आर्यसमाज का वेद-सम्बन्धी उत्तरदायित्व: स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के सुपुत्र स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती आर्यसमाज के विद्वान् नेता एवं प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे। उनकी वैज्ञानिक योग्यता का एक उदाहरण यह है कि वे ‘वल्र्ड साइन्स कॉन्फ्रैन्स’ के अध्यक्ष रहे हैं। उनकी लेखनी बड़ी बेबाक, मौलिक एवं सुलझी हुई थी। उनके द्वारा दिये गये विचार हमारे लिये आत्मचिन्तन के प्रेरक हैं। उनकी प्रत्येक बात पर सहमति हो- ये अनिवार्य नहीं है, परन्तु उनके विचार आर्यसमाज की वर्तमान व भावी पीढ़ी को झकझोरने वाले हैं। -सम्पादक

१. आप सम्भवतया मेरे विचारों से सहमत न होंगे, यदि मैं कहँू कि ऋषि दयानन्द के सपनों का आर्यसमाज  उस दिन मर गया, जिस दिन किन्हीं कारणों से स्वामी श्रद्धानन्द महात्मा गाँधी और काँग्रेस को छोडक़र महामना मालवीय-वादी हिन्दू महासभा के सक्रिय अंग बन गए। श्रद्धानन्द जी का गाँधी और कांग्रेस से अलग होना इतना दोष न था, पर हिन्दू महासभा की विचारधारा का पोषक हो जाना आर्यसमाज की मृत्यु थी। अगर सत्यार्थप्रकाश के ११ वें समुल्लास को फिर से ऋषि आज लिखते तो वे आज के आर्यसमाज को भी हिन्दुओं का एक सम्प्रदाय मानकर इसकी गतिविधियों की उसी प्रकार आलोचना करते जिस प्रकार अन्य हिन्दू सम्प्रदायों की उन्होंने की है। इसमें से आज प्राय: सभी इस बात को स्वीकार करेंगे कि आर्य समाज आज हिन्दुओं के अनेक सम्प्रदायों में से एक सम्प्रदाय है, अर्थात् वह सम्प्रदाय जो वेद और यज्ञों के नारे पर जीवित  हो।

२. शायद हिन्दुओं के अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा आज का आर्यसमाज इन हिन्दुओं का वह सम्प्रदाय है, जो सबसे ज्यादा वेद की दुहाई देता है। यों तो तुलसीदासजी विष्णु के अवतार राम का चरित्र लिखने में पदे-पदे आगम-निगम की दुहाई देने में संकोच नहीं करते थे, पर आज का आर्यसमाज वैदिक संहिताओं की अन्य हिन्दू सम्प्रदायों की अपेक्षा सबसे अधिक दुहाई देता है।

३. स्वामी दयानन्द से पूर्व के भारतीय पण्डितों ने वेद की आज तक रक्षा की, और लेखन-मुद्रण-प्रकाशन की सुविधा न होते हुए भी उन्होंने वैदिक संहिताओं के पाठों को सुरक्षित रखा। वैदिक साहित्य की यह सुरक्षा भारतीयों का बहुत बड़ा चमत्कार माना जाता है।

४. मैं कई वर्ष हुए (संन्यास से पूर्व) लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम की सैर कर रहा था, म्यूजियम के पुस्तकालय कक्ष में मैंने बाइबिल पर एक अद्भुत व्याख्यान सुना- वक्ता महोदय हम श्रोताओं को म्यूजियम के विविध कक्षों में ले गये। उन्होंने हमें बाइबिल की वे सुरक्षित प्रतियाँ साक्षात् करायीं जो तीसरी-चौथी-पाँचवीं सदी से लेकर १८वीं-१९वीं सदी की हस्तलिखित या मुद्रित थीं।

तब से मेरी इच्छा रही है कि ऋग्वेद की भी वे हस्तलिखित प्रतियाँ देखूँ जो पुरानी हैं। आपको आश्चर्य होगा-भूमण्डल के साहित्यों में सबसे पुराना ऋग्वेद है, पर इसकी हस्तलिखित प्रति शायद १३वीं-१४वीं शती से पूर्व की भी नहीं है। वेदों की हस्तलिखित प्रतियों पर मैं कभी फिर लिखूँगा पर निस्सन्देह, यह साहित्य आज तक सुरक्षित है, जो अनुक्रमणियाँ हमें प्राप्त हैं, वे बहुत पुरानी नहीं है। जैसे यजुर्वेद का सर्वानुक्रम सूत्र, शौनक का अनुवाकानुक्रमणी (ऋग्वेद की) या ऋक्-सर्वानुक्रमणी। शतपथ ब्राह्मण (१०/४/२/२३) में यहाँ तक उल्लेख है कि वेदों के समस्त अक्षरों की संख्या १२००० बृहती छन्दों की अक्षर संख्या के बराबर है अर्थात् १२,०००&३६=४,३२,००० अक्षर। (सातवलेकरजी ने ऋग्वेद के अक्षरों की संख्या एक संस्करण में दी है। वह संख्या ३,९४,२२१ है।)

५. जैसा मैं कह चुका हँू, आज का आर्यसमाज हिन्दुओं का ही वेदानुरागी सम्प्रदाय है। हिन्दुओं के अन्य सम्प्रदाय धीरे-धीरे अब वेद को छोड़ते जा रहे हैं या वेद से दूर जा रहे हैं। मेरे ऊपर शताधिकवर्षीय उदासी स्वामी गंगेश्वरानन्दजी का स्नेह रहा है। उन्होंने चारों वेद संहिताओं को एक जिल्द में सुन्दर अक्षरों में छपाया है। यह पाठ की दृष्टि से निर्दोष माना जा सकता है। स्वामीजी भारत से बाहर भी द्वीपद्वीपान्तरों में इस ‘वेद भगवान्’ को ले गये हैं और वहाँ इसकी निष्ठापूर्वक प्रतिष्ठा की है। स्वामी जी को हिन्दुओं से एक ही शिकायत है। कोई हिन्दू अब वेद में रुचि नहीं लेता-जो व्यक्ति लेते प्रतीत होते हैं, वे प्रत्यक्ष या परोक्ष में आर्यसमाज के हैं। सायण के दृष्टिकोण से पृथक् यदि किसी का कोई अन्य दृष्टिकोण है, तो वह आर्यसमाज की विचारधारा से पोषित या प्रभावित है।

६. वेद जीवन का प्रेरणास्रोत है। ऋषि दयानन्द से पूर्व मध्यकालीन युग में (ऐतरेय, शतपथ आदि के काल में कात्यायन, याज्ञवल्क्य, महीधर, उव्वट आदि के काल में) वैदिक संहितायें केवल कर्मकाण्ड की प्रेरिका रह गयीं। उसका परिणाम वही हुआ, जो समस्त सम्प्रदायों में कर्मकाण्ड का हुआ करता है-विनाश और सर्वथा विनाश। कर्मकाण्डी व्यक्ति (नेता या पुरोहित) तो यही समझता रहता है कि धर्म की ‘प्रतिष्ठा’ उसके कर्मकाण्ड के कारण है, पर वस्तुत: कर्मकाण्ड के परोक्ष में जो विनाश का अंकुऱ है, वह पनपता आता है। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर हिन्दू सम्प्रदाय के अन्तिम वेदानुरागी व्यक्ति थे (आदरणीय स्वामी गंगेश्वरानन्दजी का राग केवल मंत्रभाग से है, न कि व्यक्तिगत या समाजगत नवनिर्माण से।)

७. १८ वीं शती के प्रारम्भ से यूरोपीय विद्वानों ने वेद में रुचि ली और वैदिक साहित्य पर उनकी तपस्या सराहनीय है। (क) उन्होंने भारतवर्ष से इस साहित्य की हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध कीं और इन प्रतियों को अपने पुस्तकालयों में कुशलता से सुरक्षित रखा। (ख) यूरोपीय (बाद को अमरीकी) विद्वानों ने वैदिक व्याकरण, प्रातिशाख्य, वैदिक छन्द, वैदिक स्वरों का अच्छा अध्ययन किया, (ग) छोटे-छोटे संकलनों पर भी ये वर्षों अध्ययनशील रहे, (घ) अध्ययन की एक नयी परम्परा को उन्होंने जन्म दिया, (ञ) अपने देश में इन सम्पादित ग्रन्थों को नागरी और रोमन लिपियों में अति शुद्ध छपवाने का भी प्रयत्न किया। उन्होंने (रॉथ-बण्टलिंक के ग्रन्थों के समान) बड़े-बड़े कोश तैयार किए, (च) अध्ययन की सुविधा के लिए अनेक प्रकार के तुलनात्मक विश्वकोश भी तैयार हुए।

८. धीरे-धीरे भारतवर्ष में भी पाश्चात्य परम्परा पर अध्ययन और अनुशीलन करने के कुछ केन्द्र खुल गए (शब्दानुक्रमणीय पर कार्य स्वामी नित्यानन्द और स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी ने प्रारम्भ किया)। इन केन्द्रों में सर विलियम जोन्स की एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता, उसकी बम्बई वाली शाखा, गायकवाड़ संस्थान बड़ौदा, भाण्डारकर इन्स्टीट्यूट-पूना और विश्वबन्धु जी वाला विख्यात इन्स्टीट्यूट होशियारपुर और संस्कृत कॉलेज काशी ने भी अच्छा काम किया।

९. यह मैं पीछे कह चुका हँू कि पुरानी परम्परा के हिन्दू विद्वान् वेद को छोड़ बैठे हैं और उनके हाथ से आर्यसमाज के विद्वानों ने वेद को एक प्रकार से छीन लिया है। अत: ऐसी स्थिति में आर्यसमाज की जनता का उत्तरदायित्व वेद के सम्बन्ध में बढ़ गया है। मैंने एक बार सान्ताक्रूज की आर्यसमाज में भी यह बात कही थी। यह उत्तरदायित्व निम्र दृष्टियों से महत्त्व का है-

१. मन्त्रों का उच्चारण

२. मन्त्रों का विनियोग

३. कर्मकाण्ड में मन्त्रों का प्रयोग

४. मन्त्रों के छोटे बड़े संकलन

५. मन्त्रों के भाष्य

पिछले वर्ष मैं नैरोबी गया था-मैंने वहाँ के आर्यसमाज में स्पष्ट कहा था-दिल्ली की हवा से नैरोबी आर्यसमाज को बचाओ। बम्बई की हवा से भी विदेशी आर्यसमाजों को हमें बचाना होगा।

इन देशों में किसी से भी पूछो-तुमने यह अशुद्ध उच्चारण कहाँ सीखा-वे यह उत्तर देते हैं-हम दिल्ली या बम्बई गये थे-हमने वहाँ ऐसा ही देखा या सुना था। ओं भूर्भव:, ओजो अस्तु-यह तो दिल्ली और बम्बई की हवा के साधारण उदाहरण हैं।

कई स्थानों पर जब मैं स्वस्तिवाचन और शान्ति प्रकरण के टेप सुनता हँू, उनको सुनकर यह स्पष्ट लगता है कि ये टेप मेरे ऐसे अज्ञ उपदेशकों या पंडितों के हैं, जिन्हें न ऋक् पाठ आता है न यजु: पाठ-साम के मन्त्रों का पाठ सामवेद का परिहास या उपहास है, जिसे आप किसी भी अवसर पर स्वस्तिवाचन (अग्र आ याहि वीतये) या शान्तिकरण (स न: पवस्व शं गवे) पाठ के अवसर पर सुन सकते हैं।

ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में स्पष्ट लिखा है कि ऋग्वेद के स्वरों का उच्चारण द्रुत अर्थात् शीघ्र वृत्ति में होता है। दूसरी-मध्यम वृत्ति, जैसे कि यजुर्वेद के स्वरों का उच्चारण ऋग्वेद के मन्त्रों से दूने काल में होता है। तीसरी विलम्बित वृत्ति है, जिसमें प्रथम वृत्ति से तिगुना काल लगता है, जैसा कि सामवेद के स्वरों के उच्चारण वा गान में, फिर इन्हीं तीनों वृत्तियों के मिलाने से अथर्ववेद का भी उच्चारण होता है, परन्तु इसका द्रुत वृत्ति में उच्चारण अधिक होता है।

मैंने दक्षिण भारत के पंडितों को ऋग्वेद का यथार्थ उच्चारण करते देखा है, किन्तु आर्यसमाज के लोगों के उच्चारणों पर आप विश्वास नहीं कर सकते। उच्चारण या तो गुरुमुख से सीखे जा सकते हैं, या परिवार की परम्परा से।

आर्यसमाज में नित्य नये विनियोग बनते जा रहे हैं। सबसे पुराना विनियोग शान्तिपाठ का है (द्यौ: शान्ति:), ‘त्र्यंबकं यजामहे’ की भी बीमारी चल पड़ी है। मरने के बाद संस्कारविधि के प्रतिकूल शान्ति-यज्ञ चल गए हैं, जिनमें शान्तिकरण के मन्त्र पढऩा अनिवार्य सा हो गया है। प्रत्येक अग्रिहोत्र का नाम यज्ञ पड़ गया है, जिसके बाद ‘यज्ञरूप प्रभो’ वाला भजन अवश्य गाना चाहिए। ऐसी नयी प्रथा चल पड़ी है। ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त (दशम मंडल, १९१ वाँ सूक्त) का नाम संगठन-सूक्त रख दिया गया है। ऋग्वेद के इस सूक्त के प्रथम मन्त्र का देवता अग्रि है। शेष तीन मन्त्रों का देवता ‘संज्ञानम्’ है। समाज के साप्ताहिक अधिवेशनों में संगठन सूक्त के नाम पर चारों मन्त्र पढ़े जाने लगे हैं। क्या हम संगठन सूक्त का नाम ‘संज्ञान-सूक्त’ नहीं रख सकते?

इस प्रसंग में संज्ञान-सूक्त में केवल तीन ही मन्त्र हैं-(१) संगच्छध्वं (२) समानो मन्त्र:. और (३) समानी व आकूति:. प्रथम मन्त्र संसमिद्युवसे. मन्त्र तो इस प्रसंग में पढऩा ही नहीं चाहिये।

आगे के वेदप्रेमी हमारा अनुकरण करेंगे, अत: हमें सावधानी बरतनी चाहिए।

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