाले जानते हैं की अमेरिका का एक संगठन जो कश्मीर के विषय में पाकिस्तानी पक्ष पर अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियां करता था, जिनमें बड़े-बड़े पत्रकार, लेखक भाग लेते थे और पाकिस्तान के पैसे पर विदेश यात्रा का आनन्द उठाते थे | जब उस संगठन को चलाने वाले की करतूतें समाचार पत्रों में आई तो प्रशांत भूषण जैसे लोगों ने बड़े भोलेपन से कह दिया की हमें तो पता नहीं था | इन कार्यों से ही इनके भ्रष्टाचार विरोधी होने का पता चल जाता हैं | ऐसे लोग भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर भ्रष्ट सरकार और विदेशी शक्तियों का बचाव करने में लगे हैं |
आप के एक और प्रमुख सदस्य योगेन्द्र यादव भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में जुड़े, ये भी सोनियां गांधी की सलाहकार परिषद् के सदस्य थे | सोनियां गांधी के कारण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सदस्य भी बन गए थे | बड़े मृदुभाषी हैं, यदि सोनियां गांधी भ्रष्ट नहीं है तो उनके सलाहकार कैसे भ्रष्ट हो सकते है | सोचने की बात है जो कल तक भ्रष्टाचार करने वालों के दल में थे, आज वे भ्रष्टाचार के विरोध में आन्दोलन में सूत्रधार बन गए | इनके भ्रष्टाचार मुक्त होने की इससे बड़ी कसौटी और क्या हो सकती है | आप पार्टी के प्रवक्ता गोपाल राय तो प्रारम्भ से साम्यवादी दल की ओर से छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं | साम्यवादी दल की पवित्रता तो सामान्य तो सामान्य व्यक्ति जानता हैं | साम्यवाद का सूत्र संस्कृत-संस्कृति, हिंदी-हिन्दू का विरोध करना इन्हें मान्य है और ये भी देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने में देश को दिशा दे रहे हैं ?
वास्तव में ये आम शब्द के अपहरण जैसा है, जिसका आम आदमी के साथ सम्बन्ध नहीं वह आम की टोपी लगाकर आज ख़ास बन बैठा | बस ख़ास बनने के लिए आम बनने का नाटक है | यदि वास्तव में आम है तो इस देश में अर्थ से भी बड़ा अनर्थ, अर्थ से बड़ा भ्रष्टाचार भाषा का है | सामान्य मनुष्य का कष्ट रिश्वत से उतना नहीं है, जितना उसको बलपूर्वक विदेशी भाषा में व्यवहार करने में है | यदि कोई आम आदमी की बात करेगा तो उसे आम आदमी की भाषा में बात करनी होगी | क्या केजरीवाल की सरकार में दम है की वह आम आदमी को भाषा के भ्रष्टाचार से बचा सके ? संभवतः ऐसा प्रश्न आने पर इसे करने का साहस दिखा सके, इसमें संदेह है | वास्तविकता तो यह है की पिछले वर्षों में स्वामी रामदेव ने जो भ्रष्टाचार के विरोध में जो आन्दोलन वर्षों के प्रयास से खड़ा किया था | जिसके प्रभाव ने रामलीला मैदान में एक लाख लोगों को एकत्र कर जन आन्दोलन का रूप दिया था, उसे अरविन्द केजरीवाल ने अन्ना को जंतर-मंतर पर बैठा कर स्वामी रामदेव से झटक लिया और अन्ना को छोड़ आन्दोलन को अपने साथ जोड़कर दिल्ली की सता तक पहुँच गए | यदि केजरीवाल आम आदमी हैं वे आदमी की पीड़ा समझते है तो भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला सकते है | अरविन्द केजरीवाल ने भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में उन सबको ठगा है, जो भ्रष्टाचार समाप्ति की आशा से उनके साथ आये थे | आज वे सोचते होंगे की उन्हें कैसे मुर्ख बनाया गया |
नीतिकार ने ठीक ही कहा है—
प्रथमस्तावदहं मूर्खः द्वितीयो पाक्षबन्धकः,
ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वे मुर्खमंडलम |
-धर्मवीर
बोधत्व राष्ट्र के लिए शिवदेव आर्य
संसार में जितने भी पर्व तथा उत्सव आते हैं, उन सबका एक ही माध्यम (उद्देश्य) होता है – हम कैसे एक नए उत्साह के साथ अपने कार्य में लगें? हमें अब क्या-क्या नई-नई योजनाएं बनाने की आवश्यकता है, जो हमें उन्नति के मार्ग का अनुसरण करा सकें। समाज में दृष्टिगोचर होता है कि उस उत्सव से अमुक नामधारी मनुष्य ने अपने जीवन को उच्च बनाने का संकल्प लिया और पूर्ण भी किया।
यह सत्य सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति सफल होते हैं, वह कुछ विशेष प्रकार से कार्य को करते हैं। शिवरात्री का प्रसिद्ध पर्व प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। उपासक सम्पूर्ण दिन उपवास रखते हैं तथा रात्री को शिव की आराधना करते हुए शिव के दिव्य दर्शन प्राप्त करने का अतुलनीय प्रयास करते हैं। ऐसा ही प्रयास करने का इच्छुक अबोध बालक मूलशंकर भी आज से लगभग १७२ वर्ष पूर्व ‘शिवरात्री’ का पर्व परम्परागत रूप से मनाता है।
घोर अन्धकार को धारण की हुई कालसर्पिणी रूपी रात्री में एक अबोध बालक बोध की पिपासा लिये शिव के दर्शन करने का यत्न करता है। शिव की मूर्ति उसके नेत्रों के सामने थी। जैसे-जैसे रात्री का अन्धकार बढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे ही बालक मूलशंकर का मन एकाग्र होता जा रहा था।
अचानक एक महत् आश्चर्यजन्य आश्चर्य का उदय होता है। शिव की प्रतिमा पर चूहे चढ़ गये। चूहें शनै-शनै (धीरे-धीरे) मिष्ठान्नों को खाने लगे और मूर्ति के ऊपर मल-मूत्र का विसर्जन कर रहे थे। इस कृत्य को देख बालक के होश उड़ गये। आखिर ये हो क्या रहा है? कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अचानक याद आया कि पिता जी ने बताया था कि शिव इस संसार की रचना करते हैं तथा पालन करते हुए इस सृष्टि का संहार करते है। अरे, ये तो बडी विचित्र बात हुई भला जिसके दो हाथ हो, दो पैर हो, दो ही नेत्र आदि-आदि सब कुछ हमारे ही समान हो वह इतना विचित्र कैसे हो सकता है? वह इस सम्पूर्ण संसार का निर्माण कैसे कर सकता है? इतने बडे़-बडे़ पर्वतों तथा नदी-नालों का निर्माण कैसे कर सकता है? और यदि कर भी सकता है तो यह मूर्ति रूप में क्यों है? प्रत्यक्ष सामने क्यों नहीं आता? बहुत विचार-विमर्श करने के पश्चात् बालक ने पिता जी से पूछ ही लिया कि पिता जी! आप ने कहा था कि आज रात्री को शिव के दर्शन होंगे परन्तु अभी तक तो कोई शिव आया ही नहीं है। और ये चूहें कौन हैं, जो शिव के ऊपर चढ़े चढ़ावे को खाकर यहीं मल-मूत्र का विसर्जन कर रहे हैं? जब शिव सम्पूर्ण संसार का निर्माण करके उसका पालन करता है, तो ये अपनी स्वयं की रक्षा करने में क्यों असमर्थ हो रहा है? आखिर असली शिव कौन-सा है? कब दर्शन होंगे? आदि-आदि प्रश्नों से पिता श्री कर्षन जी बहुत परेशान हो गये तथा अपने सेवकों को आदेश दिया कि इसे घर ले जाओ। घर जाकर मां से भी यही प्रश्न, पर समाधान कहीं नहीं मिला। शिव की खोज में घर को छोड़ दिया। जो जहां बताता वहीं शिव को पाने की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगा पर अन्त में अबोध को बोधत्व (ज्ञान) प्राप्त हो ही गया।
और उसी स्वरूप का वर्णन करते हुए आर्य समाज के द्वितीय नियम में लिखते हैं कि – जो सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हो, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्म, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र हो और जो इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करता हो, वही परमेश्वर है। इससे भिन्न को परमेश्वर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी परमेश्वर की सभी जनों को स्तुति, प्रार्थना उसी उपासना करनी चाहिए।
आज भी आवश्यकता है अपने अन्तःकरण की आवाज सुनने की । जब स्वयं के भीतर सोये हुऐ शिव को जागृत करेंगे तभी जाकर शिव के सत्य स्वरूप को जानने का मार्ग प्रशस्त हो पायेगा।
सच्चे शिव का जो संकल्प बालक मूलशंकर ने लिया था, उस संकल्प की परिणति शिव के दर्शन के रूप में हुई । वह कोई पाषाण नहीं और न ही कपोलकल्पित कैलाश पर्वतवासी था। उसी सत्य शिव के ज्ञान ने अबोध बालक मूलशंकर को महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम से विश्वभर में प्रसिद्ध करा दिया।
भारतवर्ष में देशहित अपने जीवन का सर्वस्व त्याग करने वाले अनेकशः महापुरुष हुए किन्तु महर्षि दयानन्द सरस्वती उन सभी महापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ थे। सर्वश्रेष्ठ से यहां यह तात्पर्य बिल्कुल भी नहीं है कि किसी का अपमान अथवा निम्नस्तर को प्रस्तुत किया जाये। जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन सबकी अपनी एक अविस्मरणीय विशेषता रही है कि वह अपने सम्पूर्ण जीवन में एक अथवा कुछ कार्यों में ही जुटे रहे। जैसे किसी ने स्वराज्य स्थापना पर, किसी ने धर्म पर, किसी ने विधवा विवाह पर, किसी ने स्वभाषा पर, किसी ने भ्रष्टाचार पर, किसी ने बाल-विवाह पर, किसी ने कन्या शिक्षा पर, किसी ने स्वसंस्कृति-सभ्यता पर ध्यान दिया है किन्तु ऋषिवर देव दयानन्द जी का जीवन एकांगी न होकर सभी दिशाओं में प्रवृत्त हुआ है। सभी विषय से सम्बन्धित कुकर्मों को समाप्त करने का प्रयास किया।
शिवरात्री के इस पर्व को बोधोत्सव के रूप में मनाने का उद्देश्य यह नहीं है कि बोधरात्री को जो हुआ उसे स्मरण ही किया जाये। अगर बोध रात्री का यही तात्पर्य होता तो स्वामी दयानन्द जी भी शिव को खोजने के लिए एकान्त शान्त पर्वत की किसी कंदरा में जाकर बैठ सकते थे। और उस परमपिता परमेश्वर का ध्यान कर सकते थे, मोक्ष को शीघ्र प्राप्त कर सकते थे किन्तु ऋषि ने वही शिव का स्वरूप स्वयं में अंगीकृत करके अर्थात् कल्याण की भावना को स्वयं के अन्दर संजोकर भारत माता की सेवा में जुट गये। ‘इदं राष्ट्राय इदन्नमम’ की भावना से अपने जीवन पथ पर निरन्तर अबाध गति से चलते रहे। और अपने जीवन से अनेक अबोधियों को बोधत्व प्राप्त कराकर देशहित समर्पित कराया।
आज हम जब भारत माता की जय बोलते हैं तो वो किसी देवी अथवा किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष की जय नहीं है प्रत्युत प्रत्येक भारतवासी की जय बोलते हैं। हम सब इस बोधोत्सव पर बोधत्व को प्राप्त हो राष्ट्र हित में समर्पित होने वाले हो। ऋषिवर का प्रत्येक कर्म देश के हित में लगा और उनका भी यही स्वप्न था कि हमारा प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक हो एवं सत्य मार्ग का अनुसरण करे।
असफल कौन ? आचार्य सोमदेव जी परोपकारिणी सभा अजमेर
असफल कौन ? आचार्य सोमदेव जी परोपकारिणी सभा अजमेर
डा . अम्बेडकर का खंडन प. शिवपूजन सिंह कुशवाह (आर्य समाज ) द्वारा
डा . शिवपूजन सिंह जी आर्य समाज के एक उत्क्रष्ट विद्वान् थे तथा अच्छे वैदिक सिद्धांत मंडन कर्ता थे | उन्होंने अम्बेडकर जी की दो किताब शुद्रो की खोज ओर अच्छुत कौन ओर केसे की कुछ वेद विरुद्ध विचारधारा का उन्होंने खंडन किया था | ये उन्होंने अम्बेडकर जी के देह्वास के ५ साल पूर्व भ्रान्ति निवारण एक १६ पृष्ठीय आलेख के रूप में प्रकाशित किया ओर अम्बेडकर साहब को भी इसकी एक प्रति भेजी थी | हम यहा उसके कुछ अंश प्रस्तुत करते है –
डा. अम्बेडकर – आर्य लोग निर्विवाद से दो संस्कृति ओर दो हिस्सों में बटे थे जिनमे एक ऋग्वेद आर्य ओर दुसरे यजुर्वेद आर्य थे ,जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी | ऋग्वेदीय आर्य यज्ञो में विश्वास करते थे ओर अर्थ्व्वेदीय जादू टोनो में |
प. शिव पूजन सिंह जी – दो आर्यों की कल्पना आपके ओर आप जेसे कुछ मष्तिस्क की उपज है ,ये केवल कपोल कल्पना ओर कल्पना विलास है केवल | इसके पीछे कोई एतिहासिक प्रमाण नही है | कोई एतिहासिक विद्वान् भी इसका समर्थन नही करता है | अर्थववेद में किसी प्रकार का जादू टोना नही है |
डा. अम्बेडकर – ऋग्वेद में आर्य देवता इंद्र का सामना उसके शत्रु अहि वृत्र (सर्प देवता ) से होता है ,जो कालान्तर में नाग देवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ |
प.शिव पूजन सिंह जी – वैदिक संस्कृत ओर लौकिक संस्कृत में रात दिन का अंतर है | यहा इंद्र का अर्थ सूर्य ओर वृत्र का अर्थ मेघ है यह संघर्स आर्य देवता ओर नाग देवता का न हो कर सूर्य ओर मेघ का है | वैदिक शब्दों के पीछे नेरुक्तिको का ही मत मान्य होता है नेरुक्तिक प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण आपको यह भ्रम हुआ |
डा. अम्बेडकर – महोपाध्याय डा. काणे का यह मत है कि – ” गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसेनी संहिता में गौ मॉस भक्षण की प्रथा थी |
प.शिवपूजन सिंह जी – काणे जी ने कोई प्रमाण नही दिया है ओर न ही आपने यजुर्वेद पढने का कष्ट उठाया | जब आप यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तो स्पष्ट आपको गौ वध निषेध के प्रमाण मिलेंगे |
डा. अम्बेडकर – ऋग्वेद से ही स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गौ वध करते थे ओर गौ मॉस भक्षण करते थे |
प. शिवपूजन सिंह जी – कुछ प्राच्य एवम पश्चमी विद्वान् आर्यों पर गौ मॉस भक्षण का दोषारोपण करते है किन्तु कुछ विद्वान् इस मत का खंडन भी करते है | वेद में गौ मॉस भक्षण का विरोध करने वाले २२ विद्वानों का मेरे पास स सन्धर्भ प्रमाण है | ऋग्वेद में आप जो गौ मॉस भक्षण का विधान आप कह रहे है वो लौकिक संस्कृत ओर वैदिक संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे है | जेसे वेद में उक्ष बल वर्धक औषधि का नाम है भले ही लौकिक अर्थ उसका बैल ही क्यूँ न हो |
डा. अम्बेडकर – बिना मॉस के मधु पर्क नही हो सकता है | मधुपर्क में मॉस और विशेष रूप से गौ मॉस एक आवश्यक अंश होता है |
प.शिवपूजन सिंह जी – आपका यह विधान वेद पर नही अपितु गृहसूत्रों पर आधारित है | गृहसूत्रों के वचन वेद विरोध होने से मान्य नही है | वेद को स्वत: प्रमाण मानने वाले मह्रिषी दयानद के अनुसार – दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है | उसका परिमाण १२ तौले दही में ४ तौले शहद या घी मिलाना है |
डा. अम्बेडकर – अतिथि के लिए गौ हत्या की बात इतनी समान्य हो गयी थी कि अतिथि का नाम ही गौघन पड़ गया था अर्थात गौ की हत्या करने वाला |
प. शिवपूजन सिंह जी – ” गौघ्न”का अर्थ गौ की हत्या करने वाले नही है | यह शब्द गौ और हन दो के योग से बना है | गौ के अनेक अर्थ है – वाणी,जल ,सुखविशेष ,नेत्र आदि | धातुपाठ में मह्रिषी पाणिनि हन का अर्थ गति ओर हिंसा बतलाते है | गति के अर्थ है – ज्ञान ,गमन ,प्राप्ति | प्राय सभी सभ्य देशो में जब कभी किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए ग्रह पति घर से बहार आते हुए कुछ गति करता है ,उससे मधुर वाणी में बोलता है | फिर उसका जल से स्वागत करता है , फिर उसके लिए कुछ अन्य सामग्री प्रस्तुत करता है ,यह जानने के लिए की प्रिय अतिथि इन सत्कारो से प्रसन्न है या नही गृहपति की आँखे भी उसकी ओर टकटकी लगाये होती है | गौघ्न का अर्थ हुआ – गौ: प्राप्यते दीयते यस्मै स गौघ्न: अर्थत जिसके लिए गौदान दी जाती है , वह गौघ्न कहलाता है |
डा. अम्बेडकर- हिन्दू चाहे ब्राह्मण हो या अब्राह्मण ,न केवल मासाहारी थे अपितु गौमासाहार भी थे |
प.शिवपूजन सिंह जी -ये बात आपकी भ्रम है , वेदों में गौ मॉस भक्षण का विधान की बात जाने दीजिये मॉस भक्षण भी नही है |
डा. अम्बेडकर – मनु ने भी गौ हत्या पर कोई कानून नही बनाया बल्कि विशेष अवसरों पर उसने गौ मॉस भक्षण को उचित ठहराया है |
प.शिवपूजन सिंह जी – मनु स्मृति में कही भी मॉसभक्षण का विधान नही है ओर जो है वो प्रक्षिप्त है | आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नही दिया की मनु ने कहा पर गौ मॉस भक्षण उचित ठहराया है | मनु (५/५१) के अनुसार मॉस खाने वाला ,पकाने वाला ,क्रय ,विक्रय करने वाला इन सबको घातक कहा है |
ये उपरोक्त खंडन के कुछ अंश थे इसमें पूर्व पक्ष अम्बेडकर का अछूत कौन ओर कैसे से था |
अब इस लेख का अगला अंश दूसरी पोस्ट में प्रसारित किया जाएगा जिसमे शिवपूजन सिंह जी द्वारा अम्बेडकर जी की शुद्र कौन पुस्तक के खंडन का कुछ अंश होगा |
आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प
आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प
यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि इस संसार में मानव ऐसा प्राणी है जिसकी सर्वविध उन्नति कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं। शैशवकाल में बोलने, चलने आदि की क्रियाओं से लेकर बड़े होने तक सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसे पराश्रित ही रहना होता है, दूसरे ही उसके मार्गदर्शक होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि समय-समय पर विविध माध्यमों अथवा व्यवहारों से मानव में अन्यों के द्वारा गुणों का आधान किया जाता है। यदि ऐसा न किया जाये, तो, मानव ने आज के युग में कितनी ही भौतिक उन्नति क्यों न कर ली हो, वह निपट मूर्ख और एक पशु से अधिक कुछ नहीं हो सकता -यह नितान्त सत्य है। अतः सृष्टि के आदि, वेदों के आविर्भाव से लेकर आज तक मानव को जैसा वातावरण, समाज व शिक्षा मिलती रही वह वैसा ही बनता चला गया, क्योंकि ये ही वे माध्यम हैं, जिनसे एक बच्चा कृत्रिम उन्नति करता है और बाद में अपने ज्ञान तथा तपोबल के आधार पर विशेष विचारमन्थन और अनुसन्धान द्वारा उत्तरोत्तर ऊँचाइयों को छूता चला जाता है। इस जगतीतल में आज जितना बुद्धिवैभव और भौतिक उन्नति दृष्टिपथ में आती है, वह पूर्वजों की शिक्षाओं का प्रतिफल है। उसके लिए हम उन के ऋणी हैं। वे ही हमारे परोक्ष शिक्षक हैं। यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। अतः सामान्यतः कहा जा सकता है कि मानव की उन्नति की साधिका शिक्षा है। जिसका वैदिक स्वरूप इसप्रकार है- जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें उस को शिक्षा कहते हैं।(सत्यार्थप्रकाश के अन्त में दत्त स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में शिक्षा की परिभाषा।) ऐसे उत्कृष्ट स्वरूप वाली शिक्षा से एक व्यक्ति मानव बनता है और मानवों का समुदाय समाज कहलाता है। यदि शिक्षा समाज में रहकर दी जा रही है तो उसका प्रभाव शिक्षार्थी पर पड़ना अवश्यम्भावी है। वह वैसा ही बनता है जैसा समाज है। प्राचीन काल में शिक्षारूप यह उच्च कोटि का कार्य नगरों और गाँवों से दूर रहकर शान्त, स्वच्छ और सुरम्य प्रकृति की गोद में किया जाता था। दोनों में क्या भेद है, इसको समाजों के तुलनात्मक अध्ययन से समझा जा सकता है। अतः प्राचीन और आधुनिक समाज की संक्षेप में समीक्षा करते हैं, जिससे शिक्षा कहाँ और कैसे वातावरण में दी जानी चाहिए यह भी स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। ततः आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य आदि पर विचार कर उसका विकल्प सूच्य रहेगा।
प्राचीन समाज-
प्राचीन भारत की सामाजिक स्थिति को जानने के लिए तात्कालिक साहित्य ही एक मात्र शरण है। उस काल में संस्कृत ही बोलचाल और लेखन की भाषा थी, अतः उसमें उपलब्ध वेदेतर ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् आदि वैदिकवाङ्मय और वाल्मीकिरामायण, माहाभारत आदि लौकिक साहित्य का विशाल भण्डार सहायक बनेगा। उन सभी से प्रमाणों की झड़ी लगाई जा सकती है, लेकिन दो तीन बहुश्रुत ग्रन्थों का ही उल्लेख हमारे अभीष्ट को सिद्ध करने में पर्याप्त होगा। उस समय शिक्षा के केन्द्र ऋषि, मुनियों के आश्रमस्थल होते थे, जो यजुर्वेदीय मंत्र उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो ऽ अजायत।। (यजुर्वेद २6.१५) के प्रतिबिम्बरूप थे, जिसके अनुसार पर्वतों के पार्श्ववर्तीभाग और नदियों के संगम स्थान पर प्राकृतिक स्वच्छ वातावरण में श्रेष्ठबुद्धि का विकास उत्तमोत्तम हुआ करता है। इसीलिए वहाँ के समाज की सर्वविध समृद्धि आज से भी उन्नत दिखाई देती है। राजा अश्वघोष की विचारोत्तेजक ये पंक्तियाँ- न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः। नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।। (छान्दोग्योपनिषद् 5.11.5) प्राचीन भारत के गौरव को डिण्डिमघोष के साथ कहती हुई समाज की उन्नत स्थिति को ही स्पष्टतः वर्णित करती है। जिसमें अश्वघोष की गर्वोक्ति है कि मेरे किसी जनपद में कोई चोर, कृपण और शराबी नहीं है। न कोई अग्निहोत्र न करने वाला और अविद्वान् है। कोई स्वेच्छाचारी मनुष्य नहीं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री कहाँ से होगी? इसी प्रकार का समाज वाल्मीकिरामायण में भी उपलब्ध है। उदाहरणार्थ- तस्मिन् पुरवरे हृष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः। नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः।। कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित्। द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः।। नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः। कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः।। (वाल्मीकिरामायणम् 1.6.6, 8, 12) अर्थात् उस श्रेष्ठ अयोध्यानगरी का असाधारण समाज था, जिसमें सभी प्रजाजन प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत विद्वान् थे। निर्लोभी, अपने-अपने धन से सन्तुष्ट रहने वाले और सत्यवादी थे। वहाँ कहीं कोई कामी, कंजूस, क्रूर व्यक्ति न था। न कोई मूर्ख और नास्तिक था। न ही अग्निहोत्र और पंच यज्ञ न करने वाला, न निम्न सोच वाला और चोर था। न ऐसा था जो सदाचारी न हो या वर्णसंकर हो।
आज के परिप्रेक्ष्य में कोई स्वप्न में भी शायद ऐसे समाज की परिकल्पना नहीं कर सकता! विचारने पर एतादृश समाज की उन्नति के मूल में उत्तम शिक्षाव्यवस्था और राजव्यवस्था ही दिखाई देती है।
ऐसा ही भारत का चित्र लॉर्ड मैकाले ने भी खींचा है, साथ ही लम्बे समय तक अपने अधीन करने के लिए यहाँ की शिक्षाव्यवस्था और संस्कृति को बदलने का सुझाव दिया, जिसमें वह कामयाब हुआ–“I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a thief. Such wealth I have seen in the country, such high moral values, people of such caliber; that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and therefore I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native self-culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.”- Lord Macaulay in his speech on Feb 2, 1835, British Parliament (पप्पू कैसे पास हुआ नामक डॉ0 धर्मवीर का सम्पादकीय, परोपकारी पाक्षिक पत्रिका, सितम्बर (प्रथम) 2010, पृ0 514, पर उद्धृत)। परिणामतः आधुनिक हमारा समाज वैसा ही बन गया जैसा अंग्रेज चाहते थे।
आधुनिक समाज-
आज के समाज की दशा कुकृत्यों से शोचनीय है। न जाने कितने नरपिशाच अपने स्वार्थों के कारण सामाजिक व्यवस्था को तार-तार कर रहे हैं। प्रायः सर्वत्र अकर्मण्यता, स्वार्थपरायणता, निर्धनता, कामुकता, विषयासक्ति, दुराचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, परधनहरण, आतंकवाद, जातिवाद, अशिक्षा, नैतिकपतन, कुटिलराजनीति इत्यादि दोष पद-पद पर देखे जा रहे हैं। अद्यतनीय शिक्षासंस्थानों से प्रतिवर्ष लाखों, करोड़ों छात्र स्वकीय शिक्षा पूर्ण कर सामाजिकक्षेत्र में आते हैं, किन्तु क्या वहाँ किंचित् मात्र भी माता पिता में भक्ति, गुरुजनों में आदरभाव, स्वदेश में अनुरक्ति, कर्त्तव्य कार्य के प्रति अनुराग है? नहीं। परन्तु केवल अर्थासक्ति है और तद्द्वारा कामनापूर्ति तथा व्यसनों में अत्यादर। यही नहीं जिस शहरी समाज में नित्य बच्चों तक के साथ बलात्कार कर गन्दे नाले में फेंक देने की वहसी निठारी, नोयडा की और किडनी बेचने की गुड़गाँव जैसी घृणित अनैतिक आचरणों की घटनाएँ हैं। लूटपाट और डकैतियाँ हैं। बच्चों के अपहरण और फिरौतियाँ हैं। दूसरों की सम्पत्तियों पर अधिकार जमाने की कोशिशे हैं। असहिष्णुता है। आत्महत्याएँ हैं। असमानता ऐसी कि एक तरफ कठोर परिश्रम है, परन्तु भर पेट पूरे परिवार के लिए रोटी नहीं, दूसरी और गगनचुम्बी कोठियाँ हैं, जिनमें भोग और विलासिता है। शराब और जूए का दुश्चक्र है। आलस्य, प्रमाद है। स्वार्थी राक्षसी वृत्ति है। अर्थासक्ति ऐसी कि उसके सामने कोई पिता, भाई, बहन आदि का सम्बन्ध कुछ नहीं। प्राणीमात्र के लिए दया का अभाव है। प्रकृति का दोहन इतना कि पर्यावरण कितना ही अशुद्ध हो उससे कुछ लेना देना नहीं। न देशप्रेम है। न दयाधर्म है। सत्यवादिता, परोपकार आदि गुण कोसों दूर हैं। राष्ट्र की सम्पत्ति को अपनी माँगो को लेकर कूड़े के ढ़ेर के समान अग्निसात् कर दिया जाता है। केवल अधिकारों की बात होती है, कर्त्तव्यभावना की नहीं। परिवार और समाज टूट रहे हैं। समाज में पनप रहे ऐसे अनेक दोष नित्य समाचार पत्रों की मुख्य पंक्तियाँ बनते हैं। आज के समाज को देखते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है कि जितना अधिक आज की शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है, घर-घर विद्यालय खुल रहे हैं, उतना ही मानव का मानसिक प्रदूषण बढ़ रहा है। आज के शिक्षित व्यक्तियों की गाँव के बीस वर्ष पूर्व के अनपढ़ व्यक्तियों से तुलना करें तो वे एक दूसरे से प्यार करने वाले, सुख दुःख को बाँटने वाले, परोपकारी आदि गुणों वाले थे और ये शिक्षित होकर अधिक बेईमान, छलकपटी, चोर, स्वार्थी, ईर्ष्यालु हो गये हैं। अब वहाँ भी भौतिकता के प्रभाव में नित्य नवीन अपराधों का उदय हो रहा है। इसीलिए आज की गर्हित सामाजिक स्थिति और शिक्षाव्यवस्था अन्योन्याश्रित हुई प्रमुखतः वर्तमान विसंगतियों का परिणाम कही जा सकती हैं- जिसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहाँ हृदयविहीन भावशून्य मशीनी मानव बनाने की शक्ति तो है, परन्तु मानवनिर्मात्री शक्ति नहीं।
आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य
उक्त सामाजिक स्थिति के विवेचन से यह स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति में वह शक्ति वा उद्देश्यों की पूर्ति की योग्यता प्रतीत नहीं होती जिससे मानव में मनुष्यता के बीज अर्थात् श्रेष्ठता के विचार आरोपित किये जा सकें। साथ ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल भी बढ़ाया जा सके। वर्तमानयुगीन शिक्षा के उद्देश्य तो केवल ऐसी शिक्षा को देना है जिससे अधिक से अधिक अर्थ का आगम हो और उसी के लिए बौद्धिक विकास की परिकल्पना है। उस विकास के साधन उचित हैं अथवा अनुचित यह सोचना आज की शिक्षापद्धति के एजेण्डे में नहीं है। एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर या इंजीनियर आदि आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य यह आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं, उसमें नैतिकता प्रभृति श्रेष्ठ मानवोचित गुणों का समावेश हुआ वा नहीं -यह उनकी परिकल्पना से दूर है। आचरणहीन, स्वार्थ की पराकाष्ठा के मूर्त रूपधारी, पैसा कमाने की मशीन बने डॉक्टर, इंजीनियर आदि से कितना ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, भौतिक पर्यावरण दूषण हो -इसकी चिन्ता उन्हें नहीं। इसीप्रकार के अन्य उद्देश्यों में मल्टीनेशनल कम्पनियों में नौकरी और तद्द्वारा आजीविका को प्राप्त करना या कहिए भौतिकसंसाधनों को जुटाना मुख्य है और उसी से समस्त लोगों को सुख शान्ति प्राप्त करवाने के उपाय किये जाते हैं। भौतिक संसाधनों को जुटाने के लिए नित नये कारखाने खोले जा रहे हैं। नई-नई तकनीकों को खोजा जा रहा है। अर्थ का अधिक से अधिक आगम कैसे हो उसी की चिन्तनायें देश और विश्वस्तर पर की जा रही हैं। आज शिक्षा का उद्देश्य केवल मानव को साक्षर करना और तद्द्वारा भोजन, वस्त्र तथा मकान किंचित् सुविधा से प्राप्त हो जायें -यह चिन्तन हर आधुनिक शिक्षाशास्त्री को उद्वेलित करता है। वह उसी चिन्तनधारा पर कार्य करता हुआ उसे और अधिक श्रेष्ठ और रुचिकर बनाने के उपायों पर मनःस्थिति को केन्द्रित किये है और सुधार के उपाय सुझाता है। इसी मानसिकता के अनुरूप प्रत्येक गाँव तक में विद्यालय की सुविधा सरकारी व निजी स्तर पर है अथवा की जा रही है। निजी विद्यालयों, महाविद्यालयों और बहुत से विश्वविद्यालयों ने इसे एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया है और भारीभरकम शुल्क (Fee) के द्वारा उससे खूब कमाई भी कर रहे हैं। किसी समय में महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), महामना मदनमोहन मालवीय, सर सैयद अहमद खाँ जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षणसंस्थानों को विशेष उद्देश्यों से खोला था। आज शिक्षणसंस्थान कुकुरमुत्तों की तरह हर स्थान पर उग आयें हैं, जिनके कर्ताधर्ता ईंटभट्टे के व्यापारी या व्यवसायी हैं। उनके उद्देश्य मोटी फीस से धन कमाना है। समाज का भला करने के ऊँचे लक्ष्य नहीं? उन्हें शिक्षा से लेना देना भी क्या है, अपना व्यवसाय करना है, जिसमें वे कुशल हैं। अब सर्वशिक्षा अभियान के रूप में हमारी सरकार ने ही स्वयं शिक्षा क्षेत्र को एक व्यापारिक क्षेत्र के रूप में घोषित कर वैदेशिकों के लिए भी दरवाजे खोल दिये हैं। अतः शिक्षा के उद्देश्य अर्थप्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं, यही बतलाने की कोशिश परोक्ष और साक्षात् रूप में देखी जा सकती है। सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाध्यायप्रवनाभ्यां न प्रमदितव्यम् जैसे वाक्यों से शिक्षा देकर मानव बनाने की परिकल्पना आज की शिक्षा में नहीं है।
आधुनिक शिक्षा की पद्धति
भारतीय साम्प्रतिक शिक्षाप्रणाली में पूर्णतः पाश्चात्त्य शिक्षाव्यवस्था का अन्धा अनुकरण है। जहाँ बच्चा नित्य विद्यालय जाता है और कुछ अक्षर ज्ञान कर लौट आता है। आकर्षित करने के लिए बाह्य चमक दमक को विशेष महत्त्व प्राप्त है। विशेषकर निजी विद्यालयों (Public Schools) में अभिभावकों और बच्चों को आकृष्ट करने के लिए साजसज्जा पर विशिष्ट ध्यान दिया जाता है। बच्चों के स्वास्थ्य, भोजन, वस्त्र और पाठशाला की सफाई सुचारु हो इसकी चिन्ता की जाती है। बच्चों पर कितना भी बोझा विद्यालय और ट्यूशन आदि के द्वारा अक्षर ज्ञान के लिए लादना पड़े, लेकिन वे मुख्य प्रश्नों के माध्यम से या अन्य प्रकार से अधिक से अधिक अंक परीक्षा में कैसे अर्जित करें, वे उपाय अभिभावकों और अध्यापकों या स्वयं बच्चों द्वारा किये जाते हैं तथा उसी के माध्यम से आजीविका प्राप्ति के उपायों की खोज भी होती है। विद्यार्थी ने अपने अध्ययन काल में विद्यालय और ट्यूशन में धन के महत्त्व को देखा है। अतः अधिक धनलाभ कैसे, किससे और आसानी से होगा। अच्छी से अच्छी सर्विस कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके लिए मन मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाये जाते हैं। इस स्थिति में बालक का बौद्धिक विकास किस दिशा में होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वह अपना हित छोड़कर सार्वजनिक हित नहीं करेगा, यह सिद्ध है और यदि करेगा तो आधुनिको के द्वारा मूर्ख कहा जायेगा। यही विचार कर आजकल पढ़ने हेतु मुख्य विषय विज्ञान और गणित को ही सीखने के लिए बल दिया जाता है। अन्य विषयों को भी स्पर्श किया जाता है लेकिन सब को एक साथ। भाषाओं को महत्त्व किंचित् ही दिया जाता है। ऐसे में बच्चों के कोमल मनों पर शिक्षा को लेकर कैसा प्रभाव होगा यह विचारा जा सकता है।
आधुनिक शिक्षागत समस्याएँ –
अद्यतनीया शिक्षाप्रणाली और समाज का एक ही दिशा- अर्थासक्ति में अहर्निश चिन्तन है। विशाल उदारवृत्ति यहाँ नहीं है, अतः स्वार्थीवृत्ति कार्य करती है। ऐसी स्वार्थीवृत्ति, जो खूब कमाओ और मौज उड़ाओ की संस्कृति की पोषिका है। सात पीढ़ियों तक के लिए भण्डार भरने की प्रवृत्ति यहाँ है। ऐसे में जहाँ स्वार्थ होगा वहाँ समाज, राष्ट्र वा पर्यावरण गौण हो जाते हैं। जिसके प्रभाव से सामाजिक ताना बाना विखण्डित हो रहा है। समाज में रहकर दी जा रही इस शिक्षा से जन्मा यह वैचारिक प्रदूषण भौतिक, सामाजिक, वैयक्तिक और सांस्कृतिक रूप से अनेकविधदूषणों का कारक है। जिससे किसी भी रूप में इस व्यवस्था के रहते बचा नहीं जा सकता, क्योंकि विकृत समाज के साथ ही शिक्षार्थी को भी रहना पड़ता है। ऐसे में यह शिक्षा अनेकविध समस्याओं का कारण बनती है, जिन्हें निम्नप्रकार समझा जा सकता है।
भौतिक समस्या – वातावरण में विष घोलने का कार्य यह शैक्षिक व्यवस्था कैसे करती है, इसे देखिए-
- आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रतिदिन विद्यालय जाना आना होता है, अतः आवागमन के लिए एक हजार की संख्या वाले विद्यालय में अनुमानतः चार बसों, चालीस से पचास ऑटो या अनेकों निजी वाहन विशेषों से उगले जाने वाले धुँए से वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण कितना अधिक होता है, यह वर्णनातीत है। दो से तीन, चार हजार बच्चे जिस विद्यालय में पढ़ते हैं वहाँ की स्थिति गुणित होकर कैसी होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है! मध्य में कहीं वाहनों का जाम लगा तो और भी समस्या। अबोध बच्चों के द्वारा न चाहते हुए भी प्रतिदिन कितना धुँआ पिया जाता है, और राष्ट्र को उसके बदले में रोगादि को दूर करने में कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, वह अनुमानगम्य नहीं! यह स्थिति बाहरवीं तक के छात्रों की है। बच्चे बड़े हुए तो स्वयं अपने वाहनों से या सार्वजनिक वाहनों से ऐसी ही यात्रायें शहरों में विद्यमान महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में जाने आने के लिए बसों में लटककर या छतों के ऊपर करते हैं। इसप्रकार की व्यवस्था में प्रत्येक दिन भारत में ही नहीं, विश्व में बच्चों को विद्यालय तक पहुँचाने और लाने में अनगणित वाहन प्रयुक्त होकर वायुमण्डल को कितनी हानि देते हैं, वह विचारणीय है।
सामाजिक समस्या – समाज में अनेक विसंगतियों की जनक भी यह प्रणाली है, वे इसप्रकार हैं-
- विद्यालय में आवागमन को सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें राष्ट्र के अर्थ और समय के अपव्यय का कोई मूल्य नहीं। अर्थहानि और समयहानि इस दृष्टि से कि प्रत्येक प्रातः शहरों में बच्चों को माता पिता विद्यालय में भेजने के लिए तैयार करते हैं, उसमें समय लगाते हैं, फिर विद्यालय में जाने के लिए बस स्थानकों पर वाहनों की प्रतीक्षा में न्यून से न्यून पन्द्रह मिनट से आधा घण्टा या अधिक, बच्चे के विद्यालय जाने और आने के समय अभिभावक ही प्रतिदिन नष्ट करते हैं। बच्चों के समय की हानि भी आवागमन में कई घण्टों में प्रत्येक दिन होती है। कई माता पिता स्वयं बालक को विद्यालय में छोड़ने और लाने का कार्य करते हैं। इसप्रकार प्रतिदिन के समय की हानि एक राष्ट्र के लिए कितनी महंगी पड़ती है! इसके अतिरिक्त विद्यालय की फीस का खर्च, वाहनों का खर्च और उनसे होने वाला वायु और ध्वनि प्रदूषण प्रतिदिन की दृष्टि से एक ही छोटे से शहर में ही लाखों का पड़ता है, मास और वर्षों की गणना अरबों, खरबों में होगी जिसका सही अनुमान लगाना भी कष्टसाध्य है।
- अपने वाहनों तथा सार्वजनिक वाहनों से विद्यालय में आने जाने वाले छात्रों की अनेक बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, जिसमें हर वर्ष न जाने कितनी जानें जाती हैं और कितने अपंग होते हैं। समाज को यह असह्य क्षति प्रायः उठानी पड़ती है।
- विद्यालयों की मोटी फीस, जिसे सभी नहीं दे सकते उससे समाज में समरसता नहीं होती। कोई बड़ी गाड़ी में आ रहा है तो कोई साइकिल द्वारा ऐसे में ऊँच नीच का भाव समाज में पनपता है। उच्च शिक्षा भी मोटी फीस के द्वारा खरीदी गई होती है, अतः पैसे का ही मूल्य है यह कोमल मनों पर आज की शिक्षा पद्धति के कारण छाया रहता है और वे बड़े होकर स्वयं वैसा ही व्यवहार करते हैं।
- आज की शिक्षाव्यवस्था में समानता और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न होने से सैंकड़ों वर्षों से दबे कुचले सामाजिकजन वहीं के वहीं उसी दुरवस्था में जी रहे हैं। क्योंकि वे अच्छे कहे जाने वाले पब्लिक विद्यालयों में धनाभाव के कारण अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेज नहीं सकते या शिक्षा के महत्त्व को वे जानते नहीं। आजीविका के लिए नित्य बाहर निकल जाने के बाद उनके बच्चों का भगवान् ही मालिक होता है, अतः उनके बालक गलियों में खेलते रहते हैं। पढ़ाई में मन नहीं लगा तो शीघ्र ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और बालमजदूरी (Child Labour) के चंगुल में फँस जाते हैं। सरकार की ओर से उन्हें पढ़ने के लिए शक्ति से आदेश नहीं दिया जाता। इस व्यवस्था में सम्पत्तिशाली तो आगे निकल जाते हैं और निर्धन साधनों के अभाव में वहीं के वहीं, गली सड़ी जिन्दगी गुजारने को मजबूर रह जाते हैं। परम्परया उनके बच्चों को भी उन्हीं के साथ रहने से वैसा ही वातावरण मिला होता है, अतः पूर्ववत् निम्नसमाज में बने रहने के अतिरिक्त कुछ परिवर्तन उनमें नहीं आ पाता। साथ ही बच्चों के घर में रहने से बालस्वभाव के कारण नित्य कोई माँग बच्चों की होती है। माँ बाप भी अपने कार्यों को निश्चिन्त हो ठीक से नहीं कर पाते जिससे घर की आय पर भी गलत प्रभाव पड़ता है।
- इस शिक्षापद्धति के अनुसार आज का विद्यार्थी पाँच, छः घण्टे विद्यालय में रहकर शेष पूरा दिन अपने घर में रहता है। गृहस्थ अपने कार्यों में व्यापृत रहते हैं। ऐसे में बच्चों का संरक्षण करने वाला कोई नहीं। घर में अब वे स्वतत्र है, चाहे तो कुछ भी करें। मन का स्वभाव चंचल है। एक स्थान पर बंध कर कदाचित् पढ़ा नहीं जा सकता। पढ़ना भी चाहेगा तो महापुरुषों की जीवनी या सही दिशा देने वाली अच्छी पुस्तकें नहीं, अपितु मन को अच्छी लगने वाली किस्से कहानियों की पुस्तकें। ऐसे में समाज को अच्छे नागरिक मिलेंगे यह परिकल्पना नहीं करनी चाहिए।
- इस व्यवस्था में पढ़ने वाले बच्चों का गृहस्थियों के साथ घर में अधिक समय व्यतीत होता है। घर में जो कुछ भी अच्छा या बुरा हो रहा है उसका प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो प्रायः चाय, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन प्रत्येक घर में होता है। केवल शराब की ही बात करें तो दैनिक जागरण समाचार पत्र में प्रकाशित एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अल्कोहल उत्पादों पर कर से साल 2007-08 के दौरान राज्य सरकारों को करीब 26 हजार करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी।….बेंगलूर स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेज (नीमहंस) के एक अध्ययन में पता चला है कि देश में अल्कोहल की बिक्री से हर साल 216 अरब रुपये के राजस्व की उगाही होती है। जबकि इसके ठीक विपरीत अल्कोहल के घातक दुष्परिणामों से हर साल करीब 244 अरब रुपये की क्षति उठानी पड़ती है। (दैनिक जागरण समाचार पत्र (हरिद्वार संस्करण), दिनांक 15 फरवरी, 2010, पृ0 2) ये आँकड़े समाज के शराबी होने की सत्यता को प्रमाणित कर रहे हैं। सरकार को राजस्व की चिन्ता है। समाज गर्त में गिर रहा है तो उसकी चिन्ता नहीं। ऐसे में शराब पीने से हानियाँ भी पाठ्य पुस्तकों में पढाई जाती हैं तो उसका प्रभाव होने वाला नहीं, क्योंकि बच्चे उसी समाज के साथ अधिक समय व्यतीत करते हैं। अतः बड़ों को देखते हुए वे गलत आदतें शनैः शनैः उनमें भी घर कर जाती हैं और वह भी वैसा ही बन जाता है। बाद में स्वभाव में आने से रोकने से नहीं रुकतीं। ऐसे ही अन्य बुराइयों के नित्य प्रत्यक्ष होने से मन की अनुकूलता के आते ही बच्चा बड़ा होते-होते उसे स्वीकार कर लेता है। अतः निरन्तर पीढ़ी दर पीढ़ी ये बुराइयाँ समाज में आती रहती हैं।
- जातिवाद समाज के लिए एक अभिशाप है, भयंकर रोग है, मानव-मानव के बीच विद्वेष और ऊँच नीच का विष घोलने का कार्य करता है, जिसे इस शिक्षाव्यवस्था के रहते समाज से दूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि आरक्षण और वोटबैंक की राजनीति का कुचक्र भी इसी जातिप्रथा की धुरि पर चक्कर लगा रहा है। नित्य बच्चे उसी समाज में रहते हैं जहाँ प्रतिदिन उन शब्दों का प्रयोग होता है और अब विद्यालयों में जाति का लिखना अनिवार्य हो गया है। इस व्यवस्था में जाति विशेष के लिए आगे बढ़ने के लिए तो आरक्षण है, लेकिन अन्य जातियों में भी गरीबों की कोई कमी नहीं। आरक्षित जातियों में भी उसका लाभ वे ही लोग उठा रहे हैं, जो पहले से लाभ ले कर स्वयं में राजनीति, प्रशासन, शिक्षाक्षेत्र या विविधप्रकार के उच्च पदों पर पहले से होने से सामर्थ्यशाली हैं, जिन्हें आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं। साठ वर्षों से ग्रामीणों अथवा शहरों की झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वालों की सुध लेने वाला कौन है? प्रथम तो वे बेचारे आरक्षण के महत्त्व को ही नहीं समझते होंगे। यदि जानते होंगे तो बच्चों को पढ़ाने के लिए वह योग्यता और धन कहाँ से लायें? क्योंकि घरों में पढ़ाने के बिना आजकल की पढ़ाई में आगे निकलना सम्भव नहीं, जिसे वे कर नहीं सकते!
वैयक्तिक समस्या – व्यक्तिगत दोष को देने वाली भी यह प्रणाली है। यथा-
- इस प्रणाली में यह व्यक्तिगत दोष है कि घर में रहने वाले छात्र की किसी प्रकार की कोई दिनचर्या बहुत से कारणों से नहीं बन पाती। कभी वह प्रातः पाँच बजे बिस्तर छोड़ता है तो कभी सात और आठ बजे। रविवार को तो वह उठना ही नहीं चाहता और जहाँ शरीर को बलिष्ठ होना चाहिए था, वह रोगग्रस्त होता चला जाता है। न शारीरिक व्यायाम, प्राणायाम या आत्मचिन्तन में कोई रुचि हो पाती। परिणामस्वरूप मानसिक, शारीरिक बीमारियों को नित्य निमंत्रण। दिनचर्या न होने की यह बीमारी बड़े छात्रों के छात्रावासों में और भी अधिक है।
- प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ट्यूशन की बीमारी भी इस शिक्षापद्धति की एक बहुत भयंकर देन है। ऐसे में बच्चे विद्यालय और ट्यूशन के बीच में कितना समय, शक्ति और धन बर्बाद करते हैं, वह किसी से छुपा नहीं। ऐसे बच्चों का बचपन भी नष्टप्रायः हो जाता है, उनका ठीक से शारीरिक और मानसिक विकास भी नहीं हो पाता, युवा होते-होते बूढ़े हो जाते हैं।
- अधिकांश में देखा जाता है कि गलत संगत के कारण बच्चे विद्यालयों में न जाकर आवारागर्दी करते रहते हैं और माता पिता सोचते हैं, वह विद्यालय या ट्यूशन में पढ़ने गया है। पॉकेट मनी भी गलत आदतों को पालने में एक कारण बनती है। उसी से बच्चे चाऊमीन, बर्गर, चॉकलेट आदि खाकर अपनी आदतों को बिगाड़ते हैं और टॉफी या मीठी वस्तुएँ खाकर अपने दान्तों तथा पेट को।
- स्वावलम्बन का अभाव इस शिक्षाप्रणाली में बच्चों में इतना अधिक देखने को मिलता है कि वे स्वयं कुछ कार्य करना नहीं चाहते। यहाँ तक कि बनियान आदि छोटे वस्त्र भी स्नानागार में दूसरों के लिए प्रक्षालित करने हेतु छोड़ देते हैं। कालान्तर में पूर्णतः पराश्रित हो जाते हैं।
- यह सब जानते हैं कि सभी के घर विलासिता के आगार भी होते हैं। घरों में कुछ झगड़ा भी होता है। इन सब का साथ में रहने वाले बच्चों के कोमल मन पर गलत गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। वे विलासिता के रंग में भी रंगते हैं, जिसकी अभी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं, जिससे कुण्ठाग्रस्त होते जाते हैं।
- जो माता पिता अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते उनके बच्चे घर पर टी0 वी0, वीडियो आदि के रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। जो नहीं देखा सुना जाना चाहिए वह सब उसके माध्यम से अबोध बालक जानने लगते हैं। जिससे पढ़ाई में विशेष ध्यान नहीं दे पाते और उसी में सुख की अनुभूति करने लगते हैं।
- प्रकृति के प्रति किसी प्रकार का कोई प्रेम आज की इस पद्धति के कारण नहीं बन पाता, क्योंकि वैसे वातावरण में वे रहते ही नहीं। ईंट, पत्थरों के जंगलों में रहते-रहते उनमें प्रकृति के प्रति सम्वेदनशीलता नहीं आ पाती।
सांस्कृतिक समस्या – भारतीयसंस्कृति से सम्बन्धित जीवन आधायक गुणों का नितान्त अभाव का दोष इस व्यवस्था में है। यथा-
- इस शिक्षा पद्धति में भारतीय जीवन मूल्यों से द्वेष सा है, अतः वहाँ त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य, अध्यात्म का स्पर्श भी जीवन में नहीं करवाया होता, अतः सामान्य से कष्टों के आने मात्र से ही आत्महत्या की भावना आती है। सहिष्णुता का अभाव वहाँ मुख्य होता है। इसीलिए आर्थिक दृष्टि से सुखद भविष्य की सम्भावना होते हुए भी आई0 आई0 टी0, आई0 आई0 एम0 जैसे संस्थानों के छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। कहीं परस्पर ईर्ष्या, द्वेष के कारण अपने साथियों का संहार करने तक का जघन्य कार्य भी कर डालते हैं। ऐसे कृत्य पूर्ण विकसित कहे जाने वाले समृद्धिशाली जर्मनी, अमेरिका जैसे देशों में भी देखे जाते हैं। 11 मार्च, 2009 को दक्षिण जर्मनी के विन्नण्डन (Winnenden) नगर के अल्बर्टविले (Albertville) स्कूल में ही एक 17 वर्ष के बच्चे ने विद्यालय के तीन अध्यापकों, नौ लड़कियों सहित 15 जनों को गोलियों से भून डाला था। बचपन में ही ऐसी उग्रता समाज के लिए घातक है जो नैतिक मूल्यों से ही दूर की जा सकती है और उसके लिए इस पद्धति में अवकाश नहीं।
- हजारों की संख्या में शिक्षार्थी विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों से निकलते हैं, परन्तु सभी अपने तक ही सीमित होते जा रहे हैं। किसी में माता, पिता, परिवार, समाज, देश, राष्ट्र के प्रति कोई भक्तिभाव नहीं, उदारता नहीं। कारण आदर, सम्मान, सौहार्द, सहानुभूति, सम्वेदना आदि का अभाव। विद्यालयों में केवल गणित, विज्ञान, इतिहास अथवा कला-सम्बन्धी विचारों को बच्चे में सम्प्रेषित करने का अधिकतम कार्य किया जाता है, जबकि बच्चों का अधिक समय तो पाठशालाओं से बाहर आराम की जिन्दगी के सान्निध्य, गलियों में खेलने या टी0 वी0, वीडियोगेम, अथवा नेट पर चैट आदि में व्यतीत होता है। जीवन जीने की कला की शिक्षा इस मध्य में लुप्त हो जाती है। इन नकारात्मक भावों से विपरीत श्रेष्ठ भावों का बीजारोपण करने के लिए आन्तरिकभावों को जागृत करना होता है, जो आध्यात्मिकता में निहित हैं, वे आचार व्यवहार से सिखाए जा सकते हैं और उनके लिए आज की शिक्षाव्यवस्था में किसी के पास समय नहीं।
- भाषा का अध्ययन अध्यापन मानसिक भावों को जागृत करता है, विचारों की नई स्फूर्ति जीवन में लाता है, लेकिन आज कल की शिक्षा प्रणाली में भाषा की मुख्यता न होने से इसका भी अभाव देखा जा रहा है, अतः नई पीढ़ी भावशून्य हो रही है। दया, परोपकार, सत्यवादिता जैसे भाव गुजरे जमाने की बात होती जा रही है। अपनी राष्ट्र भाषा या संस्कृति पर किसी को गौरव नहीं। यही कारण है कि एक पब्लिक स्कूल का बच्चा शुद्ध हिन्दी भी नहीं लिख पाता। संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा को तो आज का छात्र विषधर की भांति हेय मानता है।
- कामवासना ऐसा रोग है, जो प्रत्येक को पीड़ित करता है, लेकिन आजकल की शिक्षाव्यवस्था में उस पर काबू पाने का कोई उपाय ब्रह्मचर्य आदि के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया जाता। अतः युवावस्था आने पर सहशिक्षा के कारण थोड़े से भी अनुकूल वातावरण के मिलते ही बच्चों को बहकने का खुला आमंत्रण मिलता है। भारतीय समाज में संस्कारों के कारण कुछ उस से बच जाते हैं तो कुछ नीचे ही नीचे संलिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर विकसित राष्ट्रों के विकास की गति देखिए, जहाँ सोलह वर्ष की शायद ही कोई लड़की गर्भपात करवाने से बचती हो। अब ऐसा ही प्रभाव भारतीय समाज के बड़े-बड़े शहरों में भी देखने को मिल रहा है। यह भारतीय संस्कृति को शिक्षाप्रणाली में महत्त्व न देने का ही परिणाम है।
- आज की परिस्थितियों में ऐसा कौन सा घर है जहाँ भारतीय संस्कृति में मानव के आन्तरिक षड्रिपु कहे जाने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष जैसे कीटाणुओं का प्रवेश न हो। जन्म जन्मान्तर की वासनाओं से ये दोष बच्चों में भी अनुकूल अवसर पाकर घरों और समाज के सान्निध्य में रहने के कारण प्रविष्ट होते हुए देर नहीं लगाते। जिससे अध्ययन में बाधा आती है और जो उपलब्धि होनी चाहिए वह नहीं हो पाती।
- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान रूप पाँच नियम- ये दोनों मनुष्य के इन्द्रियघोड़ों में लगाम का कार्य करते हैं। आधुनिक शिक्षा पद्धति में इनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं। अतः मानव बेलगाम घोड़े के समान अर्थ के पीछे दौड़ लगा रहा है। ये जानते हुए भी कि यह सब यहीं रह जाना है और अनैतिक कार्यों में मानो प्रतिस्पर्धा करके जुटा है।
अन्य अनेक दोष भी विचार करने पर इस शिक्षा पद्धति में संकेतित किये जा सकते हैं, जिनके चलते आज स्थिति यह हो गई है कि साधन साध्य हो गया है। विश्व के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में आज प्रायः इसी की अन्धी दौड़ है और उसी का परिणाम है कि मानव अर्थलिप्सु हुआ येन केन प्रकारेण शिक्षित कहलाता हुआ भी भ्रष्टाचार, अनैतिक आचरणों के दलदल में आकण्ठ डूबा जा रहा है। सुख शान्ति यदि धन ऐश्वर्य में होती तो विश्व के चोटी के धनाढ्यों में अशान्ति देखने को न मिलती। लेकिन, आज की शिक्षा व्यवस्था इसी धुरी पर चक्कर लगा रही है, जो मानव की ऐकान्तिक और आत्यन्तिक सुख की अवाप्ति का साधन नहीं। ऐसी स्थिति में आज की सामाजिक विसंगतियों, स्थितियों को देखते हुए प्रश्न खड़ा होता है कि क्या आज की शिक्षाव्यवस्था उचित है? कोई भी विचारक उत्तर में नहीं ही कहेगा और उसको सुधारने की बात करेगा। 20 फरवरी 2010 के दैनिक जागरण समाचारपत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर श्री राजीव शुक्ला (राज्यसभा सदस्य) के लेख में भी मैकाले की दी हुई शिक्षा पद्धति को बहुत पुराना कहा है और उसमें बदलाव पर बल दिया है। जिसकी आज नितान्त आवश्यकता है।
समस्याओं के जाल से निकलने का विकल्प आश्रमव्यवस्था
उक्त विकट समस्यारूप तमःपुंज को ध्वस्त करने की एकमात्र प्रकाशज्योति भारतीय आश्रमव्यवस्था में निहित है, जो वेदादिशास्त्रों के आविर्भाव से लेकर रामायणकाल तक समृद्धि को प्राप्त हुई दिखाई देती है तथा महाभारत काल के आते-आते क्षीण हो गई और आज प्रायः लुप्त है। जिसे आधुनिक काल में पूरे विश्व के कल्याण की इच्छा रखने वाले महान् शिक्षाशास्त्री दयानन्द ने अपने उपदेशों और ग्रन्थों से पुनः स्थापित करने की कोशिश की। उन्हीं से प्रेरणा लेकर अनेक गुरुकुलों ने आश्रमव्यवस्था को अपनाया और आज भी समाज के द्वारा प्राप्त करवाये गये स्वल्प संसाधनों के बीच कार्य कर ख्याति अर्जित कर रहे हैं। प्रमुखतः प्राच्य संस्कृत ग्रन्थों के ही अध्ययन अध्यापन में पूर्ण निष्ठा से ये संस्थान कार्य कर रहे हैं, यदि उन पाठ्यक्रमों के साथ अर्वाचीन ज्ञान विज्ञान को भी पठन पाठन का अंग बना दिया जाये तो संसार में इनसे उत्तमकोटि का कोई शिक्षण संस्थान सम्भवतः न होगा। ग्रामों और नगरों से दूर होने के कारण समाज में पनप रहा दूषण भी वहाँ नहीं है और यही दूषण मानव मस्तिष्क से हटाने का उद्देश्य लिए वे कार्य कर रहे हैं, उसमें सफलता भी किसी हद तक प्राप्त हो रही है, क्योंकि यहाँ जीवन के अन्तरंग स्वरूप शारीरिक, मानसिक और आत्मिक को प्रबलता प्रदान करवाते हुए जीने की कला भी है और अध्ययन अध्यापन के द्वारा बौद्धिक विकास का भी पूर्ण प्रबन्ध। इन्हीं गुणों के कारण स्वामी श्रद्धानन्द की तपःस्थली गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ने अपने शैशव काल में ही विश्व में कीर्ति अर्जित की थी। अब भी यदि इस आश्रमव्यवस्था को निकट से देखना चाहें तो तीरन्दाजी में ओलम्पिक तक भारत की ध्वजा को उत्तोलित करने वाले, लड़कों के गुरुकुल प्रभात आश्रम, मेरठ और लड़कियों के गुरुकुल चोटीपुरा, अमरोहा को देख लीजिए, जो विना किसी सरकारी सहायता के देश की सेवा कर रहे हैं और अपनी संस्कृति के आराधक हैं। गत दो तीन वर्षों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित संस्कृत में NET/JRF परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने वाले यहीं के सर्वाधिक विद्यार्थी रहे हैं। शायद किसी एक संस्था के इतने बच्चों की इस परीक्षा में सफलता आश्रमव्यवस्था की ही उत्कृष्टता को स्पष्टतः कह रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष में ऐसे अनेकों लड़के, लड़कियों के अलग- अलग गुरुकुलस्थल हैं, जिनमें समर्पणभाव और अच्छी मानसिकता से बच्चों का निर्माण प्राच्यपद्धति से किया जा रहा है। यदि यहाँ अच्छे साधन उपलब्ध करवाये जायें, सरकारी सहयोग भी हो तो आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों को भी नई दिशाएँ दी जा सकती हैं। थोड़े प्रयास से भी बच्चों को बहुत उन्नत अवस्था तक पहुँचाया जा सकता है।
इस आश्रमव्यवस्था में मुख्यता आचार्य की होती है। आचार्य एक समर्पित व्यक्तित्व का नाम है, जो सत्यनिष्ठ, त्यागी, तपस्वी, अपरिग्रही हो और जिसमें उत्कृष्टता का बीजारोपण करने वाले ज्ञान, कर्म, श्रेष्ठ विद्वानों और ईश्वर की उपासना, शम, दम, दया आदि गुण हों- ज्ञानकर्मोपासनाभिर्देवताराधने रतः। शान्तो दान्तो दयालुश्च ब्राह्मणश्च गुणैः कृतः।। (शुक्रनीतिसार 1.40) आचार्य संज्ञा से भी स्पष्ट है आचार्य अपने आचरण व्यवहार से बच्चों को अधिक शिक्षित करता है, जिसका मूल संकेत अथर्ववदीय मंत्र- आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।। (अथर्ववेद 11.5.3) देता है, जिसका ऐसा उत्कृष्ट तात्पर्य है, जिसकी संसार में तुलना नहीं की जा सकती । जिसके अनुसार ब्रह्मचारी को उपनीत कर आचार्य अपने गर्भ में धारण करता है। गर्भ में धारण करने का निर्देश दे वेदभगवान् यह संकेत देना चाहते हैं कि आचार्य के कुल में उपनीत ब्रह्मचारी किसी भी और कैसे भी उच्च राजा, महाराजा अथवा निम्न निर्धन कुल से आया हो उसके साथ आचार्य वैसा ही व्यवहार करे जैसा माता गर्भस्थ शिशु का लालन, पालन करते हुए करती है अर्थात् माता उदरस्थ शिशु कैसा और क्या है? ऐसा भेद न रखते हुए समान दृष्टि से स्नेह की वर्षा करते हुए परिपालना करती है और सम्पूर्ण निर्मिति होने पर वह शिशु बाह्य जगत् का दर्शन करने के लिए बाहर आता है। ऐसे ही आचार्य कुल में विद्यार्थी समानरूप से गुरु के स्नेहिल छत्र के नीचे विद्यार्जन से हर प्रकार के तमस् को दूर करता हुआ आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, भौतिक विभिन्न प्रकार की उन्नतियाँ कर सम्पूर्णता को प्राप्त हो समाज में पदार्पण करे। ऐसे में देवजन उसका स्वागत करते हैं। वेद के इन निर्देशों की परिपालना कठिन नहीं है। सभी स्वीकार भी करेंगे कि इससे उत्कृष्ट, मानव के निर्माण के लिए शायद कुछ नहीं हो सकता। अतः केन्द्र और राज्य सरकारों को आगे आकर इसकी पहल करनी चाहिए।
सरकारों और सामाजिक संगठनों के लिए करणीय
भारत को स्वतत्र हुए छः दशक से अधिक का काल हो गया। कितनी बड़ी विडम्बना है कि इतने लम्बे समय के बाद भी हमारा कहने को कुछ नहीं। न अपनी राष्ट्रभाषा, न संस्कृति, न संविधान, न शिक्षाव्यवस्था, जिसे भारतीय कहा जा सके। सब उधार का माल है। मैं समझता हूँ कि इन मामलों में वे हमारे से श्रेष्ठ भी नहीं हैं। हाँ, यदि हों तो स्वीकार करने में भी किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हमारी अपनी मान्यता है विषादपि अमृतं ग्राह्यम् अर्थात् विष से भी अमृत मिले तो ले लेना चाहिए। वेद भी कहता है- आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः (यजुर्वेद 25.14) सभी और से कल्याणकारक बुद्धिबल अर्थात् जो भी बुद्धिग्राह्य हो वह हमें प्राप्त हो। योग्य नहीं, फिर भी यदि हम उसे ढ़ोये चले जा रहे हैं तो उसके दो कारण हो सकते हैं। प्रथम ये कि हमें अपनी श्रेष्ठता की जानकारी नहीं और द्वितीय ये कि हम जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं। द्वितीय सम्भवतः होना नहीं चाहिए, क्योंकि हम ऐसे कृतघ्न नहीं। प्रथम के अनुसार जानकारी नहीं, तो हमारा दायित्व बनता है कि हम अपने को पहचानें। भारतवर्ष का अपना गौरवपूर्ण इतिहास और संस्कृति है। साथ ही संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा हमारी अपनी कही जाती है और उसमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करने के लिए अथाह ज्ञानसम्पत्ति है, जिसका दोहन होना चाहिए। प्राकृतिक सम्पदा भी ऐसी कि विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं, लेकिन दुःखद है उसको समझा नहीं गया और समुचित उपयोग नहीं किया। प्रत्येक क्षेत्र में परमुखापेक्षी रहे। समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए यहाँ की आश्रम व्यवस्था और वर्णव्यवस्था की विश्व में कोई तुलना नहीं। संक्षेप में कह सकते हैं कि किस आयुवर्ग के व्यक्ति को कहाँ पर रहकर अपने जीवन का योगदान समाज के लिए देना है यह बतलाना आश्रमव्यवस्था का कार्य है और सब आलस्य प्रमादों को छोड़कर कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः (यजुर्वेद 40.2) मंत्र के अनुरूप श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कर्म करने की सदिच्छा के साथ समाज में एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा का नाम वर्णव्यवस्था है। उस प्रतिस्पर्धा में समान अवसर होते हुए जो व्यक्ति अपने बुद्धिकौशल के अनुसार जिस कर्म पर आकर ठहर जाता है, उस कर्म के अनुसार उसका वर्ण निर्धारण हो जाता है। इसप्रकार वर्णव्यवस्था में कर्म की ही तो प्रधानता है किसी को समाज में हीन दिखाने का कार्य नहीं। जो कर्म नहीं करता वह दस्यु है और दस्यु को सत्प्रेरणाओं से समाज की निर्मल धारा में लाना उपदेशकों का या दण्ड के द्वारा रास्ते पर लाना राजा का दायित्व है। बचपन से कोई दस्यु बने ही नहीं कर्मकौशल से, पुरुषार्थ से सब प्राप्य प्राप्त करे, यह बतलाना शिक्षा का कार्य है। ऐसी उत्कृष्ट शिक्षा के बीजारोपण समाज की भागदौड़ से दूर आश्रमव्यवस्था में निहित हैं, जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ब्रह्मचारी आचार्यकुल में प्राप्त अबोध बच्चे की वैदिकी संज्ञा है। यही उसमें मुख्य केन्द्रबिन्दु होता है, जिसका सदुपदेशों से कच्चे घड़े के समान निर्माण करना होता है। उसे आचार्य अपने सान्निध्य में रखते हुए अपनी ज्ञानाग्नि से जैसा स्वरूप देता है वैसा ही मजबूत बनकर गुरुकुलरूपी तप की भट्टी से वह बाहर आता है। निषेधात्मक सोच लिए हुए जैसे आजकल उग्रवादी जेहादी तैयार करते हैं वैसे ही सकारात्मक सोच के साथ समाज के लिए अपना सब कुछ आहुत कर देने वाले सदाचरणशील, कर्त्तव्यनिष्ठ, समर्पितव्यक्तित्व के धनी आचार्य या गुरु यदि समाज को बदलना चाहें तो वास्तव में बदल सकते हैं। बस, आवश्यकता है उत्तम वातावरण बनाने की। फिर वे भी जेहादी मानव का निर्माण कर फौज खड़ी कर सकते है, लेकिन यह जेहाद समाज को दिशा देने वाले सत्कर्मों के लिए होगा विध्वंस के लिए नहीं। ऐसे व्यक्तित्व की धनी यह फौज अनेक कष्टों के आने पर भी कदाचित् उचित सत्यनिष्ठ मार्ग से विचलित न होगी। यही ध्येय प्राचीन काल में आश्रमों का होता था। जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का निर्माण किया। अधुनातन उदाहरण देश के पिछड़े प्रदेश बिहार की राजधानी पटना का है, जहाँ एक Super 30 के नाम से ऐसा संस्थान चल रहा है जिसकी गत तीन वर्षों की उपलब्धि है कि वह निर्धन तीस बच्चों को, जो IIT-JEE की कोचिंग को पैसा देकर नहीं खरीद सकते, उन्हें निःशुल्क समर्पणभाव से शिक्षण देता है। बच्चों की श्रद्धा और गुरुओं के समर्पण व विश्वास से लगातार तीसरी बार तीस के तीस बच्चों ने IIT की कठिनतम परीक्षा को उत्तीर्ण करने का अनुकरणीय कार्य किया है, द्र0 (The Times Of India, New Delhi, Page 01, May 27, 2010)। बस, यह समर्पण का नमूना है, यही शिक्षा के क्षेत्र में होना चाहिए। तुच्छ धन के बदले अमूल्य शिक्षा के विक्रय से बचना चाहिए। यही सन्देश Super 30 ने शिक्षा का बाजारीकरण करने वालों को जोर का झटका देकर दिया है। अब ऐसी व्यवस्थाओं को मूर्तरूप देने के लिए शासन को आगे आना चाहिए और निम्नलिखित योजनाओं को कार्यान्वित करवाकर समाज को सुसमृद्ध और सुसंगठित करने में योगदान देना चाहिए।
- सर्वप्रथम यदि सरकार वा अन्य सामाजिक संस्थाएँ मानव मात्र का कल्याण चाहती हैं। गरीब से गरीब के बच्चे को पढ़ाई कर सम्मानित जीवन जीने के लिए प्रेरित करना चाहती है। जातिप्रथा के अभिशाप को निर्मूल कर समाज के लिए कैन्सर बने आरक्षण को समाप्त करने का ध्येय रखती है। मानसिक और भौतिक प्रदूषण से समाज को छुटकारा दिलाना चाहती है, तो उन्हें तुरन्त आश्रमव्यवस्था के द्वारा विद्या अध्ययन को लागू करवाना चाहिए। ऐसा होते ही आधुनिक शिक्षाव्यवस्था में दिखाए उपर्युक्त दोष पलायन करने में देर नहीं लगायेंगे।
- यह प्रकृति सिद्ध है कि उत्कृष्ट वस्तु का निर्माण श्रेष्ठ शिल्पी के ही हाथों द्वारा होता है। आप श्रेष्ठ मानव बनाना चाहें तो उसके लिए सिद्धहस्त को ढ़ूँढना होगा। शिक्षा के लिए सामान्य या आरक्षण से कार्य नहीं चलेगा। आज की व्यवस्था में प्रायः समस्त बुद्धि का वैभव अन्य क्षेत्रों में जा रहा है और यहाँ शिक्षा का कार्य विशेषकर प्राथमिकस्तर पर कामचलाऊ शिक्षकों से चलाया जाता है। जब कि होना विपरीत चाहिए। शिक्षकों से ही उनकी योग्यता से विपरीत चुनाव कार्य, जनगणना, पशुगणना इत्यादि सामाजिक कार्य करवाये जाते हैं। अतः प्रथम त्यागी, तपस्वी समर्पणभाव वाले योग्यतम शिक्षकों का चयन अपेक्षित होगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी शिक्षकों का चयन आज कल की जल, थल और वायु सेना के अधिकारियों की चयन प्रक्रिया के अनुरूप अनेकों परीक्षणों और बाधाओं को पार करने वाले सबसे अधिक बुद्धिमान् का किया जाना चाहिए, जिससे वे अपना श्रेष्ठतम योगदान मनुष्यता के निर्माण में दे सकें। ये शिक्षक मातृवत् वात्सल्यभाव, सदाचारी, आध्यात्मिक, विभिन्न विद्याओं में निष्णात, कर्त्तव्यनिष्ठ, बहुभाषाविद् आदि गुणों से युक्त हों तथा इन्हें देश या समाज के अन्य दायित्वों से पूर्णतः मुक्त कर चौबीस घण्टे बच्चों के निर्माण में ही समर्पित करना चाहिए। इन्हें सब अभीष्ट सुविधाएँ भी प्राप्त करवाई जानी चाहिए। समाज उन पर पूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखे। प्राचीन समय में शिक्षा देने का कार्य गृहस्थधर्म के समस्त दायित्वों से निर्मुक्त हुए वानप्रस्थी निर्वहन करते थे, अतः शिक्षा विना किसी शुल्क के दी जाती थी। अब भी ये व्यवस्था बनाई जा सकती है, इससे बच्चों को वृद्धजनों के जीवन का पूर्ण अनुभव और प्यार शिक्षा के साथ प्राप्त हो सकेगा। बच्चे भी उनकी सेवा शुश्रूषा कर सकेंगे। एक दूसरे को परस्पर सम्बल प्राप्त हो सकेगा। वृद्धजन अपनी योग्यता के अनुसार इन आश्रमों में कुछ भी सेवायें दे सकते हैं।
- साम्प्रतिक काल में भी उक्त निर्देशों के अनुसार ग्राम और शहरों से दूर प्रकृति की गोद में छात्रावास, क्रीडास्थल आदि सब सुविधाओं से सुसज्जित आश्रम/विद्यालय/गुरुकुल जो भी नाम दें, स्थापित किये जाने चाहिए। इन का निर्माण जनसहयोग और सरकार द्वारा हो सकता है। इन आश्रमों में बच्चे के खान, पान और पढ़ने की हर प्रकार की चिन्ता श्रेष्ठ, निःस्पृह, समर्पित शिक्षकों के द्वारा की जायेगी, अतः माता पिता निर्द्वन्द्व हो अपने गृहस्थ जीवन को सुन्दरतम बना सकते हैं। आश्रम में रहने वाले बच्चों आदि के भोजन आदि की व्यवस्था भी जरा सी उदारता पर साल भर के लिए फसल के समय दिए गए एक-एक बोरी अन्न से ही सम्भव हो सकती है। जनसंख्या के अनुसार वह अनेक ग्रामों या एक ग्राम वा नगर का हो सकता है।
- आश्रम में गरीब और धनवान् का अन्तर किये बगैर समानरूप से बच्चे का प्रवेश पाँच से आठ वर्ष की आयु में अनिवार्यरूप से हो जाये यह राजनियम होना चाहिए। जो माता पिता ऐसा न करें वे समाज या शासन के द्वारा दण्डनीय हों। गाँवों में यह दायित्व पंचायत को सौंपा जा सकता है और नगरों में नगरपालिका को, जिससे किसी का बच्चा घर में न रहने पाये। बच्चे माता, पिता और समाज में साक्षात् मोह न रखें जब तक पूर्ण शिक्षा न हो, इससे विना किसी घर आदि की चिन्ता के निरन्तर अध्ययन करना और करवाने का उद्देश्य पूर्ण होगा, विद्यार्जन में किसी प्रकार की बाधा न आने पायेगी। यह सबको शिक्षित करने का सीधा और सरल उपाय है। सभी को पढ़ाई करने और आगे निकलने के समान अवसर उपलब्ध करवा देने से समाज में किसी को आरक्षण देने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। न समाज में विद्वेष फैलेगा। समाज से दूर आश्रमों में बच्चों के होने से बालश्रम (Child Labour) जैसे कलंक का प्रश्न ही नहीं उठेगा। बच्चे भी समाज में पनपने वाले अनेक प्रकार के रोगों से बचे रह सकेंगे।
- इस आश्रम व्यवस्था में राजा या रंक, सम्प्रदाय आदि के भेद के विना सब बच्चों के साथ समान व्यवहार, खान-पान, वस्त्र आदि से पोषण होने से वास्तविक साम्यवाद अनायास ही आयेगा। जातिवाद का दुश्चक्र भी समाज से शनैः शनैः समाप्त हो जायेगा।
- समयानुसार नियमित दिनचर्या की परिपालना करवाना भी बच्चों के भविष्य और स्वास्थ्य आदि के लिए उत्तम होगा। ऐसे स्थल पर स्वयं कार्य करने की प्रवृत्ति का भी उदय होगा और बच्चा स्वावलम्बी बनेगा।
- शारीरिक बल की उन्नति और विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर ख्याति अर्जित करवाने के भी आश्रम स्थल साधन बन सकते हैं। क्योंकि क्रीड़ायें सामूहिक रूप में प्रातः सायम् ही की जाया करती हैं।
- नित्य प्रातः सायं आसन प्राणायाम, खेलकूद के द्वारा शारीरिक पोषण और मन, आत्मा की प्रबलता के लिए सन्ध्योपासना द्वारा अध्यात्म का पाठ पढ़ाना तथा वातावरण की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र करना करवाना अपेक्षित होगा। अग्निहोत्र इसलिए कि अग्नि में पड़ी हुई आहुतियाँ इदन्न मम के द्वारा त्यागभावना को सिखाती हुईं सूक्ष्म हो सम्पूर्ण प्रकृति को सुवासित कर नई ऊर्जा का संचार वातावरण को शुद्ध और पवित्र करने में करती हैं। वस्तुतः गोघृत और प्रकृतिप्रदत्त वनस्पतियों में वह शक्ति मालूम होती है जो यज्ञीय अग्नि के माध्यम से प्रदूषण को समूल नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। वेद आदि सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय, वाल्मीकिरामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ इसकी पुरजोर वकालत करते हैं। आधुनिक विचारक दयानन्द भी पर्यावरण की शुद्धता के लिए यज्ञ को ही उत्तम मानते हैं, वे सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में क्या होम न करने से पाप होता है? के उत्तर में लिखते हैं- हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर में जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक, वायु और जल में फैलाना चाहिये। प्रत्येक को अग्निहोत्र करने के लिए प्रेरित करते हुए पुनः वहीं अन्य प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा, तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। इन विचारों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ के धूम से वातावरण सुगन्धित होता है और यह अनुभव सिद्ध भी है। यदि यह आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी निरीक्षित हो योग के समान प्रचार प्रसार पा जाए तो सम्भव है, भौतिक प्रदूषणों से और विभिन्न प्रकार के रोगों से मानव समाज मुक्त हो जाए। अतः इस दिशा में अनुसन्धान करने के लिए आधुनिक वैज्ञानिकों और याज्ञिकों के सम्मिलित प्रयास होने चाहिए, जिसकी आज के युग में नितान्त आवश्यकता है।
- साथ ही प्रातः सायं के समय सदुपदेशों के द्वारा विभन्न विषयों जैसे धर्म वास्तव में किसे कहते हैं? ईश्वर, जीव, प्रकृति क्या हैं? इत्यादि पर चर्चाएँ श्रेष्ठ मानव का निर्माण करने में सहयोगी होंगी। ब्रह्मचर्य आदि का पाठ पढ़ा कर विषय वासना और विलासिता के रोगों से समाज को दूर किया जा सकता है। इसप्रकार एक स्थान पर रहने वाले बच्चों का एक साथ चहुँमुखी विकास होना सम्भव है। जिसे परिवारों में प्राप्त करना कथमपि सम्भव नहीं।
- एक स्थान पर रहने और नियम बना देने से विभिन्नभाषाओं को भी थोड़े ही परिश्रम से बच्चे जान सकते हैं, क्योंकि भाषा बोलने और व्यवहार से आती है। ऐसे में बच्चे का विकास भी सही तरीके से होगा और श्रवण परम्परा से कथाओं के साथ श्रेष्ठ सूक्तियों आदि का स्मरण करवाना भावी जीवन के लिए फलदायक।
- पाठ्यविषयों में भी शैशव काल के प्रथम तीन चार वर्ष में भाषाओं का पूर्ण ज्ञान करवाना ही उपयोगी हुआ करता है। जिससे समझ विकसित होने पर विषयों को बाद में ठीक से जाना जा सकता है। अन्य विषयों को आनुपूर्वीक्रम से एक-एक विषय को पढ़ाना उत्तम रहेगा। जिससे समय की उपलब्धि होने से अन्य मानसिक और आत्मिक उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त होंगे।
- आश्रमों में श्रेष्ठ, आचारवान्, अध्यात्मनिष्ठ गुरुओं के सान्निध्य में रहकर उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने का यथासमय अवसर मिलता है और शिक्षा कkeo परम उद्देश्य श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना सम्भव होता है। फिर कार्य कुशलता और योग्यता के अनुरूप बच्चे स्वयं या आचार्य के निर्देशानुसार अपनी आजीविका ग्रहण कर सकते हैं।
- यहाँ यह भी अवधेय है कि कन्याओं के लिए आश्रम अलग और लड़कों के लिए अलग होना वैयक्तिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से शीघ्र उन्नति करने में लाभदायक सिद्ध होगा। परस्पर आसक्ति में नहीं पड़ेंगे। दिखावा करने का भूत सवार नहीं होगा। जिससे अनेक प्रकार की असहज प्रवृत्तियों से बचा जा सकता है।
- पहाड़ों पर तो आश्रम व्यवस्था में पढ़ाना आर्थिक आदि सभी पहलुओं में और भी उपयोगी है। सुना जाता है उत्तराखण्ड जैसे प्रान्त में सोलह ऐसे महाविद्यालय हैं, जहाँ प्रत्येक में सौ सौ की भी छात्र संख्या नहीं है। ऐसे में आश्रम व्यवस्था बहुत उपयोगी होगी।
आधुनिक शिक्षा में इसप्रकार के परिवर्तन कर समाज को वर्तमानकालिक नीतिनिर्धारक बहुत सारी विसंगतियों से बचा सकते हैं। आशा है इस दारुण स्थिति में उक्त महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार और अन्य ऐसे ही समर्थ तथा सशक्त एन॰ जी॰ ओ॰, डी॰ ए॰ वी॰ संस्थान आदि सामाजिक संगठन आगे आयेंगे। भारत के सोये स्वाभिमान को जगायेंगे और भारतीय उच्च आदर्शों और परम्पराओं की पुनः स्थापना शिक्षाव्यवस्था के माध्यम से करवा कर भारतवर्ष के खोए हुए गौरव को प्राप्त करवाने में यथाशक्ति योगदान देंगे। क्योंकि शिक्षा ऐसा माध्यम है, जिससे शीघ्र और उचित दिशा में उन्नति होने में विलम्ब नहीं हुआ करता।
निष्कर्ष-
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति अनेक समस्याओं की जड़ है। जिसका मूलोच्छेद जब तक नहीं किया जायेगा तब तक समस्त समाज को शिक्षित और मानवोचित गुणों का उसमें आधान करवाना कथमपि सम्भव नहीं होगा। मनुष्य के केवल बाह्य स्वरूप को सुधारने का कार्य आज की शिक्षा का है। जबकि बाह्य से आन्तरिक स्वरूप अधिक महत्त्व रखता है परन्तु बाह्य और आन्तरिक समुदित हुए चार चाँद लगाने में समर्थ हैं। प्राचीन आश्रम व्यवस्था विचार शक्ति को शुद्ध कर उभयविध उन्नतियों को सिद्ध करती है। इसलिए यदि समाज में मानवता लानी है, प्रकृति के प्रदूषण को बचाना है, बच्चों के विद्यालय में आवागमन हेतु लगने वाले समय को बचाना है तो प्राच्य और अर्वाच्य दोनों के मेल से एक नई शिक्षापद्धति लागू करनी होगी जो सम्पूर्ण समाज को चाहे वह निर्धन से निर्धन हो या मध्यम या बहुत धनाढ्य सब को अध्ययन का समान अवसर देवे। जिससे समाज में स्वाभाविक साम्यवाद आयेगा, जातिवाद निर्मूल होगा, कर्त्तव्यकर्म को महत्त्व दिया जायेगा, आरक्षण की आवश्यकता न होगी। गुरुकुलीय शिक्षापद्धति में प्रकृति की गोद में पढ़ने से भौतिक संसाधनों के प्रति अधिक अनुराग न होगा, आसक्ति न होगी, दिखावा न होगा। विनयभाव आयेगा और व्यक्ति वित्त, बन्धु, वय, कर्म और विद्या को क्रमशः महत्त्वशाली समझेगा, जबकि अब केवल वित्त को ही महत्त्व दिया जा रहा है। आश्रमव्यवस्था में किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बद्ध न होने से केवल मनुर्भव (ऋग्वेद 10.53.6) अर्थात् मानव बन का पाठ पढ़ाया जायेगा। प्रातः सायं सन्ध्याकाल में शरीर को पूर्ण मानसिक और शारीरिकरूप से स्वस्थ रखने के लिए अग्निहोत्र और कुछ प्राणायामों के साथ अन्तर्ध्यान करवाना अपेक्षित होगा जिससे स्वदुर्गुण यदि हैं तो उन्हें दूर करने के लिए दृढ़संकल्प शक्ति तैयार की जा सकती है। इसप्रकार जीवन स्वयमेव धार्मिक बन जायेगा, क्योंकि धर्म पूजा पाठ का नाम नहीं है। न वह मन्दिरों में है, न गुरुद्वारों में, न मस्जिदों वा चर्चों में। वस्तुतः सही से कर्त्तव्य कर्मों को करना ही धर्म है। या जिससे समाज, प्रकृति की सम्यक् संस्थिति और मोक्षरूप परम आनन्द की प्राप्ति हो, वह धर्म है।
अन्त में संक्षेप में यदि यह कहा जाये कि सम्पूर्ण देश में नवोदय विद्यालयों की तरह छात्रावासों में रहकर ही पढ़ाई करवाना सुनिश्चित कर दिया जाये तो भी प्रतिदिन करोड़ों रूपये के पर्यावरण प्रदूषण, समयहानि, जनहानि, धनहानि से बचा जा सकता है और उक्तव्यवस्था मूर्तरूप धारण कर लेवे तो देश पुनः प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में देर नहीं लगायेगा और कालिदास के रघुवंश के शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्। वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।जैसे वाक्य पुनः भारत के भाल का शृंगार बन जायेंगे।
(डॉ0 ब्रह्मदेव, संस्कृत-विभाग, गुरुकुलकांगड़ीविश्वविद्यालय, हरिद्वार)
सम्पर्क सूत्र- 09412307123, E-mail : brahma63@gmail.com
Whether women lack common sense?
Woman in Indian civilization
Womanhood has been reverenced in the ancient Indian culture as a manifestation of divine qualities. Womanhood is a symbol of eternal virtues of humanity expressed in compassion, selfless love and caring for others. The Indian philosophers of yore (the rishis) considered that the seeds of divinity grow and blossom in a truly cultured society where women are given due respect and equal opportunities of rise and dignity. The scriptures and later works on Indian culture and philosophy stand witness to the fact that women indeed receive high recognition and respect in the Vedic age. The contribution of women rishis in making the ancient Indian culture a divine culture were not less than those of their male counterparts. In the later ages too, women had always been integral part of cultural, social and intellectual evolution of the human society. India has been country where we have been following up the principle of “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: ।( Yatra Naryastu Pujyante Ramante Tatra Devata ।Yatraitaastu Na Pujyante Sarvaastatrafalaah Kriyaah ।।)
i.e. “Where Women Are Honored , Divinity Blossoms There; And Where They Are Dishonored , All Action Remains Unfruitful.”
Women in Arabian Civilization
However there has been one civilization in far Arabian desert which doesn’t fall in line with this concept of the humanity towards the women and are of opinion that women are dumb and was treating them as a tool for their pleasure.
Women as Dweller of Hell
Sahih Muslim Hadith says that it is narrated on the authority of Abdullah B Umar that the Messenger of Allah said “O woman folk you should give charity and ask much Forgiveness for I say you in the bulk amongst the dweller of Hell. A wise lady among them said “Why is it, Messenger of Allah that our folk is in bulk in Hell. Upon this Messenger of Allah said “you curse too much and are un-grateful to you spouses.
This is totally baseless logic that women are not grateful to their spouses and they should pay charity as they are in bulk amongst the dweller of hell. Reason given behind being in bulk in hell is also out of the box that women curse too much that’s why they are part of hell. Opinion about the women doesn’t stop at this point, Sahish Muslim further recites that:
Women lack common sense
it is narrated on the authority of Abdullah B Umar that the Messenger of Allah said “ I have seen none lacking in common sense and failing in religion but ( at the same time) robbing the wisdom of the wise besides you. Upon this the woman remarked: what is wrong with our common sense and with religion?
Islamic Scholar Hamid Siddiqi adds that Woman know the art of playing with the sentiments of man and she succeeds in forcing her will upon him.
In our opinion both things are contradictory; in one place Mohammad sahab has said that woman lacks common sense however at the other place they are saying the woman have capability to rob their companions. If the part of population, which Muhammad sahab says that are superior to the women, is porn to be robbed by later in that case how the woman can be inferior from the section they are able to rob?
Evidence of women considered as half of man
The Holy Prophet said” your lack of common sense can be well judged that the evidence of two women is equal to one man. That is the lack of common sense. You spend some nights and days in which you do not pray and in the month of Radan ( during the days) you do not fast, that is failing in religion.
(Sahih Muslim by Imam Muslim rendered into English by Abdul Hamid Siddiqi : Part -1 page no 80)
Islamic scholar Hamid Siddiqi explains that The Holy Prophet has supported his contention with reason. Women are generally shy capricious and whimsical and are easily carried off by their emotions and thus their study of the situation is hardly objective. That is the reason why the Shari’ah has accepted the evidence of the two women equal to one man and it is only in this sphere that they are declared to be inferior in wisdom as compared with men.
This can be called a dark age in which women were considered common sense less in the Arabian part. However the position was totally different in Aryavart ( Bharatvarsh). The women occupied a very important position, in the ancient Bharat. Women were held in higher respect in India than in other ancient countries, and the Epics and old literature of India assign a higher position to them than the epics and literature of other religions. Hindu women enjoyed rights of property from the Vedic Age, took a share in social and religious rites.
it may be confidently asserted that in no nation of antiquity were women held in so much esteem as amongst the Hindus.” In Ancient India, however, The chivalrous treatment of women by Hindus is well known to all who know anything of Hindu society. Knowledge, intelligence, rhythm and harmony are all essential ingredients for any creative activity.
It is not unimportant, that Earth (prithivi) is considered female, and the goddess who bears the mountains and who brings forth food that feed all. Education for girls was regarded as quite important. While Bramhavadani girls were taught Vedic wisdom, girls of the Ksatriya girls were taught the use of the bow and arrow. Patanjali mentions the spear bearers (saktikis). Megasthanese speaks of Chandragupta’s bodyguard of Amazonian women. Kautilya mentions women archers (striganaih dhanvibhih). Similarly, Kautilya in his Artha sastra, which is also taken to be a document of Mauryan history, refers to women soldiers armed with bows and arrows.
Status of women in India can be judged by the law of Manu:
“Where women are honored there the gods are pleased; but where they are not honored no sacred rite yields rewards,” declares Manu Smriti (III.56) a text on social conduct.
“Women must be honored and adorned by their fathers, brothers, husbands and brothers-in-law, who desire their own welfare.” (Manu Smriti III, 55)
“Where the female relations live in grief, the family soon wholly perishes; but that family where they are not unhappy ever prospers.” (Manu Smriti III, 57)
“The houses, on which female relations, not being duly honored, pronounce a curse, perish completely as if destroyed by magic.” (Manu Smriti III, 58)
“Hence men, who seek their own welfare, should always honor women on holidays and festivals with gifts of ornaments, clothes, and dainty food.” (Manu Smriti III, 59)
No other Scripture of the world have ever given to the woman such equality with the man as the Scripture of the Hindus.
When Shankaracharya, the great commentator of the Vedanta, was discussing philosophy with another philosopher, a Hindu lady- Bharti, well versed in all the Scriptures, was requested to act as a judge.
It is the special injunction of the Vedas that no married man shall perform any religious rite, ceremony, or sacrifice without being joined in by his wife; the wife is considered a partaker and partner in the spiritual life of her husband; she is called, in Sanskrit, Sahadharmini, “spiritual helpmate.”
In the whole religious history of the world a second Sita will not be found. Her life was unique
In the Ramayana we read the account of Sulabha, the great woman Yogini, who came to the court of King Janaka and showed wonderful powers and wisdom, which she had acquired through the practice of Yoga. This shows that women were allowed to practice Yoga.
As in religion, Hindu woman of ancient times enjoyed equal rights and privileges with men, so in secular matters she had equal share and equal power with them. From the Vedic age women in India have had the same right as men and they could go to the courts of justice, plead their own cases, and ask for the protection of the law.
Motherhood is considered the greatest glory of Hindu women
The Taittiriya Upanishad teaches, “Matridevo bhava” – “Let your mother be the god to you.”
Hindu tradition recognizes mother and motherhood as even superior to heaven. The epic Mahabharata says, “While a father is superior to ten learned priests well-versed in the Vedas, a mother is superior to ten such fathers, or the entire world.”
ब्रह्मकुमारी का सच : आचार्य सोमदेव जी
जिज्ञासा– मैं परोपकारी का लगभग ३० वर्षों से नियमित पाठक हूँ। आपसे मैं आशा करता हूँ कि तथाकथित असामाजिक तत्वों व संगठनों द्वारा आर्यसमाज व महर्षि दयानन्द की विचारधारा पर किए जा रहे हमलों व षड्यन्त्रों का आप जवाब ही नहीं देते, उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देने में भी सक्षम हैं। ऐसी मेरी मान्यता है। ऐसे ही एक पत्र मेरे (आर्यसमाज सोजत) पते पर दुबारा डाक से प्राप्त हुआ है। इस पत्र की फोटो प्रति मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पत्र ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़ा किसी व्यक्ति का है, मैंने उससे फोन पर बात भी की है तथा उसे कठोर शब्दों में आमने-सामने बैठकर चर्चा के लिए चुनौती दी है। परन्तु फोन पर उसने कोई जवाब नहीं दिया।
आपकी जानकारी हेतु पत्र की फोटो प्रति पत्र के साथ संलग्न है। पत्र लिखने वाले ने नीचे अपना नाम के साथ चलभाष संख्या भी लिखी है। कृपया आपकी सेवा में प्रस्तुत है –
धर्माचार्य जानते हैं कि वे भगवान् से कभी नहीं मिले, वे यह भी जानते हैं कि वेदों शास्त्रों द्वारा भगवान् को नहीं जाना जा सकता, फिर यह किस आधार से भगवान् को सर्वव्यापी कहते हैं? कुत्ते बिल्ली में भी भगवान् हैं, ऐसा कहकर, भगवान् की ग्लानि क्यों करते हैं? यदि इन्हें कोई कुत्ता कहे तो कैसा लगेगा? धर्माचार्य यह भी कहते हैं कि सब ईश्वर इच्छा से होता है। जरा सोचे! कि क्या छः माह की बच्ची से बलात्कार, ईश्वर इच्छा से होता है? क्या यही है ईश्वर इच्छा? अरे मूर्खों, निर्लज्जों, राम का काम, रामलीला करना है या रावण लीला? राम की आड़ में रावण लीला करने वाले राक्षसों, सम्भल जाओ, क्योंकि राक्षसों से धरती को मुक्त कराने राम आए हैं।
-अर्जुन, दिल्ली, मो.-०९२१३३२४१३४
– हीरालाल आर्य, मन्त्री आर्यसमाज सोजत नगर, जि. पाली, राज.-३०६१०४
समाधान– वर्तमान में भारत देश के अन्दर हजारों गुरुओं ने मत-सम्प्रदाय चला रखे हैं, जो कि प्रायः वेद विरुद्ध हैं। ईसाई, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, राधास्वामी, निरंकारी, धन-धन सतगुरु (सच्चा सौदा), हंसा मत, जय गुरुदेव, सत्य साईं बाबा, आनन्द मार्ग, ब्रह्माकुमारी आदि मत ये सब वेद विरोधी हैं। सबके अपने-अपने गुरु हैं, ये सम्प्रदायवादी ईश्वर से अधिक मह व अपने सम्प्रदाय के प्रवर्तक को देते हैं, वेद से अधिक मह व अपने सम्प्रदाय की पुस्तक को देते हैं।
आपने ब्रह्माकुमारी के विषय में जानना चाहा है। ब्रह्माकुमारी मत वाले हमारे प्राचीन इतिहास व शास्त्र के घोर शत्रु हैं। इस मत के मानने वाले १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख, ५३ हजार ११५ वर्ष से चली आ रही सृष्टि को मात्र ५ हजार वर्ष में समेट देते हैं। ये लाखों वर्ष पूर्व हुए राम आदि के इतिहास को नहीं मानते हैं। वेद आदि किसी शास्त्र को नहीं मानते, इसके प्रमाण की तो बात ही दूर रह जाती है। वेद में प्रतिपादित सर्वव्यापक परमेश्वर को न मान एक स्थान विशेष पर ईश्वर को मानते हैं। अपने मत के प्रवर्तक लेखराम को ही ब्रह्मा वा परमात्मा कहते हैं।
इनके विषय में स्वामी विद्यानन्द जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ भास्कर में विस्तार से लिखा है, उसको हम यहाँ दे रहे हैं।
‘‘ब्रह्माकुमारी मत- दादा लेखराज के नाम से कुख्यात खूबचन्द कृपलानी नामक एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति ने अपनी कामवासनाओं की तृप्ति के लिए सिन्ध में ओम् मण्डली नाम से एक संस्था की स्थापना की थी। सबसे पहले उसने कोलकाता से मायादेवी नामक एक विधवा का अपहरण किया। उसी के माध्यम से उसने अन्य अनेक लड़कियों को अपने जाल में फंसाया। इलाहाबाद के एक साप्ताहिक के द्वारा पोल खुलने पर सन् १९३७ में लाहौर में रफीखां पी.सी.एस. की अदालत में मुकदमा चला। मायादेवी ने अपने बयान में बताया कि ‘‘गुरु जी ने हमसे कहा कि तुम जनता में जाकर कहो कि मैं गोपी हूँ और ये भगवान् कृष्ण हैं। मैं बड़ी पापिनी हूँ। मैंने कितनी कुँवारी लड़कियों को गुमराह किया है। कितनी ही बहनों को उनके पतियों से दूर किया है……’’ (आर्य जगत् जालन्धर २३ जुलाई १९६१)। कलियुगी कृष्ण ने अदालत में क्षमा मांगी और भाग निकला। १३ अगस्त, १९४० में उसने बिहार में डेरा डाल दिया। चेले-चेलियाँ आने लगे। एक दिन एक बूढ़े हरिजन की युवा पत्नी धनिया को लेकर भाग खड़े हुए। फिर मुकदमा चला। धनिया ने अपने बयान में कहा- ‘‘इस गुरु महाराज ने हमें कहा था कि मैं आपका पति हूँ। ब्रह्माजी ने मुझे आपके लिए भेजा है।’’ इसी प्रकार नाना प्रकार के अनैतिक कर्म करते हुए दादा लेखराम हैदराबाद (सिन्ध) में जम गये और देवियों को गोपियाँ बनाकर रासलीलाएँ रचाने लगे। रासलीला की ओर से होने वाले व्यभिचार का पता जब प्रसिद्ध विद्वान्, ओजस्वी वक्ता और समाजसेवी साधु टी.एल. वास्वानी को चला तो वे उसके विरुद्ध मैदान में कूद पड़े। इससे सामान्यतः देशभर में और विशेषतः सिन्ध में तहलका मच गया। ओम् मण्डली के काले कारनामे खुलकर सामने आने लगे। यहाँ पर भी मुकदमा चला। पटना के ‘योगी’ पत्र से ‘सरस्वती’ (भाग ३९, संख्या खण्ड ६१, मई १९३८) का यह विवरण द्रष्टव्य है- ‘‘ओम् मण्डली पर पिकेटिंग शुरू हो गई है। सी.पी.सी. की धारा १०७ के अनुसार सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पिकेटिंग करवाने वालों के साथ ओम् मण्डली के संस्थापक और चार अन्य सदस्यों पर मुकदमा चल रहा है।’’ दादा लेखराज को कारावास का दण्ड मिला।
भारत विभाजन के बाद से ब्रह्माकुमारी मत का मुख्यालय आबू पर्वत पर है। जनवरी १९६९ में दादा लेखराज की मृत्यु के बाद से दादी के नाम से चर्चित प्रकाशमणि इस सम्प्रदाय की प्रमुख रही हैं। वर्तमान में इस संस्था या सम्प्रदाय की लगभग दो हजार से अधिक शाखाएँ संसार के अनेक देशों में स्थापित हैं। मैट्रिक तक पढ़ी प्रकाशमणि आबू से विश्वभर में फैले अपने धर्म साम्राज्य का संचालन करती रही। समस्त साधक या साधिकाएँ, प्रचारक या प्रचारिकाएँ ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी कहाती हैं। प्रचारिकाएँ प्रायः कुमारी होती हैं। विवाहित स्त्रियाँ अपने पतियों को छोड़कर या छोड़ी जाकर इस सम्प्रदाय में साधिकाएँ बन सकती हैं। ये भी ब्रह्माकुमारी ही कहाती हैं। पुरुष, चाहे विवाहित अथवा अविवाहित, ब्रह्मकुमार ही कहाते हैं। ब्रह्माकुमारियों के वस्त्र श्वेत रेशम के होते हैं। …..प्रचारिकाएँ विशेष प्रकार का सुर्मा लगाती हैं, जो इनकी सम्मोहन शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है। सात दिन की साधना में ही वे साधकों को ब्रह्म का साक्षात्कार कराने का दावा करती हैं।
अनुभवी लोगों के अनुसार –
‘तप्तांगारसमा नारी घृतकुम्भसमः पुमान्’
अर्थात् स्त्री जलते हुए अंगारे के समान और पुरुष घी के घड़े के समान है। दोनों को पास-पास रखना खतरे से खाली नहीं है। गीता में लिखा है-
यततो ह्यापि कौन्तये पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।
अर्थात् यत्न करते हुए विद्वान् पुरुष के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक मनमानी की ओर खींच ले जाती हैं। भर्तृहरि ने कहा है-
विश्वामित्र पाराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि
स्त्रीमुखपङ्कजे सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगता।
अन्नं घृतदधिपयोयुतं भुञ्जति ये मानवाः,
तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरम्।।
अर्थात्- विश्वामित्र, पाराशर आदि महर्षि जो प ाों, वायु और जल का ही सेवन करते थे, वे भी स्त्री के सुन्दर मुखकमल को देखते ही मुग्ध हो गये थे। फिर घी, दुग्ध, दही आदि से युक्त अन्न खाने वाले मनुष्य यदि इन्द्रियों को वश में कर लें तो विन्ध्यपर्वत समुद्र में तैरने लगे।
इसलिए भगवान् मनु ने एकान्त कमरे में भाई-बहन के भी सोने का निषेध किया है।
वस्तुतः ब्रह्माकुमारों और कुमारियों का समागम मध्यकालीन वाममार्गियों के भैरवी चक्र जैसा ही प्रतीत होता है। दादा लेखराज तो ब्रह्माकुमारियों के साथ आलिंगन करते, मुख चूमते तथा…..। भक्तों का कहना है कि ब्रह्माकुमारियाँ तो उनकी पुत्रियों के समान हैं और दादा उनके पिता के समान। जैसे बच्चे उचक कर पिता की गोद में जा बैठते हैं, वैसे ही ब्रह्माकुमारियाँ दादा लेखराज की गोद में जा बैठती थीं और वे उन्हें पिता के समान प्यार करते थे।
बिठाकर गोद में हमको बनाकर वत्स सेते हैं, जरा सी बात है।
बनाने को हमें सच्चा समर्पण माँग लेते हैं।
हमें स्वीकार कर वस्तुतः सम्मान देते हैं।
लोकलाज कुल मर्यादा का, डुबा चलें हम कूल किनारा।
हमको क्या फिर और चाहिए, अगर पा सकें प्यार तुम्हारा।।
– भगवान् आया है, पृ. ५०, ५१, ६९
इनके धर्मग्रन्थ ‘सच्ची गीता’ पृष्ठ ९६ पर लिखा है-
‘‘बड़ों में भी सबसे बड़ा कौन है, जो सर्वोत्तम ज्ञान का सागर और त्रिकालदर्शी कहा जाता है। मेरे गुण सर्वोत्तम माने जाते हैं। इसलिए मुझे पुरुषो ाम कहते हैं।’’
पुरुषो ाम श द की दो निरुक्तियाँ होती हैं- एक है-
‘पुरुषेषु उ ामः इति पुरुषो ामः।’
जो व्यक्ति परस्त्रियों के साथ रमण करता है, उन्हें अपनी गोद में बैठाता है और उनके….. उसे इन अर्थों में तो पुरुषो ाम नहीं कहा जा सकता।
दूसरी निरुक्ति-
‘पुरुषेषु ऊतस्तेषु उ ाम इति पुरुषो ामः’
के अनुसार दादा लेखराज को पुरुषो ाम मानने में किसी को कोई आप िा नहीं होनी चाहिए।
आश्चर्य की बात है कि अपनी सभाओं और सम्मेलनों में देश-परदेश के राजनेताओं, शासकों, न्यायाधीशों, पत्रकारों, शिक्षा शास्त्रियों तक को आमन्त्रित करने वाली ब्रह्माकुमारी संस्था मूल सिद्धान्तों, दार्शनिक मान्यताओं तथा कार्यकलापों को ये अभ्यागत लोग नहीं जानते। हो सकता है, वे ब्रह्माकुमारियों के….. खिंचे चले आते हों। आज तक निश्चित रूप से यह पता नहीं चल सका कि इस संस्था के करोड़ों रुपये के बजट को पूरा करने के लिए यह अपार राशि कहाँ से आती है। कहा जाता है कि ब्रह्माकुमारियाँ ही अपने घरों को लूट कर लाती हैं। पर उतने से काम बनता समझ में नहीं आता। कुछ स्वकल्पित चित्रों और चार्टों तथा रटी-रटाई श दावली में अपने मन्तव्यों का परिचय देने वाली ब्रह्माकुमारियाँ और ब्रह्मकुमार राजयोग, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण, गीता आदि की बातें तो करते हैं, परन्तु सुपठित व्यक्ति जल्दी ही भाँप जाता है कि महर्षि पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित राजयोग तथा व्यासरचित गीता का तो ये क, ख, ग भी नहीं जानते। ये विश्वशान्ति और चरित्र निर्माण के लिए आडम्बरपूर्ण आयोजन करते हैं, शिविर लगाते हैं, कार्यशालाएँ संचालित करते हैं, किन्तु उनमें से किसी का भी कोई प्रतिफल दिखाई नहीं देता।’’
पाठक, ब्रह्माकुमारी के मूल संस्थापक के चरित्र को इस लेख से जान गये होंगे, आज के रामपाल और उस समय के लेखराज में क्या अन्तर है? आर्यसमाज सदा से ही गलत का विरोधी रहा है, आज भी है। ब्रह्माकुमारी वाले अपने मूल सिद्धान्तों के लिए आर्यसमाज से चर्चा वा शास्त्रार्थ करना चाहे, तो आर्यसमाज सदा इसके लिए तैयार है।
आपने जो इनका पत्र संकलित कर भेजा है उसी से ज्ञात हो रहा है कि ये वेद-शास्त्र के निन्दक व वेदानुकूल ईश्वर को न मानने वाले हैं।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर