ज्योतिष-शिविर

ज्योतिष-शिविर

– ब्र. दिलीप,

ज्योतिष विषय से हम लोगों का कम समबन्ध होने से वह विषय प्रायः अपरिचित-सा रहता है। अतः ब्रह्मचारियों को ज्योतिष का मूलभूत परिचय प्राप्त हो, वे पञ्चाङ्ग देखना सीखें, सृष्टि काल गणना एवं मासादि के निर्धारण में जो पक्ष विपक्ष हैं, उनका परिज्ञान हो इस हेतु आचार्य सत्यजित् जी के संयोजन में परोपकारिणी सभा द्वारा 25-28 जून तक ऋषि उद्यान, अजमेर में ‘चतुर्दिवसीय ज्योतिष शिविर’ का आयोजन किया गया। आश्रमवासी व अन्यों को मिला कर लगभग 150 लोगों ने इसमें भाग लिया। डॉ. धर्मवीर जी , आ. सत्यजित् जी, आ. सत्येन्द्र जी, आ. सोमदेव जी, आ. शिवकुमार जी, आ. राजेन्द्र जी, आचार्या आदेश जी व डॉ. रूपचन्द्र दीपक जी आदि विद्वान् भी इसमें उपस्थित रहे। शिविर में शिक्षक के रूप में आ. दार्शनेय लोकेश जी व उनके सुपुत्र विभु जी यहँा पधारे। श्री दार्शनेय जी ‘‘आर्ष मोहन तिथि पत्रक’’ के समपादक हैं। आपको ज्योतिष का लमबा अनुभव है। आपने वर्तमान में ज्येातिषीय काल गणना में चल रही विसंगतियों के विरुद्ध आवाज उठाकर एक शुद्धागोलीय घटनाओं से मेल खाने वाले पञ्चांग को आर्य जाति के समक्ष प्रस्तुत किया है। फलित ज्योतिष ने अपनी सुविधा के लिए 13 अंश 20 कला विस्तार वाले 27 नक्षत्र स्वीकार किये हैं। आपने इसका प्रबल प्रतिकार करते हुए वेदवर्णित 28 नक्षत्रों को उनके पृथक् पृथक्  विज्ञान समत विस्तार मान के आधार पर अपने पञ्चांगीय गणित में स्थान दिया है। वस्तुतः किसी भी नक्षत्र का विस्तार 13 अंश 20 कला नहीं है। किञ्च, पर्व, व्रत, त्योहार आदि भी गलत पञ्चांगों के कारण हिन्दू जनता गलत समय में मना रही है। मकर संक्रान्ति को 22 दिसबर के स्थान पर 14 जनवरी को मनाया जा रहा है। लगभग सभी त्यौहार आदि वास्तविक तिथि से 24 दिन बाद मनाये जा रहे हैं। दार्शनेय जी ने इन सब दोषों से रहित, सटीक गणनाओं से युक्त पञ्चांग का सृजन किया है। शिविर में इन सभी विषयों पर भी बहुत-सी चर्चाएँ हुई। सृष्टि संवत् के विषय में भी सत्र रखा गया था। जिसमें दार्शनेय जी व उनके सुपुत्र विाु जी ने गणितीय आधार पर 1 अरब 97 करोड वाली गणना को ही सही बताते हुए 1 अरब 96 करोड़ वाली गणना को स्वीकार करने पर सूर्यादि के शीघ्रोच्च, मन्दोच्चादि से सबन्धित गणित में दोषापत्ति होने की बात कही। इस विषय पर काफी चर्चा हुई, फिर भी झटिति निर्णय की अपेक्षा, एक बार अन्य विद्वानों के समक्ष भी दोनों पक्षों को प्रस्तुत करके सबकी एकमति होने पर निर्णय तक पहुँचा जावें। इस आशय को मन में धर के आ. सत्यजित् जी ने शिविर के अन्त में श्री दार्शनेय जी से अगले शिविर के विषय में बात रखी। उन्होंने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। अगले वर्ष जून मास में एक विद्वत्स्तरीय शिविर की सभावना है, जिसमें आर्यसमाज से सबद्ध ज्योतिषीय गणना पर ध्यान केन्द्रित किया जायगा। जिसमें हम सभी ब्रह्मचारियों को भी जानने व सीखने का शुभ अवसर प्राप्त होगा।

अब शिविर का प्रतिदिन का कुछ विवरणः-

प्रथम दिनःप्रथमदिन पूर्वाह्न सत्र में ज्योतिष का सामान्य परिचय हुआ। पञ्चांग देखने की विधि तथा पंचांग में आए हुए तिथि, नक्षत्र आदि का प्रारमभ और समाप्तिकाल, व लग्नारभ को जानने की विधि का शिक्षण हुआ। त्रुटि, रेणु, लव, लीक्षक व प्राण, इन काल गणना के सूक्ष्म एककों को बताते हुए श्री दार्शनेय जी ने बताया कि सेकिण्ड के 32,40,000 वें भाग को त्रुटि कहते हैं। इसी प्रकार स्थूल एककों में प्राण पल, घटी अहोरात्र (दिन-रात) इत्यादि होते हैं। दिनों की चर्चा करते हुए सावन, सौर, नक्षत्र, व चान्द्र दिनों के बारे में बताया। सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक को ‘सावन दिन’ कहते हैं। सूर्य के एकांश भोग काल को ‘सौर दिन’ कहते हैं। एक तिथि का एक ‘चान्द्र दिन’ होता है। इसी प्रकार एक नक्षत्र के उदय से अगले नक्षत्र के उदय तक के काल को ‘नाक्षत्र दिन’ कहते हैं। जिसका मान 60 घटी= (24 घण्टा) होता है। अपराह्न द्वितीय सत्र में तिथिक्षय एवं तिथिवृद्धि के विषय में प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि यदि तिथि सूर्योदय से पहले प्रारमभ होकर अगले सूर्योदय के बाद तक रहे, उसे ‘तिथिवृद्धि’ कहते हैं और सूर्योदय के बाद से प्रारमभ होकर अगले सूर्योदय से पूर्व ही समाप्त हो जाए तो उसे ‘तिथिक्षय’ कहा जाता है। क्षितिज पर जो राशि रहती है, उसे लग्न कहते हैं। मास के विषय में बताते हुए कहा कि चान्द्रमास शुक्ल प्रतिपदा से प्रारभ होकर अमावस्या पर पूर्ण होता है। जहाँ पूर्णिमा पर मास की समाप्ति होती है, वह गलत है। श्री दार्शनेय जी ने यह तर्क रखा कि यदि मास पूर्णिमान्त माने जाएँ तो सृष्ट्यादि में 15 दिन का ही मास मानना पड़ेगा। क्योंकि सभी वादिगण सृष्ट्यारभ को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही मानते हैं। उनका दूसरा तर्क था कि आज भी भारत में छपने वाले सभी पञ्चांगों में पूर्णिमा के लिए ‘15’ एवं अमावस्या के लिए ‘30’ संया लिखी होती है। ऐसा लिखा जाना भी इस बात को पुष्ट करता है कि मास अमान्त (अमावस्या को अन्त होने वाले) ही होते हैं।

द्वितीय दिनःदूसरे दिन के सत्रों में दार्शनेय जी ने राशि, नक्षत्र, करण आदि के नाम लिखाकर उनके बारे में समझाया। कुण्डली देखकर ग्रहों की खगोल में स्थिति कैसे जानी जाती है, उसे विस्तार से बताया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

उन्होंने कहा कि कुण्डली के 12 घर 30-30 अंश के होते हैं। प्रथम घर में यदि कोई ग्रह हो तो जानना चाहिए कि वह अभी उदित हो रहा है। दशवें घर में तो हमारे शिर के ऊपर हैं। यदि सातवें घर में हो तो अस्त हो रहा है और चौथे घर में होने पर ठीक हमारे पैरों तले होता है। कुण्डली से फलित नहीं, बल्कि उससे हमें खगोलीय स्थिति का पता लगता है। उन्होंने कुण्डली देखकर कैसे तिथि, पक्ष, मास, वयः आदि का ज्ञान होता है, उसेाी अच्छी तरह समझाया। और उन्होंने यह भी बताया कि इन्हीं कुछ चमत्कार-सी लगने वाली बातों के आधार पर फलित ज्योतिष करने वाले भोले-भाले लोगों को मोहित करके ठगते रहते हैं।

तृतीय दिनतीसरे दिन मुहूर्त, होरा, दिनमान, रात्रिमान, सूर्योदय और सूर्यास्त को गणितीय विधि से निकालना सिखाया। दिनमान व रात्रिमान के 15-15 वें भाग को मुहूर्त तथा 12-12 वें भाग को होरा कहते हैं। होरा से प्रायः 1 घण्टा लिया जाता है, किन्तु वह केवल वसन्त सपात तथा शरत्संपात के दिन ही होता है। अन्य समय में होरा=1घण्टा नहीं होता है। प्रहर के विषय में पूछने पर उन्होंने कहा कि 3घण्टे का प्रहर नियत करना गलत है। क्योंकि दिनमान तथा रात्रिमान में 4 का भाग देने पर जो कालखण्ड आता है उतना ही एक प्रहर का कालमान माना जाना उचित है। एतदनन्तर सृष्टि काल गणना का प्रक्रम प्रारभ हुआ। स्वा. दयानन्द सरस्वती विरचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व सूर्यसिद्धान्त के अनुसार सृष्टि काल गणना समझाते हुए उन्होंने कहा कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज की कृपा से ही हम इस काल गणना को समझने में समर्थ हुए हैं। उन्होंने स्वामीजी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट की। स्वामी जी द्वारा पठन-पाठन में निषिद्ध धर्मसिन्धु व निर्णयसिन्धु का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान में प्रचलित पञ्चांग इन्हीं पुस्तकों के सिद्धान्त पर अािश्रत होने से, चूँकि आश्रय अनार्ष है, अतः प्रायः सारे पञ्चांग अनार्ष हैं। अपराह्न सत्र में अयनांश, निरयण, सायन, इन तीन ज्योतिषीय शदों पर सभी का ध्यान आकृष्ट करते हुए श्री दार्शनेय जी ने बताया कि सही काल गणना को समझने के लिए इनका ज्ञान आवश्यक है। वर्तमान पञ्चांग निरयन पद्धति से बनते हैं, परन्तु सायन पद्धति के बिना कालगणना ठीक हो ही नहीं सकती। सायन पञ्चांग ही सटीक काल गणना को दे सकता है।

चतुर्थ दिनःचौथे दिन के सत्रों में तिथि, चन्द्रस्पष्ट, चन्द्रगति, सूर्यस्पष्ट, सूर्यगति, तिथि कब तक रहेगी इत्यादि विषय को गणितीय विधि से निकालना सिखाया। तिथि को परिभाषित करते हुए उन्होंने बताया कि सूर्य और चन्द्र के बीच 12ं अंश (डिग्री) का अन्तर एक तिथि कहलाती है। तत्पश्चात् अक्षांश देशान्तर, भूमध्यरेखा, क्रान्तिवृत्त, विषुवत्वृत्त, विषुवांश इत्यादि शदों का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए लंकोदय से स्वोदय निकालने की विधि को भी दीर्घगणितसंक्रिया के माध्यम से हमें सिखाया।

इस प्रकार केवल चार दिनों में श्री दार्शनेय जी व उनके सुपुत्र श्री विभु जी ने ज्योतिष की मूलभूत अधिक से अधिक बातों को हमारे समुख रखा। पूरे शिविर में श्री दार्शनेय जी की पढ़ाने की रोचक शैली तथा श्री विभु जी की पाठकों के हृदय में उतर कर तार्किक ढंग से समझाने की शैलियों के अद्भुत समिश्रण ने पाठकों में सीखने के प्रति सतत अभिरुचि व विषय के प्रति आदर भाव बनाए रखा। प्रायः साी ब्रह्मचारी भ्राताओं, आश्रमवासी व अन्य बाहर से पधारे हुए महानुभावों ने रुचि से सभी सत्रों में भाग लिया। शंका-समाधान भी हुए।

शिविर के समापन के अवसर पर कुछ पाठकों ने अपने अनुभव सुनाए। श्री दार्शनेय जी व श्री विभुजी का धन्यवाद किया। परोपकारिणी सभा के माननीय प्रधान श्री डॉ. धर्मवीर जी एवं आ. सत्यजित् जी ने भी अन्त में दोनों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित किए। हम सभी दार्शनेय लोकेश जी तथा उनके सुपुत्र विभुजी के अत्यन्त आभारी हैं। जिन्होंने अपना अमूल्य समय हमें देकर ज्योतिष में हमारा मार्गदर्शन किया। दोनों पिता पुत्र के हृदय में सत्य के लिए तड़प थी। उनके कथनों में सत्य व तर्क का मिलन था। स्वभाव में विनम्रता परिलक्षित हो रही थी। उनके वाक्य सीधे पाठकों के हृदय को छू रहे थे। वे सत्य काल विधान को स्थापित करने के लिए कठिबद्ध हैं। विगत दस वर्षों से आर्ष तिथि पत्रक के माध्यम से यथार्थ कालगणना को जनता के समुख प्रस्तुत कर रहे हैं।  उनका यह कार्य आर्य जाति के लिए प्रेरणा और गौरव देने वाला है। हम प्रभु से श्री दार्शनेय और उनके परिवार के स्वास्थ्य, दीर्घायु और मंगलमय जीवन की कामना करते हैं। अन्त में मैं पूज्य आ. सत्यजित् जी सभा के प्रधान माननीय डॉ. धर्मवीर जी, माननीय मंत्री श्री ओम् मुनि जी व अन्य सभी महानुभावों का हार्दिक धन्यवाद करते हुए कृतज्ञता प्रकट करता हॅूँ। जिनकी कृपा व सहयोग से हम सबको शिविर में भाग लेने तथा कुछ सीखने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ।

– आर्ष गुरुकुल, ऋषि उद्यान, अजमेर, राज.।

 

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