मैंने इस्लाम क्यों छोड़ा………

leave islam

 

 

लेखक :डॉ आनंदसुमन सिंह पूर्व डॉ कुंवर रफत अख़लाक़ 

इस्लामी साम्प्रदाय में मेरी आस्था दृड़ थी | मै बाल्यकाल से ही इस्लामी नियमो का पालन किया करता था | विज्ञानं का विद्यार्थी बनने के पश्चात् अनेक प्रश्नों ने  मुझे इस्लामी नियमो पर चिन्तन करने हेतु बाध्य किया | इस्लामी नियमो में कुरआन या अल्लाहताला या हजरत मुहम्मद पर प्रश्न करना या शंका करना उतना ही अपराध है जितना किसी व्यक्ति के क़त्ल करने पर अपराधी माना जाता है |युवा अवस्था में आने के पश्चात् मेरे मस्तिष्क में सबसे पहला प्रश्न आया की अल्लाहताला रहमान व् रहीम है , न्याय करने वाला है ऐसा मुल्लाजी खुत्बा ( उपदेश ) करते है | फिर क्या कारण है की इस दुनिया में एक गरीब , एक मालदार , एक इन्सान , एक जानवर होते है | यदि अल्लाह का न्याय सबके लिए समान है जैसा कुरआन में वर्णन किया गया है , तब तो सबको एक जैसा होना चाहिए | कोई व्यक्ति जन्म से ही कष्ट भोग रहा है तो कोई आनन्द उठा रहा है |यदि संसार में यही सब है तो फिर अल्लाह न्यायकारी कैसे हुआ ? यह  प्रश्न मैंने अनेक वर्षो तक अपने मित्रो , परिजनों एवं मुल्ला मौलवियों से पूछता रहा किन्तु सभी का समवेत स्वर में एक ही उत्तर था , तुम अल्लाहताला के मामले में अक्ल क्यों लगाते हो ? मौज करो , अभी तो नैजवान हो | यह मेरे प्रश् का उत्तर नहीं था | निरंतर यह विषय मुझे बाध्य करता था और मै निरंतर यह प्रश्न अनेक जानकार लोगो से करता रहता था किन्तु इसका उत्तर मुझे कभी नहीं मिला | उत्तर मिला तो महर्षि दयानंद सरस्वती के पवित्र वैज्ञानिक ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में | जिसमे महर्षि ने व्यक्ति के अनेक एवं इस इस जन्म में किये गये सुकर्म या दुष्कर्मो को अगले जन्म में भोग का वर्णन किया | यह तर्क संगत था क्योंकि हम बैंक में जब खता खोलते है तो हमे बचत खाते पर नियमित छह माह में ब्याज मिलता है , मूलधन सुरक्षित रहता है , तथा स्थिर निधि पर एक साथ ब्याज मिलता है , उसी प्रकार जीवात्मा सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात् अनेक शरीरो, योनियों में परवेश करता है तथा अपने सुकर्मो और दुष्कर्मो का फल भोगता है |पुनर्जन्म के बिना यह सम्भव नही हो सकता | अतः पुनर्जन्म का मानना आवश्यक है किन्तु मुस्लिम समाज पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता |उनकी मान्यता तो यह है की चौहदवी शताब्दी में संसार मिट जाएगा | कयामत आएगी और फिर मैदानेहश्र में सभी का इंसाफ होगा |किन्तु उस मैदानेहश्र में जो भी हजरत मुहम्मद के ध्वज निचे आ जायेगा , मुहम्मद को अपना रसूल मान लेगा वही इन्सान बख्सा जाएगा | अर्थात उसे अपने कर्मो के फल भुक्त्ने का झंझट नहीं करना पड़ेगा और वह सीधा जन्नत में जावेगा , जो बुद्धिपरक नहीं लगता |क्योंकि एक व्यक्ति के कहने मात्र से यदि सारा खेल चलने लगे तो संसार में अन्य मत मतान्तरो को मानने की आवश्यकता क्यों पड़े ?और सृष्टि का अंत चौहदवी सदी में माना जाता है जबकि चौहदवी शदाब्दी तो समाप्त हो गयी | फिर यह संसार समाप्त क्यों नहीं हुआ ? कयामत क्यों नहीं आई ? क्या मुहम्मद साहब और इस्लाम से पूर्व यह संसार नहीं था ? क्योंकि इस्लाम के उदय को लगभग १५०० वर्ष हुए है संसार तो इससे पूर्व भी था और रहेगा | मेरा दूसरा प्रश्न था की जब एक मुस्लिम पीटीआई एक समय में चार पत्निया रख सकता है तो एक मुस्लिम औरत एक समय में चार पति क्यों नही राख सकती ? इस्लाम में औरत को अधिक अधिकार ही नही है | एक पुरुष के मुकाबले दो स्त्रियों की गवाही ही पूर्ण मानी जाती है | ऐसा क्यों ? आखिर औरत भी तो इंसानी जाती का अंग है | फिर उसे आधा मानना उस पर अत्याचार करना कहाँ की बुद्धिमानी है और कहाँ तक इसे अल्लाह ताला का न्याय माना जा सकता है ?८० साल का बुड्ढा १८ साल की लड़की से विवाह रचाकर इसे इस्लामी नियम मानकर संसार को मजहब के नाम पर मुर्ख बनाये यह कहाँ का न्याय है ?इस प्रश्न का उत्तर भी मुझे सत्यार्थ परकाश से मिला | महर्षि दयानंद ने महर्षि मनु और वेद वाक्यों के आधार पर सिद्ध किया की स्त्री और पुरुष दोनों का समान अधिकार है | एक पत्नी से अधिक तब ही हो सकती है जब कोई विशेष कारण हो (पत्नी बाँझ हो , संतान उत्पन्न न कर सकती हो ) अन्यथा एक पत्नीव्रत होना सव्भाविक गुण होना चाहिए | मनु ने कहा है –

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः  अर्थात जहाँ नारियो का सम्मान होता है वहां देवता वास करते है | तीसरा प्रश्न मेरे मन में था स्वर्ग व् नरक का | इस्लामी बन्धु मानते है की कयामत के बाद फैसला होगा | उसमे अच्छे कर्मो वालों को जन्नत और बुरे कर्मो वालो को दोजख मिलेगा | जन्नत का जो वर्णन है वह इस प्रकार है की वहां सेब , संतरे , शराब , एक व्यक्ति को सत्तर हुरे  तथा चिकने चुपड़े लौंडे मिलेंगे | मै मुल्ला मौलवियों व् मित्रो से पूछता था की बताये , जब एक पुरुष को जन्नत में लडकिय मिलेंगी तो मुस्लिम महिलाओं को क्या मिलेगा ? मेरे इस प्रश्न ने वे चिड़ते थे | चौहदवी सदी तो बीत गयी पर कयामत क्यों नही आई ? क्या अब नहीं आएगी ?अल्लाह के वायदे का क्या हुआ ?इससे क्या यह स्पष्ट नहीं की कुरआन किसी आदमी की लिखी है ?इन सब प्रश्नों से मेरा तात्पर्य किसी का दिल दुखाना नही अपितु केवल अपने मन में उठ रही शंकाओं का समाधान करना था | किन्तु कभी किसी ने मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया अपितु इन सब से दूर रहकर महज अल्लाह की इबादत में वक्त गुजारने और मौज उड़ाने का रास्ता दिखाया |

चौथा प्रश्न मेरे दिल में था सभ्यता का | मैंने मुस्लिम इतिहास गम्भीरता से अध्ययन किया है | इतिहास साक्षी है की इस्लाम कभी भी वैचारिकता या सवविवेक के कारण नहीं फैला अपितु इस्लाम आरम्भिक काल से अब तक तलवार का बल , भय , बहुपत्नी प्रथा , स्वर्ग का लोभ या धन का मोह आदि ही इस्लाम के विस्तार के कारण बने | इस्लाम की शैशव अवस्था में हजरत मुहम्मद साहब को अनेक युद्ध करने पड़े | स्वंय उनके चाचा अबुलहब ने अंतिम समय तक इस्लाम को नहीं स्वीकार किया क्योंकि वह उसे वैज्ञानिक व् तर्क सम्मत नहीं मानते थे | हजरत मुहम्मद को मक्का से निष्कासित भी होना पड़ा क्योंकि वह अरब की सभ्यता में आमूल परिवर्तन की कल्पना करते थे और अरब वासी अनेक कबीलों में बनते हुए थे | अबराह का लश्कर तो एक बार मक्का में स्थापित भगवान शंकर के विशाल शिवलिंग ( संगे अस्वाद ) को मक्का से ले जाने के लिए आया था किन्तु भीषण युद्ध में अनेको ने अपने प्राण गंवा दिए | यह मक्का शब्द भी संस्कृत के मख अर्थात यज्ञ शब्द का ही बिगड़ा रूप है | इस समय इस विषय पर चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है | मुस्लिम इतिहास में एक भी प्रमाण त्याग , समर्पण या सेवा का नही मिलता | वैदिक इतिहास के झरोखे से देखे तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम पिता की आज्ञा का पालन करते हुए वन को प्रस्थान करते है किन्तु दूसरी और औरंगजेब अपने पिता को जेल में कैद कर बूंद बूंद पानी के लिए तरसाता है | यह त्याग , समर्पण एवं सेवा का ही प्रतिफल है की विगत दो अरब वर्षो में वैदिक संस्कृति महँ बनी रह स्की |मेरे परिवार के इतिहास के साथ भी एक काला पृष्ठ जुदा है की उन्हें प्रलोभनवश अपना मूल धर्म त्याग कर इस्लाम में जाना पड़ा | मै स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ की आपकी पूजा पद्धति कुछ भी हो सकती है , आप किसी भी समुदाय के हो सकते है किन्तु जिस देश में प्ले बड़े है उस देश को तो अपनी माँ ही मानना चाहिए | राष्ट्रभक्ति किसी व्यक्ति का पहला कर्तव्य होना चाहिए , वैदिक धर्म की महानता के अनेक प्रमाण दिए जा सकते है किन्तु यहाँ मेरा उद्देश्य मात्र कुछ विचारों पर लिखना है |क्योंकि विगत छः वर्षो में मेरे सम्मुख यह प्रश्न रहा है की मै हिन्दू क्यों बना ?मै प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से हिन्दू ही मानता हूँ क्योंकि कोई मनुष्य बिना माँ के गर्भ के पैदा नहीं हो सकता यहाँ तक की विज्ञानं की पहुँच टेस्ट ट्यूब चाइल्ड को भी माँ के गर्भ में आश्रय लेना पड़ा , तभी उसका पूर्ण विकास सम्भव हो पाया है |अतः माँ के गर्भ में तो प्रत्येक हिन्दू ही होता है जन्म के पश्चात्  मुस्लमानिया कराए बिना मुसलमान और बपतिस्मा कराए बिना इसाई नहीं बना जा सकता |अतः इन क्रियाओं के पूर्व बच्चा काफिर अर्थात हिन्दू होता है अतः संसार का प्रत्येक शिशु हिन्दू है | मूल हम सबका वेद है अर्थात सत्य सनातन वैदिक धर्म | आशा है मेरे मित्र मेरी भावना को समझेंगे ,  मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओ को चोट पहुँचाने का नहीं है अपितु केवल अपने विचारों से समाज को अवगत कराना मात्र है | किन्तु यदि फिर भी किसी की भावनाओं को मेरे कारण ठेस लगे तो उन सबसे मै क्षमा – याचना करता हूँ |

क्या वेदों में यज्ञो में गौ आदि पशु मॉस से आहुति या मॉस को अतिथि को खिलाने का विधान है ??(अम्बेडकर के आक्षेप का उत्तर )..

नमस्ते मित्रो |
अम्बेडकर साहब आर्ष ग्रंथो और वैदिक ग्रंथो पर आक्षेप करते हुए अपनी लिखित पुस्तक “THE UNTOUCHABLE WHO WERE THEY WHY BECOME UNTOUCHABLES” में कहते है कि प्राचीन काल (वैदिक काल ) में गौ बलि और गौ मॉस खाया जाता था | इस हेतु अम्बेडकर साहब ने वेद (ऋग्वेद ) और शतपथ आदि ग्रंथो का प्रमाण दिया है |
हम उनके वेद पर किये आक्षेपों की ही समीक्षा करेंगे | क्युकि शतपत आदि ग्रंथो को हम मनुष्यकृत मानते है जिनमे मिलावट संभव है लेकिन वेद में नही अत: वेदों पर किये गए आक्षेपों का जवाब देना हमारा कर्तव्य है क्यूंकि मनु महाराज ने कहा है :-
” अर्थधर्मोपदेशञ्च वेदशास्त्राSविरोधिना |
यस्तर्केणानुसन्धते स धर्म वेदनेतर:||”-मनु
जो ऋषियों का बताया हुआ धर्म का उपदेश हो और वेदरूपी शास्त्र के विरुद्ध न हो और जिसे तर्क से भी सिद्ध कर लिया हो वही धर्म है इसके विरुद्ध नही |
मनु महाराज ने स्पष्ट कहा है कि यदि अन्य ग्रंथो में वेद विरुद्ध बातें है तो त्याज्य है | शतपत ,ग्र्ह्सुत्रो में जो गौ वध आदि की बात दी है वो वेद विरुद्ध और वाम मर्गियो द्वारा डाली गयी है ,पहले यज्ञो में पशु बलि नही होती थी | अब हम यहा बतायेंगे कि ये वाममार्ग और मॉस भक्षण का विधान कहा से आया तो पता चलता है यज्ञ सम्बंधित कर्मकांड वेद के यजुर्वेद का विषय है और यजुर्वेद की दो शाखाये है :-
शुक्ल यजुर्वेद
कृष्ण यजुर्वेद
यहा शुक्ल का अर्थ है शुद्ध ,सात्विक जबकि कृष्ण का तमोगुणी ,अशुद्ध |
अर्थात जिस यजुर्वेद में सतोगुणी यज्ञ का विधान हो वह शुक्ल है और जिसमे तमोगुणी (मॉस आहुति आदि ) का विधान है वो कृष्ण है |
इनमे से शुक्ल यजुर्वेद ही प्राचीन और अपोरुष मानी गयी वेद संहिता है जबकि कृष्ण बाद की और मनुष्यकृत है |
इस कृष्ण यजुर्वेद के संधर्भ में महीधर भाष्य भूमिका से पता चलता है कि याज्ञवल्क्य व्यास जी के शिष्य वैश्यायन के शिष्य थे | उन्होंने वैशम्पायन से यजुर्वेद पढ़ा | एक दिन किसी कारण वंश याज्ञवल्क्य जी पर वैशम्पायन क्रुद्ध हो गये | और कहा मुझ से जो पढ़ा है उसे छोड़ दो ,याज्ञवल्क्य ने वेद का वमन कर दिया |
तब वैशम्पायन जी ने दुसरे शिष्यों से कहा कि तुम इसे खा लो ,शिष्यों ने तुरंत तीतर बन कर उसे खा लिया |
उससे कृष्ण यजुर्वेद हुआ | यद्यपि ये बात साधारण मनुष्यों की बुधि में असंगत ओर निर्थक ठहरती है लेकिन बुद्धिमान लोग तुरंत परिणाम निकाल लेंगे |इससे पता चलता है कि तमो गुणी यज्ञ का विधान याज्ञवल्क्य के समय (महाभारत के बाद ) से चला |
और तभी से आर्ष ग्रंथो में मिलावट होना शुरू हो गयी थी |शतपत में भी याज्ञवल्क्य का नाम है अत: स्पष्ट है इसमें भी मिलावट हो गयी थी |और तामसिक यज्ञो का प्रचलन शुरू होने लगा …
जबकि प्राचीन काल में ऐसा नही था इसके बारे में स्वयं बुद्ध सुतानिपात में कहते है :-
“अन्नदा बलदा नेता बण्णदा सुखदा तथा
एतमत्थवंस ञत्वानास्सु गावो
हनिसुते |
न पादा न विसाणेन नास्सु हिंसन्ति केनचि
गानों एकक समाना सोरता कुम्भ दुहना |
ता विसाणे गहेत्वान राजा सत्येन घातयि |”
अर्थ -पूर्व समय में ब्राह्मण लोग गौ को अन्न,बल ,कान्ति और सुख देने वाली मानकर उसकी कभी हिंसा नही करते थे | परन्तु आज घडो दूध देने वाली ,पैर और सींग न मारने वाली सीधी गाय को गौमेध मे मारते है |
इसी तरह सुतनिपात के ३०० में बुद्ध ने ब्राह्मणों के लालची ओर दुष्ट हो जाने का उलेख किया है |
इससे पता चलता है कि बुद्ध के समय में भी यह ज्ञात था कि प्राचीन काल में यज्ञो में गौ हत्या अथवा गौ मॉस का प्रयोग नही था |इस संधर्भ में एक अन्य प्रमाण हमे कूटदंतुक में मिलता है | जिसमे बुद्ध ब्राह्मण कुतदंतुक से कहते है कि उस यज्ञ में पशु बलि के लिए नही थे | इस बात को अम्बेडकर ने हसी मजाक बना कर टालमटोल करने की कोशिस की है ,जबकि कूटदंतुक में बुद्ध ने यज्ञ पुरोहित के गुण भी बताये है :- सुजात ,त्रिवेद (वेद ज्ञानी ) ,शीलवान और मेधावी | और यज्ञ में घी ,दूध ,दही ,अनाज ,मधु के प्रयोग को बताया है |
अत: स्पष्ट है कि बुद्ध यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ में हिंसा विरोधी थे ,सुतानिपात ५६९ में बुद्ध का निम्न कथन है :-

अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री छंद ) मुख्य है ओर यज्ञो मे अग्निहोत्र ।  अत: निम्न बातो से निष्कर्ष निकलता है कि बुध्द वास्तव मे यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ मे जीव हत्या करने वाले के विरोधी थे।

अत : स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी इस बात पर मह्रिषी चरक का भी प्रमाण है जो देखिये :-
अत निम्न कथन से भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी |
मीमासा दर्शन ने इस बात पर प्रकाश डाला है :-” मांसपाक प्रतिषेधश्च तद्वत |”-मीमासा १२/२/२
यज्ञ में पशु हिंसा मना है ,वैसे मॉस पाक भी मना है | इसी तरह दुसरे स्थान पर आता है १०/३/.६५ व् १०/७/१५ में लिखा है कि ” धेनुवच्चाश्वदक्षिणा ” और अपि व दानमात्र स्याह भक्षशब्दानभिसम्बन्धात |” गौ आदि की भाति अश्व भी यज्ञ में केवल दान के लिए ही है | क्यूंकि इनके साथ भक्ष शब्द नही आया है | अत: स्पष्ट है कि पशु वध के लिए नही दान आदि के लिए थे |
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।
अत: स्पष्ट है कि मॉस बलि वेदों में नही है न ही प्राचीन काल यज्ञ में थी |
चुकी आंबेडकर जी ने शतपत का भी प्रमाण दिया है तो हम कुछ बात शतपत की भी रखते है :-
शतपत में मॉस भोजी को यज्ञ का अधिकार नही दिया है देखिये :-
 “न मॉसमश्रीयात् ,यन्मासमश्रीयात्,यन्मिप्रानमुपेथादिति नेत्वेवैषा दीक्षा ।”(श. ६:२ )
अर्थात मनुष्य मॉस भक्षण न करे , यदि मॉस भक्षण करता है अथवा व्यभिचार करता है तो यज्ञ दीक्षा का अधिकारी नही है ….
यहा स्पष्ट कहा है की मॉस भक्षी को यज्ञ का अधिकार नही है ,अत : यहाँ स्पष्ट हो जाता है की यज्ञ मे मॉस की आहुति नही दी जाती थी ।
शतपत में ही ये लिखा है कि मॉस भक्षक को यज्ञ का अधिकार नही है इससे स्पष्ट है कि बाद में मॉस ,गौ बलि ,मासाहार शतपत में क्षेपक जोड़ा गया है उन्ही को अम्बेडकर ने आधार बनाया ब्राह्मणवाद के विरोध में …
शतपत में मॉस शब्द का उलेख है जिसकी आहुति का विधान है लेकिन यह लोक प्रशिद्ध मॉस नही बल्कि कुछ और है
मासानि वा आ आहुतय:(श ९,२ )
अर्थात यज्ञ आहुति मॉस की होनी चाहिए ।
चुकि यहाँ मॉस के चक्कर मे भ्रम मे न पडे तो आगे मॉस के अर्थ को स्पष्ट किया है –
” मासीयन्ति ह वै जुह्वतो यजमानस्याग्नय:।
एतह ह वै परममान्नघ यन्मासं,स परमस्येवान्नघ स्याता भवति (शत .११ ,७)”।।
हवन करते हुआ यज्मान की अग्निया मॉस की आहुति की इच्छा रखती है ।
परम अन्न ही मॉस है परम अन्न से आहुति दे ,..
यहा मॉस को परम अन्न कहा है ओर यदि ये जीवो का मॉस होता तो यहाँ अन्न का प्रयोग नही होता क्यूँ की मॉस अन्न नहीं होता है ।परम अन्न के बारे मे अमरकोष के अनुसार “परमान्नं तु पायसम् ” अर्थात दूध ओर चावल से तैयार (खीर) को परम अन्न कहा है ।अतः शतपत ब्राह्मण के अनुसार मॉस का अर्थ पायसम है ।लोक प्रसिद्ध मॉस नही ।
अत: स्पष्ट है कि शतपत में मॉस आदि गूढ़ अर्थो में प्रयोग किया है तथा इस बात से भी इनकार नही की इनमे वाम्मार्गियो के क्षेपक है |
अब हम वेदों पर विचार करते है |वेदों में मॉस और यज्ञ में मासाहार जो लोग बताते है उन्हें पहले निम्न मंत्रो पर विचार करना चाहिए ..
इमं मा हिंसीर्द्विपाद पशुम् (यजु १३/४७ )
दो खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
इमं मा हिंसीरेकशफ़ पशुम (यजु १३/४८ )
एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो |
मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्यपद:(अर्थव ११/२/१)
हमारे दो ,चार खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
मा सेंधत (ऋग. ७/३२/९ )
हिंसा मत करो |
वेद स्पष्ट अंहिसा का उलेख करते है जबकि मॉस बिना हिंसा के नही मिलता और यज्ञ में भी बलि आदि हिंसा ही है |
अब यज्ञो में पशु वध या वैदिक यज्ञो में पशु मॉस आहुति के बारे में विचार करेंगे :-
आंबेडकर जी का कहना है कि वेदों में बाँझ जो दूध नही दे सकती उनकी बलि देने और मॉस खाने का नियम है जबकि वेद स्वयम उनकी इस बात का खंडन करते है
वेदों में मॉस निषेध :- ऋग्वेद १०/८७/१६ में ही आया है की राजा जो पशु मॉस से पेट भरते है उन्हें कठोर दंड दे …
पय: पशुनाम (अर्थव १९/३१/१५ )
है मनुष्य ! तुझे पशुओ से पैय पदार्थ (पीने योग्य पदार्थ ) ही लेने है |
यदि पशु मॉस खाने का विधान होता तो यहा मॉस का भी उलेख होता जबकि पैय पदार्थ दूध और रोग विशेष में गौ मूत्र आदि ही लेने का विधान है |
वेदों में यज्ञ में हिंसा और मॉस भक्षण के संधर्भ में आंबेडकर जी निम्न प्रमाण वेदों के देते है :-

 यज्ञ के संधर्भ में वेद में लिखा है:-  उपावसृज त्मन्या समज्ञ्चन् देवाना पाथ ऋतुथा हविषि।वनस्पति: शमिता देवो अग्नि: स्वदन्तु द्रव्य मधुना घृतेन ।।(यजु २९,३५ )
पाथ ,हविषि,मधुना,घृत ये चारो पद चारो प्रकार के द्रव्यों का ही हवं करना उपादेष्ट करते है,अत: यज्ञ मे इन्ही का ग्रहण करना योग्य है ,,
यहा स्पष्ट उलेख है की किन किन वस्तुओ का उपयोग किया जा सकता है यदि मॉस का होता तो यहा मॉस रक्त आदि का भी उलेख होता ..
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।
यज्ञ में पशुओ का उलेख है तो उसका समाधान ऊपर दिया है मीमासा का प्रमाण देकर की यज्ञ में पशु हत्या के लिए नही बल्कि दान के लिए होते थे …
यजुर्वेद के एक अध्याय में यज्ञ में कई पशु लाने का उलेख है जिसका उदेश्य उनकी हत्या नही बल्कि यज्ञ में दी गयी ओषधी आदि की आहुति से लाभान्वित करना है क्यूँ की यज्ञ का उदेश्य पर्यावरण और स्रष्टि में उपस्थित प्राणियों को आरोग्य प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ रखना है | क्यूंकि यज्ञ में दी गयी आहुति अग्नि के द्वारा कई भागो में टूट जाती है और श्वसन द्वारा प्राणियों के शरीर में जा कर आरोग्य प्रदान करती है

जरा यजुर्वेद का यह मंत्र देखे-
“इमा मे अग्नS इष्टका धेनव: सन्त्वेक च दश च दश च शतं च शतं च सहस्त्रं च सहस्त्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुदं च समुद्रश्र्च मध्यं चान्तश्र्च परार्धश्र्चैता मे अग्नS इष्टका धनेव: सन्त्वमुत्रामुष्मिल्लोके”॥17:2॥
अर्थ-है अग्नीदेव!ये इष्टिकाए(हवन मे अर्पित सूक्ष्म इकाईया)हमारे लिए गौ के सदृश(अभीष्ट फलदायक) हौ जाए। ये इष्टकाए एक,एक से दसगुणित होकर दस,दस से दस गुणित हौकर सौ,सौ की दस गुणित होकर हजार,हजार की दस गुणित होकरअयुत(दस हजार),अयुत की दस गुणित होकर नियुत(लाख),नियुत की दस गुणित हो कर प्रयुत(दस लक्ष), प्रयुत की दस गुणित हो कर कोटि(करौड),कोटि की दस गुणित हो कर अर्बुद(दस करौड),अर्बुद की दस गुणित होकर न्युर्बुद इसी प्रकार दस के गुणज मे बढती है।न्युर्बुद का दस गुणित खर्व(दस अरब),खर्व का दस गुणित पद्म(खरब)पद्म का दस गुणित महापद्म(दस खरब)महापद्म का दस गुणित मध्य(शंख पद्म)मध्य का दस गुणित अन्त(दस शंख)ओर अन्त की दस गुणित होकर परार्ध्द(लक्ष लक्ष कोटि)संख्या तक बढ जाए॥
उपरोक्त मन्त्र में स्पष्ट है की यज्ञ से आहुति कई भागो नेनो में बट जाती है तथा कई दूर तक फ़ैल कर कई प्राणियों को लाभान्वित करती है |
अब अम्बेडकर जी के दिए प्रमाणों पर एक नजर डालते है :-
आंबेडकर जी ऋग्वेद १०/८६/१४ में लिखता है :- इंद्र कहता है कि वे पकाते है मेरे लिए १५ बैल ,मै खाता हु उनका वसा ….!
यहा लगता है अम्बेडकर ने किसी अंग्रेजी भाष्यकार का अनुसरण किया है या फिर जान बुझ ऐसा लिखा है इसका वास्तविक अर्थ जो निरुक्त ,छंद ,वैदिक व्याकरण द्वारा होना चाहिए इस प्रकार है :-
“परा श्रृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा  श्रृणीहि|
परार्चिर्षा मृरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचान:(ऋग्वेद १०/८३/१४ )”
उपरोक्त मन्त्र में कही भी इंद्र ,बैल ,वसा ,खाना आदि शब्द नही है फिर अम्बेडकर जी को कहा से नजर आये ..इसका भाष्य – (अग्ने) यह अग्नि (अभि शोशुचान) तीक्ष्ण होता हुआ (तपसा) ताप से (यातुधानान) पीड़ाकारक जन्तुओ (रोगाणु आदि ) (परशृणीहि ) मारता है (मृरदेदान) रोग फ़ैलाने वाले अथवा मारक व्यापार करने वाले घातक रोगाणु को (अचिषा) अपने तेज से   (परा श्रृणीहि ) मारता और (असृतृप:) प्राणों से तृप्त होने वाले क्रिमी को मारता अथवा नष्ट करता है |
इसमें अग्नि के ताप से सूक्ष्म रोगानुओ के नष्ट होने का उलेख है | वेदों में सूर्य और उसकी किरण को भी अग्नि कहा है तो यह सूर्य किरणों द्वारा रोगाणु का नाश होना है ..इस मन्त्र में सूर्य किरण या ताप द्वारा चिकित्सा और रोगाणु नाश का रहस्य है |
एक अन्य मन्त्र १०/७२/६ का भी अम्बेडकर वेदों में हिंसा के लिए उलेख करते है |
” यद्देवा ………………….रेणुरपायत(ऋग. १०/७२/६)”
(यत) जो (देवा) प्रकाशरूप सूर्य आदि आकाशीय पिंड (अद:) दूर दूर तक फैले है (सलिले) प्रदान कारण तत्व वा महान आकाश में (सु-स-रब्धा) उत्तम रीती से बने हुए और गतिशील होकर (अतिष्ठित) विद्यमान है |
है जीवो ! (अत्र) इन लोको में ही (नृत्यतां इव वा ) नाचते हुए आनंद विनोद करते हुए आप लोगो का (तीव्र: रेणु 🙂 अति वेग युक्त अंश ,आत्मा स्वत: रेणुवत् अणु परिणामी वा गतिशील है वह (अप आयत ) शरीर से पृथक हो कर लोकान्तर में जाता है |
इस मन्त्र में  लोको में प्राणी (पृथ्वी आदि अन्य ग्रह में प्राणी ) एलियन आदि का रहस्य है और आत्मा और मृत्यु पश्चात आत्मा की स्थिति का रहस्य है | यहा कही भी मॉस या मॉस भक्षण नही है जेसा की अम्बेडकर जी ने माना …
एक अन्य उदाहरन अम्बेडकर जी ऋग्वेद १०/९१/१४ का देते है :-अग्नि में घोड़े ,गाय ,भेड़ ,बकरी की आहुति दी जाती थी |
” यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशामेषा अवसृष्टास आहूता:|
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदामर्ति जनये चारुमग्नये (ऋग्वेद १०/९१/१४)”
(यस्मिन) जिस सृष्टी में परमात्मा ने (अश्वास:) अश्व (ऋषभास) सांड (उक्ष्ण) बैल (वशा) गाय (मेषा:) भेड़ ,बकरिया (अवस्रष्टास) उत्पन्न किये और (आहूता) मनुष्यों को प्रदान कर दिए | वाही ईश्वर (अग्नेय) अग्नि के लिए (कीलालपो) वायु के लिए (वेधसे) आदित्य के लिए (सोमपृष्ठाय) अंगिरा के लिए (हृदा) उनके ह्रदय में (चारुम) सुन्दर (मतिम) ज्ञान (जनये) प्रकट करता है |
यहा भी मॉस आदि नही बल्कि सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर द्वारा वेद ज्ञान प्रदान करने का उलेख है |
लेकिन इस मन्त्र में कोई हट करे की अग्नि बैल ,अश्व ,भेड़ गौ आदि शब्दों से इनकी अग्नि में आहुति है |
तो ऐसे लोगो से मेरा कहना है की क्या ये नाम किसी ओषधी आदि के नही हो सकते है | क्यूँ कि वेदों में आहुति में ओषधि का उलेख मिलता है | जो की महामृत्युंजय मन्त्र में “त्र्यम्बकम यजामहे …..” में देख सकते है इसमें त्रि =तीन अम्ब =ओषधी का उलेख है और यजामहे =यज्ञ में देने का …अत: ये नाम ओषधियो के है |
इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण देता हु –
(१) बुद्ध ग्रन्थ में आया है :-

यहा आये सुकर मद्दव से यही लगता हैं कि बुद्ध ने सूअर का मॉस खाया इसका यही अर्थ श्रीलंकाई भिक्षु सूअर का ताजा मॉस करते है | जबकि वास्तव में  यहा सूकर मद्दव पाली शब्द है जिसे

हिन्दी करे तो होगा सूकर कन्द ओर संस्कृत मे बराह
कन्द यदि आम भाषा मे देखे तो सकरकन्द चुकि ये दो प्रकार
का होता है १ घरेलु मीठा२ जंगली कडवा इस
पर छोटे सूकर जैसे बाल आते है इस लिए इसे बराह कन्द
या शकरकन्द कहते है|ये एक कन्द होता है जिसका साग
बनाया जाता है |इसके गुण यह है कि यह चेपदार मधुर और गरिष्ठ
होता है तथा अतिसार उत्पादक  है जिसके कारण इसे खाने से बुद्ध को अतिसार हो गया था |
एक अन्य उदाहरण भी देखे :-
हठयोग प्रदीप में आया है :-
” गौमांसभक्षयेन्नित्यं पिबेदमरवारुणीम् |
कुलीन तमहं मन्ये इतर कुलघातक:||”
अर्थात जो मनुष्य नित्य गौ मॉस खाता है और मदिरा पीता है,वही  कुलीन है ,अन्य मनुष्य कुल घाती है |
यहा गौ मॉस का उलेख लग रहा है लेकिन अगले श्लोक में लिखा है :-
” गौशब्देनोदिता जिव्हा तत्प्रवेशो हि तालुनि गौमासभक्षण तत्तु महापातकनाशम्”
अर्थात योगी पुरुष जिव्हा को लोटाकर तालू में प्रवेश करता है उसे गौ मॉस भक्षण कहा है |
यहा योग मुद्रा की खेचरी मुद्रा का वर्णन है ..गौ का अर्थ जीव्हा होती है और ये मॉस की बनी है इस्लिते इसे गौ मॉस कहा है और इसे तालू से लगाना इसका भक्षण करना तथा ऐसा माना जाता है की ये मुद्रा सिद्ध होने पर एक रस का स्वाद आता है इसी रस को मदिरा पान कहा है |
यदि यहा श्लोक्कार स्वयम अगले श्लोक में अर्थ स्पष्ट नही करता तो यहा मॉस भक्षण ही समझा जाता …
इसी तरह वेदों में आय गौ ,अश्व ,आदि नाम अन्य वस्तुओ ओषधि आदि के भी हो सकते है ..यज्ञ के आहुति सम्बन्ध में ओषधि और अनाज के ,,जिसके बारे में वेदों में ही लिखा है :-
धाना धेनुरभवद् वत्सो अस्यास्तिलोsभवत (अर्थव १८/४/३२)
धान ही धेनु है औरतिल ही बछड़े है |
अश्वा: कणा गावस्तण्डूला मशकास्तुषा |
श्याममयोsस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम||(अर्थव ११/३ (१)/५७ )
चावल के कण अश्व है ,चावल ही गौ है ,भूसी ही मशक है ,चावल का जो श्याम भाग है वाही मॉस है और लाल अंश रुधिर है |
यहा वेदों ने इन शब्दों के अन्य अर्थ प्रकट कर दिए जिससे सिद्ध होता है की मॉस पशु हत्या का कोई उलेख वेदों में नही है |
अनेक पशुओ के नाम से मिलते जुलते ओषध के नाम है ये नाम गुणवाची संज्ञा के कारण समान है ,श्रीवेंकटेश्वर प्रेस,मुम्बई से छपे ओषधिकोष में निम्न वनस्पतियों के नाम पशु संज्ञक है जिनके कुछ उधाहरण नीचे प्रस्तुत है :-
वृषभ =ऋषभकंद       मेष=जीवशाक
श्वान=कुत्ताघास ,ग्र्न्थिपर्ण   कुकुक्ट = शाल्मलीवृक्ष
मार्जार= चित्ता       मयूर= मयुरशिखा
बीछु=बिछुबूटी        मृग= जटामासी
अश्व= अश्वग्न्दा       गौ =गौलोमी
वाराह =वराह कंद     रुधिर=केसर
इस तरह ये वनस्पति भी सिद्ध होती है अत: यहा यज्ञो में प्राणी जन्य मॉस अर्थ लेना गलत है |
अम्बेडकर कहते है कि प्राचीन काल में अतिथि का स्वागत मॉस खिला कर किया जाता था| ये शायद ही इन्होने नेहरु या विवेकानद जेसो की पुस्तक से पढ़ा होगा विवेकानद की जीवनी द कोम्पिलीत वर्क में कुछ ऐसा ही वर्णन है जिसके बारे में यहा विचार नही किया जाएगा ..जिसे आप आर्यमंत्वय साईट के एक लेख में सप्रमाण देख सकते है |
इस संधर्भ में मै कुछ बातें रखता हु :-
ऋग्वेद १०/८७/१६ में स्पष्ट मॉस भक्षी को कठोर दंड देना लिखा है तो अतिथि को मॉस खिलाना ऐसी बात संभव ही नही वेदानुसार …
मनुस्मृति में आया है ” यक्षरक्ष: पिशाचान्न मघ मॉस सुराssसवम (मनु ११/९५ )”
मॉस और मध राक्षसो और पिशाचो का आहार है |
यहा मॉस को पिशाचो का आहार कहा है जबकि भारतीय संस्कृति का प्राचीन काल से अतिथि के लिए निम्न वाक्य प्रयुक्त होता आया है ” अतिथि देवोभव:” अर्थात अतिथि को देव माना है अब भला कोई देवो को पिशाचो का आहार खिलायेगा …
” अघतेsत्ति च भुतानि तस्मादन्न तदुच्यते (तैत॰ २/२/९)”
प्राणी मात्र का जो कुछ आहार है वो अन्न ही है |
जब प्राणी मात्र का आहार अन्न होने की घोषणा है तो मॉस भक्षण का सवाल ही नही उठता |
कुछ अम्बेडकर के अनुयायी या वेद विरोधी लोग अर्थव॰ के ९/६पर्याय ३/४ का प्रमाण देते हुए कहते है की इसमें लिखा है की अथिति को मॉस परोसा जाय|
जबकि मन्त्र का वास्तविक अर्थ निम्न प्रकार है :-” प्रजा च वा ………………पूर्वोष्शातिश्शनाति |”
जो ग्रहस्थ निश्चय करके अपनी प्रजा और पशुओ का नाश करता है जो अतिथि से पहले खाता है |
इस मन्त्र में अतिथि से छुप कर खाने या पहले खाने वाले की निंदा की है …उसका बेटे बेटी माँ ,पिता ,पत्नी आदि प्रजा दुःख भोगते है ..और पशु (पशु को समृधि और धनवान होने का प्रतीक माना गया है ) की हानि अथवा कमी होती है …अर्थात ऐसे व्यक्ति के सुख वैभव नष्ट हो जाए | यहा अतिथि को मॉस खिलाने का कोई उलेख नही है |
अत: निम्न प्रमाणों से स्पष्ट है की प्राचीन काल में न यज्ञ में बलि होती थी न मॉस भक्षण होता था ..न ही वेद यज्ञ में पशु हत्या का उलेख करते है न ही किसी के मॉस भक्षण का …..
यदि कोई कहे की ब्राह्मण मॉस खाते थे तो सम्भवत कई जगह खाते होंगे, और यज्ञ में भी हत्या होती थी लेकिन कहे की वेदों में हत्या और मॉस भक्षण है तो ये बिलकुल गलत और प्रमाणों द्वारा गलत सिद्ध होता है | और कहे प्राचीन काल यज्ञो में मॉस भक्षण और मॉस आहुति होती थी तो ये भी उपरोक्त प्रमाणों से गलत सिद्ध होता है यज्ञ का बिगड़ा स्वरूप और ब्राह्मण ,ग्रहसूत्रों में मॉस के प्रयोग वाममर्गियो द्वारा महाभारत के बाद जोड़ा गया जो की उपरोक्त प्रमाणों में सिद्ध क्या गया है |
अत: अम्बेडकर का कथन प्राचीन आर्य (ब्राह्मण आदि ) यज्ञ में पशु हत्या और मॉस भक्षण करते थे ,वैदिक काल में अतिथि को मॉस खिलाया जाता था आदि बिलकुल गलत और गलत भाष्य पढने का परिणाम है |
समभवतय उन्होंने ये ब्राह्मण विरोधी मानसिकता अथवा बुद्ध मत को सर्व श्रेष्ट सिद्ध करने के कारण लिखा हो |
ओम
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके :- (१) वेद सौरभ – जगदीश्वरानन्द जी 
(२) वैदिक सम्पति -रघुनंदन शर्मा जी 
(३) यज्ञ में पशुवध वेद विरोध – नरेंद्र देव शास्त्री जी 
(४) वैदिक पशु यज्ञ मिमास -प्रो. विश्वनाथ जी 
(५) सत्यार्थ प्रकाश उभरते प्रश्न गरजते उत्तर -अग्निव्रत नैष्ठिक जी 
(६) the untouchable who were they and why become untouchables-अम्बेडकर जी 
(७) महात्माबुद्ध और सूअर का मॉस -अज्ञात 
(८) भारत का वृहत इतिहास -आचार्य रामदेव जी 
(९) mahatma budha an arya reformer-धर्मदेवा जी 
(१०) ऋग्वेदभाष्य -आर्यसमाज जाम नगर ,हरिशरणजी ,जयदेव शर्मा जी 
(११) स्वामी दर्शनानंद ग्रन्थ संग्रह (क्या शतपत आदि में मिलावट नही )-स्वामी दर्शनानद जी   

ईसा मसीह मुक्तिदाता नहीं था

issa masih

ईसा मसीह मुक्तिदाता नहीं था …….

लेखक :- अनुज आर्य 

इसाई लोग बड़े जोर सोर के साथ यह प्रचार किया करते है की इसा मसीह पर विश्वास ले आने से से ही मुक्ति मिल सकती है | अन्य कोई तरीका नहीं मुक्ति व् उद्धार का | स्वतः बाइबल में भी इसी प्रकार की बाते लिखी मिलती है जिनमे इसा मसीह को मुक्ति दाता बताया गया है | इस विषय में निम्न प्रमाण प्रायः उपस्थित किये जाते है | बाइबल में लिखा है कि –

” क्योंकि परमेशवर ने जगत से ऐसा प्रेम रक्खा कि उसे अपना इकलोता पुत्र दे दिया , ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नाश न हो परन्तु अनंत जीवन पाए (१३) जो उस पर विश्वास करता है उस पर दंड की आज्ञा नहीं होती , परन्तु जो उस पर विश्वास नहीं रखता वह दोषी ठहराया जा चूका है , इसलिए की उसने परमेश्वर के इकलौते पुत्र के नाम पर विश्वास नहीं किया (१८ ) जो पुत्र पर विश्वास करता है अनंत जीवन उसका है परन्तु जो पुत्र को नहीं मानता , वह जीवन को देखेगा परन्तु परमेश्वर का क्रोध उस पर रहता है ( ३६ ) ( युहन्ना ३  )

यह बात तो युहन्ना ने कही है की इसा पर ही विश्वास लाने से से उद्धार सम्भव है और जो उस पर विश्वास नहीं लाता उस पर परमेश्वर का कोप होगा | अब इसा मसीह का भी दावा देखिये वह क्या कहता है ? बाइबल में लिखा है –

” तब यीशु ने उनसे फिर कहा मै तुम से सच कहता हूँ की भेड़ो का द्वार मै हूँ ( ७) जितने मुझ से पहले आये वो सब डाकू और चोर है (८)द्वार मै हूँ यदि कोई मेरे भीतर प्रवेश करे तो उद्धार पायेगा (९)मेरी भेड़े मेरा शब्द सुनती है और मै उन्हें जानता हूँ और वे मेरे पीछे पीछे चलती है ( २७ ) और मै उन्हें अनंत जीवन देता हु और वे कभी नाश न होगी और कोई मेरे हाथ से छीन न लेगा (२८ )( युहन्ना १० )

इस उद्धरण में ईसा ने स्वंय को मनुष्य का उद्धारक बताया है और अपने भक्तो को भेड़े बताया है | भेड़ का यही गुण होता है की वह अन्धानुगमन करती है | यदि आगे की भेड़े कुए में गिर पड़े तो पीछे वाली भी उसी में गिरती चली जावेंगी उसमे सोचने की अकल नहीं होती | मसीह ने भी अपने चेलो को बुद्धिहीन व् मुर्ख भेड़े बताकर यह प्रकट कर दिया है की इसाई लोग बुद्धि से काम नहीं लेना चाहते है , वे सवतंत्र बुद्धि से कुछ नहीं सोच सकते है | यदि वे सोचने लगे तो न तो वे भेड़े रहे और न वे इसाई ही बने रह सकेंगे , क्योंकि फिर वे ईसा का अन्धानुगमन नहीं करेंगे |

साथ ही मसीह ने अपने से पहले पैदा हुए जननेताओ पैगमबरो को चोर डाकू बता कर गालिया दी है और उनकी निंदा की है ताकि लोगो का उन पर से विश्वास हट जावे और वे मसीह के अंधभक्त बन जावे |

अपने स्वार्थ के लिए दुसरो को गालिया देना बहुत ही निम्न स्तर की भद्दी बात है | यह बात प्रकट करती है की ईसा की विचारधारा कितनी गलत थी | ईसा मसीह अपने विरोधियो की हत्या भी कराया करता था | वह उनके विरोध को अपने सम्प्रदाय के फैलाने में घातक वा बाधक समझता था उसने स्वंय आदेश दिया था की –

” परन्तु मेरे उन बैरियो को जो नहीं चाहते की मै उन पर राज करू , उनको यहाँ लाकर मेरे सामने कत्ल करो ( लुका १९/२७ )

इस प्रकट है की मसीह प्रेम का प्रचारक नहीं था वह लोगो को धर्म और ईश्वर के नाम पर गुमराह करके अपनी हुकूमत इस्राइल में कायम करना चाहता था और एक नवीन सम्प्रदाय का प्रवर्तक बनने का प्रयत्न कर रहा था | साम दाम दंड भेद सभी हथकंडे वह काम में लाया करता था | उसने अपने विचारो को कभी छिपाकर भी नहीं रक्खा था | उसने स्पष्ट अपना उद्देश्य लोगो को बता दिया था | उसने घोषणा की थी कि –

” जो कोई मनुष्यों के सामने मेरा इंकार करेगा , उससे मै भी अपने स्वर्गीय पिता के सामने इंकार करूँगा ( ३३) यह न समझो की मै पृथ्वी पर मिलाप करने आया हूँ , मै मिलाप करने को नहीं पर तलवार चलाने को आया हूँ (३४)मै तो आया हूँ की मनुष्य को उसके पिता से , और बेटी को उसकी माँ से बहु को उसकी सास से अलग कर दूँ (३५)जो माता या पिता को मुझसे अधिक प्रिय जानता है वह मेरे योग्य नहीं है और जो बेटा या बेटी को मुझसे अधिक प्रिय जानता है वह मेरे योग्य नहीं ( ३७ )( मती -१० )

इन वाक्यों से मसीह ने अपना असली स्वरूप खोल कर सामने रख दिया है की उसका उद्देश्य इस्राइल समाज में आपस में युद्ध करवाना , समाजिक व्यवस्था का विध्वंश कराना , ईश्वर की आड़ में लोगो को धर्म का डर दिखा कर अपना चेला बनाकर सेना तैयार करना , पारिवारिक व्यवस्था को भंग करना , बाप बेटे , माँ बेटी के भाई बहन के पवित्र ओरेम को मिटवाना और घर घर में कलह पैदा कराकर लोगो को मोक्ष देने की आड़ में अपने साथ लेकर राज्य शासन को बागडोर हथियाना था | ईसा को उसके चेले यहूदियों का राजा बताते थे जैसा की उसकी सूली के समय लोगो ने उसे बताया था समाज में अव्यवस्था फैलाना व् धर्म तथा मोक्ष के नाम पर पुरानी व्यवस्थाओ को भंग करना सामाजिक व् राजनैतिक अपराध था और इसलिए ईसा को सूली दी गयी | अपना चेला बनने पर खुदा से सिफारिश करके मुक्ति दिलाने और जो चेला न बने उसकी सिफारिश न करके उसे दोजख में डलवाने आदि का प्रलोभन व् धमकी देना सरासर मसीह के गलत हथकंडे थे जिससे वह लोगो को फाँसकर अपनी भेड़ो की संख्या बढ़ाता करता था |

क्योंकि ईसा मसीह का जन्म माँ के क्वारेपन के गर्भ से हुआ था अतः उसके वास्तविक पिता को कोई नहीं जानता था और मरियम ने भी मसीह के वास्तविक मानवी पिता का नाम कभी किसी को नहीं बताया था अतः मसीह ने अपने को खुदा का ख़ास बेटा बताकर लोगो को धोखा दिया था |

मसीह का उद्देश्य उपर के प्रमाणों से अपवित्र साबित होता है | केवल वे ही लोग उसके चक्कर में फंस गये थे जिनकी बुद्धि सत्यासत्य के निर्णय में समर्थ नहीं थी इसलिए मसीह ने भी उनको भेड़े बताया था | तो जो मसीह क्रोधी हो अपने विरोधियो का कत्ल कराता हो समाज में तलवारे चलवाकर विद्रोह पैदा करता रहा हो जिसका उद्देश्य व् लक्ष्य श्रेष्ठ न रहा हो और जो स्वंय अपना उद्धार न कर सका हो जिसे उसके विरोधियो ने बदले में पकड़कर सूली पर चड़ा दिया हो और जो मौत से अपनी रक्षा न कर सका हो उसे संसार का उद्धारकर्ता खुदा का इकलौता बेटा तथा मोक्ष दाता नहीं माना जा सकता है | केवल इसाई भेड़े ही आँख बंद करके उस पर ईमान ला सकती है जैसा की बाइबल में लिखा है |

समझदार व्यक्ति यह नहीं देखते है की कोई क्या दावा करता है वरन वे यह देखते है की क्या दावा करने वाले में दावे को सत्य सिद्ध करने की क्षमता भी है या उसका दावा केवल आत्मप्रशंसा या स्वार्थपूर्ति के लिए कोरा धोखा है | मसीह का दावा सर्वथा गलत उस समय हो गया जब उसे सूली पर चड़ा दिया गया | उस समय न तो खुदा या उसकी फौजे ईसा की मदद को आई और न ही वह स्वंय मौत से बचने का कोई चमत्कार दिखा सका |मुक्ति ईसा या किसी व्यक्ति पर विश्वास लाने से नहीं मिल सकती है हर व्यक्ति के कल्याण के लिए उसके भले व् बुरे कर्म ही जिम्मेवार होते है प्रत्येक प्राणी अपने ही कर्मो का फल भोगता है | स्वंय बाईबल में भी इस विषय के कई प्रमाण मिलते है जिनसे ईसा मसीह का यह दावा झूठा हो जाता है की वह लोगो के पाप नाश करके उनका उद्धार केवल उस पर विश्वास लाने से कर देगा | बाइबल के चंद प्रमाण इस विषय में द्रष्टव्य है —

” जो प्राणी पाप करेगा वही मरेगा | न तो पुत्र पिता के अधर्म का भार उठाएगा और न पिता पुत्र के धर्मो का |अपने ही धर्म का फल और दुष्ट को अपनी दुष्टता का फल मिलेगा ( यहेजकेल १८/२० )

धोखा न खाओ , परमेश्वर टटटो में नहीं उड़ाया जाता , क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है वही काटेगा ( गलतियों ६/७)

” परमेश्वर हर एक को उसके कर्मो का प्रतिफल देगा “( मत्ती १६/१७)

बाईबल के उपर प्रमाण यह घोषणा करते है की सभी मनुष्यों को उनके कर्मानुकुल ही फल मिलेगा | इससे किसी भी एक आदमी पर ईमान लाने की आवश्यकता नहीं है और न कोई आदमी किसी के पाप पुण्य को क्षमा कर सकता है |कर्म करना हर मनुष्य के अधिकार की बात है और फल देना परमात्मा का काम है | मनुष्य और परमात्मा के बिच किसी भीं दलाल या वकील की कोई आवश्यकता नहीं है | ईसा मसीह या मुहम्मद साहब या अन्य किसी भी एजेंट या वकील की आवश्यकता नहीं है | शुभ अशुभ कर्मो की ही प्रधानता फल भोग में रहती है | बाइबल में भोले लोगो को लिखा है की मसीह लोगो के पाप अपने साथ ले गया था यह बात भी गलत है पाप क्या कोई धातु या कपडा के थोड़े होते है जो कोई लाद  के ले जावेगा ? जो मसीह स्वंय अपने गलत कर्मो और पापो की वजह से सूली पर चडाया गया , अपने को ही अपने पापो से न बचा सका वह बेचारा दुसरो के पाप क्या दूर करेगा ? यदि ईसा मसीह की सिफारिश मान कर लोगो के पाप दूर करा देगा तो कुरआन में मुहम्मद साहब का और गीता में श्री कृष्ण जी का दावा भी क्यों न माना जाए ?सभी ने ईसा की तरह पाप दूर करने का ठेका लिया था | गंगा गंगा जपने से , शिवलिंग के दर्शन करने से , राम राम कृष्ण कृष्ण करने से भी पापो का दूर होना क्यों न माना जावे ? हिन्दुओ के पाप नाश के तरीके इसाई मुसलमानों के नुस्खो से सस्ते और श्रेष्ठ है तो इसाई स्वंय भी हिन्दुओ के तरीको से लाभ क्यों नहीं हिन्दू बनकर लाभ उठाते है ?

ईसाई जीवात्मा को अनादी अनंत सत्ता तो मानते नहीं है और न पुनर्जन्म को ही मानते है तो यदि हम उनकी मान्यता पर यह कहें की जन्म के समय उनकी आत्मा खुदा पैदा कर देता है और उसके मरने के बाद वह नष्ट हो जाती है , मरने के बाद जीवात्मा या रूह नाम की कोई वस्तु कायम नहीं रह जाती है जिसे स्वर्ग या दोजख में उनका खुदा भेजता है न कोई मुक्ति है न कोई स्वर्ग नरक है न कोई वकील या दलाल मसीह या मुहम्मद साहब की हस्ती खुदा से सिफारिश कराने वाली है तो इसमें क्या गलती होगी ? इसाई मुसलमानों के पास ऐसी कोई दलील मरने के बाद जीवात्मा अस्तित्व साबित करने की नहीं हो सकती है |जब पुनर्जन्म नहीं होना है और जीवो को पुनः भले बुरे कर्म करने का आगे कभी अवसर नहीं मिलना है तो फिर मरने के बाद उसे कायम रखने की जरूरत साबित नहीं की जा सकती है ? तब ईसा मसीह का लोगो को अपने चेले बनाकर मुक्ति खुदा से बाईबल में सिफारिश करने की सारी बात स्वंय गप्पाषटके साबित हो जाती है |

इसके अतिरिक्त इसाई खुदा से न्याय की आशा भी नहीं की जा सकती है | क्योंकि वह गुस्सेबाज है ( याशायाह ५४/७-८ ) | वह गलती करके पछताता रहता है ( शैमुअल १५/३५ तथा उत्पत्ति ६/६ ) |खुदा मुकदमे लड़ता था ( यहेजकेल १७/२० ) आदि में खुदा को कम समझने वाला भी साबित किया गया है | तो ऐसा खुदा दुसरो से क्या न्याय करेगा | सम्भव है वह न्याय में भी गलती करके फिर पछताने लगे और जीवो का सर्वनाश गुस्से में कर डाले | ऐसे कम समझ इसाई खुदा पर ईमान लाना भी इसाइयों की भूल है |

ईसा मसीह को खुदा का इकलौता बेटा बताकर भी बाइबल ने सत्य नहीं बोला है | बाइबल में अय्यूब १/६ में लिखा है की इसाई ईश्वर के बहुत से बेटे है केवल एक बेटा नहीं था तथा भजन संहिता ८२ में लिखा है की ईश्वर भी बहुत से है तो इसाई बतावे की उनका ख़ास खुदा बहुत से खुदाओ में से कोण था जिसे वे मानते है और जब सैकड़ो बेटे अय्यूब १ में लिखे है तो वे मसीह को इकलौता बेटा बता कर वे लोगो को धोखा देकर जुर्म क्यों करते है | समझदार व्यक्ति जानता है की वैदिक धर्म के सत्य तर्क युक्त सिद्धांतो के सामने इसाई मत के सिद्धांत ठहर नहीं सकते है | इसाई लोग अपनी कल्पित बात लोगो को सुना सुनाकर लोभलालच देकर फांसने व् गरीब हिन्दुओ का ईमान भ्रष्ट करते रहते है | अतः सभी को इस मजहब के प्रचारको से सावधान रहना चाहिए जहाँ भी इसाई प्रचारक जावे उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारना चाहिए और उनकी कलई खोलनी चाहिए ताकि कोई हिन्दू इनके चक्कर में न फंस सके |

सभी भारतीय इसाई नस्ल से हिन्दू ही है | कभी लोग लालच या दबाव के कारण वे या उनके पूर्वज इसाई बने होंगे | उनको पुनः शुद्ध करके हिन्दू धर्म में शामिल कर लेना चाहिए और उनके साथ समानता का व्यव्हार करना चाहिए |

वेदो ओर महाभारत मे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का उल्लेख (photosynthesis explaned in ved and mahabharat)

मित्रो नमस्ते,,,
इस बार आप के लिए वेदो ओर महाभारत मे वर्णित प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का वर्णन ले कर आया हु। …

प्रकाश संश्लेषण-

सजीव कोशिकाओं के द्वारा प्रकाशीय उर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करने की क्रिया को प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिन्थेसिस) कहते है।
इस क्रिया मे पादप की पत्तिया सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में वायु से कार्बनडाइऑक्साइड तथा भूमि सेजल लेकर जटिल कार्बनिक खाद्य पदार्थों जैसे कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण करते हैं तथा आक्सीजन गैस(O2) बाहर निकालते हैं।  ……
हमारे धर्म ग्रंथो मे इस क्रिया का उल्लेख है …….

वेदो मे प्रकाश संश्लेषण-

वेदो मे प्रकाश संश्लेषण क्रिया का उल्लेख नीचे दिए गए इस चित्र मे देखे-
 ॠग्वेद के 10 मं के 97 सुक्त के 5 वे मंत्र मे पत्तियो द्वारा सूर्य के प्रकाश को ग्रहण कर प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का स्पष्ट उल्लेख है।
महाभारत मे भी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का उल्लेख है महाभारत मे ये ज्ञान मर्हिषी शोनक जी ने इसी मंत्र के विश्लेषण ओर अपनी योग बल के आधार पर युधिष्टर को दिया था…जो महाभारत मे इस प्रकार मिलता है;

महाभारत मे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का उल्लेख- शौनकेनैवम उक्तस तु कुन्तीपुत्रॊ युधिष्ठिरः

पुरॊहितम उपागम्य भरातृमध्ये ऽबरवीद इदम [1]————————————————
परस्थितं मानुयान्तीमे बराह्मणा वेदपारगाःन चास्मि पालने शक्तॊ बहुदुःखसमन्वितः [2]————————————————
परित्यक्तुं न शक्नॊमि दानशक्तिश च नास्ति मे
कथम अत्र मया कार्यं भगवांस तद बरवीतु मे [3]————————————————
मुहूर्तम इव स धयात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम
युधिष्ठिरम उवाचेदं धौम्यॊ धर्मभृतां वरः [4]————————————————
पुरा सृष्टनि भूतानि पीड्यन्ते कषुधया भृशम
ततॊ ऽनुकम्पया तेषां सविता सवपिता इव [5]————————————————
गत्वॊत्तरायणं तेजॊ रसान उद्धृत्य रश्मिभिः
दक्षिणायनम आवृत्तॊ महीं निविशते रविः [6]————————————————
कषेत्रभूते ततस तस्मिन्न ओषधीर ओषधी पतिः
दिवस तेजः समुद्धृत्य जनयाम आस वारिणा [7]————————————————
निषिक्तश चन्द्र तेजॊभिः सूयते भूगतॊ रविः
ओषध्यः षड्रसा मेध्यास तदेवान्धस् पराणिनां भुवि [8]————————————————
एवं भानुमयं हय अन्नं भूतानां पराणधारणम
पितैष सर्वभूतानां तस्मात तं शरणं वरज [9]————————————————
राजानॊ हि महात्मानॊ यॊनिकर्म विशॊधिताः
उद्धरन्ति परजाः सर्वास तप आस्थाय पुष्कलम [10] [महाभारत वन पर्व ३. भाष्य]————————————————

अर्थ – शौनक ऋषि के समक्ष अपने भाइयों के सामने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने कहा –

हे! ऋषिवर, ब्रह्मा जी की बांते जो वेदों में लिखी गयी है, उनका अनुपालन करते हुए, मैं वन की ओर गमन कर रहा हूँ, मै अपने अनुचरो का समर्थन व उनका पालन करने में असमर्थ हूँ, उन्हें जीविका प्रदान करने की शक्ति मेरे पास नहीं है, अतः हे! मुनिश्रेष्ठ बताइए अब मुझे क्या करना चाहिए?

अपनी योगशक्तियों द्वारा संपूर्ण वस्तुस्तिथि का पता लगाकर गुणी पुरुषो में श्रैष्ठ धौम्य, युधिष्ठिर के सन्मुख होकर बोले –

“हे कुन्तीपुत्र! तू अपने अनुजों की जीविका की चिंता मत कर, तेरा कर्तव्य एक पिता का है, अति प्राचीन काल से ही सूर्यदेव अपने मृत्युलोकवासी बालकों की जीविका चलाते अर्थात उन्हें भोजन देते चले आ रहें हैं! जब वे भूंख से पीड़ित होते है, तब सूर्यदेव उन पर करुणा बरसाते हैं, वे अपनी किरणों का दान पौधों को देते हैं, उनकी किरणें जल को आकर्षित करती हैं, उनका तेज (गर्मी) समस्त पृथ्वी के पेड़-पौधों में प्रसारित (फैलता) होता है, तथा पौधे भी उनके इस वरदान (प्रकाश) का उपयोग करते है, तथा मरुत (हवा या कह सकते है CO2) एवं इरा (जल) की शिष्टि (सहायता) से देवान्धस् (पवित्र भोजन) का निर्माण करते हैं! जिससे वे इस लोक (संसार/मनुष्य) के जठरज्वलन (भूख) को शांत करते हैं!

सूर्यदेव इसीलिए सभी प्राणियों के पिता हैं! युधिष्ठिर, तू नहीं! समस्त प्राणी उन्ही के चरणों में शरण लेते हैं! सारे उच्च कुल में जन्मे राजा, तपस्या की अग्नि में तपकर ही बाहर निकलते हैं, उन्हें जीवन में वेदना होती ही है, अतः तू शोक ना कर, जिस प्रकार सूर्यदेव संसार की जीविका चलाते हैं, उसी प्रकार तेरे अनुजों के कर्म उनकी जीविका चलाएंगे! हे गुणी! तू कर्म में आस्था रख!

यहा पोधो के द्वारा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया मे सुर्य के प्रकाश ओर कार्बनडाई ओक्साईड,जल द्वारा भोजन निर्माण का स्पष्ट उल्लेख है।
इस लेख को लिखने मे मैने इस ब्लोग की सहायता भी ली है –
http://www.vijaychouksey.blogspot.in/2014/02/photosynthesis-explained-in-mahabharata.html इस ब्लोग पर अवश्य क्लिक करे इस पर आप भारद्वाज मुनिकृत विमानशास्त्र भी पढ सकते है।

यम यमी संवाद पर एक नजर

ऋग्वेद के दशवे मंडल के दशवे सूक्त १०|१० में यम यमी शब्द आये हैं |

जिसके मुर्ख मनुष्य अनर्गल व्याख्या करते हैं | उसके अनुसार यम तथा यमी विवस्वान् के पुत्र-पुत्री हैं और वे एकांत में होते हैं, वहा यमी यम से सहवास कि इच्छा प्रकट करती हैं |
यमी अनेक तर्क देती किन्तु यम उसके प्रस्ताव को निषेध कर देता | तो यमी कहती मेरे साथ तो तु ना कहे रहा पर किसी अन्य तेरे साथ ऐसे लिपटेगी जैसे वृक्ष से बेल, इत्यादि |

इस प्रकार के अर्थ दिखा के वेद निंदक नास्तिक वेद को व आर्यो के प्रति दुष्प्रचार करते हैं | आर्यो का जीवन सदैव मर्यादित रहा हैं, क्यों के वे वेद में वर्णित ईश्वर
कि आज्ञा का सदैव पालन करते रहे हैं | यहाँ तो यह मिथ्या प्रचार किया जा रहा अल्पबुद्धि अनार्यों द्वारा के वेद पिता-पुत्री, भाई-बहन के अवैध संबंधो कि शिक्षा देते
और वैदिक काल में इसका पालन होता रहा है |

वेदों के भाष्य के लिए वेदांगों का पालन करना होता हैं, निरुक्त ६ वेदांगों में से एक  हैं | निघंटु के भाष्य निरुक्त में यस्कराचार्य क्या कहते हैं यह देखना अति आवश्यक होता हैं व्याकरण के नियमों के पालन के साथ-२ ही | व्याकरण भी ६ वेदांगों में से एक हैं |* राथ यम-यमी को भाई बहन मानते और मानवजाती का आदि युगल किन्तु मोक्ष मुलर (प्रचलित नाम मैक्स मुलर) तक ने इसका खंडन किया क्यों के उन्हें
भी वेद में इसका प्रमाण नहीं मिल पाया |
हिब्रू विचार में आदम और ईव मानव जाती में के आदि माता-पिता माने जाते हैं | ये विचार ईसाईयों और मुसलमानों में यथावत मान्य हैं | उनकी सर्वमान्य मान्यता के
अनुसार दुनिया भाई बहन के जोड़े से हि शुरू हुई | अल्लाह (या जो भी वे नाम या चरित्र मानते हैं) उसने दुनिया को प्रारंभ करने के लिए भाई को बहन पर चढ़ाया और
वो सही भी माना जाता और फिर उसने आगे सगे भाई-बहनो का निषेध किया वहा वो सही हैं |

ये वे मतांध लोग हैं जो अपने मत में प्रचलित हर मान्यता को सत्य मानते हैं और
दूसरे में अमान्य असत्य बात को सत्य सिद्ध करने पर लगे रहते हैं | ये लोग वेदों के अनर्गल अर्थो का प्रचार करने में लगे रहते हैं |

स्कन्द स्वामी निरुक्त भाष्य में यम यमी कि २ प्रकार व्याख्या करते हैं |
१.नित्यपक्षे तु यम आदित्यो यम्यपि रात्रिः |५|२|
२.यदा नैरुक्तपक्षे मध्यमस्थाना यमी तदा मध्यमस्थानों यमो वायुवैघुतो वा वर्षाकाले
व्यतीते तामाह | प्रागस्माद् वर्षकाले अष्टौ मासान्-
अन्यमुषू त्वमित्यादी | |११|५

आपने आदित्य को यम तथा रात्री को यमी माना हैं अथवा माध्यमिक मेघवाणी यमी तथा माध्यमस्थानीय वायु या वैधुताग्नी यम हैं | शतपथ ब्राहमण में अग्नि तथा पृथ्वी को यम-यमी कहा हैं |
सत्यव्रत राजेश अपनी पुस्तक “यम- यमी सूक्त कि अध्यात्मिक व्याख्या” कि भूमिका में स्पष्ट लिखते हैं के यम-यमी का परस्पर सम्बन्ध पति-पत्नी हो सकता हैं भाई बहन कदापि नहीं क्यों के यम पद “पुंयोगदाख्यायाम्” सूत्र
से स्त्रीवाचक डिष~ प्रत्यय पति- पत्नी भाव में ही लगेगा | सिद्धांत कौमुदी कि बाल्मानोरमा टिका में “पुंयोग” पद कि व्याख्या करते हुए लिखा हैं –
“अकुर्वतीमपि भर्तकृतान्** वधबंधादीन् यथा लभते एवं तच्छब्दमपि, इति भाष्यस्वारस्येन जायापत्यात्मकस् यैव पुंयोगस्य विवाक्षित्वात् |”
यहा टिकाकर ने भी महाभाष्य के आधार पर पति पत्नी भाव में डिष~ प्रत्यय माना हैं | और स्वयं सायणाचार्य ने ताण्डय्-महाब्राहमण के भाष्य में यमी यमस्य पत्नी, लिखा हैं

अतः जहा पत्नी भाव विवक्षित नहीं होगा वहा – “अजाघतष्टाप्” से टाप् प्रत्यय
लगकर यमा पद बनेगा और अर्थ होगा यम कि बहन | जैसे गोप कि पत्नी गोपी तथा बहन गोपा कहलाएगी.,अतः यम-यमी पति- पत्नी हो सकते हैं, भाई बहन कदापि नहीं | सत्यव्रत राजेश जी ने अपनी पुस्तक में यम को पुरुष- जीवात्मा तथा यमी को प्रकृति मान कर इस सूक्त कि व्याख्या कि हैं |
स्वामी ब्रह्मुनी तथा चंद्रमणि पालिरात्न ने निरुक्तभाष्य ने यम-यमी को पति-
पत्नी ही माना हैं | सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानंद कि भी यही मान्यता हैं
|
डा० रामनाथ वेदालंकार के अनुसार – आध्यात्मिक के यम- यमी प्राण तथा तनु (काया) होने असंभव हैं | जो तेजस् रूप विवस्वान् तथा पृथ्वी एवं आपः रूप
सरण्यु से उत्पन्न होते हैं | ये दोनों शरीरस्थ आत्मा के सहायक एवं पोषक होते हैं | मनुष्य कि तनु या पार्थिव चेतना ये चाहती हैं कि प्राण मुझ से विवाह कर ले तथा मेरे ही पोषण में तत्पर रहे | यदि ऐसा हो जाए तो मनुष्य कि सारी आतंरिक प्रगति अवरुद्ध हो जाये तथा वह पशुता प्रधान ही रह जाये | मनुष्य का लक्ष्य हैं पार्थिक
चेतना से ऊपर उठकर आत्मलोक तक पहुचना हैं |
श्री शिव शंकर काव्यतीर्थ ने यम- यमी को सूर्य के पुत्र-पुत्री दिन रात माना हैं तथा कहा हैं कि जैसे रात और दिन इकठ्ठा नहीं हो सकते ऐसे ही भाई- बहन का परस्पर विवाह भी निषिद्ध हैं |
पुरुष तथा प्रकृति का आलंकारिक वर्णन मानने पर, प्रकृति जीव को हर प्रकार से
अपनी ओर अकार्षित करना चाहती हैं, किन्तु जीव कि सार्थकता प्रकृति के प्रलोभन में न फसकर पद्मपत्र कि भाति संयमित जीवन बिताने में हैं |

इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में वेद और लोक व्यहवार –विरुद्ध भाई बहिन के सहवास सम्बन्धी अर्थ को करना युक्त नहीं हैं | इसी सूक्त में कहा हैं-

“पापमाहुर्यः सवसारं निगच्छात्” बहिन भाई का अनुचित सम्बन्ध पाप हैं |

इसे पाप बताने वा वेद स्वयं इसके विपरीत बात कि शिक्षा कभी नहीं देता हैं |

सन्दर्भ ग्रन्थ – आर्य विद्वान वेद रत्न सत्यव्रत राजेश के व्याख्यानों के संकलन “वेदों में इतिहास नहीं” नामक पुस्तिका से व्याकरण प्रमाण सभारित |

 

शिक्षक की राष्ट्र विकास मे अद्भुत भूमिका……

shikshak

शिक्षक की राष्ट्र विकास मे अद्भुत भूमिका

संसार मे अनेक व्यक्तियों मे से दो व्यक्तियों को उच्च और श्रेष्ठ मानता है क्योंकी किसी भी राष्ट्र की उन्नति और उच्च सभ्यता का मूलाधार ये दो व्यक्ति ही होते है | एक किसान और दूसरा शिक्षक, आचार्य, गुरु आदि | जिसमे कृषि क्षेत्र का आधार तो धरती, हवा, पाणी इत्यादि है | और शिक्षा क्षेत्र का आधार है आचार और विचार | एक सफल शिक्षक वहि माना जाता है जिसे अपने विषय का पूर्ण ज्ञान हो, पढाने की लग्न हो और सभी से प्रेम हो | आज शिक्षण क्षेत्र इतना भ्रष्ठ हो चूका है की योग्य शिक्षक मिलना दुर्लभ हो चूका है |पहले बालको की योग्यता पर शिक्षा दि जाति थी इसका प्रमाण है हमारी गुरुकुलो मे पहले बालक और बालिकाओ का उपनयन संस्कार किया जाता था परन्तु आज शिक्षण क्षेत्र इतना भ्रष्ठ हो चूका है की पहले यह देखा जाता है की कौन कितना डोनेशन दे सकता है | डोनेशन, टुयशं, कोचिंग क्लास, शिक्षक बनने के लिए रिश्वत आदि ये बाते इस बात का प्रमाण है की शिक्षक क्षेत्र बहोत हद तक भ्रष्ठ हो चूका है | इसके करण कुछ भी रहे हो परन्तु इसका परिणाम ये हुआ की हर क्षेत्र, हर पेशे मे रिश्वतखोरी की बाढ़ आई हुयी है | छोटे से छोटे पद से लेकर बड़े से बड़े पद तक ज्यादातर व्यक्तियों को भिखारी वृतियो से ग्रस्त हो चूका है | सड़क का भिखारी किसे परेशान नहीं करता देना है तो दो अन्यथा न दे और वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ता | परन्तु ये भिखारी तो ऐसे भिखारी है जिन्होंने हमारा जिना मुश्किल कर रखा है |मै इस बात को यही विराम देकर बस इतना कहूँगा की शिक्षा क्षेत्र से जुडा व्यक्ति प्रमाणिकता से सोचे की वह बच्चो को कैसे पढाये, जिससे की बच्चो को भ्रष्ठता छूने भी ना पावे |

हज़ार डॉक्टर, हज़ार वकील जितना संसार का उपकार कर सकते है | उससे कई गुना ज्यादा उपकार मात्र एक शिक्षक कर सकता है | डॉक्टर जीवनदान देता है परन्तु शिक्षक जीवन का निर्माण करता है | लाखो बच्चो को चाहे तो देश का एक योग्य नागरिक बना कर देश की सेवा कर सकता है | अगर वह व्रत धारण कर तो नहीं तो एक रुपये कमाने की मशीन बन कर रह जाता है | आज कल के ये काचिंग क्लास उसी के नमूने है | किताबो की पढाई किताबो की पढाई और अपनी आमदनी इससे ज्यादा उन्हें और कुछ लेना देना नहीं |चाहे बच्चा पास होकर भ्रष्ठाचारी बने या रिश्वतखोर बने | एक शिक्षक की सफलता तब है जब उसका विद्यार्थी हर परीक्षा पास कर सुरक्षित देश का भविष्य बने, आदर्श मनुष्य बने |