वीतराग स्वामी सर्वदानन्द

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वीतराग स्वामी सर्वदानन्द

-डा. अशोक आर्य

आर्य समाज ने अनेक त्यागी तपस्वी साधू सन्त पैदा किये हैं । एसे ही संन्यासियों में वीतराग स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी भी एक थे । आप का जन्म भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से मात्र दो वर्ष पूर्व विक्रमी सम्वत १९१२ या यूं कहें कि १८५५ इस्वी को हुआअ । आप का जन्म स्थान कस्बा बस्सी कलां जिला होशियारपुर पंजाब था । आप के पिता का नाम गंगा विष्णु था, जो अपने समय के सुप्रसिद्ध वैद्य थे । यही उनकी जीविकोपार्जन का साधन भी था ।

स्वामी जी का आरम्भिक नाम चन्दूलाल रखा गया । यह शैव वंशीय परम्परा से थे । इस कारण वह शैव परम्पराओं का पालन करते थे तथा प्रतिदिन पुष्पों से प्रतिमा के साज संवार में कोई कसर न आने देते थे किन्तु जब एक दिन देखा कि एक कत्ता शिव मूर्ति पर मूत्र कर रहा है तो इन के ह्रदय में भी वैसे ही एक भावना पैदा हुई , जैसे कभी स्वामी दयानन्द के अन्दर  शिव पिण्डी पर चूहों को देख कर पैदा हुई थी । अत; प्रतिमा अर्थात मूर्ति पूजन से मन के अन्दर की श्रद्धा समाप्त हो गई । इस कारण वह वेदान्त की ओर बटे । इसके साथ ही साथ फ़ारसी के मौलाना रूम तथा एसे ही अन्य सूफ़ि कवियों की क्रतियों व कार्यों का अधययन किया । यह सब करते हुए भी मूर्ति पर कुते के मुत्र त्याग का द्रश्य वह भुला न पाए तथा धीरे धीरे उनके मन में वैराग्य की भावना उटने लगी तथा शीघ्र ही उन्होंने घर को सदा के लिए त्याग दिया ओर मात्र ३२ वर्ष की अयु में संन्यास लेकर समाज के उत्थान के संकल्प के साथ स्वामी सर्वदानन्द नाम से कार्य क्शेत्र में आए ।

अब आप ने चार वर्ष तक निरन्तर भ्र्मण , देशाट्न व तिर्थ करते हुए देश की अवस्था को समझने आ यत्न किया । इस काल में आप सत्संग के द्वारा लोगों को सुपथ दिखाने का प्रयास भी करते रहे ।

स्वामी जी का आर्य समाज में प्रवेश भी न केवल रोचकता ही दिखाता है बल्कि एक उत्तम शिक्शा भी देने वाला है । प्रसंग इस प्रकार है कि एक बार स्वामी जी अत्यन्त रुग्ण हो गए किन्तु साधु के पास कौन सा परिवार है , जो उसकी सेवा सुश्रुषा करता । इस समय एक आर्य समाजी सज्जन आए तथा उसने स्वामी जी की खूब सेवा की तथा उनकी चिकित्सा भी करवाई । पूर्ण स्वस्थ होने पर स्वामी जी जब यहां से चलने लगे तो उनके तात्कालिक सेवक ( आर्य समाजी सज्जन ) ने एक सुन्दर रेशमी वस्त्र में लपेट कर सत्यार्थ प्रकाश उन्हें भेंट किया । इस सज्जन ने यह प्रार्थना भी की कि यदि वह उसकी सेवा से प्रसन्न हैं तो इस पुस्तक को , इस भेंट को अवश्य पटें ।

स्वामी जी इस भक्त के सेवाभा से पहले ही गद गद थे फ़िर उसके आग्रह को कैसे टाल सकते थे । उन्होंने भक्त की इस भेंट को सहर्ष स्वीकार करते हुऎ पुस्तक से वस्त्र को हटाया तो पाया कि यह तो स्वामी दयानन्द क्रत स्त्यार्थ प्रकाश था । पौराणिक होने के कारण इस ग्रन्थ के प्रति अश्रद्धा थी किन्तु वह अपने सेवक को वचन दे चुके थे इस कारण पुस्तक को बडे चाव से आदि से अन्त तक पटा । बस फ़िर क्या था ग्रन्थ पटते ही विचारों में आमूल परिवर्तन हो गया । परिणाम स्वरूप शंकर व वेदान्त के प्रति उनकी निष्था समाप्त हो गई । वेद , उपनिषद, दर्श्न आदि आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया तथा आर्य समाज के प्रचार व प्रसार मे जुट गये । आर्य समाज का प्रचार करते हुए आप ने अनेक पुस्तके भी लिखीं यथा जीवन सुधा, आनन्द संग्रह, सन्मार्ग दर्शन, ईश्वर भक्ति, कल्याण मार्ग, सर्वदानन्द वचनाम्रत , सत्य की महिमा, प्रणव परिचय , परमात्मा के दर्शन आदि ।

जब वह प्रचार में जुटे थे तो उनके मन में गुरुकुल की स्थापना की इच्छा हुई । अत: अलीगट से पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर काली नदी के किनारे (जिस के मुख्य द्वार के पास कभी स्वामी दयानन्द सरस्वती विश्राम किया करते थे ) तथा स्वामी जी के सेवक व सहयोगी मुकुन्द सिंह जी के गांव से मात्र पांच किलोमीटर दूर साधु आश्रम की स्थापना की तथा यहां पर आर्ष पद्धति से शास्त्राध्ययन की व्यवस्था की ( यह गुरुकुल मैने देखा है तथा इस गुरुकुल के दो छात्र आज आर्य समाज वाशी , मुम्बई में पुरोहित हैं ) । आप के सुप्रयास से अजमेर के आनासागर के तट पर स्थित साधु आश्रम में संस्क्रत पाट्शाला की भी स्थापना की ।  आप को वेद प्रचार की एसी लगन लगी थी कि इस निमित्त आप देश के सुदूर वर्ती क्शेत्रों तक भी जाने को तत्पर रहते थे । आप तप , त्याग ,सहिष्णुता की साक्शात मूर्ति थे । इन तत्वों का आप मे बाहुल्य था । आप का निधन १० मार्च १९४१ इस्वी को ग्वालियर में हुआ ।

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