डा अम्बेडकर के लेखन में परस्पर विरोध

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डा अम्बेडकर ने शंकराचार्य की आलोचना करते हुए उनके लेखन में परस्पर विरोधी कथन माने है | उन्होंने उन परस्पर विरोधो के आधार पर शंकराचार्य के कथनों को अप्रमाणिक कहकर अमान्य घोषित किया है और यह कटु टिप्पणी की कि जिसके लेखन में परस्पर विरोधी कथन पाए जाए उसे पागल ही कहा जाएगा |(अम्बेडकर वा. खंड ८,पृष्ठ २८९ )
अब देखिये अम्बेडकर जी के लिखे लेखो में कितना परस्पर विरोध है –
(*१) क्या मह्रिषी मनु जन्मजा जाति के जनक थे ?
इस सम्बन्ध में अम्बेडकर के तीन प्रकार के परस्पर विरोधी कथन है –
(अ) मनु ने जाति का विधान नही बनाया अत: वह जाति का जनक नही –
(क) ” एक बात मै आप लोगो को बताना चाहता हु कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नही किया न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी| वह तो उसका पौषक था “(अम्बेडकर वा. खंड १ पृष्ठ २९)
(ख) ” कदाचित मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया था|……वर्ण व्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक न भी हो परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निशिचित ही आरोप लगाया जा सकता है| ” (वही खंड ६,पृष्ठ ४३)
(आ) जाति- संरचना ब्राह्मणों ने की –
(क) ‘ तर्क में यह सिद्धांत है कि ब्राह्मणों ने जाति संरचना की| ‘ (वही खंड १,पृष्ठ२९)
(ख) ” वर्ण निर्धारण करने का अधिकार गुरु से छीन कर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया|”(वही,खंड१,पृष्ठ १७२)
(इ)मनु जाति का जनक है –
(क) “मनु ने जाति का सिद्धांत निर्धारित किया है |”(वही,खंड ६,पृष्ठ ५७)
(ख) “वर्ण को जाति में बदलते समय मनु ने अपने उद्देश की कही व्याख्या नही की|”(वही,खंड ७,पृष्ठ१६८ )
(*२) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्र्श्नसीय या निंदनीय –
(अ) चातुर वर्णव्यवस्था प्रशंसनीय –
(क) ” प्राचीन वर्णव्यवस्था में दो अच्छाई थी, जिन्हें ब्राह्मणवाद ने स्वार्थ में अंधे होकर निकाल दिया| पहली ,वर्णों की आपस में एक दुसरे से पृथक स्थिति नही थी| एक वर्ण दुसरे वर्ण में विवाह ,सह भोजन दो बातें ऐसी थी जो एक दुसरे को साथ जोड़े रखती थी | विभिन्न वर्णों में असामाजिक भावना पैदा करने की कोई गुंजाइश नही थी ,(अम्बेडकर वा. खंड ७ ,पृष्ठ २१८ )
(ख) ” यह कहना कि आर्यों में वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह था जिसके कारण इनकी पृथक सामजिक स्थिति बनी, कोरी बकवास होगी, अगर कोई ऐसे लोग थे जिनमे वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह नही था तो वह आर्य थे |”(अम्बेडकर वा. खंड ७ ,पृष्ठ३२०)
(ग) ब्राह्मणवाद ने प्रमुखत जो कार्य किया, वह अंतरजातीय विवाह और सहभोज को समाप्त करना जो प्राचीनकाल में चारो वर्णों में प्रचलित थी “(वही खंड ७ ,पृष्ठ १९४)
(घ) ” बोद्ध पूर्व चातुर्य वर्णव्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी उसमे गुंजाइश थी| इसमें जहा चार विभिन्न वर्गों का अस्तित्व स्वीकार किया गया था वाहा इन वर्गों में आपस में विवाह आदि का निषेध नही था ….(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १७५)
(आ) चातुर्य वर्णव्यवस्था निंदनीय –
(क) चातुर्य वर्ण व्यवस्था से अधिक नीच सामजिक व्यवस्था कौनसी है ,जो लोगो को किसी भी कल्याण कारी कार्य करने से विकलांग बना देती है | इस बात में कोई अतिश्योक्ति नही है |(वही,खंड ६ पृष्ठ ९५)
(ख) ” चातुर्य वर्ण के प्रचारक ये बहुत सोच समझकर बताते है कि उनका वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर नही बल्कि गुणों के आधार पर है | यहा पर मै पहले ही बताना चाहता हु भले ही यह गुणों के आधार पर हो,किन्तु यह आदर्श मेरे विचार से मेल नही खाता|”(वही ,खंड १,पृष्ठ ८१)
(३)वेदों की वर्ण व्यवस्था 
(अ) वेदों की वर्णव्यवस्था उत्तम और सम्मान जनक – 
(क) ” शुद्र आर्य समुदाय के अभिन्न,जन्मजात और सम्मनित सदस्य थे | यह बात यजुर्वेद के एक मन्त्र में उलेखित एक स्तुति से पुष्ट होती है |” (वही खंड ७ पृष्ठ ३२२)
(ख) ” शुद्र समुदाय का सदस्य होता था और वह समाज का सम्मानित सदस्य था “(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३२२)
(ग) वर्णव्यवस्था की वैदिक पद्धति जाति व्यवस्था की अपेक्षा उत्तम थी (वही,खंड ७,पृष्ठ २१८)
(घ) ” वेद में वर्ण की धारणा का सारांस यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाय ,जो उसकी योग्यता के लिए उपयुक्त हो ……..वैदिक वर्णव्यवस्था केवल योग्यता को मान्यता देती है ……वर्ण और जाति दो अलग अलग मान्यताये है ..(वही,खंड१,पृष्ठ ११९)
(आ) वेदों की वर्णव्यवस्था समाज विभाजन और असमानता का जनक – 
(क) “यह निर्विवाद है कि वेदों ने वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत की रचना की है,जिसे पुरुष सूक्त नाम से जाना जाता है| यह दो मुलभुत तत्वों को मान्यता देता है | उसने समाज के चार भागो में विभाजन को एक आदर्श योजना के रूप में योजना के रूप में मान्यता दी है | उसने इस बात को भी मान्यता दी है कि इन चारो भागो के सम्बन्ध असमानता के आधार पर होने चाहिए |” (वही ,खंड ६, पृष्ठ १०५)
(ख) ” जाति प्रथा, वर्णव्यवस्था का नया संस्करण है,जिसे वेदों से आधार मिलता है|” (वही,खंड ९,पृष्ठ १६०)
(*४) वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था का सम्बन्ध 
(अ) जातिव्यवस्था वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप है –
(क) ” कहा जाता है कि जाति,वर्ण व्यवस्था का विस्तार है | बाद में मै बताऊंगा कि यह बकवास है| जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है | यह विपरीत दिशा में प्रसार है | जात पात ने वर्णव्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया |”(वही , खंड १ पृष्ठ २६३)
(ख) “जातिप्रथा चातुर्य वर्ण का ,जो कि हिन्दू आदर्श है का विकृत रूप है |”(वही ,खंड १ ,पृष्ठ २६३)
(ग) “अगर मूल पद्धति का यह विकृत रूप केवल सामजिक व्यवहार तक सीमित रहता तो सहन हो सकता था| लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना करने के बाद भी संतुष्ट नही रहा |उसने इस वर्ण के विकृत रूप को कानून बना डाला | (वही खंड ७,पृष्ठ२१६)
(आ) जाति व्यवस्था वर्णव्यवस्थ का विकास है –
(क) ” वर्णव्यवस्था जातिजननी है |”(वही ,खंड६ ,हिंदुत्व का दर्शन ,पृष्ठ ४३)
(ख) “कुछ समय तक ये केवल वर्ण ही रहे, कुछ समय तक वर्ण ही थे वे अब जातिया बन गये और ये ४ जातोय ४००० बन गयी |इस प्रकार आधुनिक जातिव्यवस्था प्राचीन वर्णव्यवस्था का विकास है |
(*५) शुद्र आर्य या अनार्य ?
(अ) शुद्र मनुमतानुसार आर्य ही थे 
(क) “धर्म सूत्रों की यह बात शुद्र अनार्य है नही माननी चाहिय| यह सिद्धात मनु और कौटिल्य के विपरीत है|”(शुद्रो की खोज पृष्ठ ४२ )
(ख) ” आर्य जातिया का अर्थ है चार वर्ण – ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शुद्र| दुसरे शब्दों में मनु चार वर्णों को आर्यवाद का सार मानते है |”……[ब्राह्मण: ,क्षत्रिय वैश्य: त्रयो वर्णों:”(मनु १०.०४ ]
यह श्लोक दो कारणों से अत्यंत महत्वपूर्ण है| एक तो इससे पता चलता है कि शुद्रो को भिन्न बताया है | दुसरे इससे पता चलता है कि शुद्र आर्य है|”(अम्बेडकर वा. खंड ८ पृष्ठ२१७)
(आ) शुद्र मनुमतानुसार अनार्य थे 
(क) “मनु शुद्रो का निरूपण इस प्रकार करता है,जैसे वे बहार से आने वाले अनार्य थे |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ ३१९ )
(*६) शुद्रो को वेदाध्यानन अधिकार 
(अ) वेदों में सम्मान पूर्वक शुद्रो का अधिकार था 
(क) “वेदों का अध्ययन करने के बारे में शुद्रो के अधिकारों के प्रश्न पर ‘छान्दोग्योपनिषद् उलेखनीय है|……एक समय ऐसा भी था,जब अध्ययन के सम्बन्ध में शुद्रो पर कोई प्रतिबन्ध नही था|”(वही ख्न्द७,पृष्ठ ३२४ )
(ख) ” केवल यही बात मही थी कि शुद्र वेदों का अधयन्न कर सकते थे| कुछ शुद्र ऐसे थे जिन्हें ऋषि पद प्राप्त था और जिन्होंने वेदमंत्रो की रचना की| कवष ऐलुष नामक ऋषि की कथा बहुत ही महत्वपूर्ण है | वह एक ऋषि था और ऋग्वेद के १० मंडल में उसके रचे अनेक मन्त्र है |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ ३२४)
(ग)”जहा तक उपनयन संस्कार और यज्ञोपवीत धारण करने का प्रश्न है, इस बात का कही कोई प्रमाण नही मिलता की यह शुद्रो के लिए वर्जित था| बल्कि संस्कार गणपति में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है और कहा है कि शुद्रो के लिए उपनयन अधिकार है “(वही खंड ७,पृष्ठ ३२५-३२६)
(आ) वेदों में शुद्रो का अधिकार नही था 
(क)” वेदों के ब्राह्मणवाद में शुद्रो का प्रवेश वर्जित था,लेकिन भिक्षुओ के बौद्ध धर्म के द्वार शुद्रो के लिए खुले हुए थे |”( वही,खंड ७ पृष्ठ १९७)
(*७) शुद्र वेतनभोगी सेवक या पराधीन ?
(अ) शुद्र को उचित वेतन और जीविका दे 
(क) “शुद्र की क्षमता,उसका कार्य तथा उसके परिवार में उस पर निर्भर लोगो की संख्या को ध्यान में रखते हुए वे लोग उसे अपनी पारिवारिक सम्पति से उचित वेतन दे (मनु १०.१२४ )|” (अम्बेडकर वा.,खंड ६ ,पृष्ठ ६२ ; खंड ७ पृष्ठ २०१,खंड ७ पृष्ठ २३४,३१८ ,खंड ९,पृष्ठ ११६ ,१७८ )
(आ) शुद्र गुलाम था 
(क)”मनु ने गुलामी को मान्यता प्रदान की है |परन्तु उसने उसे शुद्र तक ही सीमित रखा |”(वही ,खंड ६,पृष्ठ ४५ )
(ख)”प्रत्येक ब्राह्मण शुद्र को दास कर्म करने के लिए बाध्य कर सकता है, चाहे उसने उसे खरीद लिया हो अथवा नही,क्यूंकि शुद्रो की सृष्टि ब्राह्मणों को दास बनने के लिए ही की है [मनु .८.४१३ ]”(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३१८ )
(*८) शुद्र का सेवाकार्य स्वेच्छापूर्वक 
(अ) शुद्र सेवा कार्य में स्वतंत्र है –
(क)” ब्रह्मा ने शुद्रो के लिए एक ही व्यवसाय नियत किया है -विनम्रता पूर्वक तीन अन्य वर्णों की अर्थात ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य की सेवा करना [मनु ९.१९] |” (अम्बेडकर वा.,खंड ९ पृष्ठ १०५ ,१०९,१७७ ,खंड १३ पृष्ठ ३० )
(ख) “यदि शुद्र (जो ब्राह्मण की सेवा से अपना जीविका निर्वाह नही कर पाता ) और जीविका चाहता है तो वह क्षत्रिय की सेवा करे या वह किसी धनी वेश्य की सेवा करे (मनु १०,१२१ )|”(वही खंड ९ ,पृष्ठ ११६ ,११७ )
(आ) शुद्र को केवल ब्राह्मण की सेवा करनी है 
(क) “ब्रह्मा ने ब्राह्मणों  को शुद्र की सेवा करने के लिए ही शुद्रो की सृष्टि की है [मनु ८,४१३] |” (वही,खंड ७ ,पृष्ठ २०० ;पृष्ठ १७७ )

(*९) मनु की दंड व्यवस्था कौनसी है ?
(अ)ब्राह्मण सबसे अधिक दंडनीय और शुद्र सबसे कम –
(क) ” चोरी करने पर शुद्र को आठ गुना,वैश्य को सोलह गुना ,और क्षत्रिय को बतीस गुना पाप होता है |ब्राह्मण को ६४ गुना या १२८ गुना तक,इनमे से प्रत्येक को अपराध की प्रक्रति की जानकारी होती है [मनु ८.३३७ ]|”(वही ८.३३७ )
(आ ) ब्राह्मण दंडनीय नही है शुद्र अधिक 
(क) ” पुरोहित वर्ग के व्यभिचारी को प्राण दंड देने के बजाय उसका अपकीर्ति कर मुंडन करा देना चाहिय तथा इसी अपराध के लिए अन्य वर्गों को म्रत्यु दंड देना चाहिय (मनु ८.३७१)|(वही खंड ६,पृष्ठ ४९)
(ख) ” लेकिन न्यायप्रिय राजा तीन निचली जातियों के व्यक्तियों को केवल आर्थिक दंड देगा और उन्हें निष्कासित कर देगा,जिन्होंने मिथ्या साक्ष्य दिया है ,लेकिन ब्राह्मण को वे केवल निष्काषित करेगा (मनु ८.१२३,१२४ )(वही ,खंड ७,पृष्ठ १६१ ,२४५ )
(*१०) शुद्र का ब्राह्मण बनना 
(अ) आर्यों में शुद्र ब्राह्मण बन सकता था   
(क) ” इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शुद्र होने से बच जाते थे ,ये ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य होने के लिए चुने जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य होने के लिए चुने जाते वे शुद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे | इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ १७० )
(ख) ” अन्य समाजो के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था |….इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा की आरम्भ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग विभाजन के अंतर्गत व्यक्ति दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी |”(वही ,खंड १ पृष्ठ ३१)
(ग) ” प्रत्येक शुद्र जो शुचिपूर्ण है,जो अपने से उत्कृष्ट का सेवक ,मृदुभाषी है ,अहंकार रहित है,और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है,वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है (मनु ९.३३५)(वही ,खंड ९ ,पृष्ठ ११७ )
(आ) आर्यों में शुद्र ब्राह्मण नही बन सकता था 
(क) “आर्यों के समाज में शुद्र अथवा नीच जाति का मनुष्य कभी ब्राह्मण नही बन सकता था|”(अम्बेडकर वा.,खंड ७ ,पृष्ठ ९३ )
(ख) ” वैदिक शासन में शुद्र ब्राह्मण बनने की कभी आकांशा नही कर सकता था |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १९७ )
(ग) “उच्च वर्ण में जन्मे और निम्न वर्ण व्यक्ति की नियति उसका जन्मजात वर्ण ही है |”(वही ,खंड ६ ,पृष्ठ १४६ )
(*११) ब्राह्मण कौन हो सकता था ?
(अ) वेदों का विद्वान् ब्राह्मण होता था 
(क) “स्वयम्भू मनु ने ब्राह्मणों के कर्तव्य वेदाध्ययन,वेद की शिक्षा देना ,यज्ञ करना अन्य को यज्ञ में साहयता देना ,यदि वो धनी है तो दान देना और निर्धन है तो दान लेना निश्चित किया (मनु २.८८) |”(अम्बेडकर वा.खंड ७ ,पृष्ठ २३० ,खंड ६ ,पृष्ठ १४२ ,खंड ९ ,पृष्ठ १०४ ,खंड १३ ,पृष्ठ ३० )
(ख) “वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नही हो सकता| ब्राह्मण के मूढ़ होने की सम्भावना तभी हो सकती है ,जब वर्ण जाति बन जाए ,अर्थात जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १७३)
(आ) वेदाध्ययन से रहित मुर्ख भी ब्राह्मण होता था 
(क) “कोई भी ब्राह्मण जो जन्म से ब्राह्मण है अर्थात जिसने जिसने न तो वेदों का अधयन्न किया है न वेदों द्वारा अपेक्षित कोई कर्म किया है ,वह राजा के अनुरोध पर उसके लिए धर्म का निर्वचन कर सकता है अर्थात न्यायधीश के रूप में कार्य कर सकता है ,लेकिन शुद्र यह नही कर सकता चाहे कितना ही विद्वान् क्यूँ न हो (मनु ८.२०)|”(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३१७ ,खंड ९ ,पृष्ठ १०९ ,१७६ ,खंड १३ ,३० )
(*१२) मनु स्मृति विषयक मान्यता 
(अ)मनुस्मृति धर्मग्रन्थ और नीति शास्त्र है 
(क) “इस प्रकार मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है ….चुकी इसमें जाति का विवेचन है जो हिन्दू धर्म की आत्मा है,इसलिए यह धर्म ग्रन्थ है |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(ख) “मनु स्मृति को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिय |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ २२८)
(ग) “अगर नैतिकता और सदाचार कर्तव्य है, तब निस्सदेह नीतिशास्त्र का ग्रन्थ है |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(आ) मनुस्मृति धर्मग्रन्थ और नीतिशास्त्र नही है 
(क) “यह कहना कि मनुस्मृति एक धर्मग्रन्थ है,बहुत कुछ अटपटा लगता है|”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(ख)”हम कह सकते है कि मनु स्मृति नियमो की एक संहिता है |……यह न तो नीति शास्त्र है और न ही धर्म ग्रन्थ है |(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ २२४ )
(*१३) समाज में पुजारी की आवश्कयता 
(अ)पुजारी आवश्यक था बुद्ध धर्म के लिए 
(क) बौद्ध धर्म के समर्थन में डा. अम्बेडकर लिखते है –
“धर्म की स्थापना केवल प्रचार द्वारा ही हो सकती है |यदि प्रचार असफल हो जाय तो धर्म भी लुप्त हो जाएगा |पुजारी वर्ग वो चाहे कितना भी घृणास्पद हो धर्म प्रवर्तन के के लिए आवश्यक होता है| धर्म ,प्रचार के आधार पर ही रह सकता है | पुजारिय के बिना धर्म लुप्त हो जाता है |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १०८ )
(आ) हिन्दू धर्म में पुजारी नही हो 
हिन्दू धर्म का विरोध करते हुए वे लिखते है –
(क) “अच्छा होगा,यदि हिन्दुओ में पुरोहिताई समाप्त की जाय |”(वही ,खंड१,पृष्ठ १०१)
इस तरह हम देखते है कि अम्बेडकर जी की बातों में विरोधाभास था ..जबकि वे दुसरो के विरोधाभास को देख उन्हें पागल तक कहने से नही चुके थे जबकि उन्होंने खुद के कथन नही देखे जिनमे विरोधाभास था इस तरह जो अम्बेडकर जी दुसरो को कहते वो उन पर भी लागू होता है | उनके कथनों में आपसी विरोधाभास होने से वे प्रमाण की कोटि में नही आते है |
यह अम्बेडकर जी के बारे में निम्न बातें स्पष्ट होती है –
अम्बेडकर जी दो प्रकार की मनस्थति में जीते थे – जब उन का मन समीक्षात्मक होता तब वे तर्क पूर्ण मत प्रकट करते थे जब प्रतिशोधात्मक मत प्रकट होता तब वे सारी सीमाय लांध कर कटुतम शब्दों का प्रयोग करने लगते थे |उनका व्यक्तित्व बहु सम्पन्न किन्तु दुविधा पूर्ण ,समीक्षक किन्तु पुर्वाग्रस्त, चिंतक किन्तु भावुक ,सुधारक किन्तु प्रतिशोधात्मक थे |
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तक –
मनु बनाम अम्बेडकर – डा. सुरेन्द्र कुमार 

5 thoughts on “डा अम्बेडकर के लेखन में परस्पर विरोध”

  1. सिरी मानजी..,
    आपने कम से कम पोस्ट बनाने से पहले तनिक इन सन्दर्भों की जांच पडताल की होती तो शायद आपको हमे समझाने की जरूरत न पड़ती .पर आप तो अंबेडकर पूर्वग्रह से लिप्त है आपने दिया हुआ क्र १३ का सन्दर्भ एकदम हास्यास्पद है हमे आपके बुद्धि की कदर आती है. मुझे बताये prist और monk को आप पुजारी कैसे कह सकते है ..? सही माने तो आपके अलग अलग पोस्ट की एकत्र कर के तुलना की जाय तो निश्चित रूप से अंबेडकरजी के संबंध में आप किसी भी एक मानसिकता को उजागर नही कर सकते है . आप बाबासाहब जी के बारे में दोगली मानसिकता के शिकार हुए है उसी प्रकार इति हास में गांधी ,नेहरू,पटेल,सावरकर, आर्य समाजिष्ट और भी ऐसे कई लोग है जो बाबासाहब जी के बारे में निश्चित राय नही बना पाये .
    आप अंबेडकरजी के द्वारा किसी भी मत के विरोधी नही है ,बस…आपको अंबेडकर वाद समझ में नही आ रहा है ..सच तो यह है आप समझना ही नही चाहते है .

  2. mai ek bat kehna chahungi kehna nhi chahti lekin kehna Pad raha hai manti hu ki ambedkar ji humare savidhan nirmata hai lekin unki bht si books or stories esi hai jo unhone rosh or avesh me aake likh dali hai jinka vastvikta se lena dena nhi hai

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